रँग पोत कर चमकाए जा सकते हैं तन सुंदर दिखने के लिए इतने प्रयास और मन की सुन्दरता के लिए संस्कारों पर किसका कितना है ध्यान ?शरीरों को रँग -पोत कर इतना आकर्षक बना दिया जाता है कि देखने वाले लोगों का दिमागी ट्रेफिक शरीरों पर ही जाम हो जाता है वो महिलाओं के गुणों तक पहुँच ही नहीं पाते हैं लगता है कि ऐसे लोग महिलाओं को केवल शरीर समझते हैं महिलाएँ भी शारीरिक शारीरिक श्रृंगारों या शरीरों को दिखाने के प्रति जितनी सतर्क हैं उतनी गुण प्रदर्शन की भावना क्यों नहीं होती है ।
हमने कभी सोचा है क्या कि कल्पना चावला ,इंद्रा जी,प्रतिभा देवी पाटिल जी समेत और भी वो सभी सम्माननीया महिलाएँ जिन्होंने अपने शरीरों से ऊपर उठकर गुणों को आगे किया और गुणों से ही गौरव प्राप्त किया है। गुणों का गौरव समझने वाली महिलाओं का सम्मान हमेंशा विशिष्ट रहता है भले ही वो अत्यंत सामान्य दिखने वाली घरेलू कार्यों में निरत ही क्यों न हों किन्तु गुणवती महिलाएँ अपने शारीरिक श्रृंगारों की सीमाएँ स्वयं निश्चित करती हैं किसी ब्यूटीपार्लर वालों की मदद से नहीं !आखिर उनका अपना भी तो आत्म सम्मान होता है वो ऐसा कैसे पसंद कर सकती हैं कि श्रृंगार के नाम पर उन्हें जो जैसा लीपपोत दे उसी को स्वीकार करके वो बनावटी हँसी हँसने लगें !
हमने कभी सोचा है क्या कि कल्पना चावला ,इंद्रा जी,प्रतिभा देवी पाटिल जी समेत और भी वो सभी सम्माननीया महिलाएँ जिन्होंने अपने शरीरों से ऊपर उठकर गुणों को आगे किया और गुणों से ही गौरव प्राप्त किया है। गुणों का गौरव समझने वाली महिलाओं का सम्मान हमेंशा विशिष्ट रहता है भले ही वो अत्यंत सामान्य दिखने वाली घरेलू कार्यों में निरत ही क्यों न हों किन्तु गुणवती महिलाएँ अपने शारीरिक श्रृंगारों की सीमाएँ स्वयं निश्चित करती हैं किसी ब्यूटीपार्लर वालों की मदद से नहीं !आखिर उनका अपना भी तो आत्म सम्मान होता है वो ऐसा कैसे पसंद कर सकती हैं कि श्रृंगार के नाम पर उन्हें जो जैसा लीपपोत दे उसी को स्वीकार करके वो बनावटी हँसी हँसने लगें !
इस विषय पर लिखने का उद्देश्य कहीं मातृ शक्ति के सम्मान या श्रृंगारों का उपहास करना नहीं है और यदि कहीं किसी को ठेस लगे तो उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ किंतु बढ़ता सामाजिक ब्याभिचार जिसके लिए पुरुष भी काम दोषी नहीं हैं इसी प्रकार से टूटते परिवार उसमें भी पुरुष बराबर के दोषी हैं इसीप्रकार से महिलाओं के सम्मान के साथ खिलवार आज किसी फ़िल्म सीरियल आदि में महिलाओं के वैचारिकसुंदरता ,आचार व्यवहार की सुंदरता,उनके शीलसौंदर्य के महान मूल्यों की बातों की दिनोंदिन उपेक्षा होती देखी जा रही है विशेष कर कॉमेडी शो तो चलते ही महिलाओं की खिल्ली उड़ाकर हैं बात बात में तो वो सोहाग रात की बातें परोसने लगते हैं वर्तमान बलात्कारों की भयंकर वेदनाओं के बीच हमें केवल सरकारों की ओर नहीं ताकना चाहिए अपितु अपने स्तर पर भी कुछ ऐसा सोचना चाहिए जिससे महिलाओं को केवल शरीर ही न समझा जाए अपितु उनकेहृदयपक्ष,आत्मपक्ष,कर्मपक्ष,शीलपक्ष,संस्कार पक्ष एवं सभी प्रकार के सद्गुणों को भी महत्त्व दिया जाए और महिलाओं को भी चाहिए कि अपने शरीरों और मनों के रंजन से कुछ ऊपर उठकर आत्मरंजन अध्यात्मरंजन की भावना से समाज में संस्कार सृजन के महान एवं आवश्यक कार्यों की वागडोर भी अपने हाथ में सँभालें !इससे महिलाओं की जो सुरक्षा सरकार लाख चाहकर भी नहीं कर सकती उससे अधिक सुरक्षा बेटा बेटियों में भरे गए सहज संस्कारों से स्वयं ही हो जाएगी !मेरे कहने का अभिप्राय इतना है कि महिलाएँ भी केवल अपने शरीरों से नहीं उनके गुणों को भी महत्त्व मिले !
इस समय ब्यूटीपार्लरों में किए जाने वाली पॉलिस श्रृंगार कम विज्ञापन अधिक है जो वस्तु जैसी न हो उसे वैसा सिद्ध करना ही तो विज्ञापन है किंतु जो जो है उसे उसी में व्यवस्थित करना श्रृंगार है ।आज ब्यूटीपार्लरों में कलर कपड़े केश(बाल)सब कुछ वो लोग बदल देते हैं आखिर क्यों क्या हमारा अपना कुछ भी अच्छा नहीं होता है !आखिर इतनी हीन भावना के साथ प्रतिदिन जीने के लिए क्यों मजबूर हैं हम !जहाँ तक बात अतिरंजित शरीर विज्ञापन की है आखिर क्यों जरूरी है यह !
इस समय ब्यूटीपार्लरों में किए जाने वाली पॉलिस श्रृंगार कम विज्ञापन अधिक है जो वस्तु जैसी न हो उसे वैसा सिद्ध करना ही तो विज्ञापन है किंतु जो जो है उसे उसी में व्यवस्थित करना श्रृंगार है ।आज ब्यूटीपार्लरों में कलर कपड़े केश(बाल)सब कुछ वो लोग बदल देते हैं आखिर क्यों क्या हमारा अपना कुछ भी अच्छा नहीं होता है !आखिर इतनी हीन भावना के साथ प्रतिदिन जीने के लिए क्यों मजबूर हैं हम !जहाँ तक बात अतिरंजित शरीर विज्ञापन की है आखिर क्यों जरूरी है यह !
हमारे कपड़ों की डिजाइन करते समय जो जितना नग्न कर दे अर्थात अंग प्रदर्षित कर दे वो उतना बड़ा फैशन डिजाइनर !और जो जितना नग्न हो जाए वो उतना बोल्ड सेक्सी सुपर सेक्सी आदि आदि और भी बहुत कुछ !
ब्यूटी पार्लरों की अच्छाई बुराई का पैमाना आखिर क्या है !जहाँ इतना अधिक भड़काऊ श्रृंगार किया जाता हो कि रास्ते चलते लोग घूरने देखने ताकने एवं पाने की अभिलाषा करने लगें वो उतना अच्छा ब्यूटी पार्लर और जहाँ से निकलने के बाद कोई घूरे नहीं ताके नहीं ललचाए नहीं वो कैसा ब्यूटी पार्लर !किन्तु याद रखना ये घूरने देखने ताकने एवं ललचाने वाले लोगों का चिंतन आपको माँ,बहन, बेटी बनाने का नहीं होता है ।इसलिए ये फैसला आपको करना है कि आप कैसे समाज से जुड़ना चाहते हैं !उस समाज से जो आपको माँ,बहन, बेटी जैसा सम्मान देता है और यदि ऐसे पवित्र समाज से जुड़ना है तो सहज श्रृंगार ही सर्वोत्तम है उसी पर गर्व कीजिए ।
ब्यूटीपार्लरों के द्वारा पेंट पोताई करवाकर जो सुंदरता पैदा की जाती
है वो एक्सपायरी होती है अर्थात उसे छूट जाने का एक निश्चित समय होता है
इसलिए उसे देख कर किए जाने वाले विवाह भी आखिर कब तक चल पाएँगे ! जब तक
पेंट का कलर रहेगा तबतक या कुछ आगे तक ,खैर , अर्थात जब तक वो तथाकथित
सुंदरता टिकेगी तबतक ही उसे देखकर किया जाने वाला विवाह टिकेगा इसके बाद
जैसे जैसे डेंटिंग पेंटिंग छूटने लगेगी वैसे वैसे विवाह के बंधन भी ढीले
पड़ने लगेंगे , फिर उन्हें ठीक करवाने के लिए जाना पड़ता है ब्यूटी पार्लर !
इस प्रकार से आजकल ब्यूटीपार्लरों के सहारे निभ रही हैं जिंदगियां ! और
मेकअप की एक्सपायरी डेट बीतते ही वैवाहिक संबंधों की भी अवधि पूरी जैसी
होने लगती है !
इसीलिए पुष्पबाटिका में श्री राम के प्रथम दर्शन के समय सीता जी ने अपना सहज श्रंगार भी वहीँ सरोवर में ही धुल दिया था !
" करि मज्जन सिय सखिन्ह समेता ।"
इसका तात्पर्य अपना वास्तविक स्वरूप श्री राम जी के सामने प्रस्तुत करना
है ताकि ऐसी सुंदरता जो हमेंशा बनी रहे उसे ही स्थापित करना था ,और श्री
राम प्रभु ने पसंद भी उसे ही किया था !
वहीँ दूसरी और बहुत बन ठन कर अति श्रृंगारित सूर्पनखा श्री राम जी के पास
पहुँच कर बहुत मुस्कुराई किन्तु श्री राम ने उसे न केवल मुख लगाया अपितु
कह दिया कि तुमने इतना अधिक मेकअप कर रखा है कि राक्षसी लगती हो -
"त्वं हि तावन्मनोज्ञांगी राक्षसी प्रतिभासि मे" ।
इसलिए सुंदरता पैदा नहीं की जा सकती सुंदरता तो प्राकृतिक होती है
"क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदैव रूपं रमणीयतायाः" आदिआदि!!
इसलिए बंधु बहनो!हम ठीक होते तो क्यों बनते अनाथाश्रम !क्या हम लोग मिलजुलकर उन बच्चों को भी माता पिता का स्नेह नहीं दे सकते थे ?ये वृद्धाश्रम हमारी गैरजिम्मेदारी की निशानी हैं ?आखिर क्यों हमारे कंधे वृद्धों का सम्बल नहीं बन पा रहे हैं ?हमें धिक्कार है हमारे वृद्धों को उनके संघर्ष निर्मित घरों में रहकर परायों सा जीवन बिताना पड़ रहा है घुट घुट कर बिताना पड़ रहा है जीवन का चौथापन !सास
श्वसुर की सेवा न करके अपने माता पिता की कुशलता चाहने वाली महिलाएँ आखिर
क्यों भूल जाती हैं कि वहाँ भी आपकी ही जैसी बहनें बधू रूप में विराजती हैं
उन्हें कुछ समझाने के लिए कुछ उदाहरण देने होंगे वो भी थोथी बातों के नहीं
अपितु प्रेरक आचार व्यवहारों के ,कुछ अच्छा करोगे तब न किसी को उपदेश करने
लायक बनोगे !फिल्मों सीरियलों के उदाहरण किसी के गले नहीं उतरते !आचरण ही प्रमुख है ।
ज्योतिष के लिए see more...http://jyotishvigyananusandhan.blogspot.in/2015/03/blog-post_17.html
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