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संतुलित त्रिदोष सुरक्षित रखते हैं प्रकृति और शरीर
मनुष्यों की तरह ही प्रकृति को भी स्वस्थ रहने के लिए संतुलित
त्रिदोषों की अर्थात प्रतिरोधक क्षमता की आवश्यकता होती है |प्रतिरोधक
क्षमता से हमारा आशय ऐसी ऊर्जा से है जो प्रकृति और जीवन को उस समय सुरक्षित बचाकर रख सके जब निरंतर ऊर्जा देते रहने वाले स्रोत कुछ
समय के लिए अचानक अवरुद्ध हो जाएँ | !अर्थात उनसे जीवनीय ऊर्जा न मिलने
लगे | ऐसे समय यह प्रतिरोधक क्षमता प्रकृति और शरीरों को सुरक्षित बचाकर रख
सके | इसके लिए त्रिदोषों का संतुलित होना आवश्यक होता है| जब तक ऐसा
होता रहता है, तब तक प्रकृति स्वस्थ रहती है | प्रकृति के स्वस्थ रहने पर प्राकृतिक
उपद्रवों से मुक्त प्राकृतिक वातावरण बना रहता है|ऐसा अवसर जब तक रहता है तबतक भूकंप आँधी तूफान अतिवर्षा चक्रवात बज्रपात उल्कापात आदि प्राकृतिक आपदाओं की संभावना बहुत कम रहती है |
प्राकृतिकवातावरण में त्रिदोषों के असंतुलित होने की प्रक्रिया प्रारंभ होते ही भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात जैसी
घटनाएँ विश्व के अधिकाँश देशों प्रदेशों में घटित होते देखी जाती हैं |प्राणियों की प्रतिरोधक
क्षमता घटने लगती है |जो हमेंशा नहीं देखी जाती हैं |यह प्रक्रिया महामारी आने के कुछ वर्ष पहले
ही प्रारंभ हो जाती है |प्राकृतिक असंतुलन प्रारंभ होते ही इसीक्रम में धीरे धीरे शरीर रोगी होते चले जाते
हैं | कुछ लोगों के साथ ऐसा होने पर क्रमिक रूप से महामारी जैसी घटनाएँ घटित होते देखी जाती हैं|
प्राकृतिक वातावरण में त्रिदोषों
के असंतुलित होने की प्रक्रिया तुरंत नहीं हो जाती है,प्रत्युत ऐसा होने
में कुछ वर्ष या महीने लग जाते हैं |
कुलमिलाकर त्रिदोषों की
साम्यावस्था जब तक शरीरों में बनी रहती है तब तक शरीर स्वस्थ एवं मन
प्रसन्न बना रहता है |वात पित्त और कफ की साम्यावस्था का नाम ही आरोग्य है! इन तीनों को साम्यावस्था में बनाए रखना ही चिकित्सा शास्त्र का उद्देश्य है |
सामान्यरूप से
चिकित्सा का मतलब हमारे शरीरों में असंतुलित हुए वात पित्त कफ आदि को
संतुलन में लाना ही होता है | त्रिदोषों को जिस किसी भी प्रकार से संतुलित किया
जा सके वह सब चिकित्सा है|शरीरों
में वात पित्त कफ के असंतुलित हो जाने से यदि शरीर रोगी हो सकते हैं,तो इनके संतुलित हो जाने से शरीर स्वस्थ क्यों नहीं हो सकते हैं |
महामारी रहस्य और वातादि दोष !
किसी विशेषप्रकार के रोग से पीड़ित होकर बड़ी संख्या में लोग जब संक्रमित होने एवं मृत्यु को प्राप्त होने लगते हैं तब ये पता लग पाता कि महामारी आ गई है |इसके अलावा महामारी को समझने के लिए कोई मजबूत विकल्प नहीं है | इसमें विशेष बात ये है कि जब आती है तब लोग संक्रमित होते हैं और लोगों की मृत्यु भी होती है,लेकिन यह केवल महामारी के समय ही नहीं होता है प्रत्युत ये दोनों घटनाएँ तो हमेंशा घटित होती रहती हैं | लोग रोगी हमेंशा होते हैं और मौतें भी हमेंशा होते देखी जाती हैं | इसलिए ऐसी घटनाओं को केवल महामारी से ही जोड़कर देखा जाना उचित नहीं होगा कि ऐसी घटनाएँ केवल महामारी के समय ही घटित होती हैं या हो सकती हैं | इसका मतलब ऐसी घटनाएँ कभी भी घटित हो सकती हैं |कब घटित होने की संभावना अधिक होती है |इसका बिचार किया जाना आवश्यक है |
प्राकृतिक रूप से जब वात पित्त आदि असंतुलित
होते हैं तब प्राकृतिक रोग होते हैं| ये असंतुलन आदि जब अधिक बढ़ जाता है तब महारोग अर्थात महामारी पैदा होती है,किंतु महामारी का पैदा होना एवं महामारी से पीड़ित होना दोनों अलग अलग घटनाएँ हैं |
जिस प्रकार से वर्षा होना प्राकृतिक घटना है|