रविवार, 7 जून 2015

साधू संत तो सनातन धर्मियों के माथे के मुकुट हैं किंतु बाबाओं के षड्यंत्रों में फँसने से बचो !

  संत लोग शास्त्रों को आगे करके चलते हैं जबकि बाबा लोग स्वार्थ को आगे करके चलते हैं स्वार्थी लोग बहुत विश्वसनीय नहीं होते इसलिए बाबाओं में मत फँसो  केवल संतों की शरण में जाओ वही कल्याणकारी उत्तम पंथ है । 
     साधू संत तो पैसे और प्रसिद्धि से दूर भागते हैं जबकि बाबा लोग पैसे एवं प्रसिद्धि के लिए ही पागल हो रहे हैं इसके लिए उनमें होड़ सी लगी हुई है इसके लिए वो कुछ भी करने को तैयार हैं !
      कोई कुछ बना रहा है कोई कुछ बेच रहा है कोई गोलगप्पा खिलाकर काम बनवाने के दावे ठोंकता है कोई अपने को आत्मज्ञानी कहता है ऐसे लोगों के पास लोग हाथ जोड़े रोते गिड़गिड़ाते हैं और भगवान को भूलकर उन भटके हुए लोगों को कोटि कोटि प्रणाम बोलते हैं जब उनके साथ वही बाबा  धोखा करते हैं तब ऐसे भीरुलोग धर्म को दोष देते हैं इस सारी  सौदे बजी का धर्म से कोई लेना देना नहीं था । 
     बंधुओ!जो लोग किसी बाबा जी के प्रति समर्पित हैं वे रहें मुझे कोई आपत्ति नहीं है उनके लिए हमारी शुभ कामनाएँ !किंतु हम केवल उन सजीव लोगों के साथ जुड़ते हैं जो किसी बाबा के पिठलग्गू न होकर शास्त्रीय साधू संतों एवं आचार ब्यवहारों पर भरोसा करते हों ! बंधुओ !किसान जिस खेत में जो फसल बोता  है उसके अलावा कोई पौधा उसी खेत में उग आवे तो उसे निराई करते वक्त निकाल दिया जाता है वो अच्छा पौधा ही क्यों न हो !गेहूं के खेत में अपने आपसे उगे चने के पौधे नहीं रखते हैं लोग !ठीक इसी प्रकार से हमें अपने विषय में भी समझना चाहिए कि हम संन्यास की दीक्षा लेकर संन्यासी वेषभूषा धारण करके सैलून(बालकाटने की दुकान) खोल लें तो यह ठीक होगा क्या ?और हम सिद्ध यह करें कि नाई के हाथ में ब्लेड (छुरा )होता है न जाने कब किसी के गले में मार दे और उसकी जिंदगी खतरे में पड़ जाए !इसलिए सेवा भावना से मैंने सैलून खोला है जिससे किसी को खतरा न रहे दूसरी बात हम पैसे भी कम लेते हैं । इसलिए काम पैसों में अच्छी सेवा देने से जनता का भी लाभ होता है ।मित्रो !ये बात जनहित में होने के कारण  सुनने में बहुत अच्छी लगनी स्वाभाविक है किन्तु चूँकि जिस संन्यास का वर्णन शास्त्रों में किया गया है उन्हीं शास्त्रीय बचनों को मानने की पवित्र भावना से लोग संन्यासी होते हैं उसी हिसाब की वेषभूषा धारण करते हैं समाज उनका उसी परिवेष के हिसाब से सम्मान भी करता है किंतु इसी बीच यदि वो अपना आचार ब्यवहार में शास्त्रीय मर्यादाएँ छोड़ देते हैं तो इसमें समाज का क्या दोष !इस व्रतशांकर्य  का सम्मान कैसे किया जा सकता है । 
        संन्यासी होते हुए भी यदि ऐसी कोई कला हम जानते हैं जो मानवता की रक्षा में सहायक हो सकती है तो ऐसे कार्यों के लिए हमें समाज का चरित्र निर्माण इस प्रकार से करना चाहिए ताकि समाज के लोग प्रेरित होकर उस कार्य का वैसे ही सात्विकता पूर्वक निर्वाह करने लगें !न कि हर काम में हम स्वयं फँसते चले जाएँ !   
        कुछ लोग बाबाओं को ही साधू संत मान बैठे हैं उन्हें हमारे द्वारा लिखा  जा रहा शास्त्रीय सच पच नहीं रहा है तो ऐसे लोगों को चाहिए कि जो चीज जिसकी समझ में नहीं आती है वो उसे न समझें उसी में उनकी भलाई है किंतु हमारे जैसे जो लोग जो कुछ लिखते हैं वो  उसमें भलाई भलाई समझते होंगे इसीलिए ऐसा करते होंगे स्वाभाविक है !
     इसलिए मेरा सभी भाई बहनों से निवेदन है कि किसी की लेखनी पकड़ने की कोशिश ठीक नहीं है हम अपने अपने बिचार व्यक्त करते रहें वही ठीक है।लोग अपने अपने अनुशार समझते रहेंगे! इसमें क्या बुराई है । अन्यथा यदि मेरे कहने से यदि कोई किसी एक बाबा को छोड़ भी देगा तो दूसरे को पकड़ेगा क्योंकि ये उसके जीवन की मजबूरी है अपनी जिंदगी चलाने के लिए उसे किसी बाबा का इंतजाम तो करना ही पड़ेगा !तो अच्छा है उसी से जुड़ा रहे जिससे जुड़ा है । 
     इसलिए बेहतर है कि ऐसे बाबा पसंद लोग हमारे बिचारों से बचें !क्योंकि जो जीवित  बिचारों वाले लोग स्वयं कुछ करना चाहते हैं या बनना चाहते हैं मैं केवल उनके लिए लिखता हूँ किसी के पिठलग्गू लोग हमारी भाषा से आहत होते हैं इसकी तकलीफ मुझे भी होती है मैं चाहता हूँ कि ऐसे लोग मुझे अपने संग से मुक्त करें क्योंकि हमारे साथ रहकर बिचार बिहीन ज्ञान विहीन स्वाभिमान विहीन जीवन जीना  बहुत कठिन है धन्यवाद !

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