शुक्रवार, 31 दिसंबर 2021

महामारी मुक्त समाज की संरचना का संकल्प !

                                                              दो शब्द - 
       ऐसा कभी नहीं सोचा गया था ! लॉकडाउन लगने से सारे काम काज ठप्प पड़ जाएँगे !स्कूल कालेज बंद हो जाएँगे !यातायात के साधन अवरुद्ध हो जाएँगे | ऐसी परिस्थिति में भोजन जैसी आवश्यक वस्तुओं के लिए भी सोचना पड़ेगा | लोगों को अपनों से भी मिलने में भय लगने लगेगा | गंगा जी की रेती में निर्जीव शरीर विखरे पड़े होंगे | चिकित्सालयों से लेकर श्मशान तक अवरुद्ध हो जाएँगे !निर्जीव शरीरों को स्वजनों के हाथों का स्पर्श मिलना मुश्किल हो जाएगा | स्वजनों के शवों को देखने से भी लोग बचते दिखाई देंगे | वर्तमान पीढ़ी के लोगों ने ऐसी दुखद कभी कल्पना भी नहीं की होगी जो दुर्दृश्य देखने को मिले हैं |

ऐसे कठिन समय में चिकित्सकों को भगवान का दूसरा स्वरूप मानने वाले समाज को आवश्यक चिकित्सकीय सुविधाओं के लिए दर दर भटकना पड़ेगा फिर भी उन्हें अपने उन्हीं चिकित्सकों कोई मदद नहीं मिल सकेगी |रोगियों को चिकित्सकों से संपर्क साधना मुश्किल हो जाएगा | अस्पतालों में प्रवेश वर्जित हो जाएगा | हृदय रोगियों को,आसन्न प्रसवा महिलाओं को, सद्यः प्रसूताओं को, सद्यः प्रसूत शिशुओं को आवश्यकता पड़ने पर भी चिकित्सकीय सहायता नहीं मिल सकेगी |

इतने कठिन समय में चिकित्सा से संबंधित वे अनुसंधान वे चिकित्सा सुविधाएँ जनता के किसी काम नहीं आ सकेंगी | जिनका संचालन लोगों के खून पसीने की कठिन कमाई से प्राप्त टैक्स रूपी अंश के योगदान से इसीलिए किया जाता है ताकि महामारी जैसे कठिन समय में उनसे मानवता को मदद मिल सके किंतु ऐसे कठिन समय में उस प्रकार के अनुसंधान किसी काम नहीं आ सकेंगे ऐसा कभी सोचा न था |

चिकित्सकों की सलाह पर जो टीके बचपन से इस आशा से लगवाए जाते रहे थे कि भविष्य में संभावित रोगों से सुरक्षा होती रहेगी | चिकित्सकों के द्वारा दी जाने वाली स्वास्थ्यकर संपूर्ण सलाहों का अक्षरशः पालन इसीलिए लिए किया जाता रहा था कि महामारी जैसी कठिन अवस्थाओं में ये टीके कुछ तो सहायक होंगे ही किंतु उसके बाद भी महामारी काल में जो हुआ वैसा कभी सोचा न था |

भूमिका


इसके साथ ही महामारी से भयभीत समाज को भी अब भयावह महामारी को भूलकर ईश्वर के भरोसे भविष्यभय की चिंता से मुक्त होकर उत्साह पूर्ण ढंग से जीवन जीने का अभ्यास शुरू कर देना चाहिए | महामारी का अवसान होते ही तन मन धन से एक दूसरे का सहयोग ले देकर ईश्वर के विश्वास पर जीवनचर्या प्रारंभ की जानी चाहिए |
महामारी मुक्त समाज के स्रोत !
महामारी के दुखद समय में भी आशा की एक सुखद किरण ऐसी दिखाई पड़ रही है जिसके आधार पर अवशेष जीवन जीने की हिम्मत बँधती दिखाई देती है | महामारी के महान संकट से सारा विश्व जूझता रहा है चारों ओर त्राहि त्राहि मची रही है | इस सबके के बाद भी हमें यह याद रखना चाहिए कि महामारी संक्रमितों की संख्या उनकी अपेक्षा बहुत कम है जो संक्रमित हुए हैं |

संक्रमण मुक्त रहे लोगों में बड़ी संख्या सौभाग्य से उस वर्ग की रही है जो अपने बच्चों को दूध दही घी मक्खन मेवा फल फलों का जूस आदि सारी स्वास्थ्य बर्द्धक पौष्टिक चीजों का सेवन नहीं करवा पाया होगा क्योंकि खाद्य सामग्री जुटा पाना ही इनके लिए काफी भारी पड़ते देखा जाता है |इस सामान्य वर्ग के पास जीवन जीने के लिए आवश्यक संसाधनों को जुटापाना भी काफी प्रयत्न पूर्वक मुश्किल से ही संभव हो पाता है |सामान्य वर्ग में किसान मजदूर गरीब ग्रामीण एवं परिश्रमी लोग अधिक हैं | यह वर्ग अपने बच्चों को आवश्यकता की वस्तुएँ ही उपलब्ध करवा पाता है यह वर्ग कोई रोग होने पर ही चिकित्सकों के संपर्क में आता है | ऐसे लोग टीके टॉनिक बिटामिन कैल्सियम आयरन स्वास्थ्यबर्द्धक मानी जाने वाली चीजों का सेवन नहीं करवा पाया होगा | खाद्य सामग्री जुटाना ही इनके लिए काफी भारी पड़ते देखा जाता है |इस वर्ग में भी बड़ी संख्या उन लोगों की है जो महानगरों की मलिन बस्तियों झुग्गी झोपड़ियों में जीवन यापन कर रहे हैं | जिनके रहन सहन खान पान आदि से संबंधित उतने प्रदूषण मुक्त स्वच्छ साधन नहीं हैं |
ऐसी परिस्थिति में यदि धन के बल पर लोगों को महामारी मुक्त बनाए रखना यदि संभव हो भी जाता तो इतने बड़े वर्ग के लिए इतना धन कहाँ से आता जो सबको उस प्रकार की सुविधाएँ सबको उपलब्ध कराई जा पातीं फिर तो वही स्वस्थ रह पाते जिन्होंने बचपन से दूध दही घी मक्खन मेवा फल फलों का जूस आदि स्वास्थ्य बर्द्धक पौष्टिक चीजों का एवं टीके टॉनिक बिटामिन कैल्सियम आयरन आदि शक्तिबर्द्धक औषधियों का सेवन किया होता | इसके साथ ही केवल वे स्वस्थ रह पाते जिनका रहन सहन खान पान आदि स्वच्छता युक्त होता |

ऐसा उन्हीं के लिए संभव हो पाता जिनके पास पैसा होता साधन होते किंतु महामारी मुक्त समाज में सामान्यवर्ग के लोगों की संख्या अधिक होने का मतलब है कि महामारी से मुक्त रहने के लिए बहुत अधिक सुख सुविधा युक्त रहन सहन खान पान आदि के लिए संसाधनों पर खर्च करने के लिए धन की आवश्यकता नहीं है | तभी तो यह सामान्य वर्ग संक्रमण मुक्त बना रहा और यदि यह वर्ग बना रहा तो समाज के बाक़ी लोगों को संक्रमित होने से बचाए रखना और अधिक आसान होगा |

कुछ सामान्य या गरीब परिवारों के बच्चे परिस्थितिवश या किसी मजबूरी में अथवा लापरवाही से ही सही उन कोविड नियमों का पालन बिल्कुल नहीं करते रहे चिकित्सा वैज्ञानिकों के द्वारा जिनका उपदेश स्वस्थ रहने के लिए किया गया था | ऐसे परिवारों के छोटे छोटे सुकोमल बच्चे जिनके शरीरों में वे अधिकाँश टीके नहीं लगाए जा सके थे जिन्हें प्रत्येक बच्चे को स्वस्थ रखने के लिए चिकित्सक आवश्यक बताया करते हैं | ऐसे बच्चों को चिकित्सकीय देखरेख नहीं मिली उस प्रकार का स्वास्थ्यकर पौष्टिक खान पान नहीं मिला ! महामारी आने पर वे खाद्य सामग्री संकलित करते घूमते रहे | सबसे मिलते जुलते रहे सबका लिया दिया खाते पीते रहे | ऐसे बच्चे भी महामारी काल में प्रायः स्वस्थ बने रहे | यह महामारी मुक्त समाज की संस्थापना की दृष्टि से बड़ी आशा की किरण है |

कुछ सामान्य या गरीब वर्ग के लोगों को महामारी काल में परिस्थितिबशात या किसी मजबूरी में संक्रमितों के साथ रहना खाना पीना सोना जागना आदि पड़ा | इसके बाद भी वे संक्रमित न होने का कारण खोजा जाना आवश्यक है ?जिन नगरों या महानगरों में महामारी रौद्ररूप दिखाती जा रही थी उन्हीं बस्तियों में रिक्सा चालक ,फल एवं सब्जी विक्रेता ,दूध वाले तथा सब्जी आदि बेचने वाले उन्हीं रोडों पर खुले घूमते रहे और स्वस्थ बने रहे |कहीं गैरिज आदि में सोते जागते कुछ भी खाते पीते समय व्यतीत करते रहे | ऐसे ही संक्रमित परिवारों में भी झाड़ू पोछा आदि करने वाली सेविकाएँ एवं संपन्न संक्रमित घरों में बाजार से खरीद कर आवश्यक सामग्री पहुँचाने वाले सेवक ड्राइवर आदि उनके संपर्क में रहकर भी संक्रमित नहीं हुए | यदि कोई हुआ भी तो सामान्य औषधि प्रयोग से स्वस्थ होते देखा जाता रहा | चिकित्सालयों तक पहुँचने या जीवनांतक परिस्थितियों से जूझने की नौबत बहुत कम लोगों की ही आई है | इससे इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि यदि कोविड संबंधी सावधानियाँ बरते बिना भी महामारी के प्रकोप से बचना संभव हो सकता है |

महामारी को समझना और उसकी रोक थाम के लिए कुछ कर पाना यदि चिकित्सावैज्ञानिकों के बश की बात होती तो चिकित्सकीय संसाधनों से संपन्न अमेरिका जैसे देशों में और भारत के दिल्ली मुंबई जैसे सक्षम महानगरों में चिकित्सावैज्ञानिकों की योग्यता अनुसंधान जनित अनुभवों एवं चिकित्सकीय क्षमता का प्रभाव कुछ तो दिखाई पड़ता | कम से कम महामारी इस प्रकार से तो नहीं ही रौंद पाती , जबकि महामारी काल में ऐसे देशों महानगरों की स्थिति बार बार सबको चिंता में डालती रही है | इससे यह विश्वास करना होता है कि महामारी मुक्तसमाज की संरचना में चिकित्सावैज्ञानिकों की विशेष आवश्यकता नहीं है | यदि महामारी मुक्त रहना चिकित्सकों के सहयोग से संभव हुआ होता तो महामारी मुक्तसमाज की संरचना हेतु बड़ी संख्या में चिकित्सावैज्ञानिकों की आवश्यकता पड़ती जिसके लिए अधिक संसाधनों और उसके लिए अधिक धन की आवश्यकता पड़ती किंतु इसमें चिकित्सावैज्ञानिकों की कोई विशेष भूमिका न रहने से यह आशा जगती है कि चिकित्सावैज्ञानिकों की मदद के बिना भी महामारी काल में स्वस्थ बने रहना संभव है |
                               महामारी मुक्त समाज की संकल्पना
 
 
 
महामारी मुक्त समाज की रचना कैसे की जाए ?
 
महामारी में जो साधन संपन्न धनी लोग अधिक संक्रमित हुए हैं | उनसे संबंधित इस विषय के अध्ययनों की विशेष आवश्यकता है कि उनके जीवन पर बचपन से बरती जाने वाली चिकित्सकीय सावधानियों का क्या प्रभाव रहा है |उन्हें महामारी जैसे बड़े स्वास्थ्य संकट से कितनी और क्या मदद मिल सकी है |
संसाधनों से संपन्न वर्ग प्रायः प्रचलन है कि गर्भ में प्रवेश से पूर्व ही संतानार्थी महिलाओं को चिकित्सकों की चिकित्सकीय पहरेदारी में सौंप दिया जाता है | वे उन्हें दवा इंजेक्शन टॉनिक बिटामिन कैल्सियम आयरन आदि आवश्यकतानुसार दिया करते हैं | संतानार्थी महिलाओं के खानपान के लिए दूध दही घी मक्खन मेवा फल एवं फलों का जूस आदि सारी स्वास्थ्य बर्द्धक चीजों का समयानुसार सेवन करवाया जाता है | जिससे उस स्त्री का शरीर इतना स्वस्थ और बलिष्ट हो | ये सारे तैयारियाँ गर्भ प्रारंभ होने से पहले इसलिए करवा दी जाती हैं जिससे जो बच्चा गर्भ में आवे वो स्वस्थ और बलिष्ठ हो !
गर्भ में आने के बाद चिकित्सकों की और अधिक गहन देखरेख में प्रसवपर्यंत गर्भिणी को रखा जाता है | प्रसव के बाद शिशु के लिए चिकित्सकीय पहरेदारी प्रारंभ कर दी जाती है | प्रसूता एवं शिशु का खानपान रहन सहन आदि सब कुछ मेडिकेटेड होता है | उनके लिए दवा इंजेक्शन टॉनिक बिटामिन कैल्सियम आयरन मेवा फल एवं फलों का जूस आदि सारी स्वास्थ्य बर्द्धक चीजों का सेवन उन्हें करवाया जाता है ताकि वह बच्चा स्वस्थ बलिष्ट एवं प्रतिरोध क्षमता संपन्न बना रहे | इस प्रकार से सघन चिकित्सकीय देख रेख में जो बच्चा हुआ होता है | वह बच्चा जब युवा होता है उस समय यदि कोरोना जैसी महामारी आ भी जाती है तो ऐसे बलिष्ट मेडिकेटेड लोगों को तो महामारी का कोई भय होना ही नहीं चाहिए यदि होता भी है तो उन लोगों की अपेक्षा कम होना चाहिए जिनके शरीर बचपन से चिकित्सकीय देखरेख से बंचित रहे हैं |

ऐसे बलिष्ट मेडिकेटेड लोग महामारी जैसी आपदाओं के आने पर फिर अपने उन्हीं चिकित्सकों की शरण में चले जाते हैं | महामारी से बचाव के लिए चिकित्सक जैसा जो कुछ बताते हैं वह बलिष्ट मेडिकेटेड लोग साधन संपन्नता के कारण उन सभी नियमों का अक्षरशः पालन करते देखे जाते हैं | चिकित्सकों की सलाह पर एकांत बॉस करने लगते हैं किसी से मिलने जुलने से पूरी तरह बचाव करते हैं | घरों में नौकरों से मँगाए गए फल सब्जी आदि को गर्म पानी में डालकर साफ सफाई पूर्वक खाते पीते हैं | घर से न निकले और न ही किसी से मिले | इसके बाद भी वे कोरोना महामारी से न केवल संक्रमित होते देखे गए अपितु ऐसी संक्रमित परिस्थिति में अनेकों लोगों की दुर्भाग्य पूर्ण मृत्यु भी होते देखी गई है |

ऐसी परिस्थिति में गर्भबास से लेकर युवा होने तक की जो सघन चिकित्सकीय देख रेख रही वह भी उन्हें संक्रमित होने से सुरक्षित नहीं रख सकी उन सभी स्वास्थ्य संबंधी सावधानियों से यदि इतना भी लाभ नहीं हुआ | इसका मतलब है कि महामारी मुक्त समाज की संरचना उस चिकित्सा पद्धति के सहयोग के बिना भी संभव है क्योंकि महामारी से पूरी तरह प्रभावित न होने वाला समाज प्रायः उस अत्याधुनिक चिकित्सा पद्धति का लाभ लेने लायक कभी नहीं रहा फिर महामारी काल में बलपर स्वस्थ बना रहा |

                        महामारी पैदा होने के कारण और निवारण की खोज जनता की दृष्टि में !

  
महामारी से संपूर्ण समाज को बहुत परेशानी से गुजरना पड़ा है सारा काम काज ठप्प हो गया है शिक्षा व्यवसाय आदि सारे काम बार बार रोके जा रहे हैं |उपायों के नाम पर समझाया बहुत कुछ जा रहा है किया बहुत कुछ जा रहा है किंतु हो कुछ नहीं हो कुछ नहीं पा रहा है उन उपायों से परिणाम जो कुछ भी निकल रहा हो किंतु उससे जनता को कोई मदद नहीं मिल पा रही है | इसका कारण क्या हो सकता है ?महामारी को लेकर सारे संशय अभी तक विद्यमान हैं |

कोरोना से बचाव के लिए सोशलडिस्टेंसिंग, सैनिटाइजेशन, एकांतबास ,लॉकडाउन आदि जो भी उपाय बताए जा रहे हैं उन उपायों का पूर्ण पालन करने के बाद भी इस बात का विश्वास नहीं दिलाया जा सकता है कि कोरोना संक्रमण से कोई खतरा नहीं होगा | इतना ही नहीं स्थिति तो यहाँ तक पहुँच चुकी है कि कोरोना माहमारी से मुक्ति दिलाने के लिए बड़े आत्मविश्वास से बनाई गई वैक्सीन के दोनों डोज लेने के बाद भी कुछ देशों में तो इससे अधिक डोज लेने के बाद भी लोग कोरोनामहामारी से संक्रमित होते देखे जा रहे हैं | भारत में बूस्टरडोज देने की बात की जा रही है किंतु बूस्टरडोज लेने के बाद भी उसे कोरोना महामारी से कोई खतरा नहीं है विश्वासपूर्वक ऐसा नहीं कहा जा सकता है | महामारी जब तक चलेगी तब तक कोई न कोई तो बूस्टर डोज देते ही रहनी पड़ेगी | उसका असर कितना होगा ये और बात है | कोरोना संक्रमितों की संख्या बढ़ते समय कोरोना नियमों का पूर्ण पालन करने वाले और न करने वाले एवं वैक्सीन के दोनों डोज लेने वाले और एक भी डोज न लेने वाले दोनों प्रकार के लोग एक ही तरह से एक ही अनुपात में संक्रमित होते देखे जाते हैं | इसी प्रकार से कोरोना संक्रमितों की संख्या जब स्वाभाविक रूप से कम होने लगती है तब दोनों प्रकार के संक्रमित लोग एक ही जैसे अनुपात में स्वस्थ होते देखे जाते हैं |

कुल मिलाकर महामारी संक्रमण से बचाव के लिए उपायों के नाम पर जो कुछ भी किया जा रहा है उसका कुछ प्रभाव पड़ता भी है कि नहीं इसके भी कोई प्रत्यक्ष प्रमाण देखने को नहीं मिले हैं | साधन बिहीन घरों में पड़े संक्रमित लोगों में से कुछ लोग यदि मृत्यु को प्राप्त होते देखे जा रहे हैं तो जो सक्षम संक्रमित लोग चिकित्सालयों में वेंटिलेटर आदि सुविधाओं से युक्त हैं सघन चिकित्सा व्यवस्था का लाभ ले रहे हैं ऐसी दुर्घटनाएँ तो उनके साथ भी घटित होते देखी जाती रही हैं |
 
 वैज्ञानिक आँकड़ों की अपेक्षा जनता अपने अनुभवों पर अधिक विश्वास  करती है | महामारी मौसम आदि प्राकृतिक आपदाओं की पीड़ा जनता को कम से कम साहनी पड़े इसके लिए जो वैज्ञानिक अनुसंधान किए जाए हैं उन वैज्ञानिकों और वैज्ञानिक अनुसंधानों पर होने वाले व्यय की आपूर्ति जनता के खून पसीने की कठिन कमाई से प्राप्त टैक्स से होती है | चूँकि धन जनता का लगता है इसलिए संतुष्टि भी जनता की ही महत्वपूर्ण है | जिस किसी भी विषय से संबंधित अनुसंधान जनता की अपनी कसौटी पर जितने प्रतिशत खरे उतरते हैं उन्हें उतने प्रतिशत  सफल माना जा सकता है | इसीलिए जनता की दृष्टि में महामारी की आक्रामकता एवं वैज्ञानिकों के द्वारा बताए गए उपायों के विषय में जनता क्या सोचती है |
 
      जनता को भली भाँति पता है कि किसी रोग की चिकित्सा करने के लिए पहले रोग की परीक्षा आवश्यक मानी  जाती है इसीलिए कोरोना महामारी की चिकित्सा करने के लिए भी आवश्यक है कि महामारी के पैदा होने का कारण पता लगे एवं महामारी जनित भय दूर करने के लिए महामारी के विषय में सटीक पूर्वानुमान पता लगें कि आखिर ये महामारी कब तक रहेगी ! इसके साथ ही यह जानना  बहुत आवश्यक है कि कोरोना संक्रमितों की संख्या अचानक बढ़ने घटने का कारण क्या है | इससे बचाव के लिए जो उपाय किए जाते हैं उनका प्रभाव कितना पड़ता है | इसके साथ ही वैक्सीन लगाने के बाद समाज को कितना बल मिल पाया है कि वैक्सीन लगवाने के बाद जनता को महामारी से अब बहुत अधिक डरने की आवश्यकता नहीं है | इन सभी बातों विषयों पर बिचार किया जाना आवश्यक है |
                                            -कोरोना संक्रमण पर समय का प्रभाव-  
   
दूसरा अध्याय
प्राकृतिक अनुसंधान लक्ष्य पाने में कितने सफल हुए ?

ऐसी परिस्थिति में भूकंप की तीव्रता कितनी थी !भूकंप कितनी गहराई से आया था | भूकंप आने का कारण क्या था भूमिगत प्लेटों का आपस में टकराना था या फिर भूमिगत गैंसों का दबाव भी हो सकता है | जनता के लिए ऐसी बातें किस काम की हैं | इस विषय में जनता अपने वैज्ञानिकों से केवल भूकंपों का पूर्वानुमान जानना चाहती है कि अगला भूकंप कब आएगा | उससे सावधान होकर वह अपना बचाव करना चाहती है |

अब अनुसंधानों के नाम पर उपग्रहों रडारों से तूफानों को देखकर उनके नाम रखे जाने लगे हैं | इसके अतिरिक्त अनुसंधानों के नाम पर उपग्रहों रडारों से जब आँधी तूफ़ान आते दिखाई पड़ जाते हैं तो बता दिया जाता है कि ये कब तक भारत पहुँचेंगे | सन 2018 के अप्रैल मई में पूर्वोत्तर भारत में जितने भी हिंसक आँधी तूफ़ान आए उनमें से किसी एक के विषय में भी पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं हो सका है जिससे जनता कीसुरक्षा में कुछ मदद मिल पाती |

इसीप्रकार से वर्षा के विषय में उपग्रहों रडारों की मदद से आकाश में उठे बादलों को देखकर उनकी गति और दिशा के हिसाब से वर्षा संबंधी अंदाजा लगाया जाता है जो कृषि योजना के किसी काम का नहीं है किसानों को तो कृषि हेतु फसल योजना बनाने के लिए अग्रिम पूर्वानुमान चाहिए होते हैं |

ऐसे ही बाढ़ के विषय में समाज यह जानना चाहता है कि बाढ़ आएगी या नहीं ? क्योंकि उसे डर बाढ़ से होता है | किंतु वैज्ञानिक अनुसंधानों के नाम पर जनता को बताया जा रहा होता है कि कहाँ कितने सेंटीमीटर वर्षा हुई ,वर्षा ने कितने वर्षों का रिकार्ड तोड़ा है | ये वर्षा जलवायु परिवर्तन के कारण हो रही है | मौसम विज्ञान के नाम पर ऐसी अवैज्ञानिक एवं गैर जरूरी बातें क्यों की जाती हैं |

इस प्रकार से वैज्ञानिक अनुसंधानों के नाम पर जो तीर तुक्के सही निकल जाते हैं वे तो पूर्वानुमान और जितने गलत निकल जाते हैं उसके लिए जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार बता दिया जाता है | प्रकृति के स्वभाव को समझकर उसके आधार पर वर्षा का पूर्वानुमान लगाना अभी तक संभव नहीं हो पाया है |

इसीलिए मानसून के आने जाने की तारीखों का पता लगाना हो या दीर्घावधि मौसम पूर्वानुमान जिसकी किसानों को सबसे अधिक आवश्यकता होती है किंतु आज तक बताया नहीं जा सका है | यही कारण है कि कहीं बाढ़ आती है या बादल फटते हैं या बज्रपात होता है जिससे सबसे अधिक जनता प्रभावित होती है उसके विषय में कोई पूर्वानुमान नहीं बताए गए होते हैं |


इसी प्रकार से महामारी के विषय में जब जैसा होने लगता है वही देख देखकर वैसा ही बता दिया जाता है यही विशेषज्ञ लोग कर रहे हैं भविष्य को लेकर आशंकाएँ व्यक्त करने लग जाते हैं | कोरोना महामारी के समय भी यही हुआ है | महामारी आई देखकर बता दिया गया -"महामारी आ गई है" आशंका व्यक्त कर दी गई - "अभी लंबे समय तक रहेगी !"जब संक्रमितों की संख्या बढ़ने लगती है तो महामारी का नया स्वरूप आ रहा है यह ज्यादा आक्रामक होगा !ऐसा कह दिया जाता है और जब संक्रमितों की संख्या कम होने लगती है तो उपायों से महामारी को पराजित कर दिया गया है ऐसा कहा जाता है |

कुल मिलाकर महाभारत के संजय की तरह जो हो रहा है यदि वही बताना है या उसी के आधार पर कुछ तीर तुक्के भिड़ाने हैं तो ऐसे वैज्ञानिक अनुसंधानों की आवश्यकता नहीं है ये तो जनता स्वयं भी कर लेती है |


भूकंप आँधी तूफ़ान वर्षा बाढ़ बज्रपात तथा महामारी आदि सभी प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं के समय यही दिखाई सुनाई पड़ा करता है | इतनी गति से तूफान आया इसका ये नाम है इसने इतने वर्षों का रिकार्ड तोड़ा है | ये प्राकृतिक घटनाएँ अचानक घटित हो रही हैं इसलिए इन्हें देख देखकर वैज्ञानिकों को आश्चर्य हो रहा है | वैज्ञानिकों का कहना है कि ऐसी घटनाएँ घटित होने का कारण ग्लोबल वॉर्मिंग और जलवायु परिवर्तन है इसलिए ऐसी घटनाएँ अभी और भी घटित होंगी उनका स्वरूप दिनों दिन विकराल होता चला जाएगा आदि आदि और भी बहुत कुछ |

हमारे कहने का अभिप्राय केवल इतना है कि ऐसे वैज्ञानिक अनुसंधानों से प्राकृतिक आपदाओं से भयभीत जनता को न तो वर्तमान में कोई मदद मिल पा रही है और न ही भविष्य के लिए कोई आशा दिखाई पड़ रही है | इसलिए प्रत्यक्ष घटित होती घटनाओं को देखकर उसके आधार पर कुछ तीर तुक्के लगाने से अच्छा है कि प्रकृति के स्वभाव को समझने के लिए कुछ सार्थक प्रयत्न किए जाएँ उनके आधार पर लगाए गए दीर्घकालीन पूर्वानुमान समाज को मदद पहुँचाने में सहायक हो सकते हैं |

वैज्ञानिक अनुसंधानों का उद्देश्य !


वैज्ञानिक अनुसंधानकर्ता लोग भूकंप आँधी तूफ़ान वर्षा बाढ़ बज्रपात तथा महामारी आदि प्राकृतिक घटनाओं के लिए ग्लोबल वार्मिंग या जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार ठहराते देखे जाते हैं | ऐसी बातों का अभिप्राय जितना मैं समझ पाया हूँ ऐसे लोगों ने प्राकृतिक घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान न लगा पाने के कारण सरकार और समाज का रुख जलवायुपरिवर्तन की ओर सफलता पूर्वक मोड़ दिया है| इसका सबसे बड़ा लाभ उनके पक्ष में यह है कि पूर्वानुमान लगाने के नाम पर प्राकृतिक घटनाओं के विषय में वे जो भी अंदाजे लगाते होंगे वे सही निकले तो भविष्यवाणी और यदि गलत निकलते हैं तो इसके लिए जलवायुपरिवर्तन को जिम्मेदार माना जाएगा |

कुलमिलाकर गलत भविष्यवाणियों के आधार पर कोई भविष्यवक्ताओं को ही दोषी न मान ले | इसप्रकार की भविष्यवाणियों में संशयप्रतिरोधकक्षमता को मजबूत बनाता है जलवायुपरिवर्तन !इससे भविष्यवाणियों के गलत होने पर भी इसके लिए भविष्य वक्ताओं को दोष न देकर अपितु जलवायु परिवर्तन को दोषी बताया जाएगा | इसकी दूसरी विशेषता यह है प्रकृति में कभी नाप तौल कर घटनाएँ नहीं घटित होती हैं इसलिए शिशिर ऋतु में सर्दी कुछ कम या कुछ अधिक पड़ सकती है ऐसा ही ग्रीष्मऋतु में गर्मी एवं वर्षा ऋतु में वर्षा के प्रभाव के विषय में देखा जाता है |

ऐसी परिस्थिति में भविष्यवक्ताओं को पता होता है कि शिशिर ऋतु में सर्दी कुछ कम या कुछ अधिक हो सकती है किंतु होगी सर्दी ही इसलिए हेमंत शिशिर आदि ऋतुओं के आने से पहले सर्दी अधिक होगी या कम होगी या सामान्य होगी | इन तीन में से कोई एक भविष्यवाणी कर दी जाती है | अब शिशिर ऋतु आने पर सर्दी थोड़ी बहुत कम ज्यादा हुई तो चल जाती है और अधिक अंतर हुआ तो जलवायुपरिवर्तन मान लिया जाता है !ऐसा ही ग्रीष्मऋतु में गर्मी के विषय में होते देखा जाता है| वर्षात के विषय में ऐसे दुविधा युक्त ढुलमुल बयानों को दीर्घकालिक मौसम पूर्वानुमान कहने की परंपरा पड़ी है |

वैसे भी परिवर्तन तो प्रकृति का स्वभाव है इसलिए सभी प्रकार के परिवर्तन वो भले जलवायु परिवर्तन ही क्यों न हो ये तो होते ही रहेंगे !ये अनादिकाल से होते चले आ रहे हैं और भविष्य में भी होते ही रहेंगे | इसमें नया क्या है और इसे बार बार कहने की आवश्यकता क्या है |जलवायुपरिवर्तन कोई अभी सौ दो सौ वर्षों से तो होने नहीं लगा है ये तो शाश्वत प्रक्रिया है जो हमेंशा चला करती है |

किसी व्यक्ति के यहाँ विवाह का भोज आयोजित करना हो तो जिस रसोइए को भोजन पकाने के लिए जब नियुक्त किया जाता है उसी समय उसे बता दिया जाता है कि उसे बनाना क्या क्या होगा और अच्छा से अच्छा बनना चाहिए | रसोइया यदि उस शर्त को स्वीकार कर लेता है तो इसके बाद अच्छे व्यंजन बना लेने की जिम्मेदारी उस रसोइये की हो जाती है तभी वो हाँ करता है अन्यथा मना कर देता है | ऐसी परिस्थिति में जिस व्यक्ति के यहाँ आयोजित किसी भोज में भोजन न बन पाने या अच्छा भोजन न बन पाने के लिए उस रसोइए को जिम्मेदार मान लिया जाता है | इस स्थिति में वह रसोइया भोजन न बन पाने या अच्छा भोजन न बन पाने के लिए जलवायु परिवर्तन जैसी कोई कहानी गढ़ कर सुना दे तो क्या उचित मान लिया जाएगा !

ऐसी परिस्थिति में भोज आयोजित करने वाला व्यक्ति रसोइए के विरुद्ध यदि कोई बड़ी कार्यवाही न भी करे तो भी उस व्यक्ति को दूसरी बार तो रसोई निर्माण की जिम्मेदारी नहीं ही देगा !उसका विकल्प खोजने का प्रयत्न अवश्य करेगा |

इसलिए वैज्ञानिक अनुसंधानकर्ताओं की यह अपनी जिम्मेदारी बनती है कि वे अनुसंधान पूर्वक कोई भी पैटर्न पकड़ें या कोई भी मॉडल बनावें किंतु मौसम संबंधी घटनाओं का पूर्वानुमान इस सीमा तक सही देने का प्रयत्न करें जिससे कि कोई दूसरा व्यक्ति मौसम संबंधी अपने अंदाजों की बराबरी न कर सके !

प्राकृतिक घटनाओं का पूर्वानुमान लगाने वाले जिन लोगों के द्वारा मानसून आने जाने की सही तारीखें नहीं खोजी जा सकी हों !भूकंप आँधी तूफ़ान वर्षा बाढ़ बज्रपात तथा महामारी आदि प्राकृतिक घटनाओं के विषय में सही सटीक पूर्वानुमान नहीं बताए जा सके हों | चार दिन पहले के मौसम संबंधीपूर्वानुमान सही सही न बताए जा सके हों |उन लोगों को ग्लोबल वार्मिंग या जलवायु परिवर्तन के नाम पर आज के सौ दो सौ वर्ष बाद के विषय में अफवाहें क्यों फैलाने दी जाती हैं कि उस समय कैसी कैसी भयंकर घटनाएँ घटित होंगी | ऐसा भय पैदा करने का वैज्ञानिक दृष्टि से क्या आधार होता है |



लोकतांत्रिक देशों में जनता के धन से सरकारें संचालित होती हैं सरकारी काम काज में लगने वाला धन जनता के दिए हुए टैक्स से प्राप्त होता है सरकारें जिनकार्यों में वह धन लगाती हैं उसके बदले सरकारें कुछ ऐसा हासिल करके उससे जनता की कुछ कठिनाइयाँ कम करके सुख सुविधाएँ देने का प्रयत्न करती हैं | जनता भी अपने वैज्ञानिकों से ऐसी ही अपेक्षा रखती है | इसके विपरीत भारी भरकम धनराशि लगाकर जो प्राकृतिक अनुसंधान किए जाते हैं उनसे जो कुछ निकलता है वह जानकारी जनता की कठिनाइयाँ कम करने या उसे सुख सुविधा देने में कितने प्रतिशत सफल हुई है | इसका मूल्यांकन करते समय उस जनता की सोच को अवश्य सम्मिलित किया जाना चाहिए | जिसके लिए ऐसे अनुसंधान किए या करवाए जाते हैं |

भूकंप आँधी तूफ़ान वर्षा बाढ़ बज्रपात तथा महामारी आदि प्राकृतिक घटनाओं के विषय में सही सटीक पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं हो पाता है फिर भी ऐसी घटनाओं के विषय में कुछ काल्पनिक भविष्यवाणियाँ करनी भी पड़ती हैं वे जब सही नहीं निकलती हैं तब भविष्यवाणियों की गलती स्वीकार करके उसमें सुधार करने एवं उन अनुभवों से कुछ सीखकर भविष्य में सुधार करने की आवश्यकता होती है | प्राकृतिक अनुसंधान कर्ताओं के द्वारा ऐसा करने की अपेक्षा उन घटनाओं को ही गलत सिद्ध कर दिया जाता है और इसका कारण जलवायु परिवर्तन को बता दिया जाता है |जिससे भविष्य में सुधार होने की संभावना भी समाप्त हो जाती है |




पूर्वानुमान :
3 मई 2021 को  वैज्ञानिकों के द्वारा महामारी की तीसरी लहर की फिर भविष्यवाणी कर दी गई जिसे सुनकर जनता को लगा कि हमारे वैज्ञानिकों ने यदि अनुसंधान पूर्वक महामारी का पूर्वानुमान लगाने की क्षमता अर्जित कर ही ली थी तो महामारी प्रारंभ होने से पूर्व उनके द्वारा महामारी के प्रारंभ होने के विषय में पूर्वानुमान बताया क्यों नहीं गया | इसके अतिरिक्त भी महामारी से संक्रमितों की संख्या घटने बढ़ने के विषय में कोई पूर्वानुमान क्यों नहीं पता लगाया जा सका | यहाँ तक कि दूसरी लहर के विषय में भी कोई पूर्वानुमान नहीं बताया जा सका |
    ऐसी परिस्थिति में महामारी की तीसरी लहर की भविष्यवाणी किस वैज्ञानिक आधार पर कर दी गई थी तब तक वैज्ञानिकों के द्वारा पूर्वानुमान लगाने की ऐसी कौन सी वैज्ञानिक विधा विकसित कर ली गई थी जो पहले नहीं थी | तीसरे लहर के विषय में वैज्ञानिकों के द्वारा बार बयान बदले जाते रहे जितने वैज्ञानिक उतनी बातें इसलिए उनकी बातों बिचारों के आधार पर जनता  यह कैसे समझ लेती कि कोरोना की तीसरी लहार आएगी या नहीं और आएगी तो कब ?

 
      यदि महामारी की दूसरी लहर इतनी विकराल न आती तो इससे महामारी ट्रायल को सफल मान लिया जाता और महामारी की समाप्ति का श्रेय वैक्सीन दिया जाता किंतु समय फिर बिगड़ा और फरवरी से 8 मई तक संख्या दिनोंदिन बढ़ती चली जा रही थी |
 
 
 अच्छे समय के प्रभाव से महामारी संक्रमितों की संख्या दिनोंदिन समय प्रभाव से समाप्त होती चली जा रही थी | इसका प्रभाव उन रोगियों पर भी पड़ा जिन पर वैक्सीन ट्रायल चल रहा था वे भी समय प्रभाव से क्रमशः स्वस्थ होते चले जा रहे थे |
 
 
महामारी अपने समय से पैदा हुई है इसमें भी कोई संशय नहीं है | कोरोना महामारी से मुक्ति दिलाने की दृष्टि से अभी तक किए गए वैज्ञानिक प्रयासों के निरंतर विफल होते रहने के बाद अब तो ऐसा लगने लगा है कि महामारी अपने आप से ही जाएगी | 
    महामारी पर समय का प्रभाव इतना अधिक देखा गया कि अच्छा समय आने पर अपने आप से ही संक्रमितों की संख्या घट जाती रही और बुरा समय आने पर संक्रमितों की संख्या घट जाती रही है क्योंकि ऐसा होने के लिए जिम्मेदार आधार भूत कोई प्रत्यक्ष कारण खोजे नहीं जा सके हैं  |

समय के कारण महामारी बढ़ती और समय के कारण महामारी संक्रमितों की संख्या कम होती रही | जब समय में सुधार होता तब महामारी से संक्रमितों की संख्या सभी जगह कम होते देखी जाती थी |समय सुधरने का वही प्रभाव उन लोगों पर भी पड़ता था जिन पर वैक्सीन का ट्रायल चल रहा होता था | समय प्रभाव से वे लोग स्वस्थ होते थे किंतु भ्रमवश उसे वैक्सीन का ट्रायल सफल मान लिया जाता था | ऐसा मई जून 2020 में होते देखा गया था जिससे उत्साहित होकर कुछ देशों ने तो वैक्सीन बना लेने का दावा भी कर दिया | उन्हें ऐसा लगा कि शायद वैक्सीन प्रभाव से वही लोग स्वस्थ हो रहे हैं जिन पर वैक्सीन का ट्रायल चल रहा है किंतु यह भ्रम तब टूटा जब यह सुधार सारे समाज में ही आ चुका था वैक्सीन ट्रायल में सम्मिलित न हुए संक्रमितों में भी तेजी से सुधार होता देखा जा रहा था किंतु यह सुधार तो संपूर्ण समाज में ही हो रहा था जिसे वैज्ञानिकों ने स्वीकार करते हुए कहा कि अब तो वैक्सीन ट्रायल के लिए रोगी ही नहीं मिल रहे हैं | इसके बाद समय प्रभाव से अगस्त 2020 में जब संक्रमितों की संख्या अचानक अपने आपसे ही बढ़ने लगी उस समय ट्रायल पर चल रही वैक्सीनें भी असफल होती चली जा रही थीं | ऐसा 24 सितंबर 2020 तक चलता रहा उसके बाद फिर समय प्रभाव से संक्रमितों की संख्या दिनों दिन कम होती जा रही थी यह क्रम 8 फरवरी 2021 तक क्रमशः चलता जा रहा था और अच्छे समय के प्रभाव से महामारी संक्रमितों की संख्या दिनोंदिन समय प्रभाव से समाप्त होती चली जा रही थी | इसका प्रभाव उन रोगियों पर भी पड़ा जिन पर वैक्सीन ट्रायल चल रहा था वे भी समय प्रभाव से क्रमशः स्वस्थ होते चले जा रहे थे | जिससे फिर वैक्सीन ट्रायल सफल होने का न केवल भ्रम हुआ अपितु अत्यंत उत्साह से वैक्सीन लगाना भी कई देशों ने प्रारंभ कर दिया | यदि महामारी की दूसरी लहार इतनी विकराल न आती तो इससे महामारी ट्रायल को सफल मान लिया जाता और महामारी की समाप्ति का श्रेय वैक्सीन दिया जाता किंतु समय फिर बिगड़ा और फरवरी से 8 मई तक संख्या दिनोंदिन बढ़ती चली जा रही थी |

ऐसी बातों से यह निश्चित हो गया कि महामारी के बढ़ने घटने समय ही था | चूँकि समय संचार को समझने के लिए कोई अनुसंधान नहीं किए जाते हैं और अच्छे बुरे समय का पूर्वानुमान लगाने का कोई वैज्ञानिक अनुसंधान न होने कारण समय के विषय में पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं हो पाता है | यही वह सबसे बड़ा कारण है जिससे मौसम एवं महामारी से सम्बंधित घटनाओं का पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं हो पाता है |




तो कहा अब वैक्सीन किंतु 8 अगस्त 2020 से कोरोना जैसे ही बढ़ने लगा वैसे वैसे सफल माने जा चुके वे वैक्सीन ट्रायल भी असफल होने लगे



देश ऐसा भी मानने लगे उन पर भी पड़ते देखा जाता था




कोरोना संक्रमितों की संख्या जब बढ़ने लगती है तब उसका बढ़ता प्रभाव न्यूनाधिक रूप से सभी देशों में देखा जाता है ऐसे समय में लगभग सभी देशों में संक्रमितों की संख्या बढ़ने लगती है और घटते समय सभी देशों में कम होते देखी जाती है जबकि उपाय सभी देशों में अलग अलग अलग अलग अनुपात में हो रहे होते हैं |

अमरीका जैसे देश चिकित्सकीय संसाधनों में अधिक सक्षम होने के बाद भी उतने ही पीड़ित हुए जितने कि वे जिनके पास ऐसे संसाधनों का अभाव है |


कुछ लोग संपूर्ण कोरोना नियमों का पूर्ण पालन भी कर रहे हैं और दो दो डोज वैक्सीन भी लगवा चुके हैं इसके बाद भी उन्हें महामारी से संक्रमित होते देखा जा रहा है जबकि कुछ लोग न कोरोना नियमों का पालन करते हैं और न ही उन्होंने वैक्सीन की एक भी डोज लगवाई है इसके बाद भी वे मस्त घूम रहे हैं | वे एक बार भी कोरोना महामारी से संक्रमित नहीं हुए हैं |


इस प्रकार से महामारी के इस डरावने समय में जिनपर महामारी का कोई प्रभाव पड़ा ही नहीं उन शरीरों में ऐसी क्या विशेषता थी कि वे महामारी का सामना करने में सक्षम हो सके | संपूर्ण चिकित्सकीय सुविधाओं के अभाव में भी यह वर्ग महामारी में स्वस्थ कैसे बना रहा ?




दूसरे वे संपूर्ण मेडिकेटेड लोग जिनका खाना पीना रहन सहन आदि सभी चिकित्सकों की गहन देख रख में ही संपन्न होता है | जन्म से मृत्यु तक चिकित्सालयीय बिछौनों पर पाने वाले संपन्न समाज के लोग भी यदि महामारी से संक्रमित हुए तो उनके संक्रमित होने का कारण क्या था ?


ऐसे दोनों प्रकार के लोगों के खान पान रहन सहन आदि संपूर्ण दिनचर्या का अध्ययन अनुसंधान आदि होना चाहिए | उन दोनों प्रकार के लोगों की समग्र दिनचर्या में जो अंतर लगे उस पर अनुसंधान होना चाहिए उसके आधार पर अनुसंधान पूर्वक यह पता लगाया जाना चाहिए कि महामारी से संक्रमित होने और न होने का वास्तविक कारण क्या था | जो लोग चाहते हैं कि महामारी आने पर भी वे संक्रमित होने से बचे रहे उन्हें अपने उन आचरणों में इस प्रकार का सुधार करने का अभ्यास कर लेना चाहिए |


महामारियाँ तो हमेंशा ही अपने समय से आती और जाती रहेंगी |मानवता को महामारियों से पीड़ित होने से यदि बचा लिया जाता है तो महामारियों से भय कैसा !इसलिए प्रयत्न ऐसे किए जाने चाहिए जिससे महामारियों के दुष्प्रभाव से शरीर प्रभावित ही न हों !इतनी क्षमता शरीरों में स्वयं की संचित हो |

ऐसा होना इसलिए संभव है क्योंकि महामारी के महावेग में भी 90 प्रतिशत लोग यदि अपनी शारीरिक क्षमता के बलपर संक्रमित होने से बच गए तो संक्रमित हुए 10 प्रतिशत लोगों के शरीरों को भी महामारी का सामना करने में सक्षम क्यों नहीं बनाया जा सकता है | इतना अवश्य है कि मनुष्य शरीरों पर महामारी का प्रभाव कम से कम पड़े इसके लिए मनुष्यों को करना क्या होगा !अनुसंधान पूर्वक उस सच्चाई की खोज अवश्य होनी चाहिए तभी तो उसके लिए प्रयत्न किए जा सकेंगे |









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