शनिवार, 8 जुलाई 2017

सूर्य copy

   सूर्य में प्रकाश है उष्णता (गर्मी) है ऊर्जा है जिसे उपनिषदों में प्राण शक्ति कहा जाता है सूर्य उसी प्राण शक्ति को अपनी किरणों में डाल देता है सूर्यकिरणें उस प्राण शक्ति का विश्व के कोने कोने में जाकर वितरण किया करती हैं संसार में जितने भी स्वरूप हैं वे प्राणप्रद सूर्य किरणों के कारण ही संभव हो सके हैं इस सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ में प्राण विद्यमान है क्योंकि उसी प्राणदातृ किरणों से सब कुछ बना हुआ है उसी से अंकुर फूटता है पौधा जमता है अनाज तथा फल पकता है सूर्य प्रजाओं का प्राण बनकर प्रतिदिन प्रातःकाल उदित होता है !सूर्य ने ही अपनी किरणों से पृथ्वी को धारण कर रखा है कुल मिलाकर पृथ्वी आकाश के और आकाश पृथ्वी के सहारे है
     सूर्य ही समय का स्वामी है काल गणना का आधार सूर्य ही है और समय के आधीन ही जन्म और मृत्यु आदि होते हैं सम्पूर्ण ऋतुएँ भी तो सूर्य के कारण ही होती हैं !
   ब्रह्मांड और पिंड (शरीर) दोनों एक तरह के हैं सूर्य शुद्धता का प्रतिनिधि है !वायु जल पृथ्वी आदि जो कुछ भी प्रदूषित होते दिखा उसी का दबाव बढ़ाकर उसी के वेग से उस तत्व का शोधन कर दिया जाता है | ये प्रकृति का नियम है |


भूकम्पीय वैज्ञानिक कारणों पर चर्चा और सूर्य प्रभाव !
26 तारीख और आपदाएँ -
सूर्य चंद्र और वायु

 जलवायु ही जीवन है !
जल और वायु दोनों की शुद्धि सूर्य की ऊर्जा और ऊष्मा से ही होती है !



समय, मौसम तथा स्थान की विभिन्न स्थितियों के अनुसार परिवर्तन होते रहते हैं ।
ग्रहों का राजा सूर्य है इस सृष्टि के निर्माण एवं संचालन में सूर्य की बहुत बड़ी भूमिका है !
पृथ्वी के विभिन्न स्थानों पर अलग अलग तापमान होने का कारण है सूर्य !भूकंपों का कारण ऊष्मा न होकर अपितु सूर्य से प्राप्त ऊर्जा हो सकती है !क्योंकि ऊष्मा तो ज्वालामुखियों से भी मिल सकती है किंतु ऊर्जा नहीं ! आधार हो सकता है तापमान !तापमान समय मौसम और स्थान के अनुशार बढ़ता घटता है सामान्यतया हम उष्मा और तापमान का उपयोग एक ही अर्थ में करते हैं । लेकिन एक होने के बावजूद इनमें सूक्ष्म अन्तर है । उष्मा वास्तव में ऊर्जा का एक ऐसा रूप या गुण है, जो वस्तुओं को गर्म करती है । इसे इस रूप में भी कह सकते हैं कि उष्मा के माध्यम से ही हमें ऊर्जा की मात्रा का बोध होता है । या फिर इसे इस रूप में भी समझ सकते हैं कि दिन में पृथ्वी सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करती है, जिसका उष्मा में रूपान्तरण होता है । हम जानते हैं कि दिन के 12 बजे पृथ्वी सबसे अधिक ऊर्जा प्राप्त करती है, लेकिन उस समय सबसे अधिक तापक्रम नहीं हो पाता । अधिकतम तापक्रम 2 बजे से 4 बजे के बीच प्राप्त होता है, जिसे दिन का उच्चतम तापक्रम कहते हैं। ठीक इसी प्रकार न्यूनतम तापक्रम भी रात्रि के 12 बजे न होकर 4 एवं 5 बजे के आसपास होता है । स्थल भाग जल की अपेक्षा शीघ्र और अधिक गर्म होता है । ठीक इसी तरह वे जल की अपेक्षा शीघ्र शीतल भी हो जाते हैं । जल और स्थल की इस विशेषता का उस स्थान के तापक्रम पर काफी प्रभाव पड़ता है ।पर्वतमालाएँ ठण्डी हवाओं को किसी क्षेत्र विशेष में प्रवेश करने से रोककर उसके तापमान को नीचा होने से बचाती है । भारत के लिए हिमालय पर्वत यही काम करता है ।
स्थल भाग जल की अपेक्षा शीघ्र और अधिक गर्म होता है इसी प्रकार से स्थल भाग जल की अपेक्षा शीघ्र शीतल भी हो जाता है !गर्म धाराएँ, जहाँ समुद्र तटीय क्षेत्रों के तापमान को बढ़ा देती हैं, वहीं ठण्डी धाराएँ उसे कम कर देती हैं ।समुद्र के तट पर स्थित स्थान गर्मी में इसलिए अपेक्षाकृत ठण्डा होते हैं, क्योंकि समुद्र पर से आने वाली ठण्डी हवाएँ स्थल की गर्मी को कम कर देती हैं । जबकि समुद्र तटीय स्थानों पर जाड़े का मौसम कम ठण्ड वाला होता है ।स्थल भाग जल की अपेक्षा शीघ्र और अधिक गर्म होता है । ठीक इसी तरह वे जल की अपेक्षा शीघ्र शीतल भी हो जाते हैं । जल और स्थल की इस विशेषता का उस स्थान के तापक्रम पर काफी प्रभाव पड़ता है ।समुद्र के तट पर स्थित स्थान गर्मी में इसलिए अपेक्षाकृत ठण्डा होते हैं, क्योंकि समुद्र पर से आने वाली ठण्डी हवाएँ स्थल की गर्मी को कम कर देती हैं ।जबकि समुद्र तटीय स्थानों पर जाड़े का मौसम कम ठण्ड वाला होता है । भारत के मुम्बई और मद्रास का वार्षिक तापान्तर इसीलिए कम है ।भू-आकृति तथा वनों की उपस्थिति भी तापमान पर प्रभाव डालती है। चट्टानी प्रदेश अपेक्षाकृत अधिक गर्म हो जाते हैं । ठीक यही स्थिति मरूस्थलों की भी होती है। मरूस्थलीय प्रदेश शीघ्र ठण्डे होने के कारण रात में अधिक ठण्डे हो जाते हैं, जबकि चट्टानी प्रदेश गर्म ही बने रहते हैं ।
तापमान का प्रादेशिक वितरण -
प्राचीन ग्रीक विद्वानों ने विश्व को तीन प्रमुख कटिबन्धों में विभाजित किया था । ये थे-
(1) उष्ण कटिबन्ध - भूमध्यीय रेखा के दोनों ओर 23) अंश अक्षांश पर ।
2) शीतोष्ण कटिबन्ध - दोनों गोलाद्र्धों में 23) अंश से 66 अंश अक्षांश पर, तथा (3) शीत कटिबन्ध - दोनों गोलाद्र्धों में 66) अंश से 90 अंश अक्षांश (धु्रवीय कोण) तक।
बाद में एक विद्वान सूपर ने तापक्रम के साथ-साथ जल, स्थल तथा धाराओं को भी ध्यान में रखते हुए इन कटिबन्धों को निर्धारित किया । बाद में सूपर की विधि को भी संशोधित करके पूरे विश्व को चार प्रमुख कटिबन्धों में बाँटा गया, जो आज सर्वमान्य है । यह विभाजन इस प्रकार है:-
(i) उष्ण कटिबन्ध - सामान्यतया भूमध्य रेखा से दोनों ओर के 23) अंश अक्षांशों तक यानी कि कर्क रेखा से मकर रेखा के बीच वाले भाग को उष्ण कटिबन्ध के अंतर्गत रखा गया है । इस कटिबन्ध की विशेषताएँ इस प्रकार हैं -
चूंकि यहाँ सूर्य की किरणें सीधी पड़ती हैं, इसलिए वर्षभर तापक्रम ऊँचा रहता है।
वायु मण्डल में हमेशा आर्द्रता रहती है । गर्मी अधिक होने से वर्षभर लगभग प्रतिदिन वर्षा होती है ।
वर्षा होने के कारण घने वन पाये जाते हैं ।
ये क्षेत्र आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत पिछड़े हुए हैं । यहाँ ध्यान रखने की बात यह भी है कि और अधिक वैज्ञानिक अध्ययन की दृष्टि से हम उष्ण कटिबन्ध को यदि तीन कटिबन्धों में विभाजित कर दें, तो शायद इसे समझना और आसान हो जायेगा । यह विभाजन इस प्रकार किया जा सकता है -
क. भूमध्य रेखीय कटिबन्ध - यह दोनों गोलाद्र्धों में शून्य अंश से 15 अंश अक्षांश तक की पट्टी है । वास्तव में यही वह पट्टी है, जहाँ सूर्य की किरणें सही मायने में एकदम सीधी पड़ती हैं , जिसका तापक्रम काफी ऊँचा रहता है । यहाँ प्रतिदिन दोपहर बाद वर्षा होती है । हवा हमेशा आर्द्र रहती है ।
ख. अंतर उष्ण कटिबन्ध - इसे दोनों गोलाद्र्धों में 5 अंश से 12 अंश अक्षांश तक माना जा सकता है । यहाँ भी तापमान तो सालभर ऊँचा रहता है, फिर भी भूमध्यरेखीय कटिबन्ध जितनी नहीं ।
ग. उष्ण कटिबन्ध - इसका प्रसार दोनों गोलाद्र्धों में 12 से 25 अंश अक्षांशों के बीच माना जा सकता है । हालाँकि यहाँ भी तापमान ऊँचा तो रहता है लेकिन विषुवतरेखीय कटिबन्धों जितना नहीं । यह जरूर है की यहाँ वर्ष के हर मौसम में कम से कम 18.5 सेटीग्रेड तापमान अवश्य पाया जाता है ।
(ii) ऊपोष्ण कटिबन्ध - इसका विस्तार दोनों गोलाद्र्धों में 25 से 45 अंश अक्षांशों के बीच है । चूँकि यहाँ सूर्य की किरणें तिरछी पहुँचती हैं, इसलिए सर्दियों में तापमान कम पाया जाता है । इस कटिबन्ध की कुछ विशेषताएँ इस प्रकार हैं:-
इसे तापमान की दृष्टि से एक आदर्श क्षेत्र कहा जा सकता है । इसलिए इस क्षेत्र में जनसंख्या का घनत्व अधिक है ।
यहाँ की जलवायु कृषि एवं फलों के लिए बहुत ही उपयुक्त है । इसलिए यह क्षेत्र विश्व के समृद्ध क्षेत्रों में आता है ।
यहाँ की जमीन ही उपजाऊ नहीं है, बल्कि इस तरह की है कि खनिजों का उत्खनन किया जा सके । इसलिए यह क्षेत्र औद्योगिक दृष्टि से भी विकसित क्षेत्र है ।
(iii) शीतोष्ण कटिबन्ध - इसका विस्तार दोनों गालोद्र्धों में 45 अंश से 66) अंश अक्षांश के बीच है । यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते सूर्य की किरणें काफी तिरछी हो जाती हैं । इसलिए सर्दियों में तो तापमान हिमाँक तक पहुँच जाता है । यहाँ वार्षिक तापान्तर भी सबसे अधिक होता है । इस कटिबन्ध की कुछ विशेषताएँ इस प्रकार हैं:-
ठण्ड अधिक होने के कारण जनसंख्या का घनत्व काफी कम है ।
चूँकि इसका काफी बड़ा भाग बर्फ से ढंका हुआ है, इसलिए यह क्षेत्र अपेक्षाकृत अविकसित है ।
आर्थिक गतिविधियाँ लगभग नहीं के बराबर होती हैं ।
वनस्पतियों के रूप में काई जैसी वनस्पतियाँ ही पाई जाती हैं ।
(iv )शीत कटिबन्ध - यह कटिबन्ध दोनों गोलाद्र्धों में 66) से 90 अंश अक्षांश के बीच फैला हुआ है । इसी के बीच टूंड्रा प्रदेश का भी विस्तार है । जहाँ सूर्य की किरणें धरातल के लगभग समानान्तर प्राप्त होती हैं । चूँकि यहाँ 6 महीने का दिन और 6 महीने की रात होती है, इसीलिए यह क्षेत्र वर्षभर बर्फ से ढंका रहता है । रूस का बरखोयांस्ख इसी क्षेत्र में स्थित है, जहाँ विश्व का सबसे कम तापक्रम -69.4 अंश सेंटीग्रेड प्राप्त होता है । इस कटिबन्ध की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं -
यह एक प्रकार से निर्जन प्रदेश है ।
कुछ क्षेत्रों में एस्किमों जातियाँ रहती हैं । रेण्डियर इनका मुख्य पशु है । ये चमड़े के तम्बुओं में रहते हैं, जिसे ‘इग्लू’ कहा जाता है ।
आर्कटिका प्रदेशों में पेंग्विन नामक पक्षी तथा यहाँ की झीलों में क्रील जीव पाया जाता है।
तापमान की विलोमता -
सामान्य नियम यही है कि ऊँचाई के साथ-साथ तापमान कम होने लगता है । लेकिन जब इसके विपरीत ऊँचाई बढ़ने के साथ तापमान में भी वृद्धि होने लगती है, तो इसे तापमान की विलोमता (Inversion of Temperature)
कहा जाता है। सामान्य नियम के विपरीत इसमें ठण्डी हवा पृथ्वी के निकट तथा गर्म हवा उससे ऊपर पाई जाती है ।
तापमान की विलोमता के लिए जो कारक जिम्मेदार होते हैं, वे हैं -
शीतकालीन लम्बी रातें
मेघरहित साफ आकाश (उच्च स्तरीय मेघ)
शुष्क वायु
बहुत ही शान्त एवं स्थिर वायुमंडल तथा
बर्फ से ढंका हुआ धरातल
सच तो यह है कि शीत ऋतु की स्थितियाँ तापमान विलोमता के लिए सबसे आदर्श स्थिति होती है, विशेषकर पहाड़ी क्षेत्रों में । होता यह है कि शीत ऋतु की लम्बी रातों में पर्वतों के ढाल विकीकरण के कारण बहुत अधिक ठण्डे हो जाते हैं । इससे उनसे सटी हुई वायु की परत भी ठण्डी हो जाती है । जबकि उसी ऊँचाई पर ढालों से दूर की हवा अपेक्षाकृत गर्म होती है । आकाश के साफ होने की स्थिति में गुरूत्त्वाकर्षण के प्रभाव के कारण रात में यह ठण्डी हवा ढालों से निकलकर घाटी में पहुँच जाती है तथा ढालों से दूर की अपेक्षाकृत गर्म हवा ढालों पर आ जाती है । इसके कारण निचली घाटी में ठण्डी हवा और ऊपर ढालों पर गर्म हवा का विस्तार हो जाता है । यही वह कारण है, जिसके फलस्वरूप पर्वतीय शहर अक्सर घाटियों में नहीं बल्कि ढालों पर बसे होते हैं ।
तापमान विसंगति -
सामान्य नियम के अनुसार तो यही कहा जायेगा कि यदि कोई दो स्थान एक ही अक्षांश पर स्थित हैं, तो दोनों का तापमान एक जैसा होना चाहिए । लेकिन कुछ कारणों से ऐसा नहीं हो पाता । एक निश्चित समय में एक ही अक्षांश रेखा पर स्थित दो स्थानों के तापमान के इसी अन्तर को ‘‘तापमान विसंगति’’ कहा जाता है ।
इस विसंगति का मुख्य कारण धरातल पर जल और स्थल का असमान वितरण होना है । उत्तरी गोलार्द्ध पर स्थल अधिक है, इसलिए वहाँ तापमान की विसंगति भी अधिक है । जबकि दक्षिण गोलार्द्ध में जल का विस्तार अधिक होने के कारण तापीय विसंगति कम है ।


सामान्य नियम के अनुसार तो यही कहा जायेगा कि यदि कोई दो स्थान एक ही अक्षांश पर स्थित हैं, तो दोनों का तापमान एक जैसा होना चाहिए । लेकिन कुछ कारणों से ऐसा नहीं हो पाता । एक निश्चित समय में एक ही अक्षांश रेखा पर स्थित दो स्थानों के तापमान के इसी अन्तर को ‘‘तापमान विसंगति’’ कहा जाता है ।

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