काँग्रेसी सरकार के शासन काल में डंके की चोट पर इसी जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में किया गया था महिषासुर का महिमामंडन और माँ दुर्गा का अपमान !
काँग्रेस को तब बुरा क्यों नहीं लगा था !और आज क्यों दुर्गा भक्ति का नाटक कर रही है कांग्रेस !आज तो स्मृति ईरानी जी ने काँग्रेसी सरकार और जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी की मिली भगत से मनाए गए 'महिषासुरदिवस' और प्रकाशित किए गए माँ दुर्गा के अपमान करने सम्बन्धी लेख का मात्र एक छोटा सा पत्रक पढ़ा है तब काँग्रेस को इतना बुरा क्यों लग रहा है जानिए आप भी क्या है सच्चाई !
'महिषासुरदिवस' की शुरुआत काँग्रेस शासन में जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में हुई थी तब काँग्रेस केंद्र से लेकर दिल्ली तक दोनों सरकारों में थी तभी पहली बार दी गई थीं माँ दुर्गा को गालियाँ !बनाए और बाँटे गए थे पोस्टर लिखी और प्रकाशित की गई थी किताब ! जिसका बिना रोकटोक के किया गया था विज्ञापन तब कहाँ गई थी काँग्रेस की दुर्गाभक्ति ?
इसलिए दुर्गा जी का अपमान तो उस समय काँग्रेस ने करवाया था जब वो केंद्र और दिल्ली की सरकार में थी तब छापे गए थे ये आपत्ति जनक लेख और दी जा रही थीं माँ दुर्गा को गालियाँ !
'फारवर्ड प्रेस' में छपा लेख 'दुर्गा : किसकी पूजा कर रहे हैं बहुजन' का पोस्टर बनाकर लगाया था।
छापा गया था ये विज्ञापन -
"काँग्रेस
जब केंद्र और दिल्ली की सरकार में थी तभी 17 अक्टूबर, 2013 को जवाहर लाल
नेहरू यूनिवर्सिटी, नयी
दिल्ली में आयोजित तीसरे 'महिषासुर शहादत दिवस' पर ऑल इंडिया बैकवर्ड
स्टूडेंटस फोरम, द्वारा जारी की गयी थी।ये किताब जिसका नाम था : "किसकी
पूजा कर रहे हैं बहुजन? (महिषासुर : एक पुनर्पाठ)"इसके संपादक : प्रमोद
रंजन और इसका मूल्य : 30 रूपये था !हार्ड कॉपी मंगवाने के लिए संपर्क करें
: +9197716839326,+919430083588 , जितेंद्र यादवपूरी पुस्तिका का पीडीएफ
संस्करण आप यहां से मुफ्त डाऊनलोड कर सकते हैं : -https://sites.google.com/site/janvikalp/home/mahishsasur "
इनके उसी लेख के जवाब में अपने ब्लॉग पर मैंने प्रकाशित किए थे ऐसे कई लेख -
महिषासुर पर प्रकाशित किसी के भ्रामक लेख का उत्तर-
विडंबना यह है कि अनन्त वर्षों से चली आ रही सनातन संस्कृति ही बहुआयामी
परंपराएँ न जानें क्यों कुछ लोगों को कसक रही हैं। ऐसे ज्ञान विज्ञान एवं
संयम, सदाचार आदि लोकहित भावना से दूर कुछ लोग ऐसी घिनौनी बातें कह कर अपनी
प्रतिष्ठा बढ़ाने का असफल प्रयास कर रहे हैं, जिससे उनके व्यवहार एवं ज्ञान
की सीमा सहज ही समाज को पता लग जाती है। कई बार संदेह होने लगता है कि ये
लोग धर्म द्रोहियों के वित्त से पोषित होकर सनातनधर्मी समाज के एक विशाल
भाग को अपने उन अधर्मी आकाओं के चरणों में चढ़ाने का प्रयास तो नहीं कर रहे
हैं? यदि ऐसा हो भी तो सनातन हिन्दू धर्म से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति को
चाहिए कि ऐसे किसी भी प्रयास को विफल कर दें। श्रीराम, कृष्ण, दुर्गा, शिव
आदि के पावन चरित्रों को दूषित करने वालों की घिनौनी चालों को संगठित होकर
बेनकाब करें और यह सिद्ध करें कि अपने पवित्र विवेक से ही सभी देवताओं व
देवियों के प्रति वह आस्था रखता है, इसमें किसी के सिखाने-पढ़ाने की
आवश्यकता नहीं है।
‘हमारा अभिप्राय उस तथाकथित लेख से है जिसमें जगत जननी दुर्गा को
वेश्याओं के कुल का बताया गया है, क्योंकि बंगाल में दुर्गा जी की प्रतिमा
बनाने के लिए आज भी कुछ मिट्टी वेश्याओं के यहाँ से लाकर लगायी जाती है।’
बंधुओं! अनन्त काल से एक परंपरा है कि किसी भी धार्मिक कार्य के लिए कलश
स्थापन करते समय सप्तमृत्तिका (सात प्रकार की मिट्टी) का प्रयोग किया जाता
है। 1. गाय बंधने के स्थान की मिट्टी, 2. घोड़ा बंधने के स्थान की मिट्टी,
3. हाथी बंधने के स्थान की मिट्टी 4. दो नदियों के मिलने के स्थान की
मिट्टी 5. तालाब की मिट्टी 6. बाँबी (चीटिंयों द्वारा बनाये घर) की मिट्टी
7. राजद्वार की मिट्टी लाकर कलश स्थापन होता है। व्रतराज नामक प्राचीन
ग्रंथ में प्रकारान्तर से रथ एवं चैराहे की भी मिट्टी लाने का विधान बताया
गया है। धार्मिक कर्मकाण्ड से जुड़े लोग इस विधान को मानते और करते हैं। इसी
प्रकार वेश्या के यहाँ की मिट्टी भी कहीं यदि प्रचलन में है तो उससे किसी
की वंशावली नहीं जोड़ देनी चाहिए। आखिर साहित्य एवं शास्त्र पढ़ते समय
शिष्टता से उसके अर्थ गाम्भीर्य को समझना चाहिए। यदि कोई न समझ सके तो
लिखने वाले का क्या दोष? दूसरी बात वेश्याएँ दुर्गा के कुल की हैं, इसमें
किसी को क्यों आपत्ति होनी चाहिए।
विद्या समस्तास्तव देवि भेदाः
स्त्रियः समस्ताः सकलाजगत्सु।
अर्थात सृष्टि की सारी स्त्रियाँ एवं सारी विद्यायें दुर्गा माता की ही
स्वरूप हैं। इसमें किसी भी प्रकार से भेदभाव नहीं करना चाहिए। आप स्वयं
सोचिए वेश्याएँ भी स्त्री होने के कारण दुर्गा माता का स्वरूप क्यों नहीं
हो सकतीं? इसमें किसी को क्यों शंका होती है?
दूसरी बात कही गयी है ‘‘महिषासुर का अर्थ होगा भैंस का पालक अर्थात दूध का
धंधा करने वाला ग्वाला। असुर से अहूर और फिर अहीर भी बन सकता है।’’
लेखक ने व्याकरण के किस नियम से महिषासुर का अर्थ ‘अहीर’ किया है, यह तो
वही सिद्ध कर सकता है। भाषा का अपना सिद्धान्त होता है। मनमाने ढंग से
शब्दों को तोड़-मरोड़कर पेश करने से लेखक किसी साजिश या षडयंत्र का शिकार
लगता है।
असुर कौन थे। महर्षि कश्यप की दो पत्नियाँ थीं दिति और अदिति। अदिति से
देवता एवं दिति से दैत्य पैदा हुए जो हिरण्यकश्यप एवं हिरण्याक्ष नाम से
प्रसिद्ध हुए। हिरण्यकश्यप की संतान ही भगवद्भक्त प्रह्लाद जी थे। यहाँ
विशेष बात यह है कि महर्षि कश्यप की संतान होते हुए भी हिरण्यकश्यप आदि ने
आसुरी संस्कृति अपनायी और अत्यंत प्रतापी राजा हुए जबकि पुत्र प्रह्लाद ने
भक्ति पंथ को अपनाया और श्रेष्ठ भक्त हुए। इसलिए एक ही वंश में यह दोनों
प्रकार की संस्कृतियाँ देखी जा सकती हैं। इसे किसी वंश की परंपरा से जोड़कर
नहीं देखा जाना चाहिए।
महिषासुर
की उत्पत्ति-दक्ष की पुत्री ‘दनु’ जो कश्यप ऋ़षि को ब्याही थी, इनसे रम्भ
और करम्भ नामक दो अत्यंत वीर पुत्र हुए किन्तु दोनों को संतान नहीं हुई।
इसलिए पुत्र की प्राप्ति का लालषा में ये पंचनद नामक पावन तीर्थ के पास
तपस्या करने चले गये। बहुत वर्षों तक तपस्या करते रहे, जहाँ ग्राह के
द्वारा करम्भ मारा गया। भाई के वध से दुःखी होकर रम्भ अपने हाथ में तलवार
लेकर अपना सिर काटकर अग्नि में आहुति देना चाहता था, इसी बीच अग्निदेव
प्रकट हुए और उसका हाथ पकड़ लिया और रम्भ से कहा कि तुम्हें जो चाहिए वर
माँग लो। रम्भ ने कहा देव! मैं त्रैलोक्य विजयी पुत्र चाहता हूँ । वह
पुत्र अपनी इच्छा अनुसार स्वरूप धारण कर सके। अग्निदेव ने वरदान दे दिया और
कहा कि जिस सुन्दरी को देखकर तुम्हारा मन डिग जाए, उससे महान पराक्रमी
पुत्र पैदा होगा और अग्नि देव चले गये। एक दिन कामभाव से एक भैंस पर रम्भ
की दृष्टि पड़ी। वह उससे अनुरक्त हो गया और उसी के संसर्ग से भैंस गर्भवती
हो गयी। इस संसर्ग को किसी दूसरे भैंसे ने देख लिया था। इर्ष्यावश वह रम्भ
पर झपट पड़ा। रम्भ और उस भैंसे में घोर संघर्ष हुआ और रम्भ मारा गया। यह
देखकर गर्भिणी भैंस रम्भ के साथ सती होने के लिए चिता में बैठ गयी, उसी समय
चिता के मध्य से महिषासुर और रक्तबीज नामक दो महा वीर प्रकट हुए। ये दोनों
महाबली रम्भ की संतान के रूप में विश्व प्रसिद्ध हुए। महिषासुर ने ब्रह्मा
जी की घोर तपस्या करके उनसे वरदान माँगा कि देवता, दैत्य और मानव इनमें
से कोई भी मुझे न मार सके तथा मेरा वध किसी स्त्री के हाथों से हो।
ब्रह्मा जी ने एवमस्तु कर दिया। इसीलिए भगवती दुर्गा ने स्त्री स्वरूप में
आकर उसका वध किया।
भगवती दुर्गा के साथ-साथ महिषासुर की पूजा का भी विधान मिलता है। आखिर वह
कितना पुण्यवान होगा जब भगवती के दर्शन प्राप्त हुए और उनके हाथों से
अत्यंत दिव्य मृत्यु को प्राप्त किया।
पूजयेत् महिषं येन प्राप्तं सायुज्यमीशया । (दुर्गासप्तशती)
यह पुराणों में वर्णित कथा है और यही सच है। इसके अतिरिक्त कोई कुछ भी
लिखे, बिना प्रमाण दिये इन थोथी बातों के आधार पर इसे दुर्भावना से प्रेरित
लेख भी कह सकते हैं। यदि इसके कोई प्रमाण हैं तो उन्हें देने-दिखाने
चाहिए, जिससे लेखक की विद्वता एवं ईमानदारी की विश्वसनीयता कायम रह सके। यह
प्रयास हर चरित्रवान, संयमी लेखक को करना ही चाहिए, यही सिद्धान्त है। मैं
अपनी बात के संपूर्ण प्रमाण आवश्यकता पड़ने पर समाज के सामने रखने को तैयार
हूँ । उस लेखक को भी इस भ्रामक लेख के विषय में अपनी सूचना के श्रोत
उद्घाटित करने ही चाहिए ऐसा मेरा विनम्र निवेदन है अन्यथा इस लेख के बहाने समाज का सौहार्द बिगाड़ने के प्रयास के रूप में ही इस कृत्य को माना जाएगा।
देखिए मूल प्रति -see more....
http://snvajpayee.blogspot.in/2012/10/mahishasur-kaun-thaa.html
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