नई किताब
महामारी रहस्य और वातादि दोष !
किसी विशेषप्रकार के रोग से पीड़ित होकर बड़ी संख्या में लोग जब संक्रमित होने एवं मृत्यु को प्राप्त होने लगते हैं तब ये पता लग पाता कि महामारी आ गई है |इसके अलावा महामारी को समझने के लिए कोई मजबूत विकल्प नहीं है | इसमें विशेष बात ये है कि जब आती है तब लोग संक्रमित होते हैं और लोगों की मृत्यु भी होती है,लेकिन यह केवल महामारी के समय ही नहीं होता है प्रत्युत ये दोनों घटनाएँ तो हमेंशा घटित होती रहती हैं | लोग रोगी हमेंशा होते हैं और मौतें भी हमेंशा होते देखी जाती हैं | इसलिए ऐसी घटनाओं को केवल महामारी से ही जोड़कर देखा जाना उचित नहीं होगा कि ऐसी घटनाएँ केवल महामारी के समय ही घटित होती हैं या हो सकती हैं | इसका मतलब ऐसी घटनाएँ कभी भी घटित हो सकती हैं |कब घटित होने की संभावना अधिक होती है |इसका बिचार किया जाना आवश्यक है |
प्राकृतिक रूप से जब वात पित्त आदि असंतुलित
होते हैं तब प्राकृतिक रोग होते हैं| ये असंतुलन आदि जब अधिक बढ़ जाता है तब महारोग अर्थात महामारी पैदा होती है,किंतु महामारी का पैदा होना एवं महामारी से पीड़ित होना दोनों अलग अलग घटनाएँ हैं |
जिस प्रकार से वर्षा होना प्राकृतिक घटना है|उसमें किसी का भीगना या न भीगना ये
प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अपनी व्यक्तिगत परिस्थिति जनित घटना है| भीगने से बचने के लिए
जिनके पास तैयारी होगी वे बच जाएँगे | जिनके पास नहीं होगी वे भीग जाएँगे |
इसी प्रकार से महामारी के आने और जाने का कारण प्राकृतिक है|उसकी लहरों का आना जाना भी प्राकृतिक कारणों से ही घटित होता है | इसमें विशेष बात यह है कि उस महामारी में संक्रमित होना या न होना !इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति के अपने अपने व्यक्तिगत कारण जिम्मेदार होते हैं| उन कारणों को समझे बिना इस रहस्य को समझ पाना संभव नहीं है |
वात पित्तादि जब प्राकृतिक रूप से अधिक असंतुलित होते हैं तब महामारी पैदा होती है | इसमें विशेष बात ये है कि जैसे वर्षा सभी के लिए बरसती है वैसे ही प्रत्येक प्राकृतिक घटना सभी के लिए समानरूप से घटित होती है |आँधी तूफ़ान भूकंप आदि घटनाओं से सभी समान रूप प्रभावित होते हैं|जिन पेड़ों की जड़ें कमजोर होती हैं वे आँधी तूफानों में उखड़ जाते हैं |जो भवन कमजोर होते हैं | वे भूकंपों में गिर जाते हैं | ऐसे ही जिन
शरीरों में वात पित्तादि असंतुलित होते हैं| उनकी प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होती है और कमजोर प्रतिरोधक क्षमता वाले लोग महामारी के बिना भी बड़ी आसानी से रोगी हो जाते हैं | महामारी जैसे समय में तो ऐसे लोगों के संक्रमित होने की संभावना अधिक रहती ही है|
प्राकृतिक वातावरण में वात पित्त कफ आदि त्रिदोषों का असंतुलन प्राकृतिक कारणों से होता है| मनुष्यजीवन में इसप्रकार का असंतुलन प्राकृतिक और मनुष्यकृत दोनों कारणों से होता है|प्रकृति में होने वाले ऐसे आकस्मिक परिवर्तनों एवं लोगों के रहन सहन आहार बिहार संबंधी प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण उनमें कभी कभी वात पित्त आदि त्रिदोष असंतुलित हो जाते हैं|इससे कुछ लोग अस्वस्थ होते हैं |
प्राकृतिकरूप से वात
पित्त आदि त्रिदोष जब असंतुलित होते हैं | उस समय बड़े बड़े रोगों के पैदा
होने का समय होता है | उसी समय जिनके अपने भी वात पित्तादि असंतुलित होने
लगते हैं |उनके रोगी होने की अधिक संभावना रहती है | वात पित्तादि दोष जिनके जितने अधिक असंतुलित होते हैं | वे उतने अधिक रोगी होते हैं |
विशेष बात यह है कि इन त्रिदोषों में से किसी एक दोष से पीड़ित रोगी की
चिकित्सा करना आसान होता है | किसी को कफ दोष अर्थात सर्दी से कोई रोग हुआ
हो तो चिकित्सा की जानी इसलिए आसान होती है, क्योंकि उसे ठंडे खान पान रहन
सहन आदि से बचाते हुए गर्मप्रवृत्ति के खान पान रहन सहन औषधियों आदि से रोगमुक्ति मुक्ति मिल जाती है |
इसीप्रकार से किन्हीं
दो दोषों के प्रभाव से जो रोग पैदा होते हैं|उनमें रोग का स्वभाव पता किया
जाना कठिन होता है| इसलिए ऐसे रोगियों की चिकित्सा की जानी कठिन होती है|ऐसे ही तीनों दोषों के असंतुलन से पैदा हुए रोग और अधिक भयंकर हो
जाते हैं |जिनको समझना एवं उनकी चिकित्सा किया जाना अत्यंत कठिन या असंभव
सा होता है | त्रिदोषों के असंतुलित होने पर लोग रोगी होते ही हैं | इन्हीं कारणों से महामारी के बिना भी कुछ लोग रोगी होते या मृत्यु को प्राप्त होते देखे जाते हैं |
महामारी
काल में भी जिनके वात पित्तादि उचित अनुपात में होते हैं |उनका संक्रमित
होने से बचाव हो जाता है | यदि संक्रमित हुए भी तो उन दूसरों की अपेक्षा
आसानी से स्वस्थ हो जाते हैं |
कुलमिलाकर जिन शरीरों में जब भी त्रिदोष असंतुलित होंने लगेंगे |उस समय उन लोगों के शरीरों में रोग पैदा होंगे ही | वो महामारी काल हो या न हो | इतना अवश्य है कि प्राकृतिक वातावरण में वात पित्तादि त्रिदोषों का संतुलन भी यदि उसी समय बिगड़ने लग जाए तो ऐसे लोगों को अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता होती है| ऐसे लोगों को महामारी आदि प्राकृतिक आपदाओं के समय रोगी होने का भय अधिक होता है |
महामारी के समय भी जो लोग रहन सहन खानपान योग व्यायाम पूर्वक अपने शरीरों में स्थित वात पित्तादि त्रिदोषों को संतुलित बनाए रखते हैं | वे संक्रमितों के साथ रहकर भी प्रायः स्वस्थ बने रहते हैं | कोरोना महामारी के समय भी ऐसे लोगों को सुरक्षित रहते देखा गया था |
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पंचतत्व तथा वातादि दोष एवं स्वास्थ्य !
जिसप्रकार से सब्जी बनाने के लिए कड़ाही तेल मशाले नमक मिर्च आदि उचित मात्रा में डाले जाएँ तभी वह स्वादिष्ट एवं स्वास्थ्य के लिए हितकर बनती है |उसी सब्जी में वही तेल मशाले आदि यदि बहुत अधिक या बहुत कम डाल दिए जाएँ तो उस सब्जी के स्वाद और गुण दोनों बिगड़ जाते हैं |ऐसे ही औषधि निर्माण प्रक्रिया में घटक द्रव्यों को उचित अनुपात में डालकर बनाई गई औषधियाँ ही रोगों से मुक्ति दिलाने में सक्षम होती हैं| उनमें से कुछ द्रव्यों को यदि निर्धारित मात्रा से कम या अधिक डाल दिया जाए तो उसऔषधि के प्रभाव में अंतर आ जाता है| इस असंतुलन की मात्रा में यदि बहुत अधिक अंतर आ जाए तो वह औषधि स्वास्थ्य के लिए अहितकर भी हो सकती है |
इसीप्रकार से प्रकृति एवं जीवन को वात पित्त और कफ के उचित प्रभाव की आवश्यकता होती है | ये त्रिदोष जबतक संतुलित रहते हैं ,तब तक प्राकृतिक वातावरण और जीवन स्वस्थ रहता है | ऐसे स्वस्थ वातावरण में पले बढ़े शाक सब्जी फल फूल आदि खाने से शरीर स्वस्थ एवं बलिष्ट रहते हैं | स्वस्थ वातावरण में पली बढ़ी बनस्पतियों से निर्मित औषधियाँ बड़े बड़े रोगों से मुक्ति दिलाने में समर्थ होती हैं | ऐसा अवसर जब तक रहता है तबतक प्राकृतिक आपदाओं की संभावना बहुत कम रहती है | प्रकृति अनुकूल व्यवहार करते देखी जाती है |इनके संतुलित रहने पर प्राकृतिक वातावरण में साँस लेने से मनुष्य आदि सभी प्राणी स्वस्थ एवं प्रसन्न रहते हैं |
इनमें से किसी एक का भी प्रभाव यदि अपनी निर्धारित मात्रा से बढ़ता या घटता है तो उससे प्रकृत्ति और जीवन दोनों में बिकार आने लगते हैं | यदि इनमें से दो दोष असंतुलित होते हैं तो प्रकृति आक्रामक होने लगती है और प्राणियों के स्वास्थ बिगड़ने लगते हैं | यदि ये तीनों दोष विकृत एवं असंतुलित होने लगते हैं तो हिंसक प्राकृतिक आपदाएँ एवं महामारी जैसे बड़े रोगों की संभावना बनने लगती है |
महामारी के पैदा होने का कारण था त्रिदोषों का असंतुलन !
महामारी की उत्पत्ति को लेकर तरह तरह की आशंकाओं से जिज्ञासुजन जूझ रहे हैं | विशेषज्ञ लोग किसी देश विशेष की प्रयोगशाला से निकले बिषाणुओं को महामारी पैदा होने के लिए जिम्मेदार मानने की भावना से भावित हैं| उनके लिए हमारा निवेदन है कि केवल महामारी ही नहीं आई है कि उसके लिए किसी भी काल्पनिक प्रतीक को जिम्मेदार मानकर चुप बैठ जाएँ |
महामारी आने के साथ साथ मौसम संबंधी कुछ ऐसी घटनाएँ घटित होती रही हैं | जो हमेंशा नहीं देखी जाती हैं | कोरोना काल में बार बार भूकंप आते रहे हैं | मनुष्यों से लेकर सभी प्रकार के जीव जंतु उन्मादित होने के कारण अनियंत्रित व्यवहार कर रहे थे | कुछ देश आंदोलनों से जूझ रहे थे | कुछ देशों में दंगे फैले हुए थे | कुछ देश आपस में एक दूसरे से युद्ध करते देखे जा रहे थे | ऐसी अनेकों प्राकृतिक घटनाएँ जो महामारी काल में घटित हो रही थीं | वे महामारी से संबंधित रही हैं | इतनी बड़ी बड़ी प्राकृतिक घटनाओं के घटित होने का कारण कोई समुदाय या देश कैसे हो सकता है |इतना बड़ा ऋतुविप्लव किसी देश की देन नहीं हो सकता | हमारे अनुसंधान के अनुसार ऐसा नहीं है | यदि इसमें आंशिक सच्चाई हो भी तो केवल इतना माना जा सकता है कि उसने केवल माचिस की तीली जलाकर डालने जितना काम ही किया होगा| उस तीली को जलाकर फेंकने मात्र से आग नहीं लग जाती है |इसके लिए तीली जलाकर जहाँ फेंकी गई हो वहाँ ज्वलनशील ईंधन की आवश्यकता होती है | ऐसी स्थिति में किसी देश विशेष की प्रयोगशाला से यदि कोरोना निकला भी हो तो भी उसे संक्रमित होने लायक प्रतिरोधक क्षमता विहीन लोग कैसे मिल गए | इसका मतलब कोरोना प्रकृति में पहले से ही विद्यमान था |
जिस प्रकार से जलाकर फेंकी गई माचिस की तीली ईंधन न मिले तो स्वतः बुझ जाती है| उसी प्रकार से किसी देश विशेष के द्वारा यदि ऐसा कुछ किया भी गया होता तो संक्रमित होने लायक लोगों के शरीर न मिले होते तो लोग संक्रमित नहीं होते | बहुत लोग संक्रमित होने से बच गए उन पर उस देश के प्रयत्न का या बिषाणु का प्रभाव नहीं पड़ा | उनके शरीरों में ऐसा कुछ विशेष अवश्य था जिसके कारण वे महामारी से सुरक्षित रह सके | इसका अर्थ यह है कि वह विशेष उन शरीरों में नहीं था जो संक्रमित हुए | यदि उस विशेष को प्रतिरोधक क्षमता ही ही लिया जाए | जिसकी कमी के कारण लोग संक्रमित हुए तो उनकी प्रतिरोधक क्षमता कम करने में उस देश विशेष की भूमिका तो नहीं थी | इतनी बड़ी संख्या में लोगों की प्रतिरोधक क्षमता एक साथ ही क्यों कम हुई | इसमें उस देशविशेष का योगदान तो नहीं था |
वैसे भी कोई शत्रुदेश जब हमला करता है तो सुरक्षित अपनी तैयारियों के बलपर रहना होता है | शत्रु की कृपा पर नहीं |शत्रु तो हमला करेगा ही वो एक से एक घातक वार भी करेगा | उससे बचाव के लिए पहले से तैयारियाँ करके रखनी होती हैं | महामारी से बचाव के लिए शरीरों को प्रतिरोधकक्षमता संपन्न बनाकर हमेंशा रखना होता है | ऐसा करने में यदि हम सफल हुए होते तो जैसे बहुत सारे लोग महामारी में संक्रमित होने से बच गए वैसे वे लोग भी भी संक्रमित होने से बच गए होते जो संक्रमित हुए |
वर्तमान समय में देखा जाता है कि चिकित्सालयों में प्रतिदिन बड़ी बड़ी भीड़ें लगी रहती हैं | वहाँ प्रायः सभी रोगियों की अनेकों प्रकार की जाँचें हुआ करती हैं | बहुत लोग रोगी हुए बिना भी अपनी एवं अपने पारिवारिक सदस्यों की स्वास्थ्य संबंधी जाँचे करवाते ही रहते हैं | इन जाँचों की प्रक्रिया में ऐसा कुछ अवश्य सम्मिलित किया जाना चाहिए जिससे आगे से आगे यह पता लगता रहे कि इतनी बड़ी संख्या में लोग प्रतिरोधक क्षमता खोते जा रहे हैं | इससे कम से कम इतना पता तो लग ही सकता है कि समाज के बहुत लोगों में प्रतिरोधक क्षमता अचानक कम होती जा रही है | इससे ऐसे लोगों के रोगी होने की संभावना बढ़ती जा रही है |
लोगों के रोगी होने का कारण यदि प्रतिरोधक क्षमता की कमी ही है | यदि यह पहले से पता लग जाता तो लोगों की सुरक्षा के लिए आगे से आगे उस प्रकार के मजबूत प्रयत्न तो किए ही जा सकते थे | महामारी प्रारंभ होने पर लाखों लोगों के संक्रमित हो जाने के बाद यह पता लगना कि लोगों के संक्रमित होने का कारण प्रतिरोधक क्षमता की कमी है | ये न तो तर्क संगत है और न ही विश्वसनीय है | यह उपयोगी भी इसलिए नहीं है क्योंकि तब तक जो होना था वो तो हो ही चुका होता है | उसके बाद ऐसी बातों का औचित्य ही क्या रह जाता है | इससे एक संशय और भी पड़ा होता है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि प्रतिरोधक क्षमता की कमी से रोगी हो रहे लोगों को ही महामारी के कारण रोगी हुए हैं ऐसा माना जा रहा है ,क्योंकि प्रतिरोधक क्षमता जिनकी कमजोर हो चुकी होती है वे तो बिना महामारी के भी रोगी या अस्वस्थप्राय रहा ही करते हैं | ऐसे लोगों के रोगी होने का कारण तो कुछ भी हो सकता है | वे पौष्टिक भोजन करते हैं तो वह भी न पचने के कारण वे रोगी होते देखे जाते हैं |
इसलिए महामारी पड़ा होने के लिए ऐसे कारणों को जिम्मेदार मानना मुझे तर्कसंगत नहीं लगता है | मैं पिछले 35 वर्षों से समय विज्ञान के आधार पर अनुसंधान करता आ रहा हूँ | उन अनुभवों के आधार पर मुझे सन 2013 के बाद से ही वात आदि असंतुलित होने लगे थे | इससे रोगों के पैदा होने की भूमिका बनने लगी थी |
गर्भिणी स्त्रियों के शरीरों में मुखमण्डल पर कुछ ऐसे चिन्ह झलकने लगते हैं जो हमेंशा नहीं देखे जाते हैं | उनके आहार बिहार रहन सहन स्वभाव स्वास्थ्य आदि में उस प्रकार के बदलाव होने लगते हैं | जिन्हें देखकर अनुभवी माताएँ न केवल गर्भ होने का अनुमान लगा लिया करती हैं बच्चे का स्वभाव रंग आदि कैसा हो सकता है | वात पित्त कफ आदि के आधार पर यह अनुमान लगा लिया जाता है | इसके साथ ही साथ गर्भिणी के उन विशेष लक्षणों को देखकर ही उन्हें इस बात का भी अनुमान हो जाता है कि यह गर्भ लगभग कितने महीने का होगा, और इसका प्रसव लगभग कब हो सकता है |
इसीप्रकार से प्रकृति में कभी कुछ विशेष प्रकार की ऐसी प्राकृतिक घटनाएँ घटित होने लगती हैं | जो हमेंशा घटित होते नहीं दिखाई पड़ती हैं | ये जलवायुपरिवर्तन न होकर प्रत्युत किसी प्राकृतिक घटना का गर्भप्रवेश हो रहा होता है | इसी प्रकार से उस घटना के गर्भवास के चिन्ह विभिन्न घटनाओं के रूप में दिखाई देते हैं | इसके बाद प्रसव होने पर वो घटना सभी को दिखाई पड़ती है | कोई भी प्राकृतिक घटना जब गर्भ में पल रही होती है |उससमय उसके लक्षण प्रकट होने लगते हैं | उन्हें उसी समय पहचानकर उनके आधार पर उस घटना के विषय में पूर्वानुमान लगा लेना ही उस घटना के विषय में किया गया वैज्ञानिक अनुसंधान है |
कुछ ऐसे चिन्ह आहारबिहार रहन सहन में विभिन्न प्रकार के ऋतु बिपरीत घटित होते देखे जा रहे प्राकृतिक लक्षणों के आधार पर ऐसा लगने लगा था कि प्रकृति के गर्भ में किसी रोग के निर्मित होने की तैयारी प्रारंभ हो गई है | समय बीतने के साथ साथ मेरी यह धारणा बलवती होती चली गई | सन 2017 \18 तक ऐसे सभी लक्षण प्रत्यक्ष हो लगे थे | जिससे मेरा निश्चय और मजबूत होता जा रहा था | सन 2018 में मैंने कई प्रभावी लोगों को इस आशंका से अवगत भी करवाया था |महामारी की सभी लहरों के विषय में मैंने आगे से आगे पूर्वानुमान लगाकर देश के प्रभावी लोगों एवं सरकारों तक पहुँचाए हैं | जो सही निकलती रही हैं | वे सूचनाएँ मेलों में अभी भी सुरक्षित हैं |
विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक घटनाएँ घटित होना भी इसके प्रत्यक्ष साक्ष्य हैं | जिन्हें मनुष्यों के द्वारा घटित किया जाना संभव नहीं है | इसलिए मैं विश्वास पूर्वक कह सकता हूँ कि महामारी प्राकृतिक रूप से ही पैदा हुई थी |
महामारी को समझे बिना कैसी चिकित्सा !
महामारी प्राकृतिक महारोग है| प्राकृतिक रोग हो या महारोग ये अपने समय से प्रारंभ होते हैं और समय से ही समाप्त होते हैं | कोई रोग प्राकृतिक है या मनुष्यकृत इसकी सबसे बड़ी पहचान यह है कि कोई प्राकृतिक रोग जब प्रारंभ होता है, तब बहुत सारे लोगों को रोगी करता है |उन रोगियों के रोग लक्षण प्रायः एक जैसे होते हैं|दूसरी बात उस समय केवल रोग होते हैं प्रत्युत उस प्रकार की प्राकृतिक घटना भी घटित होती हैं,क्योंकि प्रकृति में कोई परिवर्तन अकेला नहीं होता है | उसके चिन्ह प्रकृति के प्रत्येक अंग में प्रकट होते हैं |
मनुष्यकृत रोगों में सभी रोगियों की परिस्थितियाँ अलग अलग होती हैं | रोग लक्षण भी अलग अलग होते हैं | वे शरीरों तक ही सीमित रहते हैं | उनके चिन्ह प्रकृति के अन्य अंगों में प्रकट नहीं होते हैं |
महामारी के अतिरिक्त समय में भी कुछ लोगों का आहार बिहार रहन सहन आदि बिगड़ जाने से उनके अपने त्रिदोष असंतुलित हो जाते हैं | इसलिए वे रोगी हो जाते हैं |ऐसे समय बहुत लोग रोगी नहीं होते हैं | जो रोगी हो भी जाते हैं |चिकित्सकीय प्रयासों से औषधियों के सेवन से आहार बिहार आदि में सुधार कर लेने से वे स्वस्थ हो जाते हैं | कुल मिलाकर आहार बिहार रहन सहन आदि बिगड़ जाने से जो रोगी होते हैं |उनके रोगकारण उनके अपने शरीरों में विद्यमान होते हैं |उसमें सुधार कर लेने से स्वास्थ्य सुधार हो जाता है |
प्राकृतिक रोगों या महारोगों का कारण शरीरों से बाहर अर्थात प्राकृतिक वातावरण में विद्यमान होते हैं | ऐसे वातावरण में साँस लेने से तथा उसी बिषैले वातावरण में पैदा हुए अनाजों दालों शाक सब्जियों फूलों फलों आदि को खाने से शरीर रोगी हो जाते हैं | साँस उसी वातावरण में लेना होगा और कुछ न कुछ तो खाना ही पड़ेगा | वो उस बिकारित वातावरण में पैदा हुआ ही होगा |
ऐसी परिस्थिति में दवाओं से विशेष लाभ होने की संभावना नहीं होती है | इसमें एक और विशेष बात यह है कि ऐसे रोगों से मुक्ति दिलाने वाली औषधियाँ जिन घटक द्रव्यों से बनस्पतियों से बनाई जाती हैं | वे भी इसी बिकारित वातावरण से प्रभावित होते हैं | इसलिए उन औषधियों का ऐसे रोगियों पर प्रभाव नहीं पड़ता है | ऐसी स्थिति में संक्रमितों के स्वस्थ होने में मनुष्यकृत प्रयत्नों की भूमिका बहुत कम होती है | ऐसे रोगियों को प्राकृतिक सुधारों के साथ ही स्वास्थ्य लाभ हो पाता है |
प्राकृतिक सुधार होते समय लोग तो स्वस्थ होने लगते हैं किंतु स्वस्थ होने का कारण पता नहीं लग पाता है | दूसरी बात स्वस्थ होने के लिए रोगी कोई न कोई प्रयत्न तो कर ही रहे होते हैं |विशेष बात ये है कि सभी रोगियों के द्वारा किए जा रहे प्रयत्न एक जैसे नहीं होते हैं | कोई अलग जड़ीबूटियों से निर्मित काढ़ा पी रहा होता है | कोई चूर्ण छाल आदि का सेवन कर रहा होता है | कोई किसी चिकित्सालय से चिकित्सा का लाभ ले रहा होता है | चिकित्सा करते समय भिन्न भिन्न चिकित्सालयों के चिकित्सक भिन्न भिन्न पद्धतियों औषधियों से प्रक्रियाओं का अनुपालन करते देखे जाते हैं | कोई पूजा पाठ दान धर्म एवं अलग अलग मंत्र जप कर रहे होते हैं | भिन्न भिन्न देवी देवताओं की मनौतियाँ माँग रहे होते हैं | स्वस्थ होने के लिए अपनाई जा रही उन सभी प्रकार की प्रक्रियाओं में एक रूपता नहीं होती है | उन में पर्याप्त अंतर होता है | यहाँ तक कि कई बार ऐसे उपाय एक दूसरे के विरोधी होते हैं फिर भी परिणाम एक जैसे एक ही समय पर निकल रहे होते हैं | स्वस्थ होते समय सभी लोग साथ साथ ही स्वस्थ होते जा रहे होते हैं |
कोरोना काल में देखा गया कि ऐसे तमाम उपायों को करने या न करने वाले स्वदेश से लेकर विदेशों तक के लोग किसी भी लहर के समाप्त होते समय साथ साथ स्वस्थ हो रहे होते थे | ऐसे समय स्वस्थ होने के लिए जो लोग कोई न कोई उपाय करते रहे होते हैं | वे अपने अपने स्वस्थ होने का श्रेय अपने अपने द्वारा किए जा रहे उपायों को दे रहे होते हैं | इसकी सच्चाई तब पता लग पाती है जब उसी प्रकार की कोई दूसरी लहर आती है | उस समय लोग अपने द्वारा पहले किए गए उन्हीं उपायों को दोहराते हैं तब उन्हें उनसे कोई लाभ नहीं मिलता है | उस समय उन्हें इस बात पर भरोसा होता है कि पहले भी उनके स्वस्थ होने का कारण उनके द्वारा किए गए वे उपाय नहीं थे | ये भ्रम का सामना समस्तचिकित्सा जगत को भी करना पड़ता है |प्लाज्मा थैरेपी को पहले संक्रमण से मुक्ति दिलाने में सक्षम माना गया था ,दूसरी लहर में उससे लाभ नहीं होता देखकर उससे किनारा कर लिया गया | कुल मिलाकर प्राकृतिक रोग या महारोगों की लहरें तभी शुरू होते हैं जब प्राकृतिक वातावरण बिगड़ता है और जब प्राकृतिक वातावरण सुधरता है तभी शांत होते हैं |
महामारी के अतिरिक्त समय में रोगी होने पर
विशेष बात ये होती है कि उस समय प्राकृतिक वातावरण स्वस्थ मिल जाता है|
इसलिए उस समय रोगों से मुक्ति मिलनी कुछ आसान हो जाती है | स्वास्थ्य सुधार
की दृष्टि से उसका भी लाभ मिल जाता है | महामारी के समय संपूर्ण प्राकृतिक
वातावरण ही बिकारित हो जाने के कारण स्वास्थ्य सुधार की दृष्टि से समय और
प्रकृति का सहयोग नहीं मिल पाता है |इसलिए उस समय रोगों से मुक्ति मिलनी
आसान नहीं होती है ,जबकि महामारी के अतिरिक्त समय में होने वाले रोगों में
समय और प्रकृति का सहयोग मिलने के कारण रोगों से मुक्ति मिल जाती है |
वातपित्तादि के बाद __________________________
महामारी मंथन !
महामारी काल में लोगों के रोगी होने या मृत्यु होने का कारण महामारी रही है या वातपित्त कफ आदि दोषों का असंतुलन रहा है | विशेष बात यह है कि महामारी काल में लोगों के रोगी होने या उनमें से कुछ लोगों की मृत्यु होने के लिए यदि महामारी को जिम्मेदार माना जाए तो महामारी जब नहीं होती है | ये दोनों घटनाएँ तो तब भी घटित होते देखी जाती हैं | लोगों के रोगी होने एवं मृत्यु होने की घटनाएँ तो तब भी घटित होती रहती हैं | जो घटनाएँ महामारी होने या न होने पर दोनों ही अवस्थाओं में घटित होती रहती हों | उन्हें महामारी से जोड़कर देखा जाना उचित नहीं है | उसी कोरोना काल में ऐसे लोगों की भी मौते हुई हैं | जो कभी संक्रमित ही नहीं हुए |
कोरोना के बीत जाने के बाद भी हँसते खेलते नाचते गाते उठते बैठते सोते जागते बहुत लोगों की मृत्यु होते देखी जा रही थी | उनमें बहुत लोग कभी संक्रमित हुए ही नहीं थे | उस समय महामारी भी नहीं थी | ऐसे लोगों की मौतों के लिए महामारी को किस आधार पर दोषी मान लिया जाएगा |
ऐसी परिस्थिति में लोग महामारी के कारण संक्रमित हो रहे थे या मृत्यु को प्राप्त हो रहे थे | यह बात मन में बैठा लेने की अपेक्षा इसप्रकार से भी बिचार किया जाना चाहिए | लोगों के संक्रमित होने का कारण वात पित्त आदि त्रिदोषों का असंतुलित होना था|जिस समय त्रिदोषों का यह असंतुलन बहुसंख्य लोगों में बहुत अधिक मात्रा में था |उस समय बहुत अधिक लोग रोगी हुए एवं मृत्यु को प्राप्त हुए हैं | ऐसे समय को महामारी काल के रूप में जाना जाता है|महामारी बीत जाने के बाद भी इन्हीं त्रिदोषों के असंतुलन के कारण रोगी हुए बिना भी बहुत लोगों की मृत्यु होते देखी जा रही है |रोगी होने या मृत्यु को प्राप्त होने की ऐसी घटनाएँ हमेंशा घटित होते देखी जाती हैं | ऐसी घटनाओं का चिंतन करने से लगता है कि लोगों के रोगी होने या मृत्यु होने का कारण वात पित्तादि त्रिदोषों का असंतुलन रहा है |ऐसे में प्रश्न उठता है कि यदि ऐसा था तब तो सभी लोगों को महामारी से प्रभावित होना चाहिए !क्योंकि त्रिदोषों के असंतुलन का प्रभाव तो सभी लोगों पर एक समान ही पड़ता है,उस प्रभाव से समान रूप से प्रभावित होने के बाद भी कुछ लोगों का अस्वस्थ हो जाना और कुछ लोगों का स्वस्थ बने रहना कैसे संभव हुआ ! इसमें विशेष बात यह रही कि प्राकृतिक रूप से वातादि दोषों का असंतुलन होने के बाद भी जिनके अपने वातादि दोष संतुलित बने रहे वे महामारीकाल में भी स्वस्थ बने रहे और जिनके शरीरों में अपने वातादि दोष असंतुलित होते हैं वे वैसे भी रोगी होते ही हैं | महामारी काल में प्रकृति भी उनके बिपरीत हो गई इसलिए वे अधिक रोगी हुए हैं |
ऐसी परिस्थिति में विशेष बात यह है कि लोगों के रोगी होने या मृत्यु को प्राप्त होने के लिए वात पित्त आदि त्रिदोषों के असंतुलन को ही यदि जिम्मेदार मान लिया जाएगा तो महामारीकाल में ही आंदोलनों युद्धों मनुष्यकृत दुर्घटनाओं,आतंकीहमलों एवं आपसी संघर्षों से प्रभावित होने के कारण बहुत लोग मृत्यु को प्राप्त हुए हैं |महामारी और उसके बाद के समय में हत्याओं आत्महत्याओं की घटनाओं में भी विशेष बढ़ोत्तरी होते देखी गई थी | महामारीकाल में महामारी के अलावा कुछ दूसरे कारणों से भी बहुत लोग मृत्यु को प्राप्त हुए हैं |
इस प्रकार से सभी तथ्यों पर एक साथ बिचार करने पर एक बात स्पष्ट होती है कि महामारी काल में प्राकृतिक रूप से रोगी होने या मृत्यु को प्राप्त होने के लिए तो त्रिदोषों के असंतुलन को जिम्मेदार माना जा सकता है ! किंतु मनुष्यकृत दुर्घटनाओं में घायल होने या मृत्यु को प्राप्त होने में त्रिदोषों का असंतुलन कारण नहीं हो सकता है |
ऐसी
परिस्थिति में समयसंचार के आधार पर बिचार करना होगा| समय अच्छा बुरा दो
प्रकार का होता है | अच्छे समय में प्रकृति और जीवन में अच्छी अच्छी घटनाएँ
घटित होती हैं| बुरे समय में प्रकृति और जीवन दोनों में ही बुरी बुरी
घटनाएँ घटित होती हैं |
बुरे समय के प्रभाव से प्राकृतिक आपदाएँ एवं महामारियाँ घटित होती हैं तो बुरे समय के ही प्रभाव से हिंसक
आंदोलनों
युद्धों मनुष्यकृत दुर्घटनाओं,आतंकीहमलों एवं आपसी संघर्षों जैसी घटनाएँ
घटित होती हैं | हत्याओं आत्महत्याओं जैसी बुरी घटनाएँ भी बुरे समय के
प्रभाव से ही घटित होती हैं |
कुलमिलाकर प्राकृतिक रूप से जब बुरा समय चल रहा होता है,उस बुरे समय के
प्रभाव से हिंसक प्राकृतिक घटनाएँ घटित होती हैं |जिन लोगों का अपना बुरा
समय चल रहा होता है| वही समय पीड़ित लोग ही उन घटनाओं से पीड़ित होते
हैं,बाक़ी लोग उस प्रकार की हिंसक घटनाएँ घटित होने के बाद भी उनसे स्वस्थ
और सुरक्षित बने रहते हैं | इसलिए ऐसी घटनाओं के घटित होने एवं लोगों के
उनसे पीड़ित होने या न होने में समय ही प्रमुख कारण है | समय के संचार को
समझकर ऐसी घटनाओं के रहस्य को सुलझाया जा सकता है |
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महामारी से सुरक्षा की कठिनाइयाँ
किसी रोग या महारोग से बचाव के लिए जो उपाय करने होते हैं |वे तभी किए जा सकते हैं जब रोग समझ में आवे | महामारी को अच्छी प्रकार से समझे बिना महामारी संक्रमितों की चिकित्सा कैसे की जा सकती है|इतने बड़े रोग को समझने के लिए भी समय चाहिए | महामारी की चिकित्सा कैसे हो इस बिचार विमर्श के लिए समय चाहिए |महामारी जैसे इतने बड़े रोग से सुरक्षा के लिए व्यवस्था भी उतनी ही बड़ी और शीघ्र से शीघ्र करनी होगी |इतनी अधिक मात्रा में औषधि निर्माण के लिए औषधीय द्रव्यों के संग्रह,औषधिनिर्माण एवं उन्हें जन जन तक वितरित किया जाना आदि कार्यों के लिए जितना समय चाहिए | उतने समय में तो काफी जनहानि हो चुकी होती है |
महामारी अपने विशाल वेग से इतनी बड़ी संख्या में लोगों को संक्रमित करती जा रही हो | उसमें बहुत लोग मृत्यु को प्राप्त होते जा रहे हों | इतने बड़े संकट से लोगों की सुरक्षा के लिए प्रभावी प्रयत्न तुरंत कैसे किए जा सकते हैं सब तुरंत कैसे किया जा सकता है |इतने कम समय में किए गए प्रयासों के बल पर महामारी से समाज को सुरक्षित बचाया जाना तो दूर महामारी के स्वभाव को समझना ही संभव नहीं हो पाता है |
कुलमिलाकर महामारी जैसी इतनी बड़ी आपदा से समाज को सुरक्षित रखने के लिए जो प्रयत्न किए जाने आवश्यक होते हैं| उन्हें करने के लिए जो समय चाहिए | वो तभी मिल सकता है, जब ऐसी घटनाओं के विषय में आगे से आगे सही पूर्वानुमान लगाए जा सकें | ऐसा न हो पाने के कारण ही महामारियाँ हमेंशा रहस्य ही बनी रहती हैं | उन्हें समझना कभी संभव ही नहीं हो पाता है | उनके विषय में अनुमानों पूर्वानुमानों के नाम पर जो कल्पनाएँ की जाती हैं |वे कितनी सही होती हैं| इस विषय में विश्वास पूर्वक कुछ भी कहा जाना संभव नहीं हो पाता है |भविष्य विज्ञान के अभाव में उनका सही निकलना बहुत कठिन होता है |
पूर्वानुमान लगाने के लिए किसी ऐसे भविष्यविज्ञान की आवश्यकता होती है | जिससे भविष्य में झाँकना जाना संभव हो |पूर्वानुमानों के नाम पर किसी प्राकृतिक घटना के विषय में कुछ भी बोल दिए जाने से कोई विशेष मदद इसलिए नहीं मिल पाती है, क्योंकि वो सही गलत कुछ भी निकल सकता है | इसका कारण ऐसे पूर्वानुमानों का वैज्ञानिक आधार न होना है | पहले लगाए गए पूर्वानुमानों से प्राकृतिक लक्षणों का मिलान करके ये पता लगाया जाना चाहिए कि महामारी के विषय में पहले जो अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाए गए थे |वे कितने प्रतिशत सच निकले हैं | उस प्रक्रिया को भविष्य के लिए भविष्य के लिए भी उतने प्रतिशत ही सच माना जाना चाहिए |
पूर्वानुमानों के नाम पर कुछ भी बोल दिया जाना |उनका घटनाओं के साथ मिलान न होना ये अनुसंधानों का अधूरापन है | भूकंप वर्षा बाढ़ आँधी तूफ़ान चक्रवात बज्रपात एवं महामारी जैसी घटनाओं के पैदा होने के लिए जिम्मेदार कारणों के विषय में जो कल्पनाएँ की जाती हैं या अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाए जाते हैं| ऐसे अनुमानों पूर्वानुमानों के साथ उन घटनाओं का मिलान करने पर जितने प्रतिशत सही निकलें |उतने प्रतिशत ही उन कल्पनाओं अनुसंधानों को उपयोगी माना जाना चाहिए |
विशेष बात यह है कि भविष्यविज्ञान के अभाव में प्राकृतिक घटनाओं के विषय में सही अनुमान पूर्वानुमान आदि कैसे लगाए जाएँ | इसके लिए जितने परिणामप्रद प्रयत्न किए जाने आवश्यक होते हैं | ऐसा किया जाना जब तक संभव नहीं हो पा रहा है, तब तक के लिए ऐसी प्राकृतिक आपदाओं से मनुष्यों की सुरक्षा करने के उद्देश्य से भारत के प्राचीन विज्ञान की मदद ले ली जानी चाहिए |
त्रिदोषों
के असंतुलित होने के लक्षण तो प्राकृतिक वातावरण में कुछ वर्ष पहले से
प्रारंभ हो जाते हैं | यदि उस पद्धति से अलग हटकर बिचार किया जाए तो
महामारी शुरू होने के बाद ही पता लग पाता है कि महामारी प्रारंभ हो गई है
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