शनिवार, 31 अक्टूबर 2015

अरे पुरस्कार लौटाने वालो ! दुखी तो देशवासी भी हैं किंतु वो लौटावें क्या ?पुरस्कार उन्हें दिए नहीं गए ,बाजारों में मिलते नहीं हैं !

अरे संवेदनशील गुप्त राजनेताओ! पुरस्कार तब क्यों नहीं लौटाए गए थे  जब निहत्थे कारसेवकों पर सरकार ने चलवाई थीं गोलियाँ !
     देश के प्यारे भाईबहनो ! मेरा तो निवेदन यही है कि पुरस्कार लौटाकर प्रायश्चित्त करने वालों का मन हल्का हो ही लेने दिया जाए !हुई होगी पुरस्कार हासिल करने में कोई गलती ! उन्हें उतार लेने दिया जाए अपने मन का बोझ !अन्यथा पुरस्कार लौटाने की बात कहाँ से आ गई ! 
    पुरस्कार ही क्यों लौटाए गए इसके अलावा और कुछ नहीं था क्या उनके पास विरोध व्यक्त करने के लिए !यदि पुरस्कार न मिले होते तब कैसे व्यक्त करते अपना विरोध  !या जिन्हें नहीं मिले हैं वे कैसे व्यक्त करें अपनी भावनाएँ!
   बंधुओ !कुलमिलाकर पुरस्कार लौटाने के आचरण से ऐसे साहित्यकार स्वदेश से लेकर विदेश  तक एक भ्रम  फैलाने में तो सफल हो गए कि ऐसी घटनाओं के विरोध में हम थोड़े से लोग तो हैं बाक़ी सारे  देश का पता नहीं क्योंकि पुरस्कार केवल हम्हीं लोग लौटा रहे हैं !और कोई नहीं लौटा रहा है !जो घातक है देश की प्रतिष्ठा के लिए !ये सिद्ध करता है कि सरकार समेत भारत के लोग  कितने संवेदना विहीन हैं कि उन्हें पीड़ित परिवार पर दया नहीं आई !विश्व  क्या सोचेगा हमारे विषय में हम कितने निर्दयी और कठोर हैं ! 
   इसलिए बंधुओ !पुरस्कार लौटाने के अलावा   किसी और तरीके से क्या नहीं व्यक्त किया जा सकता था विरोध ! जिसमें देशवासी  भी चाहते तो खड़े हो सकते थे साहित्यकारों के साथ !किंतु पुरस्कार लौटाने में तो वो बेचारे चाहकर भी नहीं दे सकते हैं साथ !वो निहत्थे हैं उनके पास नहीं हैं कोई पुरस्कार !ये कोई ऐसी चीज भी नहीं है कि जाकर बाजार से ले आते !
   यदि कोई बात थी भी तो प्रधानमन्त्री जी से मिलकर अपनी बात भी तो रखी जा सकती थी यदि उनकी उचित बात न सुनी जाती तब तो क्रोध का कारण था किंतु अकारण क्रोध !वो भी साहित्यकारों से !कितनी असहिष्णुता बढ़ रही है समाज में !तो आम समाज कहाँ जाएगा !
   अखलाक के घर घुसने वाले लोग भी तो असहिष्णुता के ही शिकार थे तभी तो कर बैठे ऐसा अपराध !अन्यथा यदि अखलाक के परिवार से कोई गलती भी हुई होती तो भी उस परिवार से मिलकर अपनी बात कही जा सकती थी यदि वो न मानते तब तो क्रोध का कारण भी होता किंतु अकारण क्रोध !वो भी ऐसा कि किसी की जान ले लो !ये तो घृणित है जो सारे देश को बुरा लगा है किंतु इसमें किसी भी वर्ग विशेष के कुछ लोग खड़े होकर प्रतिक्रिया स्वरूप अपने पुरस्कार लौटाने लग जाएँ केवल ये दिखाने के लिए कि उन्हें बुरा लगा है तो जिन्हें पुरस्कार नहीं मिला है वो अपनी  भावनाएँ कैसे व्यक्त करें कि बुरा उन्हें भी लगा है !क्या वो कपड़े उतार कर दे आवें सरकार को आखिर वे क्या करें !ऐसी घटनाएँ तो सरकारों को भी बिचलित कर दिया करती हैं तो विरोध स्वरूप सरकारें आखिर कैसे प्रकट करें अपना आक्रोश !       वैसे भी ऐसी घटनाओं के पीछे कुछ अपराधी होते हैं       न कि उनकी सारी  जाति या सारा संप्रदाय और न ही वे अपनी जाति या संप्रदाय में कोई जनमत संग्रह करवा  कर ही जाते हैं ऐसी घटनाओं को अंजाम देने  !साथ ही सरकारों को दोषी ठहरा देना कहाँ तक न्यायोचित है अपने छोटे से परिवार के दिमाग में तो ताला लगाकर रखा नहीं जा सकता है फिर सारे देश या प्रदेश को कैसे लाक कर दिया जाए कि अब यहाँ कोई अपराध ही नहीं होंगे !हाँ ,कोई घटना घटने के बाद कोई कार्यवाही न हो या सरकार द्वारा अपराधियों को प्रोत्साहित किया जाए तब तो सरकार दोषी अन्यथा सरकारों को साहित्यकार उपाय सुझावें कि सरकार पहले से आखिर ऐसी कौन सी तैयारियाँ करे जिससे किसी देश वासी को ऐसी परिस्थिति का सामना न करना पड़े !
    सच्चे साहित्यकार पुरस्कारों की ओर ध्यान ही नहीं देते ऐसे पुण्य पुरुष पुरस्कार  हासिल करने और लौटाने की जरूरत ही नहीं समझते !किसी साहित्यकार का गौरव कोई पुरस्कार आँकेगा क्या ?
 किसी पार्टी या नेता के पक्ष विपक्ष  में हवा बनाना साहित्यकार का काम नहीं ! भले ही पुरस्कार हासिल करने में उसका कितना भी योगदान क्यों न रहा हो !किंतु निरंकुशाः कवयः अर्थात साहित्यकार की कलम स्वार्थ की स्याही से नहीं चलती !
  सभी साहित्यकार विद्वान ,सम्माननीय और माँ सरस्वती की संतानें हैं राष्ट्र रचना में सभी महानुभाव अपनी अपनी भूमिका का निष्ठा पूर्वक निर्वाह कर रहे हैं इसलिए देश के लिए सम्माननीय  तो सभी हैं फिर सम्मान कुछ का क्यों ? बाकी अपने को क्या समझें ! 
   राजा केवल एक देश में पुज सकता है किंतु साहित्यकार तो सृष्टि का अघोषित सम्राट होता है !
    इसीलिए बहुत स्वाभिमानी साहित्यकार लोग बिना पुरस्कारों के भी जी लेना चाहते  हैं वो सरकारों से नहीं लगवाना चाहते हैं अपने ऊपर कोई लेवल ! जिनके दर्शनों के लिए पीढ़ियाँ तरसती रहती हैं जिनका साहित्य युगों युगों तक अमर बना रहता है ऐसे महापुरुषों को  पुरस्कृत करना किसके बश की बात है !सरकारों में सम्मिलित लोग तो उन्हें प्रणाम करके लौट आते हैं हिम्मत कहाँ कि उन्हें पुरस्कार दें !हमारे गुरू जी कहा करते थे कि मुझे यदि आज कोई सम्मान मिले इसका मतलब आजतक में सम्मानित नहीं था क्या !पुरस्कार लेने के लिए हमारे हाथ नहीं बढ़ते क्योंकि मैं अपने गौरव गौरव पूर्ण अतीत पर भी गर्व करता हूँ । साहित्यकारों का सम्मान काने में सरकारें पिछड़ जाती हैं साहित्यकार अपने जीवन के दो भाग कैसे करले एक सम्मानित और दूसरा …!उसे अपने जीवन के दोनोंपन प्यारे होते हैं !
    बंधुओ ! पुरस्कारों पर भी आजकल  राजनीति इतनी अधिक हावी है कि योग्य लोगों तक मुश्किल में ही पहुँच पाते हैं पुरस्कार ! बड़े बड़े पुरस्कारों की हालत यह है कि जब अटल जी को देश का सर्वोच्च सम्मान दिया गया तो सारे प्रबुद्ध वर्ग की वाणी पर एक ही वाक्य था कि ऐसा पहले क्यों नहीं किया जा सका ! जबकि व्यक्तित्व की दृष्टि से अटल जी से हलके लोग भी ऐसे सम्मानों के लिए पहले चुने जा चुके थे जबकि उन्हें तब इस योग्य नहीं समझा गया शायद इसीलिए कि उनकी पार्टी की सरकार नहीं थी! खैर जब बड़े बड़े  पुरस्कार पक्षपाती भावना के शिकार होते देखे जाते हैं तो उनसे छोटे पुरस्कार मानकों के आधार पर दिए जाते होंगे इस बात पर विश्वास किसी को नहीं है कहा कुछ भी जाए किंतु ये पुरस्कार जिसे मिल जाते हैं वो तो अपनी योग्यता,कृतित्व  और सद्गुणों को श्रेय देता है जबकि सच्चाई का बयान  वो लोग करते हैं जिन्हें नहीं मिलता है ! 
      बाकी किसी भी क्षेत्र में सैकड़ों हजारों योग्य लोगों की लम्बी लिस्ट में एक दो चार लोगों को चुन लेना कैसे संभव है जबकि उनमें से योग्य सभी होते हैं दूसरी बात पुरस्कारों के लिए जो लोग चुने गए वो उन्हें तो सम्मान मिला या वो सम्मानित हुए या पुरस्कृत हुए किंतु जिन्हें नहीं मिला उन्हें उस चयन प्रक्रिया की दृष्टि से असम्मानित अपुरस्कृत माना जाए क्या ?
      बंधुओ ! आजकल तो पुरस्कार प्राप्त करने के लिए भी राजनैतिक साँठ गाँठ की जरूरत पड़ती ही है !जो पार्टी जिसे पुरस्कार दिलावे वो उसके पक्ष में हवा बनाते फिरें ये कैसा साहित्य और कैसे साहित्यकार !ये तो विरोधी पार्टियों जैसा वर्ताव है इसका साहित्य और साहित्यकारों से क्या लेना देना !यदि कुछ  हो भी तो साहित्यकार तो कलम का शूरमा होता है वो अपना विरोध कलम से दर्ज करा सकता है वो समाज के विचार को बदल सकता है वो सत्ता को निष्प्रभावी कर सकता है साहित्यकार की कलम में वो ताकत होती है कि सत्ता को उसके कलम की नोक को सलाम ठोकना ही होता है बशर्ते वो लेखक और साहित्यकार हो !किंतु पुरस्कृत होते ही साहित्यकार लोग नेता हो जाते हैं इसलिए उनमें साहित्यकारों जैसे गुण कम और नेताओं वाले दुर्गुण ज्यादा दिखाई देने लगते हैं  ये लोग जिस नेता या पार्टी से प्रभावित होते हैं या जिनके सहयोग से पुरस्कार हासिल हुआ होता है उनके पक्ष में हवा बनाना शुरू कर देते हैं जो किसी साहित्यकार का काम नहीं है !
 इसी बिषय में पढ़ें ये भी -
  • साहित्यकारों और सरकारों के सहयोग से ही हो सकता है अच्छे समाज का निर्माण !
साहित्यकारों की जिम्मेदारी है कि वो समाज को जगाएँ और आपराधिक सोच पर अंकुश लगाएँ न कि पुरस्कार लौटाएँ और बेकार में सरकारों पर गुस्सा दिखाएँ ! समाज में अपराधिक सोच न पनपने देना साहित्यकारों की अपनी जिम्मेदारी है । अपराध हो जाने पर कानूनी कार्यवाही करना सरकारों की अपनी जिम्मेदारी है इसलिए समाज में घटित होने वाले प्रत्येक प्रकार के अपराध को सरकारों पर डालकर साहित्यकार अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते !
हमें याद रखना होगा कि सरकारों का शासन जनता के तनों अर्थात शरीरों तक ही सीमित होता है जबकि साहित्यकारों का सीधा प्रवेश जनता के मनों तक होता है साहित्यकार जनता के see more...http://bharatjagrana.blogspot.in/2015/10/blog-post_89.html
  • साहित्यकारों का पुरस्कार पाना हो या लौटाना दोनों राजनीति से प्रेरित होते हैं !
अच्छा रहा कबीर सूर तुलसी मीरा जैसे साहित्यकारों को नेताओं ने कोई पुरस्कार नहीं दिया इसीलिए साहित्यकार के रूप में ही आजतक ज़िंदा रह सके हैं वे लोग !बंधुओ !जिन्हें पुरस्कार नहीं मिलता ऐसे साहित्यकार क्या सम्मानित नहीं होते !
साहित्यकार चाहे तो समाज को बदल सकता है किंतु आज सरकारें पुरस्कार देकर बदल दे रहीं हैं साहित्यकार !अपराध हो जाने पर सरकार किसी अपराधी के शरीर को उठा कर जेल में डाल सकती है फाँसी पर लटका सकती है किंतु सरकार किसी का मन नहीं बदल सकती है जबकि साहित्यकार मन भी बदल सकते हैं !ऐसे सक्षम साहित्यकार यदि थान लें तो बदल सकते हैं समाज और रोक सकते हैं सभी प्रकार के अपराध और बलात्कार ! see more....http://bharatjagrana.blogspot.in/2015/10/blog-post_66.html

 
 

कोई टिप्पणी नहीं: