आखिर धर्म एवं अध्यात्म शिक्षा कौन देगा ?
प्रशासन एवं कानून व्यवस्था का प्रश्न उठने पर एक बात स्पष्ट है कि ऐसे दुर्व्यवहारों या किसी प्रकार की आपराधिक या भ्रष्टाचार सम्बन्धी गतिविधि के लिए केवल पुलिस विभाग ही क्यों सरकार का हर विभाग जिम्मेदार है हर विभाग में लापरवाही है
फिर केवल पुलिस पर दोष क्यों मढ़ा जा रहा है?यदि
केवल पुलिस का दोष होता तो
अब तक कुछ नियंत्रण जरूर होता किन्तु दुर्घनाएँ दिनोंदिन बढ़ती जा रही
हैं।इसका साफ साफ अर्थ है कि समस्या की जड़ें कहीं और भी हैं।इन पर कानून और
पुलिस का भय उतना होता नहीं दिख रहा है जितनी इससे आशा लगा रखी गई है।
मैं मानता हूँ कि अपराध मन से सोचे जाते शरीर से किए जाते हैं मुख्यरूप से तो सोच बदलने की ज़रूरत है ।सोच बदल पाना यदि
किसी के अपने बश में होता तो संभवतः वह बदल भी सकता था क्योंकि हर किसी
को पता होता है कि बुरे काम का नतीजा बुरा ही होता है। उस पर भी अपराधों
की सजा के रूप में फाँसी तक की चर्चा बड़ी जोर शोर से है दूसरी ओर
अपराधियों को पकड़ने की हाईटेक तकनीक है फिर भी यदि कोई सोचे कि वह अपने
अपराध को छिपा ले जाएगा तो यह उसकी गलत धारणा ही होगी इसलिए ऐसा सोचना
उचित नहीं है। मेरा अनुमान है कि अपराध की गंभीरता एवं सजा की भयंकरता
ठीक ठीक प्रकार से जानते समझते हुए भी वर्तमान समय में सारे अपराध किए जा रहे हैं किन्तु
मन पर उनका बश नहीं है। इसलिए अपराधी प्रवृत्ति दिनोदिन बढ़ रही है। मन पर
नियंत्रण करने के लिए धर्म एवं अध्यात्म की आवश्यकता है वही सक्षम भी है
किन्तु इसकी शिक्षा कैसे दी जाए? कौन दे? कहाँ दे? इसकी कोई सरकारी योजना
नहीं दिखती है।धर्म एवं अध्यात्म के प्राइवेट प्रशिक्षण में पाखंड इतना अधिक है कि उसका समाज पर कोई सात्विक असर नहीं हो पा रहा है।इसलिए धर्म एवं अध्यात्म शिक्षा की आशा ही किससे करे ?
अब दूसरी बड़ी यह बात है कि धर्म एवं अध्यात्म की शिक्षा सबको मिलनी चाहिए यदि यह संभव न हो तो नैतिक शिक्षा यदि वह भी संभव न हो तो कम से कम शिक्षा तो सबको मिलनी ही चाहिए, किन्तु धर्म एवं अध्यात्म की शिक्षा तथा नैतिक शिक्षा
देने की बात तो दूर है सरकार द्वारा दी जा रही साधारण शिक्षा का भी कितना
बुरा हाल है कोई जाकर देखे तो सही सारे रहस्य की एक एक पर्त खुलती चली
जाएगी। दूर की बात क्या कहूँ राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली सरकार के विद्यालयों
से लेकर एम.सी.डी. तक के विद्यालयों में पाठ्य क्रम की किताबों की पाठ्य
विषय वस्तु से लेकर उन्हें शिक्षण कार्य आदि सबकुछ असंतोष जनक है।पहली बात
तो विद्यालयों में शिक्षकों की उपस्थिति नहीं है जो
अध्यापक आते भी हैं वे कक्षाओं में नहीं जाते हैं प्रार्थना में नहीं खड़े
होना चाहते कोई बहाना बनाकर बीच से चले जाते हैं।जो कक्षाओं में जाते भी
हैं वे फोन में लगे रहते हैं।कभी कदाचित बच्चों को कुछ लिखने पढ़ने को बताते
भी हैं तो परायों जैसा व्यवहार होता है।जब मन आता है तो छुट्टी कर देते
हैं।कोई अधिकारी वहाँ झाँकने नहीं जाता है जहाँ जाते भी हैं वे बेमन जाते
हैं इसलिए उनका वहाँ के शिक्षकों में कोई दबाव नहीं होता है।इसके जो भी
कारण हों।पूछने पर अधिकारियों से लेकर अध्यापकों तक सबका अपना अपना रोना
धोना है किन्तु शिक्षा पर किसी की जवाब देही नहीं
होनी चाहिए क्या ?माना की सरकार की लापरवाही या अन्य किसी कारण से जहाँ 12
अध्यापक होने चाहिए वहाँ 10 ही होंगे तो उन दस को तो पढ़ाना चाहिए ।मजे की
बात यह है कि वो न केवल पढ़ाते नहीं हैं अपितु हर अधिकारी पर हावी होते
रहते हैं अपनी बड़ी से बड़ी लापरवाही को उन दो अध्यापकों की कमी में लपेट कर
परोसा करते हैं। इस डर से अधिकारी अध्यापकों के सामने पड़ने से कतराया करते
हैं और शिक्षकों की स्वतंत्रता बरक़रार बनी रहती है।
बंधुओं !जब ये दुर्दशा राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के विद्यालयों की है तब
देश के अन्य प्रदेशों, शहरों, कस्बों, गावों या दूर दराज के गाँवों में
सरकारी शिक्षा कैसी होगी इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। जैसी शिक्षा
वैसे संस्कार !
आखिर क्या कारण है कि आज कोई शिक्षित,संभ्रांत,संपन्न या सक्षम व्यक्ति अपने बच्चों को सरकारी
स्कूलों में नहीं पढ़ाना चाहता है।ग्राम प्रधान से लेकर प्रधानमंत्री तक
किसके बच्चे पढ़ते हैं सरकारी विद्यालयों में? यदि जनप्रतिनिधियों के बच्चे
भी यहाँ पढ़ रहे होते तो भी इतनी लापरवाही नहीं होती ! रही बात गरीबों की
तो सच्चाई यह भी है कि अपने बच्चों को पढ़ाना गरीब लोग भी सरकारी स्कूलों
में नहीं चाहते हैं किन्तु प्राइवेट में पढ़ाने के लिए धन नहीं है इसलिए
मजबूरी में सरकारी स्कूलों में पढ़ाना पड़ रहा है।सरकारीकर्मचारी,शिक्षा
अधिकारी,स्कूल कर्मचारी यहाँ तक कि सरकारी स्कूलों के अध्यापक भी
अपने बच्चों को अपने स्कूलों में नहीं पढ़ाना चाहते हैं आखिर क्यों ?सरकार
को हमारी बात न मानकर इन विषयों की उच्चस्तरीय जाँच करानी चाहिए।जो तथ्य
सामने आएँगे वो सरकारी विद्यालयों की वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के लिए अत्यंत भयावह होंगे।
जिन गरीबों के बच्चे पैसे के अभाव में प्राइवेट स्कूलों में पढ़ नहीं सकते
सरकारी स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती है। वो खाली दिमाग कहीं तो जाएगा कुछ तो
करेगा ही ? हो न हो वह स्कूलों में हो रही शैक्षणिक लापरवाही का ही नतीजा
हो आज का आपराधिक वातावरण ?तो इसमें पुलिस का क्या दोष?इसमें सरकार एवं
सरकार की शिक्षा नीतियाँ ही जिम्मेदार हैं सरकार के शिक्षकों की लापरवाही
जिम्मेदार है। सरकार की शिक्षा के प्रति उपेक्षा जिम्मेदार है।
इसके
लिए सरकार के इंतजाम इतने हास्यास्पद हैं कि कभी सोच सोचकर लगता है कि आज
की सरकारी शैक्षणिक लापरवाही के शिकार शिक्षा संस्कार विहीन युवाओं की फौज
भारतीय समाज को भविष्य में जब अपने आगोश में लेगी तब वह दृश्य कितना भयंकर होगा कभी कभी यह सोच सोच कर मन सिहर उठता है!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें