रविवार, 11 मई 2025

वातादि

                                             

        पंचतत्व  तथा वातादि दोष एवं स्वास्थ्य !   

    आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी इन पंचतत्वों से संसार एवं शरीर दोनों का निर्माण होता है | इन्हीं पंचतत्वों में से आकाश अर्थात खाली जगह और पृथ्वी अर्थात ठोसतत्व स्थिर रहते हैं |इन दो के अतिरिक्त वायु अग्नि और जल जो तीन बचते हैं| ये तीनों ही संतुलित मात्रा में रहकर प्रकृति और शरीरों को धारण करते हैं | इसलिए इन्हें धातु कहा जाता है | इन तीनों की मात्रा असंतुलित होने पर ये प्रकृति और शरीरों को रोगी बनाते हैं | इसलिए इन्हें त्रिदोष  कहा जाता है | आयुर्वेद की भाषा में वायु अग्नि जल को ही वात पित्त और फफ के नाम से जाना जाता है |पित्त का मतलब आग एवं कफ का मतलब जल होता है| वायु  को  ही वात  कहते हैं |      
     प्रकृति और मनुष्य आदि सभी प्राणियों को उचितमात्रा में वात पित्त आदि की आवश्यकता होती है |प्रकृति और जीवन को जिस समय जितनी मात्रा में तापमान या वर्षा की आवश्यकता होती है|उतनी मात्रा में मिलने पर ही प्राकृतिक वातावरण स्वस्थ रह सकता है और उतने में ही साँस लेकर मनुष्य आदि प्राणी स्वस्थ रह सकते हैं | उस मात्रा से कम या अधिक होने से प्राकृतिक वातावरण में बिकार पैदा होने लगते हैं | जो प्रकृति और जीवन दोनों के ही लिए अच्छा नहीं होता है| त्रिदोषों का यह असंतुलन कई बार प्राकृतिक आपदाओं तथा रोगों एवं महारोगों को जन्म देने वाला होता है | 
    वात, पित्त,और कफ़ में से किसी एक दोष का प्रभाव भी यदि निर्धारित मात्रा से बढ़ने या कम होने लगे तो जहाँ एक ओर प्राकृतिक वातावरण बिगड़ने लगता है ,वहीं दूसरी ओर प्राणियों के स्वास्थ्य बिगड़ने लगते हैं | यदि यह प्रभाव बहुत अधिक असंतुलित होने लगे तो प्राकृतिक वातावरण अधिक बिगड़ने लग जाता है|जिससे तरह तरह की प्राकृतिक घटनाएँ घटित होने लगती हैं|ऐसा प्राकृतिक वातावरण स्वास्थ्य के प्रतिकूल होने लग जाता है | दुर्घटनाएँ घटित होने लगती हैं|कुछ उसप्रकार के रोग पैदा  होने लगते हैं|ऐसे ही यदि कोई दो दोष असंतुलित हो जाएँ तो  वातावरण और अधिक बिगड़ता जाता है |प्राकृतिक आपदाएँ अधिक घटित होने लगती हैं | मनुष्यादि जीवों में बड़े बड़े रोग पैदा होने लगते हैं |यदि तीनों दोष असंतुलित हो जाएँ तो प्राकृतिक वातावरण बहुत अधिक बिगड़ जाता है |उससे जहाँ एक ओर महामारी जैसे बड़े बड़े रोग पैदा होते हैं |वहीं दूसरी ओर भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात जैसी घटनाएँ निर्मित होने लगती हैं |      
    जिसप्रकार से सब्जी बनाने के लिए कड़ाही तेल मशाले नमक मिर्च आदि उचित मात्रा में डाले जाएँ तभी वह स्वादिष्ट एवं स्वास्थ्य के लिए हितकर बनती है |उसी सब्जी में वही तेल मशाले आदि यदि बहुत अधिक या बहुत कम डाल दिए जाएँ तो उस सब्जी के स्वाद और गुण दोनों बिगड़ जाते हैं |ऐसे ही औषधि  निर्माण प्रक्रिया में घटक द्रव्यों को उचित अनुपात में डालकर बनाई गई औषधियाँ  ही रोगों से मुक्ति दिलाने में सक्षम होती हैं| उनमें से कुछ द्रव्यों को यदि निर्धारित मात्रा से कम या अधिक डाल दिया जाए तो उसऔषधि के प्रभाव में अंतर आ जाता है| इस असंतुलन की मात्रा में यदि बहुत अधिक अंतर आ जाए तो वह औषधि  स्वास्थ्य के लिए अहितकर भी हो सकती है | 
    इसीप्रकार से  प्रकृति एवं जीवन को वात पित्त और कफ के उचित प्रभाव की आवश्यकता होती है | ये त्रिदोष जबतक संतुलित रहते हैं ,तब तक प्राकृतिक वातावरण और जीवन स्वस्थ रहता है | ऐसे स्वस्थ वातावरण में पले बढ़े  शाक सब्जी फल फूल आदि खाने से शरीर स्वस्थ एवं बलिष्ट रहते हैं | स्वस्थ वातावरण में पली बढ़ी बनस्पतियों से निर्मित औषधियाँ  बड़े बड़े रोगों से मुक्ति दिलाने में समर्थ  होती  हैं | ऐसा अवसर जब तक  रहता  है तबतक प्राकृतिक आपदाओं की संभावना बहुत कम रहती है | प्रकृति अनुकूल व्यवहार करते देखी जाती है |इनके संतुलित रहने पर  प्राकृतिक वातावरण में साँस लेने से मनुष्य आदि सभी प्राणी स्वस्थ एवं प्रसन्न रहते हैं | 
     इनमें से किसी एक का भी प्रभाव यदि अपनी निर्धारित मात्रा से बढ़ता या घटता है तो उससे प्रकृत्ति और जीवन दोनों में बिकार आने लगते हैं | यदि इनमें से दो दोष असंतुलित होते हैं तो प्रकृति आक्रामक होने लगती है और प्राणियों के स्वास्थ बिगड़ने लगते हैं | यदि ये तीनों दोष विकृत एवं असंतुलित होने लगते हैं तो हिंसक प्राकृतिक आपदाएँ एवं महामारी जैसे बड़े रोगों की संभावना बनने लगती है | 
         
त्रिदोष असंतुलन की प्रक्रिया  
  
ऋतुओं के आने और जाने का अपना निर्धारित समय और प्रभाव होता है | शिशिर (सर्दी) ग्रीष्म (गर्मी) वर्षा आदि प्रमुख ऋतुओं का प्रभाव प्रायः ऋतुओं के अपने समय से प्रारंभ होकर और निर्धारित समय सीमा तक रहता है | जिस वर्ष ऋतुओं का प्रभाव अपने समय से प्रारंभ होकर उस ऋतु की निर्धारित समय सीमा तक रहता है|
      कई बार ऐसा होता है कि ऋतु प्रभाव ऋतुओं की निर्धारित अवधि से अधिक समय तक रहता है तो कभी कम समय तक रहता है | यह कभी उचित अनुपात में रहता है तो किसी एक ऋतु का प्रभाव  बहुत अधिक बढ़ जाता है,या किसी एक ऋतु का समय काफी लंबा खिंच जाता है | ऐसे ही किसी किसी वर्ष ऋतुप्रभाव कम समय तक रहता है | नवंबर दिसंबर तक सर्दी पड़नी शुरू ही नहीं होती है या फिर जनवरी फरवरी से ही सर्दी कम होने लग जाती है |इस प्रकार से कम समय में ही ऋतुओं का प्रभाव समाप्त होने लग जाता है |  
इसी प्रकार से ऋतुओं के प्रभाव का अपना वेग होता है |कभी कभी ऋतुओं की अवधि का समय कम हो जाता है किंतु उस कम समय में ही ऋतुओं के प्रभाव का वेग बहुत अधिक होता है | यही वेग किसी वर्ष बहुत कम बना रहता है | कई बार ऋतुओं का समय अधिक होता है किंतु उनका वेग बहुत कम होता है |किसी वर्ष कम समय में ही बहुत अधिक वर्षा ,सर्दी या गर्मी हो जाती है | वह वर्ष प्रकृति एवं जीवन दोनों के लिए ही हितकर नहीं होता है |
          कई बार ऋतुओं का प्रभाव भी कम होता है और अवधि भी कम रहती है | ऐसे ही कई बार दोनों अधिक होते देखे जाते हैं | कई बार किसी एक ऋतु में दूसरी ऋतु की घटनाएँ घटित होते देखी जाती हैं |कई बार सर्दी के समय में वर्षा होने लगती है और कई बार गर्मी के  समय में वर्षा होते देखी जाती है | 
  एक ऋतु का प्रभाव उचित मात्रा में हो और दूसरी ऋतु का प्रभाव असंतुलित अर्थात बहुत कम या बहुत अधिक हो | ऐसा तभी होता है जब एक ऋतु अपना प्रभाव कम समय में अधिक वेग के साथ छोड़े और दूसरी ऋतु की अवधि का पूर्ण पालन करे | प्रायः ऐसा होता नहीं है | जिस प्रकार से किसी गाड़ी का एक पहिया किसी गड्ढे में चला जाए तो उससे पूरी गाड़ी ही असंतुलित होती है | ऐसे ही एक ऋतु के असंतुलित होते ही सभी ऋतुएँ असंतुलित हो जाती हैं |उससे संपूर्ण ऋतुचक्र प्रभावित होता है | 
 प्रकाश और अंधकार की तरह ही सर्दी और गर्मी एक दूसरे के विरोधी हैं |प्रकाश बढ़ता है तो अंधकार स्वयं घटता है और अंधकार बढ़ता है तो प्रकाश घटता है | ऐसे ही सर्दी बढ़ती है तो गर्मी घटती है और गर्मी बढ़ती है तो सर्दी घटती है | जिस वर्ष गर्मी बढ़ती है उस वर्ष वर्षा अधिक होती है | इस प्रकार से सभी ऋतुएँ एक दूसरे के प्रभाव से प्रभावित होती रहती हैं |  
इसीलिए जिस वर्ष सर्दी का समय लंबा खिंच जाता है | उस वर्ष गर्मी के समय में कटौती हो जाती है ,अर्थात गर्मी का समय कम रह जाता है | जिस वर्ष सर्दी अधिक होती है | प्रायः उस वर्ष गर्मी कम हो जाती है | गर्मी के कम पड़ने पर वर्षा कम होती है |इससे तीनों ही प्रमुख ऋतुएँ असंतुलित हो जाती हैं | इसका प्रभाव वर्षाऋतु पर भी पड़ता है |
इसमें विशेष बात एक और है कि किस ऋतु का प्रभाव कितना रहेगा | ये आदि काल से ही निर्धारित है | जिस वर्ष जो ऋतु अपना संपूर्ण प्रभाव अपने समय में नहीं दे पाती हैं | उस वर्ष वही ऋतु कुछ दूसरी ऋतुओं में अपना प्रभाव देती देखी जाती है | जिससे उन ऋतुओं के अपने प्रभाव में विकृति आती है | कोरोना काल के वर्षों में सर्दी समय से पहले ही समाप्त होने लगती थी | जिससे प्रकृति भ्रमित होने लगी थी | नवंबर दिसंबर के महीनों में आम के पेड़ों में बौर लगते देखे जा रहे थे | 
     इसके बाद वर्षा शुरू हो जाती थी |  अप्रैल मई के महीनों तक वर्षा होती रहती थी | उसके बाद गर्मी प्रारंभ होती थी | गर्मी के बाद वर्षाऋतु का समय होता था | उसमें भी कभी या कहीं अतिवृष्टि  तो अनावृष्टि होते देखी जाती थी | उसके बाद गर्मी प्रारंभ  हो जाती थी | इसलिए सितंबर अक्टूबर में मई जून की तरह गर्मी पढ़ती देखी जाती थी | बताया जा रहा था कि 2022 \23 के  सितंबर की गर्मी ने 120 वर्ष का रिकार्ड तोड़ दिया है |  
     इसीप्रकार से सर्दी होने का समय और प्रभाव यदि  बढ़ जाता है तो गर्मी होने का समय और प्रभाव कम हो जाता है |गर्मी यदि कम पड़ेगी तो वर्षा कम होगी | इस प्रकार से किसी एक ऋतु के असंतुलित होने पर कुछ दूसरी ऋतुएँ  भी प्रभावित होने  लग जाती हैं |इससे उनका प्रभाव भी असंतुलित होते चला जाता है |  
    कई बार कोई एक ऋतु कुछ दूसरी ऋतुओं के प्रभाव से प्रभावित हो जाती है | सन 2020 और 2021 में अप्रैल मई महीने तक वर्षा हुई थी | 
    
त्रिदोष असंतुलन का प्रभाव ! 
   शिशिर ऋतु में उचित मात्रा में सर्दी पड़ने का मतलब स्वस्थ प्रकृति एवं स्वस्थ शरीरों के लिए जितनी मात्रा में सर्दी की आवश्यकता है उतनी सर्दी पड़ी है | इससे लोग स्वस्थ रहते हैं | उससे कम या अधिक सर्दी पड़ने का मतलब सर्दी का प्रभाव प्रकृति एवं स्वास्थ्य के लिए  हितकर नहीं है |सर्दी जितनी अधिक या कम होती है उतना ही अधिक प्रकृति एवं स्वास्थ्य के लिए अहितकर होता है |ऐसी न्यूनाधिकता जब ग्रीष्म और वर्षा ऋतु के प्रभाव में भी दिखाई पड़ती है,तब भी इससे प्राकृतिक आपदाओं तथा रोगों महारोगों आदि के पैदा होने की संभावना बन जाती है |
  ऋतुओं का प्रभाव जिस वर्ष उचित अनुपात में रहता है | उस वर्ष वात पित्त और कफ का प्रभाव भी उचित मात्रा में रहता है |ऐसे वर्ष में प्राकृतिक वातावरण प्रकृति एवं जीवन दोनों के लिए ही हितकर रहता है| ऐसे समय समस्त चराचर प्रकृति प्राकृतिक आपदाओं से मुक्त होकर सुख और उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करने वाली हो जाती है |वह वर्ष प्रकृति एवं जीवन दोनों के लिए ही अच्छा होता है | ऐसे समय सभी प्राणी स्वस्थ एवं प्रसन्न रहते हैं|ऐसा समय प्राकृतिक संकटों से मुक्त रहता है| 
  इन तीनों की साम्यावस्था जब तक प्रकृति में बनी रहती है,तब तक प्राकृतिक उपद्रवों से मुक्त प्राकृतिक वातावरण बना रहता है |इन त्रिदोषों की साम्यावस्था जब तक शरीरों में बनी रहती है तब तक शरीर स्वस्थ एवं मन प्रसन्न बना रहता है |वात पित्त और कफ की साम्यावस्था का नाम ही आरोग्य है! इन तीनों को साम्यावस्था में बनाए रखना ही चिकित्साशास्त्र का उद्देश्य है |
जिस वर्ष सर्दी कम या अधिक पड़ती है |उस वर्ष सर्दी अर्थात कफ की कमी या अधिकता का प्रभाव प्राकृतिक वातावरण पर पड़ता है |प्रकृति की ऐसी अवस्था को ऋतुध्वंस कहा जाता है | ऐसा प्राकृतिक वातावरण स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं रह जाता है | इसमें साँस लेने से मनुष्य शरीर रोगी होने लगते हैं | ऐसे समय में प्रकृति और जीवन दोनों ही रुग्ण होने लगते हैं | ऐसे समय तरह तरह के रोग महारोग(महामारियाँ ) एवं प्राकृतिक आपदाएँ आदि पैदा होते देखी जाती हैं |
     कई बार तो ऋतुएँ अपने गुणों से हीन  होकर कुछ दूसरे गुणों से युक्त हो जाती हैं | जो रोगमुक्ति में सहायक न होकर रोगवर्द्धन में सहायक होते  देखी  जाती  हैं | ऐसे बिकारित वातावरण में पैदा हुई बनस्पतियों से निर्मित औषधियाँ प्रभावी नहीं रह जाती हैं | यही कारण है कि महामारीसंक्रमितों पर औषधियों का प्रभाव उतना नहीं पड़ पाता है | जितनी अपेक्षा की जाती है | इसीलिए औषधि लेने के बाद भी महामारीजनित संक्रमण बढ़ता चला जाता है |       
     जिन वर्षों में प्रकृति इतना अधिक असंतुलित रहती है | उनमें प्रकृति और जीवन दोनों रोगी हो ही जाते हैं | ऐसी ऋतुओं में पैदा हुआ अन्न दालें शाक सब्जी आदि खाना तो दूर ऐसे वातावरण में साँस लेने मात्र से लोग रोगी होने लगते हैं | ऐसे वातावरण में पली बढ़ी शाक सब्जियाँ  फल फूल आदि खाने पीने वाली सभी वस्तुओं में बिकार आ जाते हैं | इन्हें खाने से रोग पैदा होने एवं बढ़ने लगते हैं | ऐसे समय में  पैदा होने वाली बनस्पतियाँ या औषधीय द्रव्य आदि स्वयं बिकारित हो जाने के कारण इनकी रोगों से मुक्ति  दिलाने की क्षमता कमजोर पड़ जाती है | 
  विशेष बात यह है कि प्राकृतिक आपदाओं एवं महामारियों के पैदा होने का कारण यदि त्रिदोष का असंतुलित होना ही है,तो इसके लिए आवश्यक है कि ऋतुओं और उनके प्रभाव की अवधि और वेग पर चिंतन किया जाए |                   

                                 महामारी  के पैदा होने का कारण था त्रिदोषों का असंतुलन !
     महामारी की उत्पत्ति को लेकर तरह तरह की आशंकाओं से जिज्ञासुजन जूझ रहे हैं | विशेषज्ञ लोग किसी देश विशेष की प्रयोगशाला से निकले बिषाणुओं  को महामारी पैदा होने के लिए जिम्मेदार मानने की भावना से भावित हैं| उनके लिए हमारा निवेदन  है कि केवल महामारी ही नहीं आई है कि उसके लिए किसी भी काल्पनिक प्रतीक को जिम्मेदार मानकर चुप बैठ जाएँ | 
    महामारी आने के साथ साथ मौसम संबंधी कुछ ऐसी घटनाएँ घटित होती रही हैं | जो हमेंशा नहीं देखी जाती हैं | कोरोना काल में बार बार भूकंप आते रहे हैं | मनुष्यों से लेकर सभी प्रकार के जीव जंतु  उन्मादित होने के कारण अनियंत्रित व्यवहार कर रहे थे | कुछ देश आंदोलनों से जूझ रहे थे | कुछ देशों में दंगे फैले हुए थे | कुछ देश आपस में एक दूसरे से युद्ध करते देखे जा रहे थे | ऐसी अनेकों प्राकृतिक घटनाएँ जो महामारी काल में घटित हो रही थीं | वे महामारी से संबंधित रही हैं | इतनी बड़ी बड़ी प्राकृतिक घटनाओं के घटित होने का कारण कोई समुदाय या देश कैसे हो सकता है |इतना बड़ा ऋतुविप्लव किसी देश की देन  नहीं हो सकता | हमारे अनुसंधान के अनुसार ऐसा नहीं है | यदि इसमें आंशिक सच्चाई हो भी तो केवल इतना माना जा सकता है कि  उसने केवल माचिस की तीली जलाकर डालने जितना काम ही किया  होगा| उस तीली को जलाकर फेंकने मात्र से आग नहीं लग जाती है |इसके लिए तीली जलाकर जहाँ फेंकी गई हो वहाँ ज्वलनशील ईंधन की आवश्यकता होती है | ऐसी स्थिति में किसी देश विशेष की प्रयोगशाला से यदि कोरोना निकला भी हो तो भी उसे संक्रमित होने लायक प्रतिरोधक क्षमता विहीन लोग कैसे मिल गए | इसका मतलब कोरोना प्रकृति में पहले से ही विद्यमान था | 
    जिस प्रकार से जलाकर फेंकी गई माचिस की तीली  ईंधन न मिले तो स्वतः बुझ जाती है| उसी प्रकार से  किसी देश विशेष के द्वारा यदि ऐसा  कुछ किया भी गया होता तो संक्रमित होने लायक लोगों के शरीर न मिले होते तो लोग संक्रमित नहीं होते | बहुत लोग संक्रमित होने से बच गए उन पर उस देश के प्रयत्न का या बिषाणु का प्रभाव नहीं पड़ा | उनके शरीरों में ऐसा कुछ विशेष अवश्य था जिसके कारण वे महामारी से सुरक्षित रह सके | इसका अर्थ यह है कि वह विशेष उन शरीरों में नहीं था जो संक्रमित हुए | यदि उस विशेष को प्रतिरोधक क्षमता ही ही लिया जाए | जिसकी कमी के कारण लोग संक्रमित हुए तो उनकी प्रतिरोधक क्षमता कम करने में उस देश विशेष की भूमिका तो नहीं थी | इतनी बड़ी संख्या में लोगों की प्रतिरोधक क्षमता एक साथ ही क्यों कम हुई | इसमें उस देशविशेष का योगदान तो नहीं था | 
      वैसे भी कोई शत्रुदेश जब हमला करता है तो सुरक्षित अपनी तैयारियों के बलपर रहना होता है | शत्रु की कृपा पर नहीं |शत्रु तो हमला करेगा ही वो एक से एक घातक वार भी करेगा | उससे बचाव के लिए पहले से तैयारियाँ करके रखनी होती हैं | महामारी से बचाव के लिए शरीरों को प्रतिरोधकक्षमता संपन्न बनाकर हमेंशा रखना होता है | ऐसा करने में  यदि हम सफल हुए होते तो जैसे बहुत सारे लोग महामारी में संक्रमित होने से बच गए  वैसे वे लोग भी भी संक्रमित होने से बच गए होते जो संक्रमित हुए |  
     वर्तमान समय में देखा जाता है कि चिकित्सालयों में प्रतिदिन बड़ी बड़ी भीड़ें लगी रहती हैं | वहाँ प्रायः सभी रोगियों की अनेकों प्रकार की जाँचें हुआ करती हैं | बहुत लोग रोगी हुए बिना भी अपनी एवं अपने पारिवारिक सदस्यों की स्वास्थ्य संबंधी जाँचे करवाते ही रहते हैं | इन जाँचों की प्रक्रिया में ऐसा कुछ अवश्य सम्मिलित किया जाना चाहिए जिससे आगे से आगे यह पता लगता रहे कि इतनी बड़ी संख्या में लोग प्रतिरोधक क्षमता खोते जा रहे हैं | इससे कम से कम इतना पता तो लग ही सकता है कि समाज के बहुत लोगों में प्रतिरोधक क्षमता अचानक कम होती जा रही है | इससे ऐसे लोगों के रोगी होने की संभावना बढ़ती जा रही है | 
     लोगों के रोगी होने का कारण यदि प्रतिरोधक क्षमता की कमी ही है | यदि यह पहले से पता  लग जाता तो लोगों की सुरक्षा के लिए आगे से आगे उस प्रकार के मजबूत प्रयत्न तो किए ही जा सकते थे | महामारी प्रारंभ होने पर लाखों लोगों के संक्रमित हो जाने के बाद यह पता लगना  कि लोगों के संक्रमित होने का कारण प्रतिरोधक क्षमता की कमी है | ये न तो तर्क संगत है और न ही विश्वसनीय है | यह  उपयोगी भी इसलिए नहीं है क्योंकि तब तक जो होना था वो तो हो ही चुका होता है | उसके बाद ऐसी बातों का औचित्य ही क्या रह जाता है | इससे एक संशय और भी पड़ा होता है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि  प्रतिरोधक क्षमता की कमी से रोगी हो रहे  लोगों को ही महामारी के कारण रोगी हुए हैं ऐसा माना जा रहा है ,क्योंकि प्रतिरोधक क्षमता जिनकी कमजोर हो चुकी होती है वे तो बिना महामारी  के भी रोगी या अस्वस्थप्राय रहा ही करते हैं | ऐसे लोगों के रोगी होने का कारण तो कुछ भी हो सकता है | वे पौष्टिक भोजन करते हैं तो वह भी न पचने के कारण  वे रोगी होते देखे जाते हैं | 
      इसलिए महामारी पड़ा होने के लिए ऐसे कारणों को जिम्मेदार मानना मुझे तर्कसंगत  नहीं लगता है | मैं पिछले 35 वर्षों से समय विज्ञान के आधार पर अनुसंधान करता आ रहा हूँ | उन अनुभवों के आधार पर मुझे सन 2013 के बाद से ही वात आदि असंतुलित होने लगे थे | इससे रोगों के पैदा होने की भूमिका बनने लगी थी |
    गर्भिणी स्त्रियों के शरीरों में मुखमण्डल पर कुछ ऐसे चिन्ह झलकने लगते हैं जो हमेंशा नहीं देखे जाते हैं | उनके आहार बिहार रहन सहन स्वभाव  स्वास्थ्य आदि में  उस प्रकार के बदलाव होने लगते हैं | जिन्हें देखकर अनुभवी माताएँ न केवल गर्भ होने का अनुमान लगा लिया करती हैं बच्चे का स्वभाव रंग आदि कैसा हो सकता है | वात पित्त कफ आदि के आधार पर यह अनुमान लगा लिया जाता है | इसके साथ ही साथ गर्भिणी के उन विशेष लक्षणों को देखकर ही उन्हें इस बात का भी अनुमान हो जाता है कि यह गर्भ लगभग कितने महीने का होगा,  और इसका प्रसव लगभग  कब हो सकता है  | 
    इसीप्रकार से प्रकृति में कभी कुछ विशेष प्रकार की ऐसी प्राकृतिक घटनाएँ घटित होने लगती हैं | जो हमेंशा घटित होते नहीं दिखाई पड़ती हैं | ये जलवायुपरिवर्तन न होकर प्रत्युत किसी प्राकृतिक घटना  का गर्भप्रवेश  हो रहा होता है | इसी प्रकार से उस घटना के गर्भवास के चिन्ह विभिन्न घटनाओं के रूप में दिखाई देते हैं | इसके बाद प्रसव होने पर वो घटना सभी को दिखाई पड़ती है  | कोई भी प्राकृतिक घटना जब गर्भ में पल रही होती है |उससमय उसके लक्षण प्रकट होने लगते हैं | उन्हें  उसी समय पहचानकर उनके आधार पर उस घटना के विषय में पूर्वानुमान लगा लेना ही उस घटना के विषय में किया गया वैज्ञानिक अनुसंधान है | 
कुछ ऐसे चिन्ह आहारबिहार रहन सहन में विभिन्न प्रकार के ऋतु बिपरीत घटित होते देखे जा रहे प्राकृतिक लक्षणों के आधार पर ऐसा लगने लगा था कि प्रकृति के गर्भ में किसी रोग के निर्मित होने की तैयारी प्रारंभ हो गई है | समय बीतने के साथ साथ मेरी यह धारणा बलवती  होती चली गई | सन 2017 \18 तक ऐसे सभी लक्षण प्रत्यक्ष हो लगे थे | जिससे मेरा निश्चय और मजबूत होता जा रहा था | सन 2018 में मैंने कई प्रभावी लोगों को इस आशंका से अवगत भी करवाया था |महामारी की सभी लहरों के विषय में मैंने आगे से आगे पूर्वानुमान लगाकर देश के प्रभावी लोगों एवं सरकारों तक पहुँचाए हैं | जो सही निकलती रही हैं | वे सूचनाएँ मेलों में अभी भी सुरक्षित हैं |  
     विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक घटनाएँ  घटित  होना भी इसके प्रत्यक्ष साक्ष्य हैं | जिन्हें मनुष्यों के द्वारा घटित किया जाना संभव नहीं है | इसलिए मैं विश्वास पूर्वक कह सकता हूँ कि महामारी प्राकृतिक रूप से ही पैदा हुई थी |

                                         महामारी और सामान्य रोगों में अंतर 

     महामारी प्राकृतिक महारोग है| प्राकृतिक रोग हो या महारोग ये अपने समय से प्रारंभ होते हैं और समय से ही समाप्त होते हैं | कोई रोग प्राकृतिक है या मनुष्यकृत इसकी सबसे बड़ी पहचान यह है कि कोई प्राकृतिक रोग जब प्रारंभ होता है, तब बहुत सारे लोगों को रोगी करता है |उन रोगियों के रोग लक्षण प्रायः एक जैसे होते हैं|मनुष्यकृत रोगों में सभी रोगियों की  परिस्थितियाँ  अलग अलग होती हैं | रोग लक्षण भी अलग अलग होते हैं | 
    महामारी के अतिरिक्त समय में भी कुछ लोगों का आहार बिहार रहन सहन आदि बिगड़ जाने से उनके अपने त्रिदोष असंतुलित  हो जाते हैं | इसलिए वे रोगी हो जाते हैं |ऐसे समय बहुत लोग रोगी नहीं होते हैं | जो रोगी हो भी जाते हैं |चिकित्सकीय प्रयासों से औषधियों के सेवन से आहार बिहार आदि में सुधार कर लेने से वे स्वस्थ हो जाते हैं | कुल मिलाकर आहार बिहार रहन सहन आदि बिगड़ जाने से जो रोगी होते हैं |उनके रोगकारण उनके अपने शरीरों में विद्यमान होते हैं |उसमें सुधार कर लेने से स्वास्थ्य सुधार हो जाता  है | प्राकृतिक रोगों  या  महारोगों में रोग होने का कारण  शरीरों से बाहर अर्थात प्राकृतिक वातावरण में विद्यमान होते हैं | ऐसे वातावरण में साँस लेने से तथा उसी बिषैले वातावरण में पैदा हुए अनाजों दालों शाक सब्जियों  फूलों फलों आदि को खाने से शरीर रोगी हो जाते हैं | साँस उसी वातावरण में लेना होगा और कुछ न कुछ तो खाना ही पड़ेगा | वो उस बिकारित वातावरण में पैदा हुआ होगा तो दवाओं से विशेष लाभ होने की संभावना नहीं होती है | इसमें एक और विशेष बात यह है कि ऐसे रोगों से मुक्ति दिलाने वाली औषधियाँ जिन घटक द्रव्यों से बनस्पतियों से बनाई जाती हैं | वे भी इसी  बिकारित वातावरण  से प्रभावित होते हैं | इसलिए उन औषधियों का ऐसे रोगियों पर प्रभाव नहीं पड़ता है | ऐसी स्थिति में  संक्रमितों के स्वस्थ  होने में मनुष्यकृत प्रयत्नों की भूमिका  बहुत कम होती है | ऐसे रोगियों को प्राकृतिक सुधारों के साथ ही  स्वास्थ्य लाभ हो पाता है | 
       प्राकृतिक सुधार  होते समय लोग तो स्वस्थ होने लगते हैं किंतु स्वस्थ होने का कारण पता नहीं लग पाता है | दूसरी बात स्वस्थ होने के लिए रोगी कोई न कोई प्रयत्न तो कर ही रहे होते हैं |विशेष बात ये है कि सभी रोगियों के द्वारा किए जा रहे प्रयत्न एक जैसे नहीं होते हैं | कोई अलग जड़ीबूटियों से निर्मित काढ़ा पी रहा होता है | कोई चूर्ण छाल आदि का सेवन कर रहा होता है |  कोई किसी चिकित्सालय से चिकित्सा का लाभ ले रहा होता है | चिकित्सा करते समय भिन्न भिन्न  चिकित्सालयों के चिकित्सक  भिन्न भिन्न पद्धतियों औषधियों से प्रक्रियाओं का अनुपालन करते देखे जाते हैं | कोई पूजा पाठ दान धर्म एवं अलग अलग मंत्र जप कर रहे होते हैं | भिन्न भिन्न देवी देवताओं की मनौतियाँ माँग रहे होते हैं | स्वस्थ होने के लिए अपनाई जा रही उन सभी प्रकार की प्रक्रियाओं में एक रूपता नहीं होती है | उन में पर्याप्त अंतर होता है | यहाँ तक कि कई बार ऐसे उपाय एक दूसरे के विरोधी होते हैं फिर भी परिणाम एक जैसे निकल रहे होते हैं | स्वस्थ होते समय सभी लोग साथ साथ ही  स्वस्थ होते जा रहे होते हैं | 
      कोरोना काल में देखा गया कि ऐसे तमाम उपायों को करने या न करने  वाले स्वदेश से लेकर विदेशों तक के लोग किसी भी लहर के समाप्त होते समय साथ साथ स्वस्थ हो रहे होते थे | ऐसे समय स्वस्थ होने के लिए जो लोग कोई न कोई उपाय करते  रहे होते हैं | वे अपने अपने स्वस्थ होने का श्रेय अपने अपने द्वारा किए जा रहे उपायों को दे रहे होते हैं | इसकी सच्चाई तब पता लग पाती है जब उसी प्रकार की कोई दूसरी लहर आती है | उस समय लोग अपने द्वारा किए गए उन्हीं उपायों को दोहराते हैं तब उन्हें उनसे कोई लाभ नहीं मिलता है | उस समय उन्हें इस बात पर भरोसा होता है कि पहले भी उनके स्वस्थ होने का कारण उनके द्वारा किए गए वे उपाय नहीं थे | ये भ्रम का सामना चिकित्सा जगत को भी करना पड़ता है |प्लाज्मा थैरेपी को पहले संक्रमण से मुक्ति दिलाने में सक्षम माना गया था ,दूसरी लहर में उससे लाभ नहीं होता देखकर उससे किनारा कर लिया गया | कुल मिलाकर प्राकृतिक रोग या महारोगों की लहरें तभी शुरू होते हैं जब प्राकृतिक वातावरण बिगड़ता है और जब प्राकृतिक वातावरण सुधरता है तभी शांत होते हैं |     

                                                      रोग और चिकित्सा 
     
       प्राकृतिक रूप से हो या व्यक्तिगत रूप से त्रिदोषों का असंतुलन होने पर रोग होते हैं| त्रिदोषों का संतुलन जिस किसी भी प्रकार से होने पर रोग मुक्ति मिलती जाती है | इसका मतलब ये नहीं है कि औषधि सेवन से ही रोगमुक्ति मिल सकती है |कोई चूर्ण गोली रस रसायन आदि खाना ही चिकित्सा नहीं है | सामान्यरूप से चिकित्सा का मतलब हमारे शरीरों में असंतुलित हुए वात पित्त कफ आदि को संतुलन में लाना होता है | इन्हें जिस किसी भी प्रकार से संतुलित किया जा सके वह सब कुछ चिकित्सा है| कुछ लोग स्वच्छवायु में साँस लेकर तो कुछ लोग स्वच्छ वातावरण में भ्रमण करके या स्वास्थ्य के अनुकूल खान पान से वात पित्त कफ को संतुलित करने में सफल हो जाते हैं | ऐसे रोगियों को रोगमुक्त होते देखा जाता है | औषधियों के सेवन से ,रहन सहन से आहार बिहार शोधन कर लेने से ,स्वच्छ वायु में साँस लेने से शरीरों में  उस प्रकार की कमी की पूर्ति करके वात पित्त आदि संतुलित कर लिए जाते हैं | ऐसा करने से  भी रोगी स्वस्थ होने लग जाते हैं | 
     कुछ लोग अपने आहार बिहार आदि को संयमित बनाए रहते हैं | इसलिए उनके वात  पित्त  आदि असंतुलित होते ही नहीं हैं | वे रोगी भी  नहीं होते हैं | कुछ लोग रोगी होने के बाद अपने त्रिदोषों को संतुलित करके रोग मुक्त  हो  जाते हैं | ऐसे लोगों को अपने शरीर की भाषा समझने का अभ्यास होता है |किसी रोग से मुक्ति दिलाने के लिए उस के  वात पित्त कफ को संतुलित मात्रा में लाना होता है | ऐसा होते ही रोगों से स्वतः मुक्ति मिलने लगती है | वात पित्त कफ को संतुलित करने के लिए अपने आहार बिहार आदि में उस प्रकार के परिवर्तन करने होते हैं | 
     सुदूर गाँवों या जंगलों में जहाँ चिकित्सकीय विकास नहीं पहुँच सका है | वहाँ भी लोग रोगी होते हैं और बिना औषधीय चिकित्सा के स्वस्थ भी हो जाते हैं | ऐसे लोग स्वस्थ वातावरण में रहकर स्वच्छ हवा में सॉंस लेकर योग व्यायाम एवं दैनिक जीवन में परिश्रम करके अपने वात पित्त आदि  दोषों को संतुलित कर लेते हैं | ऐसे लोग औषधीय चिकित्सा के बिना भी स्वस्थ होते देखे जाते हैं | स्वस्थ वातावरण में पले  बढ़े फल फूल अनाज दालें शाक सब्जियाँ आदि स्वस्थ होती हैं | जिन्हें खाने से उनके त्रिदोष संतुलित हो जाते हैं | वे इसी से स्वस्थ हो जाते हैं |
    औषधीय चिकित्सा की आवश्यकता वहाँ पड़ती है | जहाँ लोगों के रोगी होने का कारण ऋतु बिपरीत आहार बिहार होता है | लंबे समय तक ऐसा करते  रहने से कुछ लोगों में जिन पोषणीय तत्वों की कमी हो  जाती  है | उससे होने वाले रोगों को केवल खान पान आदि से पूरा किया जाना कठिन होता है | इसके लिए कुछ उस प्रकार की  बनस्पतियों से निर्मित औषधियों का सेवन किया या कराया जाता है | जिनमें उसप्रकार के तत्वों की अधिकता होती है | जिससे उन तत्वों की आपूर्ति होकर स्वास्थ्य में सुधार कर लिया जाता है| 
    कुलमिलाकर रोगमुक्त रहने के लिए जिस किसी भी प्रकार से वात पित्त कफ को संतुलित रखना आवश्यक होता है |महामारी के अतिरिक्त समय में  रोगी होने पर विशेष बात ये होती है कि उस समय प्राकृतिक वातावरण स्वस्थ मिल जाता है| इसलिए उस समय रोगों से मुक्ति मिलनी कुछ आसान हो जाती है | स्वास्थ्य सुधार की दृष्टि से उसका भी लाभ मिल जाता है | महामारी के समय संपूर्ण प्राकृतिक वातावरण ही बिकारित हो  जाने के कारण स्वास्थ्य सुधार की दृष्टि से समय और प्रकृति का सहयोग नहीं मिल पाता है |इसलिए उस समय रोगों से मुक्ति मिलनी आसान नहीं होती है ,जबकि महामारी के अतिरिक्त समय में होने वाले रोगों में समय और प्रकृति का सहयोग मिलने के कारण रोगों से मुक्ति मिल जाती है |      
     इन्हें संतुलित करने के लिए प्राचीनकाल में ऋषि मुनियों को औषधियों  की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी | वर्तमान समय में भी बहुत लोग वात पित्त आदि दोषों को संतुलित रखते हुए स्वस्थ बने रहते हैं |     
     प्राचीनकाल में ऋषि मुनि  ऐसे अध्ययनों एवं अनुसंधानों के लिए ही जंगलों के प्राकृतिक वातावरण में रहा करते थे | उनके आश्रम एक दूसरे से दूर इसीलिए हुआ करते थे |जिससे अलग अलग स्थानों के प्राकृतिक वातावरण का अनुभव अध्ययन अनुसंधान आदि करने में सुविधा हो |
 
      
                                                                महामारी रहस्य !

      महामारी काल में  लोगों के रोगी होने या मृत्यु होने का कारण महामारी रही है या वातपित्त कफ आदि दोषों का असंतुलन रहा है | विशेष बात यह है कि महामारी काल में  लोगों के रोगी होने या उनमें से  कुछ लोगों की मृत्यु होने के लिए यदि महामारी को जिम्मेदार माना जाए तो महामारी जब नहीं होती है | ये दोनों घटनाएँ तो तब भी घटित होते देखी जाती हैं | लोगों के रोगी होने एवं मृत्यु होने की घटनाएँ तो तब भी घटित होती रहती हैं | जो घटनाएँ  महामारी होने या न होने पर  दोनों ही अवस्थाओं में घटित होती रहती हों | उन्हें महामारी से जोड़कर देखा जाना उचित नहीं है | उसी कोरोना काल में ऐसे लोगों की भी मौते हुई हैं | जो कभी संक्रमित ही नहीं हुए | 
    कोरोना के बीत जाने के बाद भी हँसते खेलते नाचते गाते उठते बैठते  सोते जागते बहुत लोगों की मृत्यु होते देखी जा रही थी | उनमें बहुत लोग कभी संक्रमित हुए ही नहीं थे | उस समय महामारी भी नहीं थी | ऐसे लोगों की मौतों के लिए महामारी को किस आधार पर दोषी मान लिया जाएगा | 
     ऐसी परिस्थिति में लोग महामारी के कारण संक्रमित हो रहे थे या मृत्यु को प्राप्त हो रहे थे | यह बात मन में बैठा लेने की अपेक्षा इसप्रकार से भी बिचार किया जाना चाहिए | लोगों के संक्रमित होने का कारण वात पित्त आदि त्रिदोषों का असंतुलित होना था|जिस समय त्रिदोषों का यह असंतुलन बहुसंख्य लोगों में बहुत अधिक मात्रा में था |उस समय बहुत अधिक लोग रोगी हुए एवं मृत्यु को प्राप्त हुए हैं | ऐसे समय को महामारी काल के रूप में जाना जाता है|महामारी बीत जाने के बाद भी इन्हीं त्रिदोषों के असंतुलन के कारण रोगी हुए बिना भी बहुत लोगों की मृत्यु होते देखी जा रही है |रोगी होने या मृत्यु को प्राप्त होने की ऐसी घटनाएँ हमेंशा घटित होते देखी जाती हैं |       ऐसी घटनाओं का चिंतन करने से लगता है कि लोगों के रोगी होने या मृत्यु होने का कारण वात पित्तादि त्रिदोषों का असंतुलन रहा है |ऐसे में प्रश्न उठता है कि यदि ऐसा था तब तो सभी लोगों को महामारी से प्रभावित होना चाहिए !क्योंकि त्रिदोषों के असंतुलन का प्रभाव तो सभी लोगों पर एक समान ही पड़ता है,उस प्रभाव से समान रूप से प्रभावित होने के बाद भी कुछ लोगों का अस्वस्थ  हो जाना और कुछ लोगों का स्वस्थ बने रहना कैसे संभव हुआ ! इसमें विशेष बात यह रही कि प्राकृतिक रूप से वातादि दोषों का असंतुलन होने के बाद भी जिनके अपने वातादि दोष संतुलित बने रहे वे महामारीकाल में भी स्वस्थ बने रहे और जिनके शरीरों में अपने वातादि दोष असंतुलित होते हैं वे वैसे भी रोगी होते ही हैं | महामारी काल में प्रकृति भी उनके बिपरीत हो गई इसलिए वे अधिक रोगी हुए हैं |  
    ऐसी परिस्थिति में विशेष बात यह है कि लोगों के रोगी होने या मृत्यु को प्राप्त होने के लिए वात  पित्त आदि त्रिदोषों के असंतुलन को ही यदि जिम्मेदार मान लिया जाएगा तो महामारीकाल में ही आंदोलनों युद्धों मनुष्यकृत दुर्घटनाओं,आतंकीहमलों एवं आपसी संघर्षों से प्रभावित होने के कारण बहुत लोग मृत्यु को प्राप्त हुए हैं |महामारी और उसके बाद के समय में हत्याओं आत्महत्याओं की  घटनाओं में भी विशेष बढ़ोत्तरी होते देखी गई थी | 
     इस प्रकार से सभी तथ्यों पर एक साथ बिचार करने पर एक बात स्पष्ट होती है कि महामारी काल में प्राकृतिक रूप से रोगी होने या मृत्यु को प्राप्त होने के लिए तो त्रिदोषों के असंतुलन को जिम्मेदार माना जा सकता है ! किंतु मनुष्यकृत दुर्घटनाओं में घायल होने या मृत्यु को प्राप्त होने में त्रिदोषों का असंतुलन कारण नहीं हो सकता है |  
    ऐसी परिस्थिति में समयसंचार के आधार पर बिचार करना होगा| समय अच्छा बुरा दो प्रकार का होता है | अच्छे समय में प्रकृति और जीवन में अच्छी अच्छी घटनाएँ घटित होती हैं| बुरे समय में प्रकृति और जीवन  दोनों में ही बुरी बुरी घटनाएँ घटित होती हैं | 
      बुरे समय के प्रभाव से प्राकृतिक आपदाएँ  एवं महामारियाँ घटित होती हैं तो बुरे समय के ही प्रभाव से हिंसक आंदोलनों युद्धों मनुष्यकृत दुर्घटनाओं,आतंकीहमलों एवं आपसी संघर्षों जैसी घटनाएँ घटित होती  हैं | हत्याओं आत्महत्याओं जैसी बुरी घटनाएँ भी बुरे समय के प्रभाव से ही घटित होती हैं | 
    कुलमिलाकर प्राकृतिक रूप से जब बुरा समय चल रहा होता है,उस बुरे समय के प्रभाव से हिंसक प्राकृतिक घटनाएँ घटित होती हैं |जिन लोगों का अपना बुरा समय चल रहा होता है| वही समय पीड़ित लोग ही उन घटनाओं से पीड़ित होते हैं,बाक़ी लोग उस प्रकार की हिंसक घटनाएँ  घटित होने के बाद भी उनसे स्वस्थ और सुरक्षित बने रहते हैं | इसलिए ऐसी घटनाओं के घटित होने एवं लोगों के उनसे पीड़ित होने या न होने में समय ही प्रमुख कारण है | समय के संचार को समझकर ऐसी घटनाओं के रहस्य को सुलझाया जा सकता है |        
      
                                              महामारी है या वातादि दोष !
      जिन लोगों के व्यक्तिगत रूप से वात पित्त आदि असंतुलित होते हैं महामारी आने पर केवल वही रोगी होते हैं|महामारी न आने पर भी वे रोगी होते ही हैं | बुरे समय में अस्वस्थ हुए लोग अच्छा समय आने पर स्वतः स्वस्थ हो जाते हैं |प्राकृतिक सहयोग मिल जाने के कारण उन्हें रोगमुक्ति आसानी से मिल जाती है|केवल समयजनित असाध्य रोगों में ही कठिनाई होती है |
  जिन शरीरों में वात पित्तादि असंतुलित  होते  हैं |महामारी काल के अतिरिक्त भी वे रोगी होते हैं,जबकि महामारी काल में ऐसा होने पर उन्हें अधिक रोगी होते देखा जाता है| वात पित्त कफ आदि  का संतुलन जिनका बहुत अधिक बिगड़ जाता है | उन्हें महामारी के बिना भी मृत्यु या मृत्युतुल्य  कष्ट  होते देखा जाता है |
    प्राकृतिक वातावरण में वात पित्त कफ  आदि त्रिदोषों का असंतुलन प्राकृतिक कारणों  से होता है| मनुष्यजीवन में इसप्रकार का असंतुलन मनुष्यकृत कारणों से होता है|कई बार समयजनित अर्थात प्राकृतिक भी होता है |  प्रकृति में होने वाले ऐसे आकस्मिक परिवर्तनों एवं लोगों के रहन सहन खान पान संबंधी प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण उनमें कभी कभी वात पित्त आदि त्रिदोष असंतुलित हो जाते  हैं|इससे कुछ लोग अस्वस्थ होते हैं | प्राकृतिकरूप से वात पित्त आदि त्रिदोष जब असंतुलित होते हैं | उस समय बड़े बड़े रोगों के पैदा होने का समय होता है | उसी समय जिनके अपने भी वात पित्तादि  असंतुलित होने लगते हैं |  ऐसे समय उनके  रोगी होने की अधिक संभावना रहती है | ऐसे समय वात पित्तादि दोष जिनके जितने अधिक  असंतुलित होते वे उतने अधिक रोगी होते हैं | 
 आयुर्वेद में  वात, पित्त, और कफ़ को त्रिदोष कहा जाता है| इनके असंतुलित होते ही शरीर रोगी रहने  लगते हैं | इसलिए त्रिदोषों को  उचित अनुपात में रखकर आजीवन स्वस्थ रहा जा सकता है | बहुत ऋषि मुनि इस प्रक्रिया से दीर्घायुष्य का लाभ लेते देखे जाते रहे  हैं | पुराने समय में बहुत लोगों को कहते सुना जाता रहा है कि उन्होंने पूरे जीवन में कभी कोई औषधि ही नहीं ली है | 
      इसका कारण जिन वात पित्त आदि को संतुलित रखने के लिए औषधियों की आवश्यकता होती  है | उन्हें बिना चिकित्सा के भी स्वस्थ आहार बिहार योग व्यायाम आदि अपनाकर संतुलित किया जा सकता है | जिससे चिकित्सा की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है | बहुत लोग इसी प्रक्रिया से कोरोना संक्रमितों के साथ रहकर भी अपने को स्वस्थ रखने में सफल हुए हैं | 
       प्राकृतिक वातावरण में त्रिदोषों के असंतुलित होने की  प्रक्रिया तुरंत नहीं हो जाती है,प्रत्युत ऐसा होने में कुछ वर्ष या महीने लग जाते हैं |इनके असंतुलित होने पर केवल महामारियाँ ही नहीं पैदा होती हैं | उस प्रकार की प्राकृतिक घटनाएँ भी अधिक मात्रा में घटित होने लगती हैं | जो हमेंशा नहीं देखी  जाती हैं | प्राकृतिकवातावरण में त्रिदोषों के असंतुलित होने की  प्रक्रिया प्रारंभ होते ही भूकंप आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात चक्रवात जैसी घटनाएँ विश्व के अधिकाँश देशों प्रदेशों में घटित होते देखी जाती हैं | इसप्रकार का प्राकृतिक असंतुलन प्रारंभ होते ही प्राणियों की प्रतिरोधक क्षमता समाप्त होने लगती है | यह प्रक्रिया महामारी आने के कुछ वर्ष पहले ही  प्रारंभ हो जाती है | इसीक्रम  में धीरे धीरे शरीर रोगी होते चले जाते हैं | बहुत लोगों के साथ ऐसा होने पर क्रमिक रूप से महामारी जैसी घटनाएँ  घटित होते देखी जाती हैं |     
     विशेष बात यह है कि इन त्रिदोषों में से किसी एक दोष से पीड़ित रोगी की चिकित्सा करना आसान होता है | किसी को कफ दोष अर्थात  सर्दी से कोई रोग हुआ हो तो चिकित्सा की जानी इसलिए आसान होती है, क्योंकि उसे ठंडे खान पान रहन सहन आदि से बचाते हुए  गर्मप्रवृत्ति के खान पान रहन सहन औषधियों आदि से रोगमुक्ति मुक्ति मिल जाती है | 
    इसीप्रकार से किन्हीं दो दोषों के प्रभाव से जो रोग पैदा होते हैं|उनमें रोग का स्वभाव पता किया जाना कठिन होता है| इसलिए ऐसे रोगों से पीड़ित रोगियों की चिकित्सा की जानी भी कठिन होती  है|ऐसे ही तीनों दोषों से पैदा हुए रोग और अधिक भयंकर हो जाते हैं |जिनको समझना एवं उनकी चिकित्सा  किया जाना अत्यंत कठिन या असंभव सा होता है | 
    इसमें विशेष बात यह है कि जिनके शरीरों में जब त्रिदोष असंतुलित हो रहे हों ,महामारीकाल  न होने पर भी उनके शरीर उस समय रोगी होते ही हैं | यही कारण है कि महामारी के बिना भी बहुत लोग रोगी होते या मृत्यु को प्राप्त होते देखे जाते हैं | महामारी काल में भी जिनके वात पित्तादि उचित अनुपात में होते हैं |उनका संक्रमित होने से बचाव हो जाता है | यदि संक्रमित हुए भी तो उन दूसरों की अपेक्षा आसानी से स्वस्थ हो जाते हैं |  
    कुलमिलाकर जिन शरीरों में जब भी त्रिदोष असंतुलित होंने लगेंगे |उस समय उन लोगों के शरीरों में रोग पैदा होंगे ही | इतना अवश्य है कि प्राकृतिक वातावरण में वात पित्तादि त्रिदोषों का संतुलन  भी यदि उसी समय बिगड़ने लग जाए तो ऐसे लोगों को अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता होती है| ऐसे लोगों को महामारी आदि प्राकृतिक आपदाओं के समय रोगी होने का भय अधिक होता है | 
     महामारी के समय भी जो लोग रहन सहन खानपान योग व्यायाम पूर्वक अपने शरीरों  में स्थित  वात पित्तादि त्रिदोषों को संतुलित बनाए रखते हैं | वे संक्रमितों के साथ रहकर भी प्रायः स्वस्थ बने रहते हैं | कोरोना महामारी के समय भी ऐसे लोगों को सुरक्षित रहते देखा गया था |
                                         महामारी से सुरक्षा की कठिनाइयाँ 

      किसी रोग या महारोग से बचाव के लिए जो उपाय करने होते हैं |वे तभी किए जा सकते हैं जब रोग समझ में आवे | महामारी को अच्छी प्रकार  से समझे बिना महामारी संक्रमितों की चिकित्सा कैसे  की  जा सकती है|इतने बड़े रोग को समझने के लिए भी समय चाहिए | महामारी की चिकित्सा कैसे हो इस बिचार विमर्श के लिए समय चाहिए |महामारी जैसे इतने बड़े रोग से सुरक्षा के लिए व्यवस्था भी उतनी ही बड़ी और शीघ्र से शीघ्र करनी होगी |इतनी अधिक मात्रा में औषधि निर्माण के लिए औषधीय द्रव्यों के संग्रह,औषधिनिर्माण एवं उन्हें जन जन तक वितरित किया जाना आदि कार्यों के लिए जितना समय चाहिए | उतने समय में तो काफी जनहानि हो चुकी होती है |
      महामारी अपने विशाल वेग से इतनी बड़ी संख्या में लोगों को संक्रमित करती जा रही हो | उसमें बहुत लोग मृत्यु को प्राप्त होते जा रहे हों | इतने बड़े संकट से लोगों की सुरक्षा के लिए प्रभावी प्रयत्न तुरंत कैसे किए जा सकते हैं सब तुरंत कैसे किया जा सकता है |इतने कम समय में किए गए प्रयासों के बल पर महामारी से समाज को सुरक्षित बचाया जाना तो दूर महामारी के स्वभाव को समझना ही संभव नहीं हो पाता है |  
    कुलमिलाकर महामारी जैसी इतनी बड़ी आपदा से समाज को सुरक्षित रखने के लिए जो प्रयत्न किए जाने आवश्यक होते हैं| उन्हें करने के लिए जो समय चाहिए | वो तभी मिल सकता है, जब ऐसी घटनाओं के विषय में आगे से आगे सही पूर्वानुमान लगाए जा सकें | ऐसा न हो पाने के कारण ही  महामारियाँ हमेंशा  रहस्य ही बनी रहती हैं | उन्हें समझना कभी संभव ही नहीं हो पाता है | उनके विषय में अनुमानों पूर्वानुमानों के नाम पर जो कल्पनाएँ की जाती हैं |वे कितनी सही होती हैं| इस विषय में विश्वास पूर्वक कुछ भी कहा जाना संभव नहीं हो पाता है |भविष्य विज्ञान के अभाव में उनका  सही निकलना बहुत कठिन होता है |  

       पूर्वानुमान  लगाने के लिए किसी ऐसे भविष्यविज्ञान की आवश्यकता होती है | जिससे भविष्य में झाँकना  जाना संभव हो  |पूर्वानुमानों के नाम पर किसी प्राकृतिक घटना के विषय में  कुछ भी बोल दिए जाने से कोई विशेष मदद इसलिए नहीं मिल पाती है, क्योंकि  वो सही गलत कुछ भी निकल  सकता है |  इसका कारण ऐसे पूर्वानुमानों का वैज्ञानिक आधार न होना है | पहले लगाए गए  पूर्वानुमानों से प्राकृतिक लक्षणों का मिलान करके ये पता लगाया जाना चाहिए कि महामारी के विषय में पहले जो अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाए  गए थे |वे कितने प्रतिशत सच निकले  हैं  | उस प्रक्रिया को भविष्य के लिए भविष्य के लिए भी उतने प्रतिशत ही सच माना जाना चाहिए | 
      पूर्वानुमानों के नाम पर कुछ भी बोल दिया जाना |उनका घटनाओं के साथ मिलान न होना ये अनुसंधानों का अधूरापन है | भूकंप वर्षा बाढ़ आँधी तूफ़ान चक्रवात बज्रपात एवं महामारी जैसी घटनाओं के पैदा होने के लिए जिम्मेदार कारणों के विषय में जो कल्पनाएँ की जाती  हैं या अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाए जाते हैं| ऐसे अनुमानों  पूर्वानुमानों के साथ उन घटनाओं का मिलान करने पर जितने प्रतिशत  सही निकलें |उतने प्रतिशत ही उन कल्पनाओं अनुसंधानों को उपयोगी माना जाना चाहिए | 
     विशेष बात यह है कि भविष्यविज्ञान के अभाव में प्राकृतिक घटनाओं के विषय में सही अनुमान पूर्वानुमान आदि कैसे लगाए जाएँ | इसके लिए जितने परिणामप्रद  प्रयत्न किए जाने आवश्यक होते हैं | ऐसा किया जाना  जब तक संभव नहीं हो पा रहा   है, तब तक के लिए ऐसी प्राकृतिक आपदाओं से मनुष्यों की सुरक्षा करने के उद्देश्य से भारत के प्राचीन विज्ञान की मदद ले ली जानी चाहिए | 
 
   त्रिदोषों के असंतुलित होने के लक्षण तो प्राकृतिक वातावरण में कुछ वर्ष पहले से प्रारंभ हो जाते हैं | यदि उस पद्धति से अलग हटकर  बिचार किया जाए तो महामारी शुरू होने के बाद ही पता लग पाता है कि महामारी प्रारंभ हो  गई है |  
        
          
   समय के प्रभाव से पैदा होती है महामारी !     
     
    सृष्टि के निर्माण से लेकर उसके संरक्षण संचालन में एवं जीवन को सुरक्षित रखने में समय की बहुत बड़ी भूमिका होती है | समय अच्छा बुरा दो प्रकार का होता है | समय तो दिखाई पड़ता नहीं है | इसलिए समय कब अच्छा और कब बुरा चल रहा है | इसे केवल ऋतुओं एवं अन्य प्राकृतिक संकेतों के आधार पर समझा जा सकता है 
   ऋतुओं का आना जाना तो हर वर्ष लगा रहता है किंतु उनका प्रभाव हमेंशा एक जैसा नहीं रहता है | ऋतुओं का प्रभाव किसी वर्ष कम तो  किसी वर्ष अधिक होता है| कई बार कुछ ऋतुओं का प्रभाव  अपने निर्धारित समय से कम समय तक रहता है तो किसी वर्ष अधिक समय तक रहता है | कुछ स्थानों पर ऋतुओं का प्रभाव कुछ कम तो कुछ स्थानों पर अधिक होता है | ऋतुओं के उचित प्रभाव को पाकर ही प्राकृतिक वातावरण आपदाओं से मुक्त एवं प्राणियों के रहने लायक बन पाता है | यही ऋतुप्रभाव असंतुलित होते ही प्राकृतिक वातावरण साँस लेने लायक नहीं रह जाता है | ऐसे वातावरण में साँस लेने से शरीर रोगी होने  लगते हैं |
     आयुर्वेद में जिस कफ पित्त वात की चर्चा की गई है | वो शिशिर (सर्दी) ग्रीष्म (गर्मी) वर्षा  आदि ऋतुओं का प्रभाव ही तो है | जिस प्रकार से शरीरों में कफ पित्त वात की मात्रा असंतुलित होते ही शरीर रोगी होने लग जाते हैं | ऐसे ही प्राकृतिक वातावरण में कफ पित्त वात का आपसी अनुपात बिगड़ते ही प्राकृतिक वातावरण रोग पैदा करने वाला हो जाता है| इसप्रकार का असंतुलन यदि बहुत अधिक बढ़ जाता है तो महारोग अर्थात महामारी जैसी घटनाएँ घटित होते देखी जाती हैं  | 
    कभी कभी किसी एक ऋतु  का प्रभाव किसी दूसरी ऋतु के समय में दिखाई पड़ता है|ऐसी परिस्थिति में  सर्दी और गर्मी की ऋतुओं में भी वर्षा होते देखी जाती है|कभी कभी तो दूसरी ऋतुओं में काफी अधिक वर्षा होने के कारण बाढ़ जैसे दृश्य देखे जाते हैं | ऐसे ही सर्दी की ऋतु में तापमान जितना होना चाहिए |यदि उससे अधिक रहता है या कभी कभी वर्षाऋतु में तापमान अधिक बढ़ जाता है | इसप्रकार से ऋतुओं का प्रभाव जब असामान्य रूप से बढ़ने या घटने लगता है तब प्रकृति और जीवन दोनों में ही बिकार आने लग जाते हैं |                                               कुलमिलाकर वात दोष हवा से जुड़ा है | पित्त दोष आग से जुड़ा है,कफ़ दोष पानी से जुड़ा है | सन्निपात एक ऐसी शारीरिक समस्या है | जिसमें आयुर्वेद अनुसार वात पित्त एवं कफ तीनों एक साथ ही असंतुलित हो जाते हैं | जिसके कारण व्यक्ति अपना मानसिक एवं शारीरिक संतुलन खो देता है।कई मामलों में गम्भीर परिणाम होते देखे जाते हैं । 
        ज्योतिष की दृष्टि से देखा जाए तो  ग्रह राशियाँ आदि भी वात  पित्त अदि के आधार पर ही व्यवस्थित हैं | मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन राशियों में से वृष कन्या और मकर वात  प्रकृति की राशियाँ हैं | मेष सिंह और धनु  पित्त प्रकृति की राशियाँ हैं | कर्क बृश्चिक और मीन कफ प्रकृति की राशियाँ हैं | मिथुन तुला और कुंभ सम प्रकृति की राशियाँ होती हैं | 
    ऐसे ही ग्रहों की भी वातादि प्रकृति होती है |शनि राहु केतु की वात प्रकृति होती है | सूर्य मंगल की पित्त प्रकृति होती है | चंद्र और शुक्र की कफ प्रकृति होती है |  बुध और गुरु सम प्रकृति की होती हैं |       
      वात पित्तादि की कमी या अधिकता का अनुमान  या पूर्वानुमान थोड़े बहुत समय पहले का लगाना है तो प्राकृतिक वातावरण में होते रहने वाले परिवर्तनों के आधार पर लगाया जा सकता है |यदि कुछ लंबे समय के विषय में पूर्वानुमान लगाना है तो ग्रहों और राशियों के आधार पर लगाया जा सकता है | बहुत लंबे समय के बिषय में पूर्वानुमान लगाना है तो ग्रहगणित ही एक मात्र माध्यम है | इसके आधार पर आज के सैकड़ों हजारों या लाखों वर्ष बाद घटित होने वाली प्राकृतिक घटनाओं तथा महामारियों के विषय में  भी पूर्वानुमान लगाया जा  सकता है | 
      भारत के प्राचीन वैज्ञानिक इसी गणित के आधार पर ग्रहों के संचार के विषय में पूर्वानुमान लगा लिया करते थे |सूर्य चंद्र ग्रहणों के विषय में सैकड़ों हजारों वर्ष पहले पूर्वानुमान लगा लिया लगे थे | इसी ग्रहगणित विज्ञान के आधार पर वे न केवल प्राकृतिक आपदाओं एवं महामारी जैसे संकटों के विषय में बहुत पहले से पूर्वानुमान लगा लिया करते थे,प्रत्युत ऐसी घटनाओं के स्वभाव वेग तथा आक्रामकता आदि के विषय में पूर्वानुमान लगा लिया करते थे | इस अनुसंधान  की विशेषता यह भी रही है कि महामारी आने से पहले ही आगामी महामारी में होने वाले रोगों की संभावित  प्रकृति पहचान लिया करते थे | उसी के आधार पर यह निर्णय ले लिया करते थे कि महामारी पैदा होने पर लोगों की सुरक्षा के लिए किन किन औषधियों की आवश्यकता होगी |उन औषधियों के निर्माण के लिए किन किन द्रव्यों बनस्पतियों आदि की आवश्यकता होगी |  से पूर्व ही उन  द्रव्यों बनस्पतियों आदि को अधिक मात्रा में संगृहीत कर लिया जाता था | उनसे औषधियों का निर्माण करके रख लिया जाता था | इस प्रकार महामारी से लोगों की सुरक्षा करने के लिए महामारी आने से पहले ही इतनी मजबूत एवं पर्याप्त तैयारियाँ करके रख ली जाती थीं | 
       इनसे लाभ यह होता था कि महामारी प्रारंभ होते ही औषधिदान पूर्वक महामारी से लोगों को सुरक्षित बचा लिया जाता था | यदि उतने पहले से इतनी मजबूत तैयारियाँ करके न रखी गई होतीं ,तो महामारी आने के बाद तुरंत क्या कर लिया जाता | महामारी का इतना विशाल वेग होता है | उसके अचानक आ जाने से बचाव करना तो दूर बचाव के विषय में सोचने का समय ही नहीं मिल पाता है | लोग तेजी से संक्रमित होते जा रहे होते हैं | बहुत लोगों की दुखद मृत्यु हो रही होती है | बहुत कम समय में ही अस्पताल श्मशान आदि भर जाते हैं |ऐसे कठिन समय में लोगों की सुरक्षा के लिए किया भी क्या जा सकता है | 
     कुलमिलाकर विज्ञान कितना भी उन्नत क्यों न हो किंतु तुरंत की तैयारियों के बलपर महामारी से लोगों की सुरक्षा की ही नहीं जा सकती है | यदि ऐसा किया जाना संभव होता तो कोरोना महामारी के समय इतना उन्नत विज्ञान है | इतने विद्वान वैज्ञानिक हैं | रोगों के परीक्षण के लिए अत्याधुनिक यंत्र हैं | एक से एक उन्नत अनुसंधान किए जाते हैं | कोरोना महामारी के समय भी  चिकित्सा वैज्ञानिकों ने लोगों की सुरक्षा के लिए प्राण प्रण से सराहनीय प्रयत्न किए किंतु उनसे निकला क्या ! कितना भी परिश्रम करके बालू को मीस कर तेल नहीं निकाला जा सकता है और न ही जल को मथकर मक्खन निकाला जा सकता है | 
       इतना सब होने के बाद भी अभी तक यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता है कि महामारी क्या थी उसकी प्रकृति कैसी थी उसका विस्तार कितना था उसका प्रसार माध्यम क्या था उसमें अंतर्गम्यता  कितनी थी | उसपर वर्षा तापमान एवं वायु प्रदूषण का प्रभाव पड़ता था या नहीं | महामारी मनुष्यकृत थी या प्राकृतिक !किसी को नहीं पता है | जिस महामारी के प्रति अभी तक किसी को कुछ पता ही नहीं है | उससे मनुष्यों की सुरक्षा करने के विषय में सोचा भी कैसे जा सकता है | 
     इसके लिए  ऐसी घटनाओं के घटित होने के काफी  पहले से सुरक्षा की अत्यंत सुदृढ़ व्यवस्था करके रखनी होगी | ऐसा तभी किया जा सकता है ,जब पूर्वानुमान लगाने की क्षमता मजबूत हो | जिसके  द्वारा ऐसी घटनाओं के  विषय में काफी पहले से सही सही पूर्वानुमान लगाना संभव हो | ऐसा करने  के लिए उसप्रकार के विज्ञान की आवश्यकता है |जिसके द्वारा भविष्य में झाँकना संभव हो |ज्योतिषशास्त्र के अतिरिक्त ऐसा कोई दूसरा विज्ञान नहीं है |    
     इसप्रकार की घटनाओं के विषय में ज्योतिष के बिना पूर्वानुमान लगाना संभव ही नहीं है|महामारी अचानक आती है| उससे तेजी से लोग संक्रमित होने एवं मृत्यु को प्राप्त होने लगते हैं| ऐसी स्थिति में कौन सा उपाय करके लोगों को संक्रमित होने या मृत्यु से बचाया जा सकता है |  
                                              महामारी और ऋतुप्रभाव !
 
      महामारीविशेषज्ञों का मानना रहा है कि महामारी के आने जाने या महामारीजनित संक्रमण के बढ़ने घटने में ऋतुओं के न्यूनाधिक प्रभाव की बड़ी भूमिका होती है |ऐसी स्थिति में महामारी को समझने या महामारी के विषय में पूर्वानुमान लगाने के लिए  ऋतुओं के न्यूनाधिक प्रभाव के विषय में ऋतुओं के स्वभाव पर आधारित पूर्वानुमान पहले से पता करके रखना होगा | 
     वर्षाऋतु में वर्षा कैसी होगी |मानसून कब आएगा और कब जाएगा| इस वर्ष ग्रीष्मऋतु में आँधी तूफानों की घटनाएँ कैसी घटित होंगी|इस वर्ष शिशिरऋतु  में सर्दी कैसी पड़ेगी| ग्रीष्मऋतु  में गर्मी कैसी पड़ेगी | ऐसी घटनाओं का  पूर्वानुमान उपग्रहों रडारों के आधार पर कैसे लगाया जा सकता है|मौसमसंबंधी ऐसी घटनाओं के घटित होने की बिषमता को यदि महामारी के पैदा होने या उसकी लहरों के आने जाने का कारण माना जाए तो महामारी या उसकी लहरों के विषय में पूर्वानुमान लगाने के लिए पहले मौसमसंबंधी घटनाओंका पूर्वानुमान लगाना होगा | उन्हीं मौसमसंबंधी पूर्वानुमानों के आधार पर महामारी तथा उसकी लहरों के विषय में पूर्वानुमान लगा लिया जाएगा | 
     प्राकृतिक वातावरण का भविष्य में क्या स्वरूप होगा |कब बादल आएँगे,कब आँधी तूफ़ान वर्षा या बज्रपात होगा | किस साल कैसी वर्षा होगी, किस वर्ष मानसून कब आएगा या कब जाएगा |किस वर्ष सूखा पडेगा या किस वर्ष अधिक वर्षा होगी | किस वर्ष अधिक सर्दी या गर्मी होगी | यह जानने के लिए क्या कोई विज्ञान है | मौसमसंबंधी पूर्वानुमान लगाने के लिए विज्ञान कहाँ है | मौसमविज्ञान में विज्ञान क्या है ! पहले तो उसे खोजा जाए | विज्ञान के बिना विज्ञान संबंधी इतनी बड़ी बड़ी बातों का आधार आखिर क्या है | उपग्रहों रडारों या सुपर कंप्यूटरों से ऐसे प्रश्नों के उत्तर कैसे खोजे जा सकते हैं | 
     जलवायु परिवर्तन के प्रभावों या मौसम के विषय में जो जो कुछ बताया जा रहा है | उसका विज्ञान कहाँ है और वो सभी विज्ञान के बिना संभव कैसे है | ग्लेशियरों के पिघलने  के विषय में के विषय में ये सब हो कैसे रहा है ये स्वयं में आश्चर्य का विषय है |  मौसमसंबंधी पूर्वानुमान लगाने का विज्ञान न होने पर भी पूर्वानुमान लगा लिया जाना कैसे संभव है | मौसमविज्ञान में विज्ञान क्या है ! पहले तो उसे खोजा जाए | उसी विज्ञान के आधार पर महामारी के विषय में पूर्वानुमान लगा लिया जाए |  
      ऐसे विषयों में वैज्ञानिक अनुसंधानों के अभाव में जो भविष्यवाणियाँ की जाती हैं | उनके गलत निकल जाने पर कुछ लोग आश्चर्य व्यक्त करते हैं | इसके लिए कुछ लोग जलवायुपरिवर्तन को जिम्मेदार बताते हैं |किस घटना ने कितने वर्षों का रिकार्ड तोड़ा है| कुछ लोग यह बताते सुने जाते हैं| कुछ कहते हैं कि यदि ऐसी घटनाएँ यूँ ही घटित होती रहीं तो आज के सौ दो सौ वर्ष बाद ऐसी ऐसी प्राकृतिकआपदाएँ रोग महारोग आदि पैदा होते देखे जाएँगे | ग्लेशियर पिघल जाएँगे,समुद्र का जलस्तर बढ़ जाएगा ! बार बार सूखा पड़ेगा !भीषण तूफ़ान आएँगे !बार बार बाढ़ आएगी | कई शहर डूब जाएँगे आदि | ऐसी बातों का यदि कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता है तो ये अफवाहों का काम करती हैं | 
      कई बार एक दो सप्ताह तक लगातार वर्षा और बाढ़ होते देखी जाती है | ऐसे ही एक दो सप्ताह के अंदर कई बार कई कई तूफान आ जाते हैं | ऐसी वर्षा बाढ़ या तूफ़ान आदि कब तक आते रहेंगे और इस वर्ष इतनी अधिक संख्या में ऐसी प्राकृतिक घटनाओं के घटित होने का कारण क्या है और कब तक ऐसा चलता रहेगा| ऐसे प्रश्नों के उत्तर उपग्रहों रडारों की मदद लेकर भी नहीं खोजे जा सके हैं | 
      पूर्वानुमान लगाने का मतलब है कि जिन घटनाओं के भविष्य में घटित होने  की संभावना हो | उनके विषय में पहले से सही अनुमान (अंदाजा ) लगाया जा सके |ऐसा करने के लिए किसी ऐसे विज्ञान की आवश्यकता होती है जिसके द्वारा भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं को पहले से देखा या अनुभव किया जा सके |अभी तक ऐसा कोई विज्ञान नहीं है|जिसके द्वारा भविष्य में झाँकना संभव हो| भविष्य को देखे या अनुभव किए बिना भविष्य की घटनाओं के विषय में सही पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है|इसीलिए मौसम या महामारी संबंधी प्राकृतिक घटनाओं के विषय में सही पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं है | 
     कलमिलाकरविश्व में ऐसा कोई विज्ञान ही नहीं है|  जिसके द्वारा भविष्य में घटित होने वाली संभावित घटनाओं के विषय में कुछ जानना समझना या पूर्वानुमान लगाना संभव हो | 
    भूकंप और महामारियों को आते हुए उपग्रहों रडारों से भी नहीं देखा जा सकता है| इसलिए इनके विषय में पूर्वानुमान लगाने के नाम पर अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है|जो लगाया भी जाता है वो गलत निकल जाता है |    विशेष बिचार करने योग्य बात यह है कि यदि भविष्य में झाँकने के लिए कोई भविष्यविज्ञान नहीं है तो स्वाभाविक ही है कि भविष्य को समझने वाले वैज्ञानिक भी नहीं होंगे | इसके बिना भविष्य में घटित होने वाली संभावित घटनाओं के विषय में किसी प्रकार का कोई अनुमान पूर्वानुमान लगाया जाना संभव नहीं है| यदि लगाया भी जाए तो उसका आधार वैज्ञानिक नहीं है|वो यह समझकर लगाया जाता है कि ये सही गलत दोनों ही निकल सकते हैं | 
    ऐसी स्थिति में मौसम या महामारी संबंधी पूर्वानुमान यदि नहीं लगाए जा पाते हैं अथवा लगाए हुए पूर्वानुमान यदि गलत निकल जाते हैं तो इसका वास्तविक कारण भविष्यविज्ञान का अभाव है | इसके लिए जलवायुपरिवर्तन या महामारी के स्वरूप परिवर्तन को जिम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता है| इसके लिए ऐसे भविष्यविज्ञान को खोजे जाने की आवश्यकता है जिसके द्वारा भविष्य में घटित होने वाली संभावित घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाना संभव हो | यदि ऐसा कोई विज्ञान ही नहीं है तो जलवायुपरिवर्तन या महामारी के स्वरूप परिवर्तन जैसी काल्पनिक बातों को वैज्ञानिक तर्कों  की कसौटी पर कैसे कसा जाएगा | 
  इसका कारण भविष्य में झाँकने के लिए किसी विज्ञान का न होना है | इसीलिए दीर्घावधि प्राकृतिक घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं है | 
 
 

                                                 पूर्वानुमानों  के लिए विज्ञान  कहाँ है 

प्राकृतिक आपदाएँ हों या महामारियाँ  जिन हिंसक घटनाओं के विषय में पहले से सही सही पूर्वानुमान नहीं लगाए जा सकते हैं | उनसे समाज की सुरक्षा कैसे की जा सकती है | ऐसी हिंसक घटनाओं का वेग बहुत अधिक होता है | उनसे बहुत बड़ी संख्या में लोग अचानक पीड़ित होने लगते हैं| इनसे सुरक्षा के लिए बहुत बड़ी तैयारियाँ करके पहले से रखनी होती हैं | उसके लिए पर्याप्त संसाधनों एवं समय की आवश्यकता होती है | ऐसी घटनाओं से सुरक्षा  करने की तैयारियाँ करने के लिए समय तभी मिल सकता है जब पहले से सही पूर्वानुमान लगा लिए जाएँ |
      वर्तमानसमय में मौसम पूर्वानुमान के  नाम पर जो अंदाजे लगाए जाते हैं | वे तत्कालीन प्राकृतिक परिस्थितियों  के आधार पर उसी समय के विषय में लगाए जाते हैं जो चल रहा होता है | इनका भविष्य से कोई संबंध नहीं होता है | जिन उपग्रहों रडारों या सुपरकंप्यूटरों की मदद से ऐसे पूर्वानुमान लगाने की बात कही जाती है | उनमें ऐसी क्षमता ही नहीं है कि उनके द्वारा भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं को देखा या अनुभव किया जा सके |    
    वर्षा या आँधीतूफानों  के विषय में पूर्वानुमान लगाने की बात कही जाती है|उपग्रहों रडारों से उन्हीं घटनाओं को देखा जा सकता है जो उस समय कहीं प्रत्यक्ष दिखाई दे रही होती हैं | उन्हीं की गति और दिशा के अनुसार ये अंदाजा लगाया जाता है कि ये घटनाएँ इतनी गति से जिस दिशा में बढ़ रही हैं | उसी दिशा में यदि इतने घंटे तक और आगे बढ़ती रहें तो अमुकदेश या प्रदेश में पहुँच सकती हैं | उसी के अनुसार अंदाजा लगाकार भविष्यवाणी कर दी जाती है कि कब कहाँ वर्षा होगी या आँधी तूफ़ान आएँगे | 
    इसमें विशेष बात ये है कि ये बादल या आँधी तूफ़ान उसी दिशा में चलते रहेंगे या बीच में  हवा की दिशा या गति बदल जाएगी | तेज धीमी हो जाएगी | इसका अंदाजा लगाना संभव नहीं होता है| इसीलिए यदि हवा में ऐसा कुछ बदलाव होता है तो लगाए हुए अंदाजे गलत निकल जाते हैं |
       हवा की दिशा गति आदि यदि न बदले तो भी उसके आधार पर ये कैसे कहा जा सकता है कि वर्षा कब तक होती रहेगी या ये तूफ़ान कब तक आते रहेंगे | इनकी श्रृंखला कितनी लंबी है | कई बार दस दस दिन तक वर्षा होती रहती है | ऐसे समय पहली बार तीन दिन वर्षा होने की बात कही जाती है फिर 48 घंटे और वर्षा होने की बात कह दी जाती है | वर्षा होना यदि  बंद नहीं होता है तो 72 घंटे और वर्षा होने की भविष्यवाणी कर दी जाती है | उसके बाद वर्षा रुक जाए तो ठीक अन्यथा आगे भी कुछ ऐसी ही भविष्यवाणी कर दी जाती है |इतने अंदाजे लगातार गलत निकलते रहने के लिए जलवायु परिवर्तन जो जिम्मेदार ठहरा दिया  जाता है | इसमें जलवायु परिवर्तन कहाँ से आ गया |हम ऋतु स्वभाव को समझ नहीं सके इसलिए भविष्यवाणी गलत निकली | प्राकृतिक विषयों में अक्सर ऐसा कहते सुना जाता है कि हर वर्ष ऐसी वर्षा होती थी या इस समय मानसून आ जाता था या इस समय चला जाता था |ये मानसून क्या है और इसके आने जाने की तारीखें प्रकृति ने तो नहीं दी हैं | हमने तारीखों की कल्पना कर ली है | हमारी कल्पित तारीखों पर प्राकृतिक घटनाएँ न घटित हों तो जलवायु परिवर्तन  होता है | पहले ऐसा हुआ करता था | अब नहीं होता है इसका मतलब जलवायु परिवर्तन है |  
       इसमें विशेष ध्यान देने की बात यह है कि मनुष्य हमेंशा एक जैसा आचरण नहीं करता है तो हम प्रकृति से ऐसी अपेक्षा कैसे कर सकते हैं |प्राकृतिक वातावरण में भी कुछ तात्कालिक बदलाव होते हैं | कुछ मध्यावधि बदलाव होते हैं | कुछ दीर्घावधि बदलाव होते हैं | ये इनमें होने वाले स्वाभाविक परिवर्तन हैं | इनकी निर्धारित  प्रक्रिया होती है | इसे  समझने समझने के लिए प्रकृति की भाषा को समझना होगा | 
     सूर्य चंद्र ग्रहण हमेंशा एक जैसे नहीं घटित  होते  हैं  और  हर  अमावस्या या पूर्णिमा को नहीं  घटित होते हैं | ग्रहणों में इतनी विविधता होने के बाद भी उसका सही पूर्वानुमान  इसलिए लगा लिया जाता है क्योंकि उसके संचार की व्यवस्थत प्रक्रिया को समझा जा चुका है | ऐसे ही जिस दिन प्रकृति विज्ञान को  समझ लिया जाएगा उन दिन वर्षा आदि के पूर्वानुमान भी सही निकलने लगेंगे और जलवायु परिवर्तन होने का भ्रम भी टूट जाएगा |  
                                
 प्राचीनविज्ञान एवं मौसम और  महामारी 
      प्राचीनकाल में उपग्रहों रडारों तथा सुपर कंप्यूटरों की व्यवस्था न होने पर भी प्राकृतिक घटनाओं के विषय में सही पूर्वानुमान लगा लिए जाते थे | महाकवि घाघभंडरी के समय में भी ऐसी कोई वैज्ञानिक सुविधा नहीं थी, फिर भी वे न केवल प्राकृतिक घटनाओं के विषय में सही पूर्वानुमान लगा लिया करते थे ,प्रत्युत वैसे सूत्रों का निर्माण भी  कर लिया करते थे कि यदि ऐसा ऐसा होगा तो इस इस प्रकार की प्राकृतिक घटनाएँ घटित होंगी | 
    उपग्रह रडार  तथा सुपर कंप्यूटर आदि न होने पर भी  तूफ़ानों तथा  चक्रवातों के विषय में सैकड़ों वर्ष पहले पूर्वानुमान लगा लिए जाते थे |उस दिन तूफ़ान पैदा होगा |गणित विज्ञान के द्वारा ऐसा निश्चित हो जाने के बाद यह पता लगाना आवश्यक होता है कि यह तूफ़ान किस देश की ओर जाएगा |इसके लिए उस समय के प्राकृतिक लक्षणों के आधार पर तूफ़ान से प्रभावित होने वाले संभावित देशों के विषय में अनुमान लगाया जाता था |वर्तमान समय में  उपग्रहों रडारों  से इसे देखने में मदद मिल सकती है |  
   ऐसे ही वर्षा के विषय में किन वर्षों के किन महीनों के किन दिनों में कैसी वर्षा होगी |इसका पूर्वानुमान गणित के द्वारा सैकड़ों वर्ष पहले  लगा लिया जाता था |उन पूर्वानुमानों के अनुसार जिस घटना के लिए जो समय पता लगाया जाता था | उस समय के कुछ पहले से प्राकृतिक लक्षणों को पैनी दृष्टि से देखना होता है |उन गणितीय पूर्वानुमानों से उन पूर्व लक्षणों का मिलान यदि हो जाता था तो उन पूर्वानुमानों को संपूर्ण रूप से सच मान लिया जाता था कि इस दिन वर्षा होगी | इसके बाद स्थान पता लगाना होता था कि उन दिनों में वर्षा कहाँ होगी | यह पता लगाने के लिए प्रत्यक्ष प्राकृतिक लक्षणों के आधार पर अनुसंधानपूर्वक स्थान पता लगाया जाता था | उपग्रहों रडारों  रडारों के सहयोग से  ये कार्य आसान हो सकता है |  
     विशेष बिचार करने वाली बात ये है कि जिस प्रकार से संपूर्ण चराचर जगत समय के आधीन है | उसी प्रकार से सूर्यादि ग्रहों की भी प्रत्येक गतिविधि समय से अनुशासित है | उन्हें समय के द्वारा निर्धारित नियमों का अनुपालन करना होता है | उनका कहीं आना जाना तथा उदय अस्त होना सब कुछ समय के अनुसार ही घटित होता है|
     जिस प्रकार से सरकार के द्वारा बनाई गई रेलवे की समयसारिणी का पालन प्रत्येक ट्रेन को करना होता है | समय सारिणी में जिस ट्रेन को जितने बजे जिस स्टेशन पर पहुँचने का समय दिया गया होता है|प्रत्येक ट्रेन को उतने बजे उस स्टेशन पर पहुँचना पड़ता है| इसीप्रकार से समय के द्वारा बनाई गई इस संपूर्ण संसार की समय सारिणी होती है | जिसका पालन इस संपूर्ण विश्व को करना होता है | जिस कार्य को जिस व्यक्ति के द्वारा जितने समय पर होना निर्धारित होता है | वह कार्य उसी के द्वारा उतने ही समय पर होता है | 
     इसी प्रकार से सूर्यादि ग्रहों की समयसारिणी होती है |जिसके अनुसार सूर्यादि ग्रहों का आना जाना तथा उदय अस्त आदि की घटनाएँ पूर्व निर्धारित समय पर ही घटित होती हैं | उन ग्रहों कोउन उन स्थानों पर अपने अपने निर्धारित समय पर पहुँचना पड़ता है |इसलिए कौन ग्रह कहाँ कब पहुँचेगा | इसका ज्ञान उसकी समय सारिणी के आधार पर गणना करके कर लिया जाता है | इसी गणना के आधार पर ग्रहों तथा सूर्य चंद्र ग्रहणों के विषय में सैकड़ों वर्ष पहले सही पूर्वानुमान लगा लिया जाता है | 
       सूर्य का प्रभाव बढ़ने से तापमान बढ़ जाता है और  घटने से तापमान कम हो जाता है |जब तापमान जितना कम होता है तब हवाएँ उतनी ठंडी होती हैं और जब तापमान जितना अधिक होता है तब हवाएँ उतनी गर्म होती हैं | ठंडी हवाओं की गति कम होती है तथा गर्म हवाओं की गति अधिक होती है | आँधी तूफ़ान जैसी घटनाओं के घटित होने का कारण तापमान का अधिक होना भी ही होता है | ऐसे वर्षा और बज्रपात होने का कारण तापमान है| रोग और महारोग (महामारी) होने का कारण भी तापमान का असंतुलन ही होता है| 
     आयुर्वेद में वात पित्त कफ के असंतुलन से रोगों का पैदा होना माना जाता है| असंतुलन जितना अधिक होता है रोग उतना बड़ा होता है | इसमें पित्त बढ़ने का मतलब तापमान बढ़ना कफ बढ़ने का मतलब तापमान कम होना और वात  मतलब हवा होती है | तापमान अधिक होने पर हवा गर्म अर्थात लू चलती है | लू लगने से बहुत लोग अस्वस्थ हो जाते हैं | ऐसा ही ठंडी हवाओं का मनुष्यों के स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है |वात पित्त कफ के असंतुलन से ही कोरोना जैसी महामारियाँ  पैदा होती हैं | 
     इससे ये स्पष्ट होता है कि सभीप्रकार की प्राकृतिक घटनाओं के घटित होने का कारण तापमान का अनियमित रूप से बढ़ना घटना है | जिसका कारण सूर्य और उसका न्यूनाधिक प्रभाव है | सूर्य के संचार के विषय में यदि गणित के द्वारा पूर्वानुमान आदि लगाया जा सकता है तो सभी प्राकृतिक घटनाओं एवं महामारियों के विषय में भी ग्रहगणित के द्वारा पूर्वानुमान लगाया जा सकता है क्योंकि उनके घटित होने का कारण भी सूर्य संचार ही है |    
     कुल मिलाकर जिस सूर्य संचार के आधार पर सभी बसंतादि ऋतुओं का निर्माण होता है|वही सूर्य सभीप्रकार की प्राकृतिक घटनाओं के घटित होने का कारण भी  है | जिसप्रकार से गणित के द्वारा गणना करके सूर्य संचार के विषय में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है | उसी ग्रहगणितीय गणना  के द्वारा सभीप्रकार की प्राकृतिक घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है | 
     इसी ग्रहगणना एवं उसके प्रभाव के विषय में अनुसंधान पूर्वक मैंने जितनी भी प्राकृतिक घटनाओं के विषय में मैं जो जो अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाता रहा हूँ वे सही निकलते रहे हैं |इसी ग्रहगणितीय गणना  के द्वारा  महामारी की लहरों के विषय में मैं जो जो पूर्वानुमान लगाता  रहा हूँ | वे सही निकलते रहे हैं |सभीप्रकार की प्राकृतिक घटनाओं तथा महामारियों के विषय में अनुमान पूर्वानुमान लगाने के लिए ऐसे अनुसंधानों को बड़े स्तर पर किए जाने की आवश्यकता है | इन अनुसंधानों से ऐसी घटनाओं को समझने में मदद मिल सकती है |


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मानसिक परेशानियाँ और त्रिदोष
              इसमें विशेष बात यह है कि मनुष्यों समेत समस्त प्राणियों को उनकी प्रकृति के अनुसार वात पित्त आदि धातुओं के संतुलित प्रभाव को सहने का अभ्यास होता है | उससे कम या अधिक होने पर वे बेचैन होने लगते हैं|यही कारण है कि भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाएँ  जहाँ  जब घटित होनी होती हैं | उससे पहले वहाँ त्रिदोष असंतुलित हो चुके होते हैं |इसी से उन घटनाओं का निर्माण हुआ होता है | 
     वात पित्त आदि धातुओं के इसी असंतुलन को न सह पाने के कारण वहाँ से जीव जंतु आदि भयभीत होकर भागने लगते हैं | त्रिदोषों में हुए ऐसे असंतुलन को सह न पाने के कारण मनुष्य  पशु पक्षी आदि सभी जीव जंतुओं की बेचैनी विशेष बढ़ जाती है | ऐसे समय  सभी प्राणी उन्माद की भावना से भावित हो उठते हैं | प्राणियों की इस बेचैनी का कारण त्रिदोषों में हुआ ऐसा आकस्मिक असंतुलन होता है | जिसे सहने का उनको अभ्यास नहीं होता है | इस को घटाने के लिए मनुष्य तो मनोरंजन के साधन अपना लिया करते हैं| जिससे मन की बेचैनी कुछ कम हो | ऐसे  परिविर्तन से बेचैन पशु पक्षी पागलों की तरह उन्मादित होते देखे जाते हैं | 
      इसीलिए कोरोना काल में महामारी लोगों को संक्रमित तो कर ही रही थी |इसके साथ ही उस समय पशु पक्षियों के उपद्रवों की अधिकता थी | उसी समय भूकंप आदि प्राकृतिक आपदाएँ  भी घटित हो रही थीं |

       
 
महामारी संबंधी संक्रमण बढ़ने के लिए जिन तीन बातों को  जिम्मेदार  बताया जाता रहा है |उनमें से एक 
  मौसम संबंधी घटनाएँ ,दूसरी तापमान बढ़ने और घटने जैसी घटनाएँ तथा तीसरी वायुप्रदूषण बढ़ने जैसी घटनाएँ हैं|इन तीन में से कोई  एक या फिर तीनों  ही  घटनाओं को महामारी पैदा होने या इससे संबंधित संक्रमण बढ़ने  के लिए जिम्मेदार बताया जाता रहा है | यदि  इस बात पर विश्वास किया जाए तो मौसम,तापमान एवं वायुप्रदूषण के विषय में पहले से पूर्वानुमान लगाए बिना महामारी के विषय में पूर्वानुमान लगाना कैसे संभव है | 
    कुलमिलाकर प्राकृतिक घटनाओं से समाज को सुरक्षित बचाया जाना तभी संभव है ,जब बचाव के लिए प्रभावी तैयारियाँ  पहले से करके रखी जाएँ | ऐसा करने के लिए इन घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान पहले से पता होने आवश्यक हैं  कि  ऐसी घटनाएँ कब घटित होने वाली हैं | इस विषय में आगे से आगे पूर्वानुमान लगाने के लिए कोई प्रभावी प्रक्रिया खोजनी होगी | दीर्घावधि पूर्वानुमान लगाने के लिए कोई विज्ञान ही  नहीं है | विज्ञान के बिना ऐसे अनुसंधान कैसे किए जा सकते हैं और पूर्वानुमान कैसे लगाए जा सकते हैं | पूर्वानुमान लगाने के लिए यदि कोई विज्ञान होता तो कोरोना महामारी के विषय में पहले से सही पूर्वानुमान लगाया जा सका होता|
 


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