संन्यास क्या है ?
मन गढंत परिभाषा सच और शास्त्रीय नहीं है सच तो यह है कि संन्यास भारतीय संस्कृति का वह कठोर व्रत है जहाँ समाज की सेवा की बात तो छोड़िए अपने शरीर को सुख पहुँचाना भी वर्जित होता है। समाज से सारे सम्बन्ध तोड़ने होते हैं अपने शरीर को भी भूलकर केवल ईश्वर से सम्बन्ध बनाना ही शास्त्रीय संन्यास है । केवल लाल वस्त्रों में शरीर लिपेटकर आम गृहस्थ की तरह का सुख सुविधा पूर्ण जीवन जीना और कुछ हो सकता है किन्तु संन्यास नहीं है। यदि ऐसा होता तो हर कोई लाल पीला रँगा पोता घूमता रहे थोडा बहुत तो सामाजिक कार्य हर कोई कर ही लेता है इसका मतलब यह कतई नहीं है कि वह संन्यासी है। अगर थोड़ी देर के लिए इस मन गढंत परिभाषा से सहमति जाता भी दी जाए तो इससे और किसी का कुछ नुकसान हो न हो किन्तु संन्यास की गरिमा घटती है। वैसे भी जो काम हम बिना संन्यास लिए भी कर सकते हैं उन्हें करने के लिए संन्यास क्यों लिया जाए और यदि संन्यास लिया ही जाए तो उसके शास्त्रीय नियमों का पालन क्यों न किया जाए? और यदि हम सनातन धर्मी हिन्दू ही संन्यास के विषय में शास्त्रीय मर्यादाओं का पालन नहीं करेंगे तो फिर और कौन करेगा ?
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