सोमवार, 7 जुलाई 2014

सुनो अब सरकारी साईं बाबाओं का उपदेश -गरीबो घबड़ाओ मत ! "श्रद्धा सबूरी " से काम लो !! 'सबका मालिक एक'

   अब आप गरीब नहीं हैं  आ गए आपके अच्छे दिन  "गाँव में 32 और शहर में 47 रुपये रोज खर्च वाले गरीब नहीं,

    यदि ऐसा है तो सरकारी कर्मचारियों के वेतन में इतनी इतनी बड़ी धन राशि बेकार क्यों दी जा रही है,क्यों महँगाई भत्ता दिया जा रहा है क्यों बढ़ाई जाती है उनकी सैलरी ? क्या उन्हें राजा महाराजा बनाने की कोई योजना है ?जब गाँव में 32 और शहर में 47 रुपये रोज खर्च करने से काम चल जाता है !

   ये सारा उपदेश केवल आम आदमियों के लिए ही क्यों ?जबकि ऐसी रिपोर्ट बनाने बनवाने वाले सरकारी कर्मचारियों को सैलरी सिस्टम से निकालकर उनसे भी गाँव में 32 और शहर में 47 रुपये रोज खर्च देकर क्यों नहीं लिया जाता है काम ?जब इतने में काम चल ही जाता है तो देश क्यों झेले उनकी भारी भरकम सैलरी और बिलासिता पर अपव्यय ?

    कितना काम होता है सरकारी आफिसों में सबको पता है !सरकारी प्राथमिक स्कूलों में पढ़ाई नहीं,सरकारी अस्पतालों में दवाई नहीं,डाकविभाग और दूर संचार विभाग में सुनवाई नहीं फिर भी वहाँ के कर्मचारियों की भारी भरकम सैलरी ऊपर से उसे प्रतिवर्ष बढ़ाने की बचनबद्धता ऊपर से महँगाई भत्ता आदि आदि क्यों ?
    सरकारी प्राथमिक स्कूलों के शिक्षक पचासों हजार सरकारी सैलरी लेकर प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं अपने बच्चे यदि उनका इरादा मेहनत करके सैलरी लेने का ही होता तो सरकारी स्कूलों में क्यों न पढ़ाते अपने बच्चे !सरकारी स्कूल आखिर इतने बुरे क्यों हैं कि उनका स्टाफ ही उन पर विश्वास नहीं करता है ?  

   इसीप्रकार सरकारी अस्पतालों में दवाई नहीं सरकारी सैलरी लेने वाले डाक्टर अपने घर वालों का इलाज प्राइवेट नर्सिंग होमों में करवाते हैं यदि इरादा मेहनत करके सैलरी लेने का होता तो सरकारी अस्पतालों में ही क्यों नहीं करवाते अपनों का इलाज ?आखिर उन अस्पतालों को सुधारा क्यों नहीं जा सकता है क्या ? 

      इसीप्रकार से डाक और फोन विभाग में तो किसी बात की सुनवाई ही नहीं है हर अफसर शिकायत सुनने से इतना कतराता है कि उसके जूनियर का ये बताते बताते मुख दर्द करने लगता होगा कि साहब मीटिंग में हैं किन्तु उनसे कोई यह पूछने वाला नहीं होता है कि जब जनता का काम ही नहीं होगा तो क्यों होती हैं ये मीटिंगें केवल सरकारी खर्चे से लंच करने के लिए ! 

   हालात इतने ख़राब हैं कि आफिस में काम करने वाला पेन यदि किसी सरकारी कर्मचारी का खो जाए तो सबके सामने उस पेन का रोना लेकर साल छै महीने रोते रहेंगे किन्तु बिना पेन के काम नहीं करेंगे और पेन लेने जाएंगे नहीं।प्रिंटर ख़राब हो जाए तो कब ठीक होगा पता ही नहीं ही नहीं !

    दूर संचार विभाग के कर्मचारी अपनी जेब में प्राइवेट कंपनी का मोबाइल रखेंगे जबकि डाक कर्मचारी अपनी चिट्ठियाँ कोरिअर से भेजेंगे ये है सरकारी विभागों के प्रति सरकारी कर्मचारियों की निष्ठा !!!सैलरी सरकारी विश्वास प्राइवेट का !इनसे काम के लिए जूझना जनता को पड़ता है सैलरी सरकार को बढ़ानी होती है दोनों अपना अपना काम करते हुए लोकतंत्र की भद्द पीटते जा रहे हैं ।

    नेता चुनाव प्रचार के समय केवल जनता से इंसानों की तरह बातें करते हैं बाकी पाँच वर्ष मौन व्रती रहते हैं फिर चुनावों के समय एक बार तोड़ते हैं अपना मौन महा व्रत और बोलना शुरू कर देते हैं और जब बोलते हैं तो बाप रे बाप इतनी बुरी तरह बोलते हैं दिन बोलें, रात बोलें, बात बोलें, बिना बात बोलें, रैलियों की चर्चा ही क्या करनी एक दिन में अनेक रैलियाँ !ऊँचे ऊँचे मंचों से लेकर जहाज तक दिन भर आकाश में ही बीतता है रैलियों के अजीब अजीब नाम रखे जाते हैं ,हुंकार रैली फुंकार रैली,धिक्कार रैली,दुदकार रैली, थुक्कार रैली,नादरैली, निनादरैली, शंखनाद रैली कैसी कैसी रैलियाँ और कैसे कैसे नाम !चुनावों के बाद राम राम!!!  

     जनता की आवश्यकताओं का अंदाजा तो इसी से लगाया जा सकता है कि  -गाँव में 32 और शहर में 47 रुपये रोज खर्च वाले गरीब नहीं हैं !समझ में नहीं आता है कैसे बनती हैं ये समितियाँ  और कैसे बनती हैं इनकी रिपोर्टें क्या आधार होता ऐसी  रिपोर्टों का ! और ऐसी काल्पनिक रिपोर्टों  के बनवाने की जरूरत जाने क्या होती  है !एक साधारण सी बात है शहरों में जिन लोगों ने कुत्ते पाल रखे हैं उनसे पूछो उन का महीने का खर्च क्या आता है !तो पता लग जाएगा कि ऐसे रिपोर्ट निर्माताओं के दिमाग में आम आदमी की औकात क्या होती है !

       इस प्रकार से शिक्षा की जिम्मेदारी प्राइवेट स्कूलों पर ,चिकित्सा की जिम्मेदारी प्राइवेट अस्पतालों पर,फोन की जिम्मेदारी प्राइवेट कंपनियों पर ,डाक की जिम्मेदारी कोरिअर पर डालकर देश में रामराज्य चल रहा है सरकारी विभागों में ! इन सबको देखते हुए पुलिस विभाग टेंशन में है कि वो अपनी जिम्मेदारी किस पर डाले उसका प्राइवेट कोई विकल्प ही नहीं है!आखिर वही क्यों काम करे क्या वो लोग सरकारी कर्मचारी नहीं हैं आखिर जो सुविधा सरकारी  हर विभाग को मिल रही है वो उन्हें क्यों न मिले उन पर ही कानून व्यवस्था दुरुस्त करने का दबाव क्यों ?वो भी अपनी श्रद्धा के हिसाब से जितना बन पाएगा उतना काम करेंगे !वो क्यों जिम्मेदारी निभाते घूमें !

      धिक्कार है हम जैसे आम नागरिकों को जो सुन रहे हैं ये ऐसी निराधार बातें -

 "गांव में 32 और शहर में 47 रुपये रोज खर्च वाले गरीब नहीं,"या "पाँच रुपए में भी भर सकता है पेट"

    सरकार कान खोलकर सुन ले कि इस देश में लोक तंत्र तभी तक है जब तक गरीबों में सरकार एवं सरकारी कर्मचारियों के गैरजिम्मेदार एवं निष्प्राण व्यवहार को  सहने की क्षमता है इसलिए ये ऊलजुलूल बातें करके आम आदमियों के धैर्य की परीक्षा अब  और अधिक न ली जाए वही अच्छा होगा! 

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जो सरकारी कर्मचारी नहीं हैं उनके विषय में भी क्या सोचा गया है ?see more… http://snvajpayee.blogspot.in/2014/02/blog-post_5199.html
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