बुधवार, 11 जून 2014

काँग्रेसियों की पांडव समस्या और समाधान !

  काँग्रेस पराजित होकर बनी पांडव तो  अभी तक सरकार कौरवों की थी क्या ?

      किन्तु यहाँ  काँग्रेस और भाजपा में कौरव आखिर है कौन ?

    जब सत्ता में थी तब काँग्रेस कौरव थी क्या ? क्योंकि तब तो संख्या कम न होकर अपितु अधिक थी ! 

  किन्तु केवल संख्या कम होने से काँग्रेस अपनी तुलना पांडवों से कैसे कर सकती है और भी तो बहुत कुछ देखना होगा - जैसे पांडव  लोग  तो सत्ता से दूर थे और काँग्रेस के हाथ में सत्ता अभी तक रही है सतत सत्ता धारी दल होने के कारण काँग्रेसियों का पांडवत्व तो पिघलता दिखता है! क्योंकि सत्ता में रहने वाला दल ही कौरव होता है!

     इसलिए सत्ता धारी कौरव ही थे और यहाँ  सत्ता धारी दल के रूप में पहचान पा चुकी काँग्रेस ही है न कि भाजपा! भाजपा का तो चुनावी महाभारत युद्ध  के बाद अभी अभी राज्याभिषेक हुआ है! अभी   वहाँ  धृतराष्ट  जैसा बूढ़ा कोई राजा नहीं हैं अभी तो वहाँ जवान मोदी जी हैं जो अक्सर अपने सीने का साइज बताया करते हैं अभी तो वही लोकतान्त्रिक राजा हैं। 
     अब बात इनसे पहले वाले राजा की भी कर लेते हैं महाभारत के कौरव  वहाँ  कितने फिट बैठते हैं देखिए राज्य तो पाण्डु का था धृतराष्ट राजा थे नहीं अपितु परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि उन्हें राजा बनाना  पड़ा था इसीप्रकार से यहाँ मनमोहन सिंह जी भी चुने हुए प्रधान मंत्री तो थे नहीं अपितु परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि उन्हें प्रधानमंत्री बनाना  पड़ा था !
     इसी प्रकार से वहाँ धृतराष्ट को दिखाई नहीं पड़ता था किन्तु यहाँ भी महँगाई भ्रष्टाचार बलात्कार घोटाले पर घोटाले आदि  सब उत्पात होते रहे किन्तु देश को कभी इस बात का एहसास ही नहीं हुआ कि मनमोहन सिंह जी यह सब कुछ देख रहे होंगें। 
    इसी प्रकार से वहाँ सत्ता का दूसरा  केंद्र गांधारी जी थीं जिन्होंने अपनी आँखों पर ऐसी पट्टी बाँध रखी थी कि उन्होंने कभी कुछ न देखने की कसम सी खा रखी थी अर्थात पूरा महाभारत हो गया धीरे धीरे सब कुछ समाप्त होता चला गया किन्तु उन्होंने केवल अपने पुत्र को देखा बाकी कभी कुछ नहीं देखा ! यहाँ भी काँग्रेस पार्टी के विरोध में लहर ही नहीं सुनामी  चल रही थी पूरे  देश में त्राहि त्राहि मची थी और यहाँ भी सत्ता का दूसरा केंद्र सोनियाँ गाँधी जी मौन ही रही हैं उनकी आत्मा ने उन्हें कभी नहीं ललकारा कि देश में महँगाई भ्रष्टाचार बलात्कार और घोटाले पर घोटाले आदि सारे उत्पात होते जा रहे हैं आप इस सरकार की स्वामिनी हैं आखिर कुछ तो कीजिए, जनता आपकी विशाल भुजाओं की ओर बड़ी आशा से देख रही है किन्तु सोनियाँ जी ने केवल अपने पुत्र के राजनैतिक भविष्य की ओर देखा मतलब साफ था कि पार्टी हारे तो हार भले जाए किन्तु जीते तो हमारे पुत्र के नेतृत्व में ताकि भविष्य सुरक्षित रहे अन्यथा पार्टी के किसी अन्य अनुभवी महारथी के सक्षम  नेतृत्व में भी लड़ा जा सकता था चुनाव ! संभव था कि पराजय भी होती तो इतनी नहीं होती यहाँ तो निर्विरोध मोदी जी जीते हैं यह चुनाव उन्हें चुनौती देने वाला  कोई था ही नहीं। काँग्रेस पार्टी के बड़े बड़े महारथियों के पराजित होने के आँकड़े आते रहे किन्तु सोनियाँ जी का पुत्र मोह सब पर भारी पड़ा-
    कौरवों में सत्ता का तीसरा केंद्र राजकुमार दुर्योधन थे जिन्हें धृतराष्ट के राजा रहते हुए भी सारे अधिकार प्राप्त थे फिर भी वह राजा बनना चाहते थे  इसलिए उन्होंने न केवल अपने दल के बड़ों के बड़प्पन को अपितु उनके द्वारा किए गए निर्णयों को भी नकार दिया करते थे! भीष्म, कृपाचार्य,द्रोणाचार्य,विदुर जी जैसे समझदार लोगों ने युवराज को समझौते की सलाह दी थी किन्तु सलाहें हवा में उड़ा दी जा रही थीं। 
   यहाँ भी सत्ता के तीसरे केंद्र काँग्रेस पार्टी के सर्वशक्तिमान युवा नेता ने अपनी सरकार के बयोवृद्धों के द्वारा पास किए गए बिल को फाड़ने तक की बात की वो भी मीडिया के सामने आश्चर्य!अरे, कम से कम निर्णय लेने वाले नेताओं के गौरव एवं बड़प्पन का भी कुछ तो महत्त्व रखा जाना चाहिए था किन्तु ऐसा नहीं हो सका !आखिर उन्हें चुनावों में जनता के सामने अपना गौरव लेकर ही तो जाना था । 
     इसी प्रकार से महाभारत के एक अन्य वृत्तांत में  पाँच गाँव जब पांडवों ने माँगे तो श्रीकृष्ण की अच्छी सलाह  भी यह कहते हुए ठुकरा दी गई कि "सूच्याग्रे न दास्यामि बिना युद्धेन केशव " 'अर्थात बिना युद्ध के सुई की नोक के बराबर भूमि भी नहीं दूँगा यदि कुछ भी चाहिए तो हमसे युद्ध लड़ो !'
     यहाँ भी बयोबृद्ध तपस्वी सामाजिक साधनारत श्री अन्नाहजारे जी ने भी पहली बार जब जनलोकपाल बिल पास करने  की अच्छी सलाह दी थी तो उनके लिए भी  कहा गया कि ऐसा करना है तो पहले चुनाव लड़ के आइए !
     ये सब उदाहरण हमारे द्वारा काल्पनिक नहीं दिए जा रहे हैं मैं काँग्रेस के विद्वान नेता जी से कहना चाहता हूँ कि उन्होंने काँग्रेस की तुलना पांडव दल से कैसे कर दी कोई तो चार उदाहरण भी तो दें केवल संख्या कम होने से पांडव होने हों तो आजकल "हम दो और हमारे दो" की संस्कृति में हैं तो हर घर में पांडव ही पांडव होंगें  किन्तु महाभारत तो रोज होता है ! जैसे काँग्रेस में आजकल अपने नेतृत्व को कोसने वालों की कमी नहीं है लोग एक दूसरे पर कटु शब्दों का प्रयोग करने में भी परहेज नहीं कर पा  रहे हैं जैसे महाभारत में पराजय के साथ साथ उनकी अपनी सेना में अपने  नेतृत्व को कोसने वाले भी कम नहीं थे भीष्म जैसे लोग तो सेनापति बनते समय भी युवराज को कोसते हुए रणस्थल में गए थे बल्कि उन पर विश्वास नहीं किया जा रहा था कि वो अपना साथ दे रहे हैं !
      यहाँ भी सन 2014 के चुनावों में यह सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ कि जिस महापुरुष ने अपने देश को देश वर्ष तक नेतृत्व दिया है माना कि समाज अबकी बार उनकी शासन शैली से असंतुष्ट था इसका मतलब ये तो कतई नहीं था कि उन्हें हार स्वीकार करके घर बैठ जाना चाहिए था।इतना ही नहीं अभी मतदान संपन्न भी नहीं हो पाया था कि बीच में ही आवास खाली करने के लिए उनका सामान पैक होने की खबरें भी आने लगीं आखिर ऐसी भी जल्दी क्या थी ?
     ऐसा कहीं भी किन्हीं भी चुनावों में कम ही होता देखा गया होगा जब जिसने दस वर्षों तक शासन चलाया हो वो जनता का सामना करने से इस प्रकार से बच रहा हो !आखिर अपनी दस वर्षों के शासन की उपलब्धियाँ और अपनी मजबूरियाँ  तो जाकर बताई ही जा सकती थीं !आखिर जनता के सामने जाने में हिचक किस बात की थी !

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