शनिवार, 14 सितंबर 2013

महात्माओं और महिलाओं का आखिर क्या साथ है ?

केवल अविवाहित रहने के कारण लोग जिन्हें संत समझते हैं उनके पीछे भी भागती हैं महिलाएँ क्यों ?
     महिला अधिकारों की रक्षा के नाम पर पुरुषों के प्रति घृणा फैलाना कहाँ तक उचित है वह भी ऐसी परिस्थिति में जबकि इस देश की महिलाओं का बहुत बड़ा वर्ग आज भी पुरुषों की कमाई पर आश्रित है उसी के सहारे गुजर बसर चलता है यह भी सच है कि महिलाएँ  भी परिश्रम पूर्वक उस गृहस्थी के संचालन में योग दान देती हैं इस प्रकार से मिलजुल कर गरीब अमीर ऐसे सभी लोगों का प्रेम पूर्वक जीवन निर्वाह हो रहा था किंतु इसी बीच महिला अधिकारों या सम्मान की बात उठी इसमें किसको कितने अधिकार मिले यह तो जाँच का विषय हो सकता है किंतु स्त्री पुरुषों का एक बहुत बड़ा वर्ग वैवाहिक सुखों से बंचित हो गया यह सच है! तलाक के बढ़ते केसों ने उनके बच्चों का न केवल बचपन अपितु सारा जीवन ही नष्ट कर दिया है। इसके बाद ये तलाक शुदा लोग जल्दी जल्दी किसी और के साथ विवाह करके कम ही सुखी रहते देखे गए हैं।यदि पत्नी या पति का सुख बदा ही होता तो वहीं मिल जाता! विवाह टूटने का सारा दोष किसी एक का कभी नहीं होता है कुछ न कुछ दोष पति- पत्नी दोनों का होता है।जो लोग एक दूसरे की गलतियाँ भूला भुलाया करते हैं वे ही अपनी जिंदगी को उपहास बनने से बचा लेते हैं उनके बच्चों का भविष्य भी बच जाता है।घर को चलाने में माता पिता किसका कितना योग दान है बच्चे स्वयं समझ लेते हैं बच्चों की निगाहों में उनका सम्मान भी विशेष होता है और जैसे जैसे इन्द्रियाँ थकने लगती हैं बासना(सेक्स) की भावना घटने लगती है वैसे वैसे अपने अपने गुण दोष का एहसास स्वयं होने लगता है और जीवन सम्मान पूर्ण ढंग से चलता  रहता है। 
    वैसे भी आज जो सबको बराबर करने की तैयारी चल रही है वो घातक है क्योंकि छोटा बड़ा बनकर ही आपसी संतुलन बनाया जा सकता है। सरकार और कानून किसी को तलाक तो दिला सकते हैं किंतु उसके बाद वे क्या करें उसकी जिम्मेदारी किसकी है?सहनशीलता के अभाव में किसी और के साथ भी उनका निर्वाह नहीं हो पाता है। ऐसे में उनके पास तीन विकल्प होते हैं या तो वो वैरागी हो जाएँ किंतु यदि इतनी ही सहन शीलता होती तो घर में रहकर भी विरक्त हो सकते थे तो क्यों होता तलाक ?दूसरी बात कि वे निराश हो जाएँ किंतु निराश लोग ऊट पटांग यौनाचार करते हैं बच्ची बूढ़े बीमार पागलों को भी नहीं छोड़ते!तीसरी बात यह है कि ये तलाक शुदा पुरुष लोग यदि आधुनिक कलियुगी बाबा बन जाएँ तो ऐसी परिस्थिति में  तालाक शुदा स्त्रियाँ उनकी भक्त बन जाती हैं!इस प्रकार से दोनों की शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति  आपस में ही होती रहती है और किसी को शक भी नहीं होता है जहाँ जब जैसे चाहते हैं बस बासना में डूबे रहते हैं ऐसे लोगों का जन्म ही इसीलिए हुआ होता है यहाँ तक कि न केवल इनके भोजन वस्त्र की चिंता समाज करता है अपितु उनकी ऐय्याशी का सारा सामान भी समाज ही देता है।
    ऐसे आश्रमों में सारा वातावरण ही उपासना के लिए न होकर अपितु बासना के लिए होता है गृहस्थों से कई गुना अच्छी सुख सुविधा की व्यवस्थाएँ इनके आश्रम नाम के फार्म हाउसों में होती हैं। इनके तथाकथित सत्संगों में कोई शास्त्र प्रमाणित बात न होकर सब मन गढ़न्त कहानियाँ होती हैं इनकी  सत्संग शिविर नाम की बढ़ी बड़ी रैलियाँ केवल तलाक शुदा या गैर शादी शुदा लोगों को उनकी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आयोजित की जाती हैं जिनके पास पार्टनर नहीं होता है उन्हें उपलब्ध कराया जाता है जिनके पास पार्टनर है किंतु उसके साथ कुछ दिन समय ब्यतीत करना है कहाँ करें जहाँ बदनामी का भय भी न हो उसके लिए सत्संग शिविर हैं अन्यथा इनके लिए आश्रमों के दरवाजे हमेंशा हमेंशा के लिए खुले रहते हैं जब जहाँ चाहें रहें जो चाहें करें कुछ गृहस्थी में व्यवस्थित लोग भी ऐसे आश्रमों का आनंद लेने के लिए चले आया करते हैं घर के लोग सोचते हैं कि भजन करने जा रहे हैं किंतु वहाँ तो वो लोग आनंद भोग रहे होते हैं। 
     आप स्वयं सोचिए कि यदि ये लोग वास्तव में महात्मा होते तो दो कमरे के घर में,अपने पत्नी बच्चों आदि के बीच छोटे से परिवार में फँसने के भय से भाग कर महात्मा होने वाले लोग फिर क्यों करते श्रृंगार और लगाते महँगी महँगी क्रीमें ?क्यों बनाते बड़े बड़े आश्रमी महल? क्यों बनाते चेला चेलियों के भारी भरकम परिवार ?धन दौलत कमाने के लिए बंदरों की तरह क्यों हैरान परेशान घूमते?क्यों करते सत्संगी आडम्बर ?जिसे भजन करना होता है वो गृहस्थों की अपेक्षा अपनी आवश्यकताएँ घटाता है और जो बढ़ाता है उसे कलियुगी बाबा कह सकते हैं। 
     वैसे भी आजकल बाबाओं के आश्रम, सत्संग,भक्तों की विशाल भीड़ें आदि देखकर लगता है कि समाज भक्त हो रहा है किंतु यदि वास्तव में ऐसा होता तो समाज में अपराध ,हत्याएँ ,बलात्कार आदि घटते किंतु ये तो दिन दूने रात चौगुने बढ़ रहे हैं इससे इस बनावटी  वैराग्य की पोल आसानी से खुल जाती है।समाज में बढ़ते अपराध ,हत्याएँ ,बलात्कार आदि इस बात के सुपुष्ट प्रमाण हैं कि समाज में नैतिकता आध्यात्मिकता आदि घट रही है इसका जिम्मेदार हमारा धार्मिक समाज  नहीं है तो और किसे माना जाए ? 

कोई टिप्पणी नहीं: