मंगलवार, 29 जुलाई 2014

धर्म को व्यापार बनने से रोकना होगा और मिलजुलकर बंद करनी होगी धार्मिक धोखा धड़ी !

     भ्रष्टाचार एवं सभी प्रकार के अपराध रोकने के लिए आज शास्त्रीय संतों एवं शास्त्रीय  विद्वानों की शास्त्रीय बात मानना ही एकमात्र विकल्प है ! 

    यह माना जा सकता है कि धार्मिक जगत में शास्त्रीय मान्यताओं का सम्यक पालन करने वालों की क्वालिटी में आज कमी आई है जिसका दुष्परिणाम साईं बाबा, निर्मल बाबा, आशाराम बाबा या और भी बहुत सारे   चूरन चटनी खटाई मसाला बेचने वाले बाबाओं के रूप में प्रभावी  होते दिख रहा है ।शास्त्रीय वैराग्य भावना की कमजोरी के कारण ही यह सब कुछ संभव हो पाया है उसी कारण कमजोर फसलों में खर पतवार की तरह ही उग आए हैं ऐसे लोग ! 

    कोई फसल जितनी कमजोर होती जाती है खर पतवार उतना ही अधिक उग आता है फिर किसानों  को फसल साफ करने के लिए निराई करके उसे निकालना पड़ता है तब फसल पनप पाती है अन्यथा नष्ट हो जाती है !कई बार तो खर पतवार या घास इतनी बढ़ जाती है कि केवल घास ही घास दिखाई पड़ने लगती है फसल छिप जाती है उसी प्रकार आज धर्म की स्थिति है पाखंड ही पाखंड दिखाई पड़ने लगा है धर्म छिपा हुआ सा दिखाई पड़ने  लगा है । कई बार घास और फसल के पौधों में ये निर्णय करना कठिन हो जाता है कि फसल आखिर है कौन !किन्तु चतुर किसानों को फसल के पौधों की पहचान होने के कारण घास फूस को आराम से उखाड़ कर फ़ेंक देते हैं और फसल को बचा लेते हैं जैसे आज शास्त्रीय धार्मिक समाज को साईंयों के साथ करना पड़ रहा है।कई बार किसान गेहूँ की फसल बोता  है किन्तु उसी गेहूँ की फसल में दस बीस पौधे चने के उग आते हैं यद्यपि चना गेहूँ से अच्छा होता है उसका मूल्य भी गेहूँ से अधिक होता है फिर भी किसान अपनी गेहूँ की फसल को सुरक्षित रखने के लिए उन चने के पौधों को निर्मोह भाव से उखाड़ कर फ़ेंक देता है और अपनी गेहूँ की फसल को बचा लेता है , अन्यथा उसमें चार चार पौधे चना ,चटरी  मटर राई जौं आदि हर फसल के उग आएँगे जरूरी तो सब हैं किन्तु यदि सब रख लिए जाएँ  तो फसल चौपट हो जाएगी इसलिए किसान को उस समय लक्ष्य याद रखना होता है कि हमने बोया क्या था अर्थात उसका लक्ष्य क्या था उसी को वो अपनी फसल मान कर जो नहीं बोया था उसे उखाड़ कर फ़ेंक देता है । ठीक इसी प्रकार से साधू बाबा बनने के बाद कुछ लोगों की रूचि सामाजिक कार्यों की ओर बढ़ जाती है जैसे चंदा इकठ्ठा करके गरीब कन्याओं की शादी कराने लगते हैं ,स्कूल बनवाते हैं अस्पताल बनवाते हैं राजनीति करते हैं ,ज्योतिष बताते हैं दवा दारू बनाते बेचते हैं निस्संदेह बाबा जी सस्ती और अच्छी क्वालिटी की दवाएँ बेचते होंगे किन्तु उनके वैराग्य का लक्ष्य ये सब करना तो नहीं था अतः इन कार्यों को उनके वैराग्य धर्म के विरुद्ध माना जाएगा !इसलिए जैसे किसान अपनी गेहूँ फसल में उग आए दूसरी फसलों के अच्छे पौधों से भी मोह नहीं करता है ठीक इसी प्रकार से जो वैराग्य का लक्ष्य लेकर वैराग्य पथ पर आगे बढ़ चुके हों उन्हें फिर भटकना शोभा नहीं देता है वो बहुत अच्छा काम ही क्यों न हो !अन्यथा उन माँग मूँग कर लाए हुए पैसों से वो जन सेवा का काम तो अच्छा चला लेते हैं किन्तु उनके वैराग्य की भद्द पिट जाती है जो उनके जीवन का मुख्य लक्ष्य होता है उससे भटक जाने के कारण समाज में वैराग्य से पतित हो जाने का जो सन्देश जाता है वो बहुतों को पथ भ्रष्ट कर देता है जैसा कि आज हो रहा है ।

    साधु वेष धारी समाज सेवा कर्मचारियों को साधू संन्यासी मान लेने से संन्यास सूना हो रहा है। अब वहाँ भी तपस्या की जगह पैसे ने ले ली है पहले तपस्या से लोग बड़े साधू संत माने जाते थे अब पैसे से किन्तु वैराग्य में पैसे का प्रयोग कभी सफल नहीं रहा है इसलिए तपस्या को ही वहाँ लाना पड़ेगा !बाक़ी जीवन चलाने के लिए जितना जरूरी है उतना तो करना पड़ेगा ।

    वैराग्य के शास्त्रीय नियम संयमों के पालन की क्वालिटी घट  जाने से आज भिखारियों ने भी लाल कपड़े पहनने प्रारम्भ कर दिए हैं !पहले वो हाथ फैलाकर माँगते थे तो आँखों में शर्म झलकती थी किन्तु अब  लाल कपड़े पहनने के कारण आज वो हाथ उठाकर आशीर्वाद देते हुए माँगते हैं इसलिए केवल वस्त्र और वेष भूषा को ही संन्यास या वैराग्य मान लेना ठीक नहीं होगा जब तक वैराग्य के शास्त्रीय संविधान का पालन न हो । वैराग्य की केवल वेष  भूषा पर आस्था के कारण ही सीता जी को संकट का सामना करना पड़ा था !

    आज अपनी अपनी सुख सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए शास्त्रीय विधान को ताख पर रखकर जो लोग स्वनिर्मित नियमानुशार वैराग्य के आचार व्यवहार चला रहे हैं इसी ढिलाई के कारण आज बहुत लोग वैरागी बनने लगे हैं।  न जाने क्यों कुछ लोग वैराग्य का प्रयोग आज धंधे की तरह करने लगे हैं लोगों को इसके अलावा कोई दूसरा इतना आसान धंधा आज सूट  ही नहीं कर रहा है !कई बाबा लोग तो पहले दो कौड़ी के आदमी नहीं थे किन्तु संन्यासियों के जैसा वेष क्या बनाया आज बड़े बड़े उद्योगपतियों को उन्होंने धंधे व्यापार में फेल कर रखा है राजनैतिक गलियारों में उनकी तूती बोलती है, यह सब आधुनिक संन्यास का ही कमाल है । इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि आज बनावटी मण्डलेश्वर ,महामंडलेश्वर ,महंत श्री महंत आदि जबरदस्ती बन जाने पर लोग अमादा हैं, बहुत लोग तो जगद्गुरु तक बनने की फिराक में बैठे हैं ! पैसे के बल पर बहुत लोग  ऐसी बड़ी बड़ी पद प्रतिष्ठाएँ पहले भी पा चुके हैं !एक सिंहासन खरीद लाए जगद्गुरु बन गए। वैसे भी डिस्काउंट का सीजन चल रहा हो तो शॉपिंग कौन नहीं कर लेना चाहेगा !इसलिए समस्त धार्मिक वातावरण को शास्त्रीय परिधि में रखकर एक बार फिर से सुसज्जित करना होगा ।  

       धीरे धीरे वास्तविक शास्त्रीय संन्यास के तो दर्शन भी दुर्लभ होते जा रहे हैं और जो महापुरुष अभी भी शास्त्रीय संन्यास की मर्यादाएँ सँभाले भी हुए हैं उनका सहारा कब तक का है? क्योंकि नई पीढ़ी के संन्यासियों का एक बड़ा भाग तो संन्यास को भोगने के लिए संन्यासी होना चाहता है क्या ये मानसिकता ठीक है? क्या इसे समय और युग का प्रभाव मानकर सह जाना चाहिए ?क्या अब वो समय आ गया है जिसके विषय में मैंने कहीं पढ़ा था कि कलियुग में वास्तविक संन्यासियों के दर्शन दुर्लभ हो जाएँगे ,बाकी संन्यास के नाम पर केवल डालडा ही पुजेगा!यथा -

   गीता पुस्तक हाथ साथ विधवा माला विशाला गले । 

  गोपी चन्दन चर्चितं सुललितं भाले च वक्षस्थले ॥ 

वैरागी पटवा कुम्हार नटवा कोरीधुन धीमरो । 

हा !संन्यास कुतो गतः कलियुगे वार्तापि न श्रूयते ॥

  -कलियुग से प्रभावित लोग मन से संन्यास न लेकर अपितु केवल तन से संन्यासी होने लगेंगे !वो पहचान के नाम पर हाथ में गीता  की पुस्तक ले लेंगे, साथ में एक सेविका रख लेंगे, गले में लम्बी लम्बी मालाएँ  पहन लेंगे, मस्तक और छाती पर खूब चन्दन की लीपापोती कर लेंगे इस प्रकार से सभी जातियों के लोग वैरागी हो जाएँगे !वास्तविक शास्त्रीय संन्यास पद्धति का पालन करने वाले दिव्य पुरुषों  के दर्शन तो दुर्लभ हो ही जाएँगे साथ ही कलियुग में शास्त्रीय संन्यास पद्धति की चर्चा करने वाले भी नहीं मिलेंगे !

 

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