बुधवार, 4 दिसंबर 2013

क्यों व्यभिचारी बनता जा रहा है बाबा समुदाय ?

धर्म के क्षेत्र में धार्मिक आचार संहिता का पालन कड़ाई से क्यों नहीं किया या कराया जाता है ?

       बड़े बड़े व्यापारों,कथा कीर्तनों एवं और भी सभी प्रकार के सांसारिक प्रपंचों में फँसे बाबाओं पर अब कितना और कैसे भरोसा किया जाए? हो सकता है कि ये लोग दोषी न हों किन्तु बिना आग के धुआँ नहीं उठता  यह भी सच है आखिर संदेह होने की गुंजाइस ही क्यों दी गई ? वैसे भी इनके रहन सहन आचार व्यवहार में कहीं तो वैराग्य झलकता !वास्तव में असंतुष्ट इंद्रियों की संस्तुष्टि के लिए क्या केवल बाबा बनना ही एक मात्र विकल्प बचा है ? यदि यही करना था तो कुछ और काम कर लेते कम से कम सनातन धर्म की प्रतिष्ठा तो बच जाती ।इन बाप बेटों को टी.वी.पर नाचते गाते देखा गया है शर्म आती है देखने में यही इनका  बाबात्व था क्या ?

    इसी प्रकारकथा कीर्तनों के नाम पर नाचते गाते फिरने वाले और भी लोग हैं वो भी इनसे अलग नहीं होंगें अन्यथा कल कल के पैदा बच्चे बच्चियों को लीप पोत कर लाल पीले कपड़े  पहनाकर बैठा दिया जाता है कथा कहानियाँ बकने को और नहीं तो क्या भागवत जैसे  कठिन ग्रन्थ में क्या है इनके कहने समझने लायक? बेचारों की अभी पढ़ने लिखने खेलने कूदने की उम्र होती है किन्तु दिहाड़ी के मजदूर बनाकर बैठा दिए जाते हैं  इनके पीछे बड़े बड़े गिरोह सक्रिय होते हैं जो इनके पीछे रहकर अपना उल्लू सीधा किया करते हैं ये बाल मजदूरी के तहत दंडनीय माना जाना चाहिए वैसे भी ऐसी जगहों पर जो कुछ भी होता है उसमें जयकारे केवल धर्म के लगाए  जाते हैं वो भी दिखाने के लिए बाकी आशारामी संस्कृति वहाँ भी खूब फल फूल रही होती है किन्तु जो पकड़ा जाए सो अपराधी अन्यथा धर्मराज !

         इस लिए हमारा विरोध किसी बाबा विशेष का विरोध नहीं हैं हमारा उद्देश्य तो धार्मिक समुदाय को शास्त्रीय जीवन पद्धति अपनाने का है अर्थात विरक्तों से वैराग्य युक्त जीवन जीने की अपेक्षा करना है अन्यथा इस प्रकार के आरोप धर्म का बहुत बड़ा नुकसान कर रहे हैं । जिसका दंड सारे सनातन धर्मी समाज को भोगना पड़  रहा है।

डॉ.शेष नारायण वाजपेयी

संस्थापक -राजेश्वरी प्राच्य विद्या शोध संस्थान 

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