पर फिर भी यदि जो आदि
भारतवर्ष में प्राचीनकाल में लोग कैसे स्वस्थ सुखी एवं शक्तिमान होते थे
लोगों से हैं किन्तु
चिकित्सा पद्धति अर्थात आयुर्वेद का मानना है कि मनुष्य शरीर के तीन उपस्तंभ अर्थात पिलर्स हैं -
भारतवर्ष में प्राचीनकाल में लोग कैसे स्वस्थ सुखी एवं शक्तिमान होते थे
लोगों से हैं किन्तु
चिकित्सा पद्धति अर्थात आयुर्वेद का मानना है कि मनुष्य शरीर के तीन उपस्तंभ अर्थात पिलर्स हैं -
आहार अर्थात भोजन
निद्रा अर्थात नींद
मैथुन अर्थात सेक्स
ये
तीनों बातें अधिक हुईं तो रोग होता है और कम हुईं तो रोग होता है यद्यपि
ये सब बातें आत्मसंयमी लोगों पर या योगियों पर लागू नहीं होती हैं फिर भी
आम स्त्री पुरुष इन बातों से प्रभावित होते हैं।
इसलिए मानसिक तनाव अधिक होने पर नींद नहीं आती है नींद न आने से पेट ख़राब
रहने लगता है उससे गैस बनती है जो अशुद्ध वायु होने से हृदय में पहुँचती है
तो घबराहट होती है और दिमाग में चढ़ती है तो चक्कर आते हैं उलटी लगती है या
होती है ।यदि ऐसी स्थिति कुछ दिन लगातार चली तो तनाव घर करने लगता है इससे
निजात पाने के लिए लोग हत्या या आत्म हत्या तक पहुँचने लगते हैं जो गलत
है । इससे बचने के लिए डाक्टर नींद की दवाएँ देने लगते हैं किन्तु दवा लेकर
निद्रा तो आ जाती है किन्तु निद्रा सुख कहाँ होता है इसलिए जब तक दवा ली
गई तब तक तो ठीक फिर वही स्थिति ! नींद की दवा भी आखिर कब तक ली जाए कितनी
ली जाए उसके भी साइड इफेक्ट होते हैं । इसके अलावा कहा या समझाया कितना भी
जाए कि मनोरोगियों को डाक्टर के पास ले जाओ इलाज करवाओ किन्तु यदि डाक्टर
इसमें कुछ खास कर पाए होते तो इन विषयों में तंत्र मंत्रादि करने वालों की
भीड़ें नहीं बढ़ रही होतीं !हमारी समझ की सच्चाई ये है कि चिंता और चिंतन से
सम्बंधित सभी रोगों में चिकित्सा बहुत अधिक कारगर साबित नहीं हो पायी है।इस
विषय में डॉक्टर कुछ भी दावा करें किन्तु जिस पर गुजरती है उसी को पता है
जिसके घर में कोई मनोरोगी होता है उसे लगभग सारे जीवन ही भोगना पड़ता है कई
लोग मेरे भी संपर्क में हैं जो आर्थिक रूप से पर्याप्त सक्षम हैं जिन्होंने
चिकित्सा करने करवाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रखी है फिर भी वही ढाक के
तीन पात हैं अर्थात डाक्टर बदलते दवा बदलते ,पर्चे बदलते हॉस्पिटल बदलते
निराश हताश रूप में बीतता जा रहा है घसिटती जा रही है जिंदगी ।
इन्द्रियाँ ,बुद्धि ,मन ,और आत्मा ये चार हैं -
आत्मा सुख दुःख से ऊपर एवं विशुद्ध रूप से नैतिक है अर्थात हर प्रकार के
गलत कार्यों को आत्मा स्वीकार नहीं करती है जबकि मन सुख दुःख का अनुभव
करने वाला एवं अधिक से अधिक सुविधा भोग की इच्छा रखने वाला होता है मन का
स्वभाव है कि दुनियाँ की हर अच्छी वस्तु खाने पहनने के लिए हमें मिले, हर
पद प्रतिष्ठा हमें मिले, हर सुन्दर स्त्री या पुरुष गाड़ी घोड़ा आदि हमें
मिले और जो न मिल पावे वहीँ तनाव !मन की इच्छा सब कुछ अच्छा पाने की होती
है वो नैतिकता से मिले या अनैतिकता से !किन्तु आत्मा केवल नैतिकता को ही
स्वीकार करती है अर्थात हमारे मन की इच्छाओं की पूर्ति की भावना जितनी
नैतिक है उतनी का ही साथ आत्मा देती है जबकि मन नैतिकता या अनैतिकता से
नहीं जुड़कर चलता है उसे नैतिकता से जोड़कर चलाना पड़ता है । अध्यात्म भावना
में इसी बात का अभ्यास करना होता है अर्थात सुख सुविधा भोगी बनो किन्तु
नैतिकता से !
मनोरंजन - मन का रंजन करना अर्थात मन को खुश रखना जैसे रहे वैसे रखना !
बंधुओ !मनोरंजन की भावना पूर्ति में अपना मनोरंजन करने के लिए कई बार दूसरों को पीड़ा पहुँचती है !
किसी को किसी का घर अच्छा लग जाता है तो वो या वैसा ही घर चाहिए इसी
प्रकार से गाड़ी घोड़ा मकान दुकान कपड़े आभूषण आदि चाहिए इसी प्रकार से किसी
के मन में किसी लड़के या लड़की को पाने की बलवती इच्छा हो जाती है वो भी इतनी
कि सामने वाला चाहे या न चाहे किन्तु मन उसमें लग गया है आत्म भावना या
नैतिक भावना न होने के कारण ऐसी जगहों पर लोग छल बल आदि सबकुछ प्रयोग करते
हैं बलात्कार जैसी कुत्सित भावना इसी निरंकुशता की देन है अपहरण हत्या लूट
पाट अादि अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए ही आज उद्योग का रूप लेते जा
रहे हैं क्योंकि अपेक्षित धन हर किसी के पास होता नहीं है जिसके पास नहीं
है इच्छाएँ तो उसके मन में भी उठती हैं उन्हें पूरा करने का रास्ता आखिर
क्या है ?
यदि कोई आध्यात्मिक है तो ऐसी इच्छाएँ पालेगा ही नहीं जिनसे औरों का
हित बाधित होता हो या औरों को पीड़ा पहुँचती हो और यदि पल भी जाएँ तो उन पर
आत्म संयम के द्वारा अंकुश लगाएगा ! और यदि वो नैतिक या आध्यात्मिक आदि
नहीं है तो वो अपनी अभिलषित व्यक्ति या वस्तु को पाने का किसी भी प्रकार से
प्रयास करेगा वो नैतिक भी हो सकता है अनैतिक भी।
वो अभिलषित व्यक्ति या वस्तु बिना कोई अपराध किए मिले तो सुख देती है और अपराध करने से मिली तो उसके परिणाम सोच सोच कर भय होता है उससे अभिलषित व्यक्ति या वस्तु प्राप्त हो जाने पर भी उसका सुख नहीं होने पाता है यही लगा करता है कि न जाने कब क्या हो जाए !फिर तो अपराध के लिए अपराध आदि होते चले जाते हैं लम्बी श्रृंखला चलती है ।
इसलिए इस विषय में कई बार मैं टीवी पर कार्यक्रम देखता हूँ तो उन
चिकित्सकों एवं पत्रकारों की बातें सुनकर ऐसा जरूर लगता है कि ये लोग
मनोरोग को लेकर चिंतित दिखना तो चाह रहे हैं किन्तु हैं नहीं !इसीलिए ऐसे
कार्यक्रमों से निकलकर कुछ सामने आ भी नहीं पाता है इनकी चर्चा सुनकर ऐसा
तो लगता है कि जैसे कहीं लूट हो गई हो तो उसकी पुलिस रिपोर्ट लिखने में
आपाधापी मची हो किसी को कुछ समझ में न आ रहा हो कि लूट आखिर हुई क्यों इसके
लिए दोषी किसे ठहराया जाए और रिपोर्ट करने से आखिर होगा चोर पकड़ ही जाएगा
और धन मिल ही जाएगा इसकी
कोई गारंटी तो नहीं होती है किन्तु चोर पकड़ने का पुलिस आश्वासन दे रही
होती है और समाज इसी आशा से उसकी ओर देख रही होती है !यही स्थिति मनोरोग
चिकित्सा की है ।
अजीब सी स्थिति है कि ये सभी लोग मिलकर भी स्वयं विशेष कुछ करने की
स्थिति में नहीं होते हैं और जो कुछ करने की स्थिति में होते हैं मिलबैठकर
उनका उपहास उड़ा रहे होते हैं ।
बंधुओ ! वस्तुतः मनोरोगी के विषय में चिकित्सा के साथ साथ ज्योतिष और
तंत्र की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है बिना इन तीनों की सहायता के मनोरोगी
का इलाज सम्पूर्ण रूप से किया ही नहीं जा सकता है एवं चिकित्सा तीनों के
क्षेत्र का है
इंद्रियाँ दस हैं -कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ दोनों पाँच पाँच होती हैं
मुख, हाथ, पैर, मलद्वार
तथा जननेंद्रिय हैं जो क्रमश: बोलने, ग्रहण करने, चलने, मल त्यागने तथा
संतानोत्पादन का कार्य करती है- ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं ।
निम्न लिखित पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं उनके काम क्या क्या हैं वो देखिए -
- चक्षु(आँखें) - रूप = कुछ भी देखने का काम आँखें करती हैं !
- रसना(जीभ)- रस = स्वाद जाने का काम जीभ का है !
- घ्राण(नाक)- गंध = सुगंध या दुर्गन्ध जाने का काम नाक का है !
- त्वक्(त्वचा) - स्पर्श = अपने शरीर से कुछ छू जाए इसका ज्ञान त्वचा(स्किन)का है !
- श्रोत्र (कान) -शब्द= कोई भी शब्द सुनने का काम कानों का है !
संकल्पविकल्पात्मक मन को कुछ लोग ग्यारहवीं इंद्रिय
कुछ लोग छठी इन्द्रिय मानते हैं इसी छठी इंद्री को अंग्रेजी में सिक्स्थ
सेंस कहते हैं। यही सिक्स्थ सेंस अर्थात मन व्यक्ति की सभी समस्याओं का मूल
कारण होता है। को अपने अनुशार चलाने के लिए योगादि शास्त्रों में अनेक
उपाय बताए गए हैं
सुख दु:ख आदि सभी भीतरी विषयों का अनुभव मन से होता है-
छठी
इंद्री को अंग्रेजी में सिक्स्थ सेंस कहते हैं। सिक्स्थ सेंस को जाग्रत
करने के लिए योग में अनेकों उपाय बताए गए हैं। इसे परामनोविज्ञान का विषय
भी माना जाता है। असल में यह संवेदी बोध का मामला है। गहरे ध्यान प्रयोग से
यह स्वत: ही जाग्रत हो जाती है।
कहते हैं कि पाँच इंद्रियाँ होती हैं- नेत्र, नाक, जीभ, कान और यौन। इसी
को दृश्य, सुगंध, स्वाद, श्रवण और स्पर्श कहा जाता है। किंतु एक और छठी
इंद्री भी होती है जो दिखाई नहीं देती, लेकिन उसका अस्तित्व महसूस होता है।
वह मन का केंद्रबिंदु भी हो सकता है या भृकुटी के मध्य स्थित आज्ञा चक्र
जहाँ सुषुन्मा नाड़ी स्थित है।
सिक्स्थ सेंस के कई किस्से-कहानियाँ किताबों में भरे पड़े हैं। इस ज्ञान
पर कई तरह की फिल्में भी बन चुकी हैं और उपन्यासकारों ने इस पर उपन्यास भी
लिखे हैं। प्राचीनकाल या मध्यकाल में छठी इंद्री ज्ञान प्राप्त कई लोग हुआ
करते थे, लेकिन आज कहीं भी दिखाई नहीं देते तो उसके भी कई कारण हैं।
मेस्मेरिज्म या हिप्नोटिज्म जैसी अनेक विद्याएँ इस छठी इंद्री के जाग्रत
होने का ही कमाल होता है। हम आपको बताना चाहते हैं कि छठी इंद्री क्या
होती है और योग द्वारा इसकी शक्ति कैसे हासिल की जा सकती है और यह भी कि
जीवन में हम इसका इस्तेमाल किस तरह कर सकते हैं।
क्या है छठी इंद्री : मस्तिष्क के भीतर कपाल के नीचे एक छिद्र है, उसे
ब्रह्मरंध्र कहते हैं, वहीं से सुषुन्मा रीढ़ से होती हुई मूलाधार तक गई
है। सुषुन्मा नाड़ी जुड़ी है सहस्रकार से।
इड़ा नाड़ी शरीर के बायीं तरफ स्थित है तथा पिंगला नाड़ी दायीं तरफ
अर्थात इड़ा नाड़ी में चंद्र स्वर और पिंगला नाड़ी में सूर्य स्वर स्थित
रहता है। सुषुम्णा मध्य में स्थित है, अतः जब हमारे दोनों स्वर चलते हैं तो
माना जाता है कि सुषम्ना नाड़ी सक्रिय है। इस सक्रियता से ही सिक्स्थ सेंस
जाग्रत होता है।
इड़ा, पिंगला और सुषुन्मा के अलावा पूरे शरीर में हजारों नाड़ियाँ होती
हैं। उक्त सभी नाड़ियों का शुद्धि और सशक्तिकरण सिर्फ प्राणायाम और आसनों
से ही होता है। शुद्धि और सशक्तिकरण के बाद ही उक्त नाड़ियों की शक्ति को
जाग्रत किया जा सकता है।
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