सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

" ईद वालों से शांति सद्भाव की क्या उम्मींद !"



बेजुबान जीवों के बध को कुर्बानी कैसे कह दें।
हिंसा मुक्त संस्कृति मेरी कैसे बदनामी सह लें ॥
 जिस दिन निरपराध पशुओं का होता हो भीषण संहार।
कहो बंधुओ !कैसे कह दें उस दारुण दिन को त्यौहार ॥
बकड़े बेबश खड़े कट रहे शोणित के फूटे फब्बार ।
 रक्त रंजिता धरती माता शिर और खालों के अम्बार॥
 ऐसा दुर्दिन दीख रहा जब जीवों में हो हाहाकार ।
हत्या दिन को कैसे  मानें भाई चारे का त्यौहार ॥
 अमन चैन का दिन  कह करके  कैसे इन्हें बधाई दूँ ।
बकड़े कोसेंगे मरकर क्यों उनसे ब्यर्थ बुराई लूँ ॥
जिनकी पर्व प्रथा हो ऐसी उनसे शांति की उम्मींद!
तब तक कैसे की जा सकती जब तक है ऐसी बकरीद ?

कोई टिप्पणी नहीं: