गुरुवार, 6 अगस्त 2015

कुंभ में कंडोम की कमी किसी एक बाबा के कारण तो नहीं हुई थी !फिर दो चार बाबाओं को बदनाम क्यों किया जा रहा है !

  स्वदेशी शुद्ध राशन की तरह ही शरीर की अन्य जरूरतों की भी स्वदेशी आपूर्ति कर रहे हैं बाबा लोग !जिन्हें चाहिए वे लाभ लूटते हैं बाकी लोग उनकी निंदा करके पेट भर लेते हैं | 
      जिसे जरूरत हो सो जाए उनके पास और न जरूरत हो तो वे अपना काम करें हम अपना करें किंतु उनके आश्रमों में अपने ढंग से नहीं रहा जा सकता !वो अपनी पहचान क्यों खो दें !
   बलात्कार पीड़िता यदि साध्वी थी और उसका उद्देश्य वास्तव में भजन करना था तो ऐसे हाईटेक आश्रमों में जाना जरूरी क्यों था ?कहीं ऐसे आश्रम में जाती जहाँ धर्मकर्म का वातावरण होता !जिन आश्रमों में जो कुछ होता है वो किसी एक के लिए खुद को क्यों बदल लें !
    किसी का बलात्कार हो किसी को  सजा मिले और दंड भुगते जनता क्यों ?न्यायालय के आदेशों का शांतिपूर्ण ढंग से पालन करवाना यदि सरकार के बश का नहीं है तो मुकदमा चलाने और सजा सुनाने का नाटक बंद करे सरकार !
 धर्म के क्षेत्र में मिल रही सेक्स सुविधाएँ भीड़को खींच ले जाती हैं हाईटेक आश्रमों की ओर !बाबा और उनके भक्तकांड करते हैं शास्त्रीय चरित्रवान साधू संत बदनाम होते हैं !?बासना प्रियता का इस कदर हावी होना चरित्रवान साधू संतों को भी लज्जित कर देती है !
  चोरों छिनारों जुँवारियों की बेशर्म हरकतों ने धर्म को  अक्सर शर्मसार किया है !! आज  साधू संतों जैसे वेष में घूम रहे हैं व्यापारी,भिखारी एवं ब्यभिचारी बाबा लोग !धार्मिक वेष भूषा में रहने  वाले धर्म द्रोहियों  ने धर्म को बार बार बदनाम किया है ! 
    यह माना जा सकता है कि धार्मिक जगत में शास्त्रीय मान्यताओं का सम्यक पालन करने वालों की क्वालिटी में घोर कमी आई है जिसका दुष्परिणाम साईं बाबा, निर्मल बाबा, आशाराम बाबा ,राधे माँ या और भी बहुत सारे   चूरन चटनी खटाई मसाला बेचने वाले बाबाओं के रूप में प्रभावी  होते दिख रहा है ।शास्त्रीय वैराग्य भावना की कमजोरी के कारण ही यह सब कुछ संभव हो पाया है उसी कारण कमजोर फसलों में खर पतवार की तरह ही उग आए हैं ऐसे लोग ! 
    कोई फसल जितनी कमजोर होती जाती है खर पतवार उतना ही अधिक उग आता है फिर किसानों  को फसल साफ करने के लिए निराई करके उसे निकालना पड़ता है तब फसल पनप पाती है अन्यथा नष्ट हो जाती है !कई बार तो खर पतवार या घास इतनी बढ़ जाती है कि केवल घास ही घास दिखाई पड़ने लगती है फसल छिप जाती है उसी प्रकार आज धर्म की स्थिति है पाखंड ही पाखंड दिखाई पड़ने लगा है धर्म छिपा हुआ सा दिखाई पड़ने  लगा है । कई बार घास और फसल के पौधों में ये निर्णय करना कठिन हो जाता है कि फसल आखिर है कौन !किन्तु चतुर किसानों को फसल के पौधों की पहचान होने के कारण घास फूस को आराम से उखाड़ कर फ़ेंक देते हैं और फसल को बचा लेते हैं जैसे आज शास्त्रीय धार्मिक समाज को साईंयों के साथ करना पड़ रहा है।कई बार किसान गेहूँ की फसल बोता  है किन्तु उसी गेहूँ की फसल में दस बीस पौधे चने के उग आते हैं यद्यपि चना गेहूँ से अच्छा होता है उसका मूल्य भी गेहूँ से अधिक होता है फिर भी किसान अपनी गेहूँ की फसल को सुरक्षित रखने के लिए उन चने के पौधों को निर्मोह भाव से उखाड़ कर फ़ेंक देता है और अपनी गेहूँ की फसल को बचा लेता है , अन्यथा उसमें चार चार पौधे चना ,चटरी  मटर राई जौं आदि हर फसल के उग आएँगे जरूरी तो सब हैं किन्तु यदि सब रख लिए जाएँ  तो फसल चौपट हो जाएगी इसलिए किसान को उस समय लक्ष्य याद रखना होता है कि हमने बोया क्या था अर्थात उसका लक्ष्य क्या था उसी को वो अपनी फसल मान कर जो नहीं बोया था उसे उखाड़ कर फ़ेंक देता है । ठीक इसी प्रकार से साधू बाबा बनने के बाद कुछ लोगों की रूचि सामाजिक कार्यों की ओर बढ़ जाती है जैसे चंदा इकठ्ठा करके गरीब कन्याओं की शादी कराने लगते हैं ,स्कूल बनवाते हैं अस्पताल बनवाते हैं राजनीति करते हैं ,ज्योतिष बताते हैं दवा दारू बनाते बेचते हैं निस्संदेह बाबा जी सस्ती और अच्छी क्वालिटी की दवाएँ बेचते होंगे किन्तु उनके वैराग्य का लक्ष्य ये सब करना तो नहीं था अतः इन कार्यों को उनके वैराग्य धर्म के विरुद्ध माना जाएगा !इसलिए जैसे किसान अपनी गेहूँ फसल में उग आए दूसरी फसलों के अच्छे पौधों से भी मोह नहीं करता है ठीक इसी प्रकार से जो वैराग्य का लक्ष्य लेकर वैराग्य पथ पर आगे बढ़ चुके हों उन्हें फिर भटकना शोभा नहीं देता है वो बहुत अच्छा काम ही क्यों न हो !अन्यथा उन माँग मूँग कर लाए हुए पैसों से वो जन सेवा का काम तो अच्छा चला लेते हैं किन्तु उनके वैराग्य की भद्द पिट जाती है जो उनके जीवन का मुख्य लक्ष्य होता है उससे भटक जाने के कारण समाज में वैराग्य से पतित हो जाने का जो सन्देश जाता है वो बहुतों को पथ भ्रष्ट कर देता है जैसा कि आज हो रहा है ।  

   साधु वेष धारी समाज सेवा कर्मचारियों को साधू संन्यासी मान लेने से संन्यास सूना हो रहा है। अब वहाँ भी तपस्या की जगह पैसे ने ले ली है पहले तपस्या से लोग बड़े साधू संत माने जाते थे अब पैसे से किन्तु वैराग्य में पैसे का प्रयोग कभी सफल नहीं रहा है इसलिए तपस्या को ही वहाँ लाना पड़ेगा !बाक़ी जीवन चलाने के लिए जितना जरूरी है उतना तो करना पड़ेगा ।    वैराग्य के शास्त्रीय नियम संयमों के पालन की क्वालिटी घट  जाने से आज भिखारियों ने भी लाल कपड़े पहनने प्रारम्भ कर दिए हैं !पहले वो हाथ फैलाकर माँगते थे तो आँखों में शर्म झलकती थी किन्तु अब  लाल कपड़े पहनने के कारण आज वो हाथ उठाकर आशीर्वाद देते हुए माँगते हैं इसलिए केवल वस्त्र और वेष भूषा को ही संन्यास या वैराग्य मान लेना ठीक नहीं होगा जब तक वैराग्य के शास्त्रीय संविधान का पालन न हो । वैराग्य की केवल वेष  भूषा पर आस्था के कारण ही सीता जी को संकट का सामना करना पड़ा था !

    आज अपनी अपनी सुख सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए शास्त्रीय विधान को ताख पर रखकर जो लोग स्वनिर्मित नियमानुशार वैराग्य के आचार व्यवहार चला रहे हैं इसी ढिलाई के कारण आज बहुत लोग वैरागी बनने लगे हैं।  न जाने क्यों कुछ लोग वैराग्य का प्रयोग आज धंधे की तरह करने लगे हैं लोगों को इसके अलावा कोई दूसरा इतना आसान धंधा आज सूट  ही नहीं कर रहा है !कई बाबा लोग तो पहले दो कौड़ी के आदमी नहीं थे किन्तु संन्यासियों के जैसा वेष क्या बनाया आज बड़े बड़े उद्योगपतियों को उन्होंने धंधे व्यापार में फेल कर रखा है राजनैतिक गलियारों में उनकी तूती बोलती है, यह सब आधुनिक संन्यास का ही कमाल है । इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि आज बनावटी मण्डलेश्वर ,महामंडलेश्वर ,महंत श्री महंत आदि जबरदस्ती बन जाने पर लोग अमादा हैं, बहुत लोग तो जगद्गुरु तक बनने की फिराक में बैठे हैं ! पैसे के बल पर बहुत लोग  ऐसी बड़ी बड़ी पद प्रतिष्ठाएँ पहले भी पा चुके हैं !एक सिंहासन खरीद लाए जगद्गुरु बन गए। वैसे भी डिस्काउंट का सीजन चल रहा हो तो शॉपिंग कौन नहीं कर लेना चाहेगा !इसलिए समस्त धार्मिक वातावरण को शास्त्रीय परिधि में रखकर एक बार फिर से सुसज्जित करना होगा ।  

       धीरे धीरे वास्तविक शास्त्रीय संन्यास के तो दर्शन भी दुर्लभ होते जा रहे हैं और जो महापुरुष अभी भी शास्त्रीय संन्यास की मर्यादाएँ सँभाले भी हुए हैं उनका सहारा कब तक का है? क्योंकि नई पीढ़ी के संन्यासियों का एक बड़ा भाग तो संन्यास को भोगने के लिए संन्यासी होना चाहता है क्या ये मानसिकता ठीक है? क्या इसे समय और युग का प्रभाव मानकर सह जाना चाहिए ?क्या अब वो समय आ गया है जिसके विषय में मैंने कहीं पढ़ा था कि कलियुग में वास्तविक संन्यासियों के दर्शन दुर्लभ हो जाएँगे ,बाकी संन्यास के नाम पर केवल डालडा ही पुजेगा!यथा -

   गीता पुस्तक हाथ साथ विधवा माला विशाला गले । 

  गोपी चन्दन चर्चितं सुललितं भाले च वक्षस्थले ॥ 

वैरागी पटवा कुम्हार नटवा कोरीधुना  धीमरो । 

हा !संन्यास कुतो गतः कलियुगे वार्तापि न श्रूयते ॥

  -कलियुग से प्रभावित लोग मन से संन्यास न लेकर अपितु केवल तन से संन्यासी होने लगेंगे !वो पहचान के नाम पर हाथ में गीता  की पुस्तक ले लेंगे, साथ में एक सेविका रख लेंगे, गले में लम्बी लम्बी मालाएँ  पहन लेंगे, मस्तक और छाती पर खूब चन्दन की लीपापोती कर लेंगे इस प्रकार से सभी जातियों के लोग वैरागी हो जाएँगे !वास्तविक शास्त्रीय संन्यास पद्धति का पालन करने वाले दिव्य पुरुषों  के दर्शन तो दुर्लभ हो ही जाएँगे साथ ही कलियुग में शास्त्रीय संन्यास पद्धति की चर्चा करने वाले भी नहीं मिलेंगे !

    जहाँ  माया मोह छोड़ने की कसम खाने वाले बाबा हजारों करोड़ के मालिक हों फिर भी वो ये न मानते हों कि वो काले धन से धनी हैं साधू के पास अच्छा धन तो हो ही नहीं सकता क्योंकि साधू के लिए व्यापार वर्जित है और बिना व्यापार धन आएगा कहाँ से !वैसे भी साधुओं के लिए धन संग्रह का निषेध है फिर भी जो लोग इस  शास्त्रीय संविधान को नहीं मानते उन साधुओं का सारा धन  ही काला धन होता है और ऐसे काले धन से धनी बाबा लोग धन की धमक के बल पर जहाजों पर चढ़े  घूमते एवं बड़े बड़े  आयोजन करते हैं फिर भी कोई बाबा कहे कि मेरे पास पैसे नहीं हैं तो ये उतना ही बड़ा झूठ है जितना कई संतानों का पिता अपने को ब्रह्मचारी कहता हो`!

     आम आदमी और साधू में यही अंतर होता है कि आम आदमी गृहस्थ होता है और साधू विरक्त होता है दूसरी बात आम आदमी व्यापार आदि करके नैतिक अनैतिक आदि सभी प्रकार से धन जुटाता है फिर उसकी सुरक्षा के लिए नेताओं अफसरों के पीछे दुम हिलाता घूमता है किन्तु साधू इस प्रपंच से दूर रहता है इसीलिए ऐसे सारे प्रपंचों में फँसे हुए किसी साधू व्यक्ति को शास्त्र मानते हैं कि वो पतित हो गया है और कोई पतित व्यक्ति क्या देश एवं समाज को दिशा दे पाएगा ! यदि उसे कुछ देना ही होता तो संस्कार देता जिससे बलात्कार रुकते किन्तु संस्कारों की अपेक्षा भी उससे की जानी चाहिए जिसके  पास  स्वयं में संस्कार हों किन्तु उन भयभीत बाबाओं से क्या अपेक्षा जो अपनी भोग वृत्तियों के पोल खुलने के भय से स्वयं नेताओं के साथ लिपटे घूम रहे हों !

     जैसे बिना पढ़े लिखे लोग अपनी पहचान एक ज्योतिषी के रूप में बनाने के लिए टी.वी.चैनलों में ज्योतिष ज्योतिष करके कुछ न कुछ बोलने बकने लगते हैं ,इनमें से कुछ तो ज्योतिष पढ़ाने का नाटक करने लगते हैं इस प्रकार की कलाएँ करने से लोग समझेंगे कि ये यदि ज्योतिष पढ़े न होते तो ज्योतिष पढ़ाते कैसे आदि आदि ! इसी प्रकार से दूसरों को बेईमान बेईमान कहने से लोग सोचने लगते हैं की जरूर ये ईमानदार होंगें तब तो बेइमानों  के विरुद्ध आवाज उठा रहे हैं !

   

असली शास्त्रीय संन्यासियों के लक्षण 

    संन्यासियों या किसी भी प्रकार के महात्माओं को काम क्रोध लोभ मोह मद मात्सर्य   आदि विकारों पर नियंत्रण तो रखना ही चाहिए यदि पूर्ण नियंत्रण न रख सके तब भी प्रयास तो पूरा होना ही चाहिए।वैराग्य की दृढ़ता दिखाने के लिए कहा गया कि स्त्री यदि लकड़ी की भी बनी हो तो भी वैराग्य व्रती उसका स्पर्श न करे.....!

              दारवीमपि  मा  स्पृशेत्||

              माता स्वस्रा दुहित्रा वा .... ! 

   माता, मौसी ,बहन,पुत्री आदि के साथ भी अकेले न बैठे। 

   शंकराचार्य जी कहा कि विरक्तों के लिए नरक का प्रधान द्वार नारी है-

              द्वारं किमेकं नरकस्य नारी 

इसी प्रकार 

      शूरान् महा शूर तमोस्ति को वा 

              प्राप्तो न मोहं ललना कटाक्षैः||     -शंकराचार्य

         का श्रंखला  प्राण भृतां हि नारी       -शंकराचार्य

मत्स्य पुराण में कहा गया है कि बशीभूत मन वालेसंन्यासियों को साल के आठ महीने तक विचरण करना चाहिए अर्थात पूरे देश में भ्रमण करना चाहिए।वर्षा के चार महीने एक स्थान पर रह कर चातुर्मास व्रत करे ।

    अत्रि ऋषि ने कहा है कि ये छै चीजें नृप दंड के समान मानकर संन्यासी अवश्य करे   -

1. भिक्षा माँगना

2.जप करना

3.स्नानकरना

4.ध्यानकरना

5.शौच अर्थात पवित्र रहना

6.देवपूजन करना  

      इसीप्रकार न करने वाली छै बातें बताई गई हैं -

1.शय्या अर्थात बिस्तर पर सोना 

2.सफेद वस्त्र पहनना 

3.स्त्रियोंसे संबधित चर्चा करना या सुनना एवंस्त्रियोंके पास रहना वा स्त्रियों को अपने पास रखना 

4.चंचलता का रहन सहन 

5.दिन में सोना 

6. यानं अर्थात बाहन    


    किसी भी प्रकार से ये छै चीजें अपनाने से संन्यासी पतित अर्थात भ्रष्ट हो जाते हैं।यथा -

   मञ्चकं शुक्ल वस्त्रं च स्त्रीकथा  लौल्य मेव च |

   दिवास्वापं  च  यानं  च  यतीनां पतनानि षट् || 

                                                          -अत्रि ऋषि 

इसीप्रकार ब्राह्मण गृहस्थ जीवन की सांसारिक उठापटक से मुक्त निर्विकार निर्लिप्त रहने वाले स्वाभाविकआचरण वाले ब्रह्म-जीवी थे। इन्हें विप्र कहा जाता है। जिनको भी मिलना होता इनके घर आते थे।संन्यास काअधिकार ब्राह्मणों को दिया गया है ।

आत्मन्यग्नीन्समारोप्य  ब्राह्मणः प्रव्रजेद् गृहात् | 

                                                              जाबालश्रुतेः 

     वैष्णव सम्प्रदाय में नियम था कि जो महंत होगा वह तो अविवाहित होगा ही होगा अन्य लोग चाहें तो अविवाहित भी रह सकते थे और विवाह भी कर सकते थे | शैव सम्प्रदाय की सभी जातियों के लिए नियम थे कि वे गाँव, बस्ती में प्रवेश नहीं करते थे। आचार्य शंकर ने संन्यासी सम्प्रदाय को काल-स्थान-परिस्थिति के अनुरूप एक नई दशनामी व्यवस्था दी और इनको दस वर्गों में विभाजित किया|ये दस नाम इस प्रकार हैं:-

(1) तीर्थ (2) आश्रम (3) सरस्वती (4) भारती (5) वन (6) अरण्य (7) पर्वत (8) सागर (9) गिरि (10) पुरी

इनमें अलखनामी और दण्डी दो विशेष सम्मानित शाखाये थीं। दण्डी वे संन्यासी होते थे जो ब्राह्मण से संन्यासी बनते थे। इनके हाथ में दण्ड[डण्डा] होता था। ये आत्म-अनुशासित थे

         हिन्दू धर्म की मान्यताओं, परम्पराओं में आ रही गिरावट को देखते हुए आदि शंकराचार्य ने ज्ञानमार्गी परम्परा को पुनर्जीवित किया और अद्वैत दर्शन की मूल अवधारणा ‘बृह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ को स्थापित किया। इसके लिए उन्होने समूचे देश में अद्वैत और वेदांत का प्रसार किया। काशी के महान विद्वान मंडनमिश्र के साथ उनका शास्त्रार्थ, इस सिलसिले की महत्वपूर्ण कड़ी थी, जिसने उन्हें समूचे देश में धर्म दिग्विजयी के रूप में स्थापित कर दिया।

        शंकराचार्य ने  प्राचीन आश्रम और मठ परम्परा में नए प्राण फूँके। शंकराचार्य ने अपना ध्यान संन्यास आश्रम पर केंद्रित किया और समूचे देश में दशनामी संन्यास परम्परा और अखाड़ों की नींव डाली।

दशनामी परम्परा:

आदि शंकराचार्य ने संन्यासियों की आदि-व्यवस्था, अद्वैतवाद और वेदांत दर्शन के संस्थापक महर्षि वेदव्यास के पुत्र बालयोगी शुकदेव ने की थी। शुकदेव ने पिता से प्रेरित होकर यह कार्य किया था। पौराणिक काल से वह व्यवस्था चली आ रही थी, जिसका पुनरुद्धार आदि शंकराचार्य ने दशनामी सम्प्रदाय बनाकर किया। पहले सभी दशनामी शैव मत में दीक्षित एवं शास्त्र-प्रवीण होते थे ,जिससे धर्म-परम्परा विस्मृत समाज को दिशा मिल  पाती थी। यह भी कहा जाता है कि शंकराचार्य के सुधारवाद का तत्कालीन समाज में खूब विरोध भी हुआ था और साधु समाज को उग्र और हिंसक साम्प्रदायिक विरोध से जूझना पड़ता था। काफी सोच-विचार के बाद शंकराचार्य ने वनवासी समाज को दशनामी परम्परा से जोड़ा, ताकि उग्र विरोध का सामना किया जा सके। वनवासी समाज के लोग अपनी रक्षा करने में समर्थ थे, और शस्त्र प्रवीण भी। इन्हीं शस्त्रधारी वनवासियों की जमात नागा साधुओं के रूप में सामने आई।

      शंकराचार्य ने दशनामी परम्परा को महाम्नाय के अनुशासन से बाँधा। आम्नाय का अर्थ है रीति, वैदिक ज्ञान, पुण्य-प्रेरित ज्ञान, कुल तथा राष्ट्र की परम्पराएँ।

आदि शंकराचार्यजी  ने देश के चार कोनों में जिसमें  दक्षिण में श्रंगेरी, पूर्व में पुरी , पश्चिम में द्वारका व उत्तर में बद्रीनाथ में मठ स्थापित किए,चारों दिशाओं में स्थापित मठों को जब महाम्नाय अर्थात सनातन हिन्दुत्व की नवोन्मेषी धारा से बाँधा गया, तो उसे मठाम्नाय कहा गया। इन्हीं मठाम्नायों के साथ दशनामी संन्यासी संयुक्त हुए। वन, अरण्य, नामधारी संन्यासी उड़ीसा के जगन्नाथपुरी स्थित गोवर्धन पीठ से संयुक्त हुए। पश्चिम में द्वारिकापुरी स्थित शारदापीठ के साथ तीर्थ एवं आश्रम नामधारी संन्यासियों को जोड़ा गया। उत्तर स्थित बद्रीनाथ के ज्योतिर्पीठ के साथ गिरी, पर्वत और सागर नामधारी संन्यासी जुड़े, तो सरस्वती, पुरी और भारती नामधारियों को दक्षिण के श्रृंगेरी मठ के साथ जोड़ा गया।

सैनिक संन्यासियों का स्वरूप:

इन मठाम्नायों के साथ अखाड़ों की परम्परा भी लगभग इनकी स्थापना के समय से ही जुड़ गई थी। चारों पीठों की देशभर में उपपीठ स्थापित हुई। कई शाखाएँ-प्रशाखाएँ बनीं, जहाँ धूनि, मढ़ी अथवा अखाड़े जैसी व्यवस्थाएँ  बनीं। जिनके जरिए, स्वयं संन्यासी पोथी, चोला का मोह छोड़ कर, थोड़े समय के लिए शस्त्रविद्या सीखते थे, साथ ही आमजन को भी इन अखाड़ों के जरिये आत्मरक्षा के लिए सामरिक कलाएँ सिखाते थे। इस तरह अखाड़ों के जरिए धर्मरक्षक सेना का एक स्वरूप बनता चला गया। अखाड़ों का यह स्वरूप प्रायः हर धर्म-सम्प्रदाय में रहा है। दुनियाँ भर के धार्मिक आंदोलनों के साथ अखाड़ा अर्थात आत्मरक्षा से जुड़ी तकनीक को ध्यान-प्राणायाम से जोड़कर अपनाया गया। हर धार्मिक सम्प्रदाय के साथ शस्त्रधारी रहे हैं और धर्म या पंथ अथवा मठ पर आए खतरों का सामना इन्होंने किया है। जिसे बाद में आत्मरक्षा की कला के तौर पर मान्यता दे दी गई। मध्यकाल में चारों पीठों से जुड़ी दर्जनों पीठिकाएँ  सामने आईं, जिन्हें मठिका कहा गया। इसका देशज रूप मढ़ी प्रसिद्ध हुआ। देशभर में दशनामियों की ऐसी कुल 52 मढ़ियाँ हैं, जो चारों पीठों द्वारा नियंत्रित हैं।


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