शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

संन्यासियों को अपने नियमों का पालन क्यों नहीं करना चाहिए?

 संन्यासियों  के भी कुछ तो नियम होते ही होंगे उनका पालन उन्हें क्यों नहीं करना चाहिए और हमें क्यों उनकी प्रशंशा करते रहना चाहिए केवल उनके पास पैसा है इसलिए ! 

      कुछ बाबाओं को अपनी अपनी आस्था के अनुशार लोग संन्यासी या राजर्षि कुछ भी कहने लगते हैं!कुछ लोग कहते हैं कि जो दवा कम पैसों में देता है वो राजर्षि होता है जो पेट हिला लेता है वो योगी होता है जो कलर बदल लेता है वो साधू होता है अजीब बात है हमारा धर्म नहीं मान्यताओं का पुलिंदा हो गया है क्या ?हम जो मान लें वही हो जाता है क्या ?आखिर हम अपने को समझते क्या हैं !हम धर्म के मामलों के संवाहक हैं मसीहा नहीं कि हम जो मान लेंगे वही हो जाएगा ! धर्म के मामलों में यदि हम अपने को ही कर्त्ता धर्त्ता आदि सब कुछ मान लेंगे शास्त्र समेट  कर रख देंगे तो हमें  मान लेना चाहिए कि विधर्मियों ने भी हमें हमारे धर्म से भ्रष्ट करने के लिए भी तर्कों का ही सहारा लिया था जिन पर फिदा होकर ही हम अपने धर्म की व्याख्या मनमाने ढंग से करने लगे जिसके परिणाम अच्छे नहीं हुए ! इसीप्रकार जो धर्मभीरु लोग किसी के जन हितकारी कार्यों को देखकर उन्हें राजर्षि  संन्यासी आदि मानने की वकालत करते हैं उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि ईसाई लोगों ने सेवा कार्यों से ही न केवल भारतीयों  का मन जीता है अपितु आज अपने बहुत बड़े वर्ग को ईसाई बना चुके हैं !दवा भी बाँट रहे हैं शिक्षा भी दे रहे हैं !

       मानने वाली इसी परिभाषा से तो बलात्कारी अपने को प्रेमी मानने लगे हैं  भले ही वो एक पक्षी प्रेम ही क्यों न हो !तो क्या उस अपराधी को प्रेमी मान लिया जाए !इस एकांगी प्रेम का भी वर्णन साहित्य  में मिलता है किन्तु वह भी ऐसा नहीं होता था जैसा आज बच्चियों के साथ अत्याचार  हो रहा है !

   यदि राजर्षि होने की यही परिभाषा हैं तो दातव्य औषधालयों  या सरकारी औषधालयों के डाक्टर वैद्य राजर्षियों को भी कहीं प्रतिष्ठित करने के विषय में सोचना होगा !जहाँ तक किसी का निजी मामला है कोई किसी को कुछ भी मान सकता है इसमें किसी को क्या आपत्ति ?जो लोग मुशीबत में किसी के काम आते है लोग उन्हें भगवान् मानते हैं किन्तु भगवान  बना नहीं जाता होता है वैसे ही संन्यासी हो या राजर्षि ये दोनों ही शब्द पौराणिक संस्कृति  के हैं ,स्वाभाविक है कि संन्यासी या राजर्षि किसे कहते हैं इसकी वहाँ कुछ पहचान दी गई होगी  उसके वहाँ लक्षण बताए गए होंगे यदि किसी को हम ये पौराणिक उपाधियाँ  देना चाहते हैं तो हमें सोचना होगा कि क्या हमने  उसमें वो लक्षण या गुण देखे हैं यदि मिलते हैं तो उसे इन नामो से बुलाया जा सकता है ये तो रही  नियम की  बात ! बाकी किसी भी रँगे पोते व्यक्ति से प्रभावित होकर कोई किसी को डायरेक्ट राजर्षि, संन्यासी,भगवान् कुछ भी कहे तो कहे ये उसकी निजी आस्था है ! 

            जहाँ तक  योगगुरु   कहने की बात है योगासन करते तो लोग देखे जाते हैं किन्तु अपनी इसी कला को योग बताते हैं आखिर हद्द है अपनों को ठगने के लिए इतना बड़ा झूठ !योग कोई नाच गाना थोडा है कि जहाँ चाहो वहाँ कमर मटकाने लगो! योग साधना  के लिए तो एकांत चाहिए ही। कहीं भीड़ सभा सम्मेलनों में योग हो सकता है क्या ?दुनियाँ  के सारे धंधे व्यापार करने वाले प्रपंचियों को योग करने का समय न जाने कब मिल जाता है  भगवान् ही जानें !अगर किसी के विषय में किसी को बढ़ा चढ़ा कर ही बोलना है तो बोले !आज आशाराम जी के अनुयायी भी यही कर रहे हैं धर्म का उपहास हो रहा है ! मेरा उद्देश्य शास्त्रीय बात समाज के सामने रखना मात्र है थोपना नहीं । कोई मानें न मानें उसकी मर्जी ।  

      इस दृष्टि से मैं आपको भी योगी या जो आप कहें सो मानता हूँ आपसे अपेक्षा करता हूँ कि आप भी जनहित के कार्य करें सब लोग जब सोचेंगे तब सुधरेगा समाज ! दूसरे को झाड़ पर चढाने की हम भारतीयों की  आदत ठीक नहीं है इसलिए आपसे भी अपेक्षा करता हूँ कि आप भी जनहित के कार्यों में समर्पित हों जितना हो सकता हो उतना हों  ये जो लक्षण आपने बताए हैं उसके लिए बाबा बनना या संन्यासी कहलाना कहाँ जरूरी है ?

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