सारा दोष पुलिस पर ही क्यों मढ़ना ?
यदि किसी पुलिस कर्मी से कोई गलती हो गई तो उसे दंडित किया जाए किन्तु उसके लिए कमिश्नर को दोषी ठहराना ठीक नहीं कहा जा सकता !यदि यह माना जाए कि गाँधीनगर वाले रेप केस में कुछ पुलिस वालों की लापरवाही के कारण उनके वरिष्ठतम अप्सर को जिम्मेदार ठहराना न्यायोचित नहीं है। यदि यही आदर्श स्थापित करना है तो पूरे देश की तरह ही चरमराती कानून व्यवस्था ही दिल्ली के भी अपराधों के लिए जिम्मेदार है तो गृह मंत्री और प्रधान मंत्री की क्या कोई जिम्मेदारी नहीं है। वो भी जिम्मेदारी स्वीकार करें। किसी घटना के घटने के बाद जनता का ध्यान भटकाने के लिए अधिकारियों पर जिम्मेदारी डालकर चालाक नेता लोग बच जाते हैं,वही यहाँ भी हो रहा है।
सरकार के अन्य विभाग यदि ठीक से काम कर रहे होते तो भी पुलिस विभाग को दोषी ठहराया जाना शोभा देता ।
सरकारी अस्पतालों में जितने की सुविधाएँ नहीं हैं उससे अधिक पैसा उन्हें प्रचारित करने में खर्च कर दिया जाता है।
आखिर क्या कारण है कि आज कोई शिक्षित,संभ्रांत,संपन्न या सक्षम व्यक्ति अपना या अपने बच्चों का इलाज सरकारी अस्पतालों में नहीं करवाता है और न ही अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना चाहता है।ग्राम प्रधान से लेकर प्रधानमंत्री तक किसके बच्चे पढ़ते हैं सरकारी विद्यालयों में? यदि जनप्रतिनिधियों के बच्चे भी यहाँ पढ़ रहे होते तो भी इतनी लापरवाही नहीं होती ! रही बात गरीबों की तो सच्चाई यह भी है कि अपने बच्चों को पढ़ाना गरीब लोग भी सरकारी स्कूलों में नहीं चाहते हैं किन्तु प्राइवेट में पढ़ाने के लिए धन नहीं है इसलिए मजबूरी में सरकारी स्कूलों में पढ़ाना पड़ रहा है।सरकारीकर्मचारी,शिक्षा अधिकारी,स्कूल कर्मचारी यहाँ तक कि सरकारी स्कूलों के अध्यापक भी अपने बच्चों को अपने स्कूलों में नहीं पढ़ाना चाहते हैं आखिर क्यों ?डाक विभाग कोरियर से पिट चुका है टेलीफोन विभाग को प्राइवेट दूरभाष की सेवाओं ने पीट रखा है। क्या यह भी पुलिस कमिश्नर का ही दोष है?
सरकार का हर विभाग ढीला है सरकारी अस्पतालों को प्राइवेट अस्पताल,सरकारी स्कूलों को प्राइवेट स्कूल एवं डाक विभाग को कोरियर तथा टेलीफोन विभाग की इज्जत प्राइवेट दूरभाष की सेवाओं ने बचा रखी है किन्तु पुलिस विभाग की इज्जत बचाने वाला प्राइवेट में कोई सहयोगी नहीं है।
रही बात सरकारी विभागों की वहाँ प्रेम से बात कौन करता है,शिकायती फोन तक देर से उठाए जाते हैं या उठाए ही नहीं जाते हैं यदि उठाए भी गए तो कोई और दूसरा नम्बर दे दिया जाता है।कहाँ शिकायत कौन सुनता है हर कोई टालने की बात करता है।
सरकारी कर्मचारी होते हुए भी दिल्ली में केवल पुलिस विभाग ही ऐसा विभाग है जिसकी 100 नंबर की काल न केवल तुरंत उठाई जाती है अपितु पुलिस समय से मौके पर पहुँचती भी है।मैं इस बात से इनकार नहीं कर रहा कि पुलिस से गलतियाँ नहीं होती होंगी किन्तु बहुत कुछ करने के बाद भी बदनाम केवल पुलिस है!आखिर क्यों?अकेले पुलिस को क्यों बदनाम किया जा रहा है?
यदि किसी पुलिस कर्मी से कोई गलती हो गई तो उसे दंडित किया जाए किन्तु उसके लिए कमिश्नर को दोषी ठहराना ठीक नहीं कहा जा सकता !यदि यह माना जाए कि गाँधीनगर वाले रेप केस में कुछ पुलिस वालों की लापरवाही के कारण उनके वरिष्ठतम अप्सर को जिम्मेदार ठहराना न्यायोचित नहीं है। यदि यही आदर्श स्थापित करना है तो पूरे देश की तरह ही चरमराती कानून व्यवस्था ही दिल्ली के भी अपराधों के लिए जिम्मेदार है तो गृह मंत्री और प्रधान मंत्री की क्या कोई जिम्मेदारी नहीं है। वो भी जिम्मेदारी स्वीकार करें। किसी घटना के घटने के बाद जनता का ध्यान भटकाने के लिए अधिकारियों पर जिम्मेदारी डालकर चालाक नेता लोग बच जाते हैं,वही यहाँ भी हो रहा है।
सरकार के अन्य विभाग यदि ठीक से काम कर रहे होते तो भी पुलिस विभाग को दोषी ठहराया जाना शोभा देता ।
सरकारी अस्पतालों में जितने की सुविधाएँ नहीं हैं उससे अधिक पैसा उन्हें प्रचारित करने में खर्च कर दिया जाता है।
आखिर क्या कारण है कि आज कोई शिक्षित,संभ्रांत,संपन्न या सक्षम व्यक्ति अपना या अपने बच्चों का इलाज सरकारी अस्पतालों में नहीं करवाता है और न ही अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना चाहता है।ग्राम प्रधान से लेकर प्रधानमंत्री तक किसके बच्चे पढ़ते हैं सरकारी विद्यालयों में? यदि जनप्रतिनिधियों के बच्चे भी यहाँ पढ़ रहे होते तो भी इतनी लापरवाही नहीं होती ! रही बात गरीबों की तो सच्चाई यह भी है कि अपने बच्चों को पढ़ाना गरीब लोग भी सरकारी स्कूलों में नहीं चाहते हैं किन्तु प्राइवेट में पढ़ाने के लिए धन नहीं है इसलिए मजबूरी में सरकारी स्कूलों में पढ़ाना पड़ रहा है।सरकारीकर्मचारी,शिक्षा अधिकारी,स्कूल कर्मचारी यहाँ तक कि सरकारी स्कूलों के अध्यापक भी अपने बच्चों को अपने स्कूलों में नहीं पढ़ाना चाहते हैं आखिर क्यों ?डाक विभाग कोरियर से पिट चुका है टेलीफोन विभाग को प्राइवेट दूरभाष की सेवाओं ने पीट रखा है। क्या यह भी पुलिस कमिश्नर का ही दोष है?
सरकार का हर विभाग ढीला है सरकारी अस्पतालों को प्राइवेट अस्पताल,सरकारी स्कूलों को प्राइवेट स्कूल एवं डाक विभाग को कोरियर तथा टेलीफोन विभाग की इज्जत प्राइवेट दूरभाष की सेवाओं ने बचा रखी है किन्तु पुलिस विभाग की इज्जत बचाने वाला प्राइवेट में कोई सहयोगी नहीं है।
रही बात सरकारी विभागों की वहाँ प्रेम से बात कौन करता है,शिकायती फोन तक देर से उठाए जाते हैं या उठाए ही नहीं जाते हैं यदि उठाए भी गए तो कोई और दूसरा नम्बर दे दिया जाता है।कहाँ शिकायत कौन सुनता है हर कोई टालने की बात करता है।
सरकारी कर्मचारी होते हुए भी दिल्ली में केवल पुलिस विभाग ही ऐसा विभाग है जिसकी 100 नंबर की काल न केवल तुरंत उठाई जाती है अपितु पुलिस समय से मौके पर पहुँचती भी है।मैं इस बात से इनकार नहीं कर रहा कि पुलिस से गलतियाँ नहीं होती होंगी किन्तु बहुत कुछ करने के बाद भी बदनाम केवल पुलिस है!आखिर क्यों?अकेले पुलिस को क्यों बदनाम किया जा रहा है?
इसके लिए जिम्मेदार सरकार एवं सरकार के सारे विभाग हैं।भ्रष्टाचार एवं अपराध के कण सरकार के अपने खून में रच बस गए हैं जो सरकारी सभी विभागीय लोगों में न्यूनाधिक रूप से विद्यमान हैं।इसलिए केवल पुलिस की निंदा न्यायोचित नहीं कही जा सकती !
वैसे भी जब सरकार का हर विभाग ढीला चल रहा है तो पुलिस विभाग का क्या दोष?भ्रष्टाचार सरकार के अपने खून में है इसके लिए गैर जिम्मेदार एवं अदूरदर्शी सरकारी नीतियाँ ही जिम्मेदार हैं।
सरकार के हर विभाग में लापरवाही की स्थिति कुछ उस तरह की है जैसे कुछ बनावटी धार्मिक लोग महात्माओं की तरह आडम्बर तो सारे करेंगे चन्दन भी लगाएँगे, कपड़े भी भगवा रंग के पहनेंगे, माला मूला भी पूरी गड्डी पहनेंगे, भक्ति के नाम पर प्रवचन, कीर्तन, नाचना, गाना, बजाना तो सब कुछ करेंगे किन्तु जिस वैराग्य और भक्ति के लिए बाबा बने हैं वह बिलकुल नहीं करते! केवल पैसे जोड़ जोड़कर ऐय्यासी का सामान इकठ्ठा करने तथा उसे भोगने में सारा जीवन बेकार बिता देते हैं।रही बात अपराध रोकने की तो गंभीर चिंतन करके इस आपराधिक सोच की जड़ में जाने की जरुरत है जिससे सरकार बचते दिख रही है अपनी कमजोरी का घड़ा किसी अफसर पर फोड़ कर स्वयं पाक साफ दिखना चाहती है।
चूँकि आपराधिक सोच मन का विषय है समाज के मन को सदाचारी बनाने के लिए धर्माचार्यों से अपील या प्रार्थना करने की आवश्यकता है कि वे धन कमा कमाकर बड़े बड़े आश्रम बनाने के बजाए प्रयत्नशील होकर समाज का हित साधन करें !उनके माया मोह छोड़ने के उपदेश आखिर क्यों मायामोह पकड़ने में तब्दील होते जा रहे हैं आश्रम एवं निरोग या योग पीठें बनाने के लालची लोगों के अलावा आज भी श्रद्धेय विरक्त संत इस तरह की आपराधिक सोच पर नियंत्रण कर सकते हैं।जो व्यापारी लोग अपना व्यापार चमकाने के लिए अपने को रंग पोत कर सधुअई के धंधे में सम्मिलित हो गए हैं ऐसे लोग समाज को भ्रष्टाचार के विरुद्ध माया मोह से दूर रहकर अपराध मुक्त आचरण किस मुख से सिखा सकेंगे?इसलिए मैं केवल साधु वेष में शरीर लिपेटने वालों की बात नहीं करता हूँ अपितु समाज सुधारने के लिए विरक्त एवं चरित्रवान संतों से समाज सुधार की प्रार्थना करना चाहता हूँ।इससे इस तरह के अपराधों पर नियंत्रण किया जा सकता है।
इसी प्रकार सदाचारी शिक्षकों से भी ऐसा ही विनम्र निवेदन किया जाना चाहिए समाज सुधारने में चरित्रवान शिक्षक भी बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।
फ़िल्म निर्माताओं से भी ऐसी ही प्रार्थना की जानी चाहिए सेंसर बोर्ड के नियम शक्त होने चाहिए। कला के नाम पर कपड़े उतार कर फेंक देने वाले अभिनेता लड़के लड़कियों को समाज हित में अपने परिश्रमपूर्वक कमाकर खाने के लिए प्रेरित किया जाए!
मीडिया के महापुरुषों से प्रार्थना करना चाहता हूँ कि किसी मुद्दे को उठाने से पूर्व समाज के हित का ध्यान जरूर रखा जाए।
फ़िल्म निर्माताओं से भी ऐसी ही प्रार्थना की जानी चाहिए सेंसर बोर्ड के नियम शक्त होने चाहिए। कला के नाम पर कपड़े उतार कर फेंक देने वाले अभिनेता लड़के लड़कियों को समाज हित में अपने परिश्रमपूर्वक कमाकर खाने के लिए प्रेरित किया जाए!
मीडिया के महापुरुषों से प्रार्थना करना चाहता हूँ कि किसी मुद्दे को उठाने से पूर्व समाज के हित का ध्यान जरूर रखा जाए।
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