गुरुवार, 30 जुलाई 2015

फाँसी जैसी सजा तो कभी भी रोकी जा सकती है किंतु आतंकी हमले रोकने की गारंटी कौन लेगा !

    फाँसी जैसी कठोर सजा किसी को भी देकर सुखी  तो कोई नहीं होता होगा किंतु मानवता का संहार करने वालों से निपटा आखिर कैसे जाए! आखिर कैसे रोके जाएँ उनके द्वारा किए जाने वाले अत्याचार !उन्हें कौन देगा भाई चारे के संस्कार !आखिर उनकी भी तो कोई जिम्मेदारी ले !उन्हें स्वतंत्र कर देने से काम कैसे चलेगा !
    फाँसी की सजा तो कानून में संशोधन करके रोकी जा सकती है किंतु आतंकी हमले रोकने की गारंटी कौन लेगा !जिसमें सैकड़ों हजारों निरपराध लोग मार दिए जाते हैं क्या उनका जन्म दिन नहीं होता होगा क्या उनके घरों में त्यौहार नहीं आते होंगे क्या वो अपने घरों से इफरात होते हैं क्या उनके बेटी बेटे माता पिता घरों में उनका इंतजार नहीं कर रहे होते हैं क्या वो मिल पाते हैं अपने परिवार वालों दे दुबारा !आखिर   उनका अपराध क्या होता है।
    बंधुओ ! न्याय का परिणाम केवल सुखद नहीं हो सकता ! दंड विधान भी तो न्याय का ही अंग है उसे कैसे नकार दिया जाए !न्याय की रक्षा करने वालों की रक्षा न्याय स्वयं करता है ! फाँसी जैसी कठोर सजा तो रोक देना अपने हाथ में है कभी भी रोकी जा सकती है किंतु आतंकी हमले रोकने की गारंटी कौन लेगा !जिसमें सैकड़ों हजारों निरपराध लोग मार दिए जाते हैं क्या उनका जन्म दिन नहीं होता होगा क्या उनके बेटी बेटे माता पिता घरों में उनका इंतजार नहीं कर रहे होते हैं क्या वो मिल पाते हैं अपने परिवार वालों दे दुबारा !आखिर उनका अपराध क्या होता है ?
   प्राणदंड  सबसे कठोर दंड है इसलिए यह कठोर सजा किसी निरपराध को न मिल जाए इसका  ध्यान संपूर्ण रूप से रखा जाना चाहिए और बरती जानी चाहिए सभी प्रकार से सावधानी ! 
      इसी प्रकार से अपराधी को दंड मिलना ही चाहिए  अन्यायी अपराधी आतंकवादी आदि मानवता के शत्रुओं को  उनके अपराध के अनुशार   मिलने वाले दंड से उन्हें बचाना या बचाने का प्रयास करना शास्त्रीय अपराध है , क्योंकि ऐसे लोगों को अपराधियों के द्वारा किए गए अपराध को स्वयं करने का  पाप लगता है !
    शास्त्र कहता है संन्यासियों को धन देने वालों को और ब्रह्मचारियों को तांबूल (पान) देने वालों को  तथा अपराधियों को अभय दान देने वालों को नरक अवश्य होता है !यथा - 
यतये कांचनं  दत्वा ताम्बूलं ब्रह्मचारिणा।              चौरेभ्योप्यभयं दत्वा दातापि नरकं ब्रजेत् ॥ 
 इसलिए  किसी भी परिस्थिति में अपने एवं अपनों के विरुद्ध जाने वाले  न्याय निर्णय का भी  सम्मान ही होना चाहिए !
     न्यायालयों में न्यायाधीशों की बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है उनका लक्ष्य सत्य की खोज करना एवं अपराध के अनुशार सजा सुनाना होता है किंतु किसी भी केस में सबसे बड़ा प्रश्न होता है कि सत्य खोजा  कैसे जाए ! 
  कोई अपराध आरोपी सही सही बात क्यों बोलेगा !किसी को अपराध का आरोपी बताने वाली पुलिस अनेकों प्रकार से प्रभावित होते देखी जाती है इसलिए उसकी बातों पर संपूर्ण भरोसा कैसे कर लिया जाए ! वकीलों का लक्ष्य न्याय खोजना नहीं अपितु अपने पक्ष को बिजयी  बनाना और बताना होता है तो उनसे सत्य  की आशा कैसे की जाए ! इसी प्रकार से गवाहों के बदलते बयानों में सत्य के दर्शन अक्सर दुर्लभ होते देखे जाते हैं !किंतु इन्हीं आरोपियों,पुलिस कर्मियों,वकीलों और गवाहों के बयानों को मथ कर निकाला जाता है न्याय का नवनीत(मक्खन)  !कितना दुर्लभ होता है यह !
    ऐसे निर्णयों की भी जाति और सम्प्रदायों के नाम पर की गई निंदा आलोचना  अप्रत्यक्ष रूप से न्याय को नकारने जैसी होती है जो किसी भी सभ्य समाज  में अस्वीकार्य है !इसलिए जो देश समाज न्याय का सम्मान नहीं करते उनका पतन अवश्य होता है क्योंकि समाज शोधन की एक मात्र प्रक्रिया है न्याय का सम्मान !

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