बुधवार, 30 जुलाई 2014

फिल्में नाटक होती हैं इन्हें नाटक ही रहने दिया जाता तो अच्छा होता !

     वास्तविक जीवन में फिल्मों की नक़ल करने से अविश्वसनीय होते जा रहें हैं सारे सम्बन्ध चारों ओर अपराध बलात्कार आदि से हाहाकार बारे प्यार !

       फ़िल्में देख देखकर लोग करना चाह रहे हैं प्यार हो जाते हैं बलात्कार जनता में मचता है हाहाकार ,पुलिस कहाँ तक समेटती फिरै प्यार और कहाँ तक सँभालै परिवार !कानून व्यवस्था के नाम पर कहाँ तक गाली खाए सरकार ?

     फिल्मी लोगों को आदर्श मानकर चलने वाले लोग फिल्में देखकर वेष  भूषा बनाने के शौकीन होते हैं वो अपने को भी अपनी अपनी रूचि के अनुशार फिल्मी पात्रों के अनुशार बनाने  लगते जिसे हीरो पसंद है वो हीरो की तरह रहना पसंद कर देता है जिसे विलेन पसंद है वो विलेन की तरह इसी प्रकार से लड़कियाँ और महिलाएँ भी अपने को बना लेती हैं फिल्मों के अनुरूप लड़के लड़कियाँ स्त्री पुरुष आदि उन्हीं की तरह के वस्त्र पहिनना चाहते हैं वैसे ही रहना चाहते हैं वैसे ही नाक मुख मटकाकर कंधे उछाल उछाल कर बातें करते हैं सबकुछ बिलकुल फिल्मी स्टाईल में जीवन जीना चाहते हैं और बड़ी बात ये है कि वो ये पसंद भी करते हैं कि उन्हें उन उन फिल्मी पात्रों के नामों से पुकारा जाए इसीलिए वो लोग वैसे ही आधे चौथाई कपड़े भी पहनते हैं ।

       फिल्मों में और कुछ हो न हो किन्तु वो पात्रों की वेष भूषा का ध्यान इतना अधिक रखते हैं कि जिस पात्र को जितना नंगा कर पाते हैं उसमें कोई कसर नहीं छोड़ते हैं उसे परत दर परत नंगा कर कर के फोटो खींचते जाते हैं चूँकि उसे बुरा न लगे इसलिए उन नग्न चित्रों के हाईटेक नाम रखते जाते हैं जैसे बोल्डसीन ,सेक्सीसीन सुपर सेक्सी सीन आदि आदि और भी बहुत कुछ ऐसे ही नाम रखते जाते हैं और दृश्य बनाते जाते हैं क्योंकि दरअसल कहानी तो उनके लिए बहाना होता है दरअसल दिखाना तो उन्हें कुछ और ही होता है वस्तुतः उन्हें वो दिखाना होता है जो देखने को और कहीं न मिल पाता हो जैसे ऐसे अंगों को दिखाना जिन्हें आम समाज में सामाजिक या सार्वजनिक तौर पर देखना दिखाना लोग गलत मानते हों, चूमना चाटना गलत मानते हों, उन्हें फिल्मों की कहानी की माँग के नाम में धड़ल्ले से दिखाया जा सकता है क्योंकि वहाँ जिसे दिखाना है वो तो दिखा दिखू कर उसका पेमेंट लेगा चला जाएगा किन्तु भोगना तो उसे पड़ेगा जो समाज में वैसा कुछ दिखाता घूमेगा क्योंकि उसके पास उस तरह की न तो सिक्योरिटी होती है और न ही वैसे साधन !जो फिल्मों में दिखाकर चले जाते हैं उनकी भी हिम्मत हो तो खुले समाज में बिना सिक्योरिटी के घूमकर दिखाएँ !

       फिल्मों में किसी से प्यार कहीं पर बलात्कार किसी को धोखा किसी से विवाह और किसी से तलाक यही तो फिल्में हैं इन्हीं बातों के चारों ओर घूमती हैं फिल्मों की कहानियाँ !फिल्मों में भी फिल्मी पात्रों के आधे अधूरे कपड़े,अश्लील हाव भाव एवं प्यार के नाम पर हेती व्यवहारी नाते रिश्तेदारी एवं घर परिवार पड़ोस आदि की लड़कियों के साथ इश्क लड़ाया जाता है यदि असफल हुए तो या तो मन मारकर बैठ जाते हैं और या फिर बलात्कार करते हैं बलात्कार के बाद समस्या पहचान छिपाने की होती है यदि पहचान छिप गई तो ठीक है अन्यथा हत्या कर देते हैं कई बार तो पहचान मिटाने के लिए बड़े निर्मम ढंग से हत्या कर देते हैं !फिल्मों में भिन्न प्रकरणों में यह सब  कुछ दिखाया जाता है ।

     इसके बाद यह भी दिखाया जाता है कि लड़की के घर खानदान वाले उसके माता पिता भाई आदि लोग यह कभी नहीं चाहते हैं कि उनकी बहन बेटी के साथ कोई प्रेम प्यार की हरकत करे,फिर वो बलात्कार जैसी घटना कैसे सह सकते हैं फिर उसकी हत्या उसके बाद जघन्य ह्त्या जैसी परिस्थिति सह जाने की उम्मीद ही उनसे कैसे की जा सकती है जहाँ तक कानून की बात है भारतीय कानून को पालन करने करवाने वालों से समाज संतुष्ट नहीं है न केवल इतना अपितु दिनोंदिन समाज का विश्वास कानून से उठता जा रहा है इसलिए वो लोग ऐसे प्रेमियों को कितनी भी बड़ी सजा दे देने का फैसला स्वयं कर लेते हैं और मरने मार डालने को तैयार हो जाते हैं कई बार मार भी डालते हैं कई बार बड़ी निर्ममता पूर्वक मार डालते हैं !

     इन बातों का कारण लड़की के घर खानदान वाले अपनी बच्ची को अपनी इज्जत सम्मान प्रतिष्ठा का विषय अनंत काल से बनाए हुए हैं इसलिए उसे अपने घर से अपनी इच्छानुशार सम्मानपूर्वक विदा करना चाहते हैं क्योंकि बेटी किसी के प्राणों का प्राण एवं जीवन धन होती है बेटी के ससुराल के अनुशार उसके माता पिता की प्रतिष्ठा आँकी जाती है क्योंकि लड़की से ही माता पिता की प्रतिष्ठा होती है। 

        पुरानी मर्यादाओं में घर की महिलाओं के  सम्मान प्रतिष्ठा आदि का बहुत महत्त्व होता था यही कारण है कि लोग किसी को नीचा दिखाने के लिए उसके घर की महिलाओं पर ही बुरी दृष्टि डालते थे उन्हीं का अपहरण करते थे यहाँ तक कि गालियाँ भी लोग महिलाओं से जुड़ी ही देते हैं । जो समाज माँ बहन बेटियों के संकेतों वाली गालियाँ तक बर्दाश्त नहीं कर पाता है वो प्रेम प्यार के नाम  पर उन गालियों की हकीकत को कैसे सह लेगा !इसीलिए लड़ाई झगड़े हो जाते हैं कई बार बात बहुत आगे भी बढ़ जाती हैं बातें, आखिर कोई अपने घर की महिलाओं के सम्मान के लिए इतना समर्पित हो तो इसमें बुराई भी क्या है ?

     मेरे प्यारे भारतीय भाई बहनो !हम इस बात की सच्चाई समझने समझाने की कोशिश में सफल क्यों नहीं हो पा रहे हैं कि फिल्मों में ये सब नाटक होता है वहाँ  प्रेम भी नाटक है बलात्कार भी नाटक है और हत्या भी नाटक है निर्मम हत्या भी नाटक है और लड़की के घर  खान दान वालों के द्वारा बदले में की गई हत्याएँ भी नाटक होती हैं !  

    किन्तु इनके दुष्परिणाम सामने तब आने लगते हैं जब ऐसे नाटक वास्तविक जीवन में खेले जाने लगते हैं जहाँ प्रेम भी हकीकत होता है बलात्कार भी हकीकत होता है और हत्या भी हकीकत होती है इसके बाद लड़की के घर खान दान वालों के द्वारा की गई बदले की कार्यवाही भी हकीकत होती है। जिसकी शुरुआत प्यार के द्वारा होती है 

    जब ऐसी फिल्मों को आदर्श मानकर समाज फिल्मों जैसा ही आचरण वास्तविक जीवन में होने लगता है तो वहाँ सब कुछ वास्तविक होने लगता है वहाँ यदि प्रेम वास्तविक होता है तो बलात्कार और हत्याएँ भी वास्तविक ही होती हैं ।

      फिल्मी आचरण की नक़ल करने पर वैसे ही आधे चौथाई कपड़े पहनने होते हैं और मनुष्यों के संस्कारित समाज ने जिन अंगों को सार्वजनिक रूप से छिपाकर रखने की मर्यादाएँ बना रखी हैं उन्हें फिल्मों में चूँकि छिपा छिपा कर दिखाया  जाता है इसीलिए समाज के प्रचलन में भी ऐसा होने लगा जिसका अर्थ लोग निकालने लगे कि ये दिखाना तो चाहते हैं किन्तु समाज को डर रहे हैं कोई बात नहीं एकांत में मिलते हैं यहाँ से मिलने का प्रयास प्रारंभ हो जाता है जिसे आधुनिक प्यार कहते हैं !ऐसे लोग एक गलत फहमी में हमेंशा रहते हैं कि जो दिखता है वो बिकता है यदि बिकना न होता तो दिखाते ही क्यों ? क्योंकि हम लोग कपड़े उतारकर रहने वाली प्रजाति तो हैं नहीं जो मान लिया जाए कि भाई ये लोग रहते ही ऐसे होंगे जो लोग फिल्मों की तरह के लफड़े में नहीं पड़ना चाहते हैं वो फिल्मों के जैसे  रहन सहन या पोशाक धारण के झमेले में ही नहीं पड़ते अर्थात अपनी पारंपरिक पोशाक पहनते  हैं उनसे  इन  मनचलों को चूँकि कोई आशा ही नहीं होती है इसलिए उन पर ये हाथ कम डालते हैं । फिल्मी पोशाकें पहनने वाले एवं उसी प्रकार के हाव भाव रखने वाले लड़के लड़कियों को एक दूसरे से फ़िल्मी आचरण की अपेक्षा हमेंशा रहती है उसी में वो प्रेम से लेकर बलात्कार से हत्या तक की सारी यात्रा पूरी कर लेना चाहते हैं और कर भी रहे हैं !

     मेरे कहने का आशय है कि ऐसे प्रेमालाप को प्रतिबंधित क्यों नहीं कर दिया जाता है और ऐसी फिल्मों पर रोक क्यों नहीं लगा दी जाती है जिसके साइड इफेक्ट इतनी बुरी तरह से सामने आने लगे हों - देखिए मुजफ्फर नगर के दंगों की शुरुआत कहाँ से हुई (इंटरनेट से उठाई हुई सामग्री के अनुशार )

      "हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के बीच २७ अगस्त २०१३ से प्रारंभ हुई। कवाल गाँव में एक हिन्दू जाट समुदाय लड़की के साथ एक मुस्लिम युवक की छेड़खानी के साथ यह मामला शुरू हुआ।[7] उसके बाद लड़की के परिवार के दो ममेरे भाइयों गौरव और सचिन ने छेड़खानी करने वाले युवक को मार डाला। उसके बाद मुस्लिम दंगाइयों ने दोनों ममेरे भाइयों को मार डाला। फिर पुलिस ने लड़की के परिवार के ११ लोगो को गिरफ्तार कर लिया। " 

       एक जगह और सुना कोई लड़का अपनी प्रेमिका को भगा कर ले गया तो उस लड़के की बहन जो  IAS की तयारी कर रही थी लोग उसे उठाकर ले गए उसके साथ गैंग रेप किया क्या गलती थी उस बेचारी की ?

        अभी अभी कहीं की घटना है किसी व्यक्ति ने किसी लड़की से संसर्ग किया तो लड़की के घरवालों ने उसका लिंग छेदन कर डाला !

     मेरा फिर एक बार निवेदन है कि भारतीय समाज इस प्रकार की प्रेमालाप को पचा नहीं पा रहा है इसलिए इस पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए !  

 

       


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