कंचन कामिनी और कीर्ति की कामना से सामाजिक कार्य करना भी संतों का काम नहीं हैं !क्योंकि ये काम वो गृहस्थी में रहकर भी कर सकते थे फिर यही काम करने के लिए साधू और संत बनने का दिखावा क्यों करना ?
संतों का काम समाजहित के कार्यों को सुसंस्कार देकर समाज से कराना है न कि स्वयं करने लग जाना ,क्योंकि उन कामों को स्वयं करने से वो अपने को उन कामों में फँसा कर भले बैठ जाएँ किन्तु केवल अपने बल पर वे कुछ कर नहीं पाते हैं क्योंकि यदि इस क्षेत्र में कुछ करने की उनमें योग्यता ,क्षमता या ईच्छा ही होती तो गृहस्थ जीवन जीते हुए अपने खून पसीने की कमाई से भी कर सकते थे औरों की खून पसीने की कमाई पर अपनी सधुअई की मोहर लगाने को लालायित क्यों रहते !इसलिए ये तो स्वयं सिद्ध है कि उनमें अपने बल पर कोई भी सामाजिक कार्य कर सकने की क्षमता का आभाव है अब वो जो कुछ भी करेंगे वो दूसरे के कमाए हुए धन से ही करेंगे और यदि यही सच है तो जो धन कमाने जैसा सबसे कठिन कार्य कर सकता है वो जनहित के काम भी स्वयं कर सकता है और बहुत धनवान लोग ऐसा कर भी रहे हैं और जो व्यापारिक आदि सांसारिक प्रपंचों में अधिक व्यस्त होने के कारण इधर ध्यान नहीं दे पाते हैं उन्हें विरक्त संतों की प्रेरणा मिलते ही ऐसे लोग भी अपने व्यापारिक कार्यों के साथ साथ जनहित के कार्य भी करने लगते हैं और अच्छे ढंग से करते हैं और सरकारी नियमानुशार करते हैं ! क्योंकि जनहित के कार्यों को करने की भावना उनके चिंतन एवं संस्कारों में बीज रूप में होती ही है यदि ऐसा न होता तो वो सेवा कार्यों में धन का योगदान भी नहीं करते !ऐसे लोगों को योजक मिलते ही ये लोग चल पड़ते हैं सेवा कार्यों के पवित्र पथ पर !इन्हें शास्त्रीय विरक्त संत अपने उपदेशों से प्रेरित कर देते हैं ये क्षमता उनकी तपः पूत वाणी में होती ही है ।
इस प्रकार से शास्त्रीय चरित्रवान संत अपनी पावन प्रेरणा से समाज को सुसंस्कारित करते हुए आगे बढ़ते रहते हैं इससे उनके स्वाध्याय तपस्या आदि दिनचर्या में कोई व्यवधान अर्थात रूकावट नहीं आती है इसीलिए कंचन, कामिनी और कीर्ति की कामनापूर्ति के लोभ में फँसकर वो कभी भी कैसे भी भ्रष्ट नहीं होने पाते और वो अपने विरक्ति व्रत का पारदर्शिता पूर्वक निर्वाह करने में हमेंशा सफल होते रहते हैं ।
कोई शास्त्रीय विरक्त संत अपने जीवन के सहज भ्रमण क्रम में अपने बहुमूल्य उपदेशों के द्वारा यदि इस सवा अरब की जनसंख्या के एक प्रतिशत भाग को भी अपने पवित्र आचार व्यवहार और संस्कारों से संस्कारित करने में सफल हुए तो उनके आदर्शों पर चलने वाले लोगों की संख्या एक करोड़ से अधिक हो सकती है यदि इतने लोग अपनी अपनी सुविधानुशार एक एक गाय का भी पालन अपने अपने घरों में करें तो गो सेवकों की संख्या करोड़ों में पहुँच सकती है और इससे किसी एक पर भार भी नहीं पड़ेगा तथा सबको शुद्ध दूध मिलने से स्वास्थ्य पर उसका अनुकूल असर पड़ेगा !स्थान आदि के आभाव में जो लोग गो पालन नहीं भी कर सकते हैं वो गो सेवकों का सहयोग कर सकते हैं किन्तु यदि यही काम कोई बाबा जी स्वयं करना चाहेंगे तो कितना और कैसे करेंगे आखिर पैसा उन्हें भी समाज से ही माँग कर गो पालन करना है और गायों की सेवा नौकरों से करवानी है फिर ऐसी गोशालाओं में उनका अपना दायित्व क्या होता है यही न कि अच्छे धनी मानी दानी लोगों से धन माँगने के लिए गोशालाओं में खड़े होकर गायों को राधा सीता सावित्री गंगा यमुना आदि पवित्र नामों से पुकारते हुए गुड़ खिलाने लगना !ऐसे आचरणों से समाज क्या सीखे ? ऐसा धर्म के नाम पर धन वसूली के लिए चलाए जाने वाले सभी क्षेत्रों एवं सभी प्रकार के जनहित के सेवाकार्यों में मानना चाहिए !
हमारे कहने का अभिप्राय ये कतई नहीं है कि संत गो सेवा या जनहितकारी सेवाकार्य कर ही नहीं सकते अपितु ऐसे कार्यों को स्वयं करने की अपेक्षा औरों को प्रेरित करके पारदर्शिता पूर्वक बहुत अधिक संख्या में लोगों को सम्मिलित करके आसानी से करवा सकते हैं जहाँ उनका योगदान इतना अधिक महत्वपूर्ण होगा जो दूसरे लोग कम ही कर सकते हैं ! विरक्त संत ऐसे पवित्र कार्यों में समाज को केवल आर्थिक रूप से ही नहीं या नौकर के रूप में ही नहीं अपितु सेवक के स्वरूप में सम्पूर्ण रूप से अपने उपदेशों से सेवाकार्यों के साथ जोड़ते चलते हैं ताकि समाज किसी के दबाव में केवल ऐसे कार्य ही न करे अपितु औरों को प्रेरित करने के उसमें संस्कार भी आवें !
आप स्वयं सोचिए -
बाबा जी स्वयं गोशाला चलावें तो अकेले कितनी गौवें पाल लेंगे वो ?और जितनी पाल लेंगे वो उतने से कितनी गायों की रक्षा हो सकेगी ?
बाबा जी गरीब कन्याओं का विवाह कराने लगें तो इससे कितनी कन्याओं का भला हो सकेगा ?
बाबा जी स्कूल चलाने लगें किन्तु इससे कितने बच्चों को शिक्षा में सहायता मिल सकेगी ?
बाबा जी दवाएँ बनाने और बेचने लगें या अस्पताल चलाने लगें किन्तु इससे समाज का कितना बड़ा भाग लाभान्वित हो सकेगा ?
हमें ऐसे सभी विंदुओं पर विचार करना होगा -
इसीलिए हमारे शास्त्रीय चरित्रवान संत अपने उपदेशों से समाज को प्रेरित करने पर भरोसा करते हैं और उन्हीं पर आज भी समाज टिका हुआ है किन्तु उन्हीं के प्रति आस्था की आड़ में कई बार कुछ प्रचार प्रसार के शौकीन व्यापारी बाबालोग सामाजिक कार्यों को करने के लिए पहले समाज से माँग माँग कर संपत्ति का संचय करते हैं और फिर संचित की गई उसी धनराशि के बहुत बड़े भाग को टेलीवीजन आदि पर अपना चेहरा दिखाने के लिए या अन्य सुख सुविधाएँ जुटाने के लिए खर्च कर देते हैं , इनमें से कुछ लोग तो रोज रोज के ऐसे झंझटों से मुक्ति के लिए चैनल ही खरीदना पसंद करते हैं उससे जब मन आया तब अपने चैनल पर कपड़े उतार कर बैठ कर हाँफने डाफने या हाथ पैर हिलाने डुलाने उठाने पटकने आदि कुछ भी करने लगते हैं ।अपने चैनल पर जब जो मन आवे तब सो करें रोवैं गावें हँसे खेलें आदि कुछ भी करें !
बंधुओ ! यही पैसा यदि ऐसे प्रचार प्रिय लोग अपने निजी जीवन की महत्वाकाँक्षाओं की पूर्ति के लिए समाज से माँगते तो समाज शायद इतनी उदारता पूर्वक कभी नहीं देता !लोककामी बाबाओं की यही सबसे बड़ी मजबूरी है कि उन्हें समाज को दिखाने के लिए सेवाकार्यों का जाल बिछाना ही पड़ता है ।
ऐसे बाबालोग अपने अनुयायियों के विशाल जन समूह के बल पर कईबार उन्मत्त होकर कानून को ठेंगा दिखाने लगते हैं जो कतई धर्म सम्मत नहीं कहा जा सकता है, आखिर राजाज्ञा का पालन तो सबके लिए अनिवार्य ही होता है प्रजा पालन के लिए कोई नियम तो शासक को बनाना ही पड़ता है जिसके पालन में स्वेच्छया सबको सहयोग देना ही चाहिए ! वह बात अलग है कि राजाओं को भी संतों के महनीय महत्त्व को सर्वोपरि रखना ही चाहिए ,शास्त्रीय संतों के गौरव के साथ खिलवाड़ किसी कीमत पर भी नहीं होने देना चाहिए इससे धर्म से जुड़ा बहुत बड़ा वर्ग प्रभावित होता है उसका अतीत कलंकित होता है एवं भविष्य अविश्वसनीय होता है जो समाज की वास्तविक क्षति है किन्तु इतना विचार करने के बाद भी किसी संत की गतिविधियों पर यदि शासक या समाज को संदेह हो ही जाए तो संत का कर्तव्य बन जाता है कि उस संशय के परिष्करण के लिए संत अपने विरक्ति व्रत का सविधि निर्वाह करते हुए अपने जीवन एवं कार्यशैली की पारदर्शिता पूर्वक जाँच करने के लिए शासक को उसकी सुविधानुशार स्वतन्त्र कर दे ! ऐसा करने से निर्दोष निकलने पर संतों का सम्मान घटने की अपेक्षा बढ़ जाता है । आखिर भगवती सीता ने अग्निपरीक्षा क्यों दी थी ?हम सबको ये बहुमूल्य बातें याद रखनी ही चाहिए ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें