मंगलवार, 9 सितंबर 2014

मित्रता से मूत्रता की ओर बढ़ता सामाजिक वातावरण !


   पवित्र प्रेम परमात्मा का  स्वरूप  होता है किन्तु जो मित्रता की ही मूत्रता के लिए जाए  उसे पवित्र कैसे कहें और यदि मूत्रता विहीन प्यार करना हो तो ऐसा पवित्र प्यार अपने परिवार के सदस्यों से भी तो किया जा सकता है इसे पवित्र प्यार कैसे कहा जाए जो स्वजनों से छिपकर केवल परायों से किया जा सकता हो और कोई लड़का किसी लड़की से और कोई लड़की  किसी लड़के  से ही कर सकता हो बाक़ी कोई प्यार के काबिल ही नहीं हैं ऐसे लोगों की निगाहों में अपने माता पिता भाई बहन आदि स्वजनों के लिए क्यों नहीं उमड़ता है इतना प्यार ?
     मित्रता में मूत्रता बाधक है जिसका लक्ष्य मूत्रता ही हो तो मित्रता का नाटक करके सामाजिक वातावरण को प्रदूषित क्यों करना सीधे विवाह क्यों नहीं करना !

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