मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

मीडिया की कृपा से बढ़ रहे हैं धार्मिक पाखंडी !

ज्योतिष तंत्र एवं धर्म कर्म में ऐसी धोखाधड़ीआश्चर्य !

  सारे नियम केवल और केवल औरों को ठगने के लिए बस? केवल  समाज का भय दोहन करना मात्र शास्त्र वैज्ञानिकों  काम रह गया है आज लज्जा आती है   इनके  कारनामें सुनकर !

   आज समाज अनेकों प्रकार की पीड़ा से परेशान है, शासक और शासित वर्ग में भारी आपसी अविश्वास हो गया है।यह अविश्वास की ज्वाला राष्ट्र  से लेकर परिवार तक की अवधारणा समाप्त करती जा रही है। परिवार बिखर रहे हैं; समाज टूट रहा है; पति-पत्नी, पिता-पुत्र, भाई-भाई आदि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध भी स्वार्थ पोषित हो रहे हैं; किसी को किसी से भी मिलकर शान्ति नहीं मिल रही है। आने-जाने के साधन बहुत हैं किन्तु जाएँ तो जाएँ कहाँ? मोबाइल हैं किन्तु बात किससे करें? हाल-चाल लोग दिनभर पूछते हैं किन्तु किसी को किसी के सुख-दुख से क्या लेना देना? शिक्षा-दीक्षा (आध्यात्मिक शिक्षा) चिकित्सा आदि जो कार्य पहले सेवा के लिए जाने जाते थे वे ही आज व्यवसाय बन चुके हैं।
     सत्संग की भावना समाप्त हो रही है। सत्संगों  के नाम पर हो रही भारी रैलियाँ आर्थिक प्रदर्शन  मात्र बन कर रह गई हैं;इनका धर्म से कोईलेनादेना हो या न भी हो किन्तु  अपने पति  या  पत्नी माता  पिता  आदि  को चकमा देकर अपने अभिलषित  स्त्री पुरूषों  से एकांत मिलने के लिए सत्संग शिविरों की सुविधापूर्ण भूमिका  है इसप्रकार की भीड़ यदि  धार्मिक होती तो  अबतक  राम राज्य न हो जाता? ऐसे प्रकरणों में केवल ऐंद्रिक  सुखों  के लिए  धर्म बदनाम हो रहा है । 

        वैराग्य का मेरूदंड श्रीमद् भागवत जैसा आत्म रंजन का महान श्रोत आज मनोरंजन के लिए संगीत में सुनाया जा रहा है जिसमें उसका उद्देश्य  नष्ट हो रहा है। छोटे छोटे लड़के लड़कियों को रंग पोत कर इसी धंधे में लगाया जा रहा है। 

 कसम खाने के नाम पर गीता की गरिमा केवल घटाई जा रही है। योग के नाम पर योगासन, भागवत कथा के नाम पर मनोरंजन, आत्मज्ञान के नाम पर मनगढ़ंत कपोल कल्पित बातें आदि। जो साधु-संत, कथा वाचक आदि टेलीवीजन देखने को पहले रोका करते थे आज टी.वी. से वे स्वयं झाँक रहे हैं। मन्त्र-दीक्षा के नाम पर व्यवसाय हो रहा है।शिष्य  की जगह सदस्य बनाए जा रहे हैं। यज्ञादि महान कार्य अब एक उत्सव की तरह होने लगे हैं। सनातन धर्म में लाखों ग्रन्थ हैं किन्तु ब्राह्मण समाज चार किताबों के बल पर जीवन व्यतीत कर ले रहा है वो है विवाह पद्धति, सत्य नारायण व्रत कथा, गरुड़ पुराण और पंचांग। बाकी ग्रन्थ कौन पढ़ेगा? कौन समझाएगा, शास्त्र-संचित ज्ञान? कैसे लाभान्वित होगा सनातन समाज? बिना पढ़े ही ऐसे लोग धर्म शास्त्रों से सम्बन्धित किसी भी प्रश्न  का मनगढ़न्त उत्तर बेझिझक देते हैं। ऐसे में क्या होगा निर्णयसिन्धु, धर्म-सिन्धु जैसे महान् संग्रह ग्रन्थों का? कुछ लोग तो बिना कुछ जाने समझे ही बिना वैराग्य के वैरागी हैं दाढ़ा झोटा बढ़ाया कपड़े रंग कर ब्रह्म ज्ञानी, आत्मज्ञानी, सांसद, मंत्री, अध्यक्ष उपाध्यक्ष  आदि बनने लगे हैं ‘क्या हुआ है समाज को? ब्राह्मण संध्या, अग्निहोत्र, वेदाध्ययन आदि से विरत हो रहे हैं। महर्षि मनु की महान सूक्तियाँ आज निंदित हो रही हैं। उनका अभिप्राय समझाने नाचने गाने में व्यस्त हैं  विद्वानों  का अभाव होता जा रहा है जिसका दुष्प्रभाव  समाज पर इस प्रकार पड़ा है कि मनुस्मृति नामक महान ग्रन्थ जो समाज रक्षण के लिए बना था आज समाज भक्षण की भावना के आरोप लग रहे हैं।

                            वास्तु शास्त्र  एवं ज्योतिष  शास्त्र के नाम पर ड्रामा 


          वास्तु शास्त्र एवं  के नाम पर वास्तु कला का प्रचार-प्रसार हो रहा है ज्योतिष  शास्त्र आज जुएँ की तरह प्रयोग किया जा रहा है कुछ लोग राजनैतिक तथा खेलों के विषय में तथ्यहीन, सार हीन, आधारहीन ज्योतिष  शास्त्र के विमुख बेतुका भविष्य  भाषण कर रहे हैं। ऐसे निरंकुश  लोगों को सरकार और कानून का बिल्कुल भय नहीं है। सही हो या नहीं सुनने में अच्छा लगे। टेलीविजन आदि पर रोज राशिफल बताया जा रहा है दिन में कई-कई बार बताया जा रहा है कई-कई लोगों के द्वारा बताया जा रहा है। सब अलग-अलग बकते हैं। क्या है आधार इस राशिफली बकवास का?
जब ग्रह रोज नहीं बदलते तो राशिफल कैसे बदलता है? दूसरी बात यह है कि संसार में एक राशि  के बहुत लोग होते हैं। उन पर इसकी प्रवृत्ति कैसे होती है? एक और बात है कि एक आदमी के कई-कई नाम होते हैं किस नाम का राशिफल उस पर घटित होगा? आदि भ्रामकप्रश्नोंकेउत्तरसमाजकोमिलनेचाहिए।                                                                                                        राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री, मुख्यमन्त्री, केन्द्रीय मन्त्री, राज्य मन्त्री, सांसद, विधायक, प्रशासनिक अधिकारी, बड़े व्यापारी, धनी आदि लोकप्रतिष्ठा  राज योग कारक ग्रहों के होने से मिलती है। किस राजयोग कारक ग्रह के होने से मिलती है। कौन राजयोग किस लायक है किससे प्रधानमन्त्री और किससे विधायक बना जा सकता है किस राजयोग में विपक्ष का नेता बना जा सकता है। आदि प्रश्नों के उत्तर देना कठिन ही नहीं असम्भव भी है। कहना आसान है कि सबके राजयोग अलग-अलग होते हैं कितने भेद करेंगे आप? इसी प्रकार खेलों के सम्बन्ध में की गई भविष्यवाणी कोरी बकवास के अलावा कुछ भी नहीं है।

  आधारहीनउपायों के नाम परमनगढ़न्तआडंबर 

     इसी प्रकार उपायों के नाम पर आधारहीन मनगढ़न्त बातों की बकवास होती है। कुत्ते, चींटी, चमगादड़, उल्लू, बटेर, मुर्गी, मछली, हल्दी, सिन्दूर, नींबू, मिर्ची, काले उड़द, तिल, कोयला, घास गोबर, नग, नगीने, यन्त्र-तन्त्र-ताबीजों आदि को तथाकथित लोग खाना, पहनना, ओढ़ना, बिछाना, जेब में रखने आदि बातों के लिए प्रेरित किया करते हैं। ऐसी थोथी बातों का शास्त्र में न तो कहीं आधार है और न ही प्रमाण? मानने वाले सोचते हैं कि आखिर इन बातों को बताने वाले का स्वार्थ क्या है और कर लेने में हमारा नुकसान ही क्या है?
    क्या आपने कभी विचार किया कि आपके पूर्व जन्म के कर्म ही भाग्य का रूप लेते हैं। वही कर्म अच्छे होते हैं तो सौभाग्य और बुरे होते हैं तो दुर्भाग्य के रूप में इस जन्म में भोगने पड़ते हैं। पूर्व जन्म के अच्छे बुरे कर्मों की सूचना देने का आधार ग्रह और ज्योतिष  है। जिस ग्रह से सम्बन्धित अपराध हम पिछले जन्म करते हैं इस जन्म में वही ग्रह प्रतिकूल हो जाता है। इसी प्रकार अच्छा करने से ग्रह अनुकूल होते हैं। बुरे फल की सूचना देने वाले ग्रहों को शान्त करने के लिए वेदों में मन्त्र लिखे होते हैं जिन्हें जपने से संकट का वेग कम हो जाता है किन्तु नष्ट  नहीं होता अपितु लम्बे समय तक चलता है। क्योंकि गीता में लिखा है ‘‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाभम्’’ अपने किए हुए शुभाशुभ कर्म अवश्य  भोगने पड़ते हैं।
अब आप स्वयं सोचिए कौवे-कुत्ते, चींटी-चमगादड गोबर कोयला, आदि आपका भाग्य कैसे सँभाल सकते हैं?
    जहाँ तक दान की बात है दान तो शास्त्र सम्मत है। दान पाने वाले का लाभ होता है जिसको लाभ होता है वह आशार्वाद देता है। उससे पुण्य का निर्माण होता है। जो आड़े तिरछे समय में रक्षा कर लेता है। कई बार एक गाड़ी का एक्सीडेंट होता है। कुछ लोग बच जाते हैं कुछ मर जाते हैं। यह पुण्यों का ही खेल हे। क्योंकि जहाँ आपका वश  नहीं चलता वहाँ भी पुण्यों की पहुँच होती है।
    जहाँ तक बात नग-नगीनों की है। यद्यपि ज्योतिष  के ग्रन्थों में ग्रहों की मणियों का वर्णन मिलता है, किन्तु इन्हें धारण करने से भाग्य लाभ में क्या सहयोग मिलता है? यह स्पष्ट नहीं है। वेद में इस विषय में कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिलता। इतना अवश्य है कि आयुर्वेद स्वीकार करता है कि जिस रोग के लिए जो औषधि आयुर्वेद में कही गई है उसे पहनने से उसे दवा के रूप में खाने से एवं उसकी भस्मादि का हवन करने से रोगों से मुक्ति मिलती है।

      कम से कम भाग्य की दृष्टि से तो इतना उतना स्पष्ट प्रभाव नहीं दीख पड़ता जितना मन्त्रों का है। मन्त्र जप तथा देवता की आराधना का अत्यन्त फल होता है। यह सर्व विदित एवं स्पष्ट है। वैदिक विधा में तो ग्रहों को प्रसन्न करने के लिए उनका वेदमंत्र जपना ही एकमात्र विकल्प है।
       उपर्युक्त ऐसे लोगों में भ्रम का कारण समाज में एक बड़ा वर्ग है जिसका कोई सदाचरण नहीं मिलता, यह वर्ग अध्ययन, साधना आदि योग्यता से विहीन है। केवल नकल करने की कला होती है। ऐसे कलाकार ज्योतिष वेत्ताओं की तरह अपना रंग रूप सजा कर उन्हीं की देखी सुनी कही भाषा तथा वेषभूषा  की नकल करने लगे हैं। ऐसे लोगों ने न कुछ पढ़ा है न किसी के शिष्य हैं न ज्योतिष की कोई किताब देखी है। उसका भी कारण है कि ज्योतिष ग्रन्थ संस्कृत भाषा में हैं वो इन्हें आती नहीं है। ये लोग बात-बात में कहते हैं कि मैंने ज्योतिष में रिसर्च की है। जो पढ़ा ही नहीं वो रिसर्च क्या करेगा खाक? कुंडली बनाना नहीं सीखा इसलिए कम्प्यूटर रख लिया। वेद मन्त्र पढ़ना नहीं आता इसलिए कुत्ते पूजना सिखाते हैं। यही पाखण्डियों की रिसर्च है कि बड़े भाग्य से मिले सुर दुर्लभ मानव जीवन का भाग्य कौआ, कुत्ता, चीटी-चमगादड़ों में  ढूँढ़ना सिखा रहे हैं। ये कागजी शेर धन बल से विज्ञापनों में छाए हुए हैं। समाज इनसे छला जा रहा है ऐसे कलाकारों और ज्योतिष के विद्वानों में उतना ही अन्तर है जितना चमड़ा सिलने वाले मोची और हार्ट सर्जन में है। काटना सिलना तो दोनों जानते हैं किन्तु प्राण रक्षा तो कुशल सर्जन की हर सकता है मोची नहीं। सर्जन और मोची का अन्तर तो समाज को स्वयं ही करना होगा। 

       ऐसे वायरस डेंगू मच्छर की तरह हर क्षेत्र में सक्रिय हैं। डेंगू मच्छर मैंने इसलिए कहा जैसे ये मच्छर साफ पानी में ही पाए जाते हैं। उसी प्रकार ऐसे पाखण्डी लोग धार्मिक गतिविधियों के आस-पास ही पाए जाते हैं। जैसे गंदगी के मच्छरों की अपेक्षा डेंगू मच्छर अधिक घातक होते हैं। उसी प्रकार आतंकवाद आदि अपराधों से जुड़े लोगों की अपेक्षा धार्मिक पाखण्डी अधिक घातक होते हैं।
    जैसे नकली घी में असली घी से अधिक सुगंध होती है उसी प्रकार ये पाखण्डी लोग विद्वानों की अपेक्षा ज्यादा अच्छा वेष धारण करते हैं। भड़काऊ वेष-भूषा, गाना बजाना, महँगे विज्ञापनों के माध्यम से बड़े-बड़े दावे करना आदि इन डेंगुओं के लक्षण हैं। इनके चेहरे से, गाने-बजाने, बोली भाषा से कहीं ज्ञान वैराग्य नहीं झलकते लेकिन ये लोग कहीं तो भागवत बाँच रहे हैं, कहीं ज्योतिष और उपाय बता रहे हैं, कहीं मन्त्रदीक्षा दे रहे हैं। कहीं अपने को ब्रह्म ज्ञानी सिद्ध करने में लगे हैं। कोई कोई अपने को योगी या सिद्ध कह रहा है। जो योग क्रियाएँ एकान्त में जंगल में एवं ब्रह्मचारियों के द्वारा ही करने योग्य कही गई हैं वे ही चैनलों पर देखने को मिलेंगी ये कल्पना ही नहीं करनी चाहिए लेकिन इस युग में पैसे देकर मीडिया में कुछ भी बोला जा सकता है। मीडिया से अपने विषय में कुछ भी बुलवाया जा सकता है। ये कलियुग है सब कुछ चलता है।

    सत्संगों के नाम पर जितनी बड़ी-बड़ी रैलियाँ आज हो रही हैं। उनका यदि थोड़ा भी असर होता तो कन्या भ्रूण-हत्या, देहज के लिए हत्या, धन के लिए हत्या, जहरीले कैमिकल मिलाकर दूषित किए जा रहे फल आदि अन्य भोज्य पदार्थ, अपहरण, बलात्कार, आदि की दुर्घटनाओं में कुछ तो कमी आती, किन्तु ये पाखण्डी कलाकार बोलकर अपना समय पास करते हैं तो समाज सुनकर। लेकिन धर्म-कर्म को न तो ये लोग मानते हैं और ही सुनने वाले मानते हैं। दोनों ही दोनों को समझ रहे हैं लेकिन दोनों के दोनों ने किसी जन्म के पापों के कारण एक दूसरे के साथ समझौता किया  है।

कोई टिप्पणी नहीं: