शास्त्रीय साधू संन्यासियों के लिए धन संग्रह एवं सामाजिक प्रपंच अशास्त्रीय हैं जानिए कैसे ?
संन्यासियों या किसी भी प्रकार के महात्माओं को काम क्रोध लोभ मोह मद मात्सर्य आदि विकारों पर नियंत्रण तो रखना ही चाहिए यदि पूर्ण नियंत्रण न रख सके तब भी प्रयास तो
पूरा होना ही चाहिए।वैराग्य की दृढ़ता दिखाने के लिए कहा गया कि स्त्री यदि
लकड़ी की भी बनी हो तो भी वैराग्य व्रती उसका स्पर्श न करे.....!
दारवीमपि मा स्पृशेत्||
माता स्वस्रा दुहित्रा वा .... !
माता, मौसी ,बहन,पुत्री आदि के साथ भी अकेले न बैठे।
शंकराचार्य जी कहा कि विरक्तों के लिए नरक का प्रधान द्वार नारी है-
द्वारं किमेकं नरकस्य नारी
इसी प्रकार
शूरान् महा शूर तमोस्ति को वा
प्राप्तो न मोहं ललना कटाक्षैः|| -शंकराचार्य
का श्रंखला प्राण भृतां हि नारी -शंकराचार्य
मत्स्य पुराण में कहा गया है कि बशीभूत मन वालेसंन्यासियों
को साल के आठ महीने तक विचरण करना चाहिए अर्थात पूरे देश में भ्रमण करना
चाहिए।वर्षा के चार महीने एक स्थान पर रह कर चातुर्मास व्रत करे ।
अत्रि ऋषि ने कहा है कि ये छै चीजें नृप दंड के समान मानकर संन्यासी अवश्य करे -
1. भिक्षा माँगना
2.जप करना
3.स्नानकरना
4.ध्यानकरना
5.शौच अर्थात पवित्र रहना
6.देवपूजन करना
इसीप्रकार न करने वाली छै बातें बताई गई हैं -
1.शय्या अर्थात बिस्तर पर सोना
2.सफेद वस्त्र पहनना
3.स्त्रियोंसे संबधित चर्चा करना या सुनना एवंस्त्रियोंके पास रहना वा स्त्रियों को अपने पास रखना
4.चंचलता का रहन सहन
5.दिन में सोना
6. यानं अर्थात बाहन
किसी भी प्रकार से ये छै चीजें अपनाने से संन्यासी पतित अर्थात भ्रष्ट हो जाते हैं।यथा -
मञ्चकं शुक्ल वस्त्रं च स्त्रीकथा लौल्य मेव च |
दिवास्वापं च यानं च यतीनां पतनानि षट् ||
-अत्रि ऋषि
इसीप्रकार ब्राह्मण गृहस्थ जीवन की सांसारिक उठापटक से मुक्त निर्विकार निर्लिप्त
रहने वाले स्वाभाविकआचरण वाले ब्रह्म-जीवी थे। इन्हें विप्र कहा जाता है।
जिनको भी मिलना होता इनके घर आते थे।संन्यास काअधिकार ब्राह्मणों को दिया गया है ।
आत्मन्यग्नीन्समारोप्य ब्राह्मणः प्रव्रजेद् गृहात् |
जाबालश्रुतेः
वैष्णव
सम्प्रदाय में नियम था कि जो महंत होगा वह तो अविवाहित होगा ही होगा अन्य
लोग चाहें तो अविवाहित भी रह सकते थे और विवाह भी कर सकते थे | शैव
सम्प्रदाय की सभी जातियों के लिए नियम थे कि वे गाँव, बस्ती में प्रवेश
नहीं करते थे। आचार्य
शंकर ने संन्यासी सम्प्रदाय को काल-स्थान-परिस्थिति के अनुरूप एक नई
दशनामी व्यवस्था दी और इनको दस वर्गों में विभाजित किया|ये दस नाम इस प्रकार हैं:-
(1) तीर्थ (2) आश्रम (3) सरस्वती (4) भारती (5) वन (6) अरण्य (7) पर्वत (8) सागर (9) गिरि (10) पुरी
इनमें अलखनामी और दण्डी दो विशेष सम्मानित
शाखाये थीं। दण्डी वे संन्यासी होते थे जो ब्राह्मण से संन्यासी बनते थे।
इनके हाथ में दण्ड[डण्डा] होता था। ये आत्म-अनुशासित थे
हिन्दू धर्म की मान्यताओं, परम्पराओं में आ रही गिरावट को देखते
हुए आदि शंकराचार्य ने ज्ञानमार्गी परम्परा को पुनर्जीवित किया और अद्वैत
दर्शन की मूल अवधारणा ‘बृह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ को स्थापित किया। इसके लिए
उन्होने समूचे देश में अद्वैत और वेदांत का प्रसार किया। काशी के महान
विद्वान मंडनमिश्र के साथ उनका शास्त्रार्थ, इस सिलसिले की महत्वपूर्ण कड़ी
थी, जिसने उन्हें समूचे देश में धर्म दिग्विजयी के रूप में स्थापित कर
दिया।
शंकराचार्य ने प्राचीन आश्रम और मठ
परम्परा में नए प्राण फूँके। शंकराचार्य ने अपना ध्यान संन्यास आश्रम पर
केंद्रित किया और समूचे देश में दशनामी संन्यास परम्परा और अखाड़ों की नींव
डाली।
सभी पत्रकार बंधुओं को शास्त्रीय साधू संतों की मर्यादा पर सार्थक बहस के लिए बहुत बहुत बधाई !
धार्मिक क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार की जड़ें
बहुत गहरी हैं और धार्मिक एवं शास्त्रीय भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलते ही
समाज सात्विक होगा तब जाकर राजनैतिक शुद्धीकरण संभव है। इस पाखंड मुक्त
धर्म युद्ध में धर्म रक्षा हेतु हमारे लायक शास्त्रीय सेवा के लिए मैं सदैव
उपस्थित हूँ -
डॉ.शेष नारायण वाजपेयी
संस्थापक -राजेश्वरी प्राच्य विद्या शोध संस्थान
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