शुक्रवार, 4 सितंबर 2015

जैसी शिक्षा वैसे संस्कार ! आज हत्या लूट बलात्कार जैसे अपराधों की ओर भटकते बच्चों के लिए जिम्मेदार कौन ?

 शिक्षक और शिक्षा यदि ठीक ही होते तो क्यों बिगड़ते बच्चों के संस्कार ?
    आज हत्या लूट बलात्कार आदि अपराधों की ओर भटकते बच्चे संस्कारों के  अभाव में ही तो दिख रहे  हैं अन्यथा वो बच्चे भी तो बहुत भले रहे होंगे कितना प्यारा बीता होगा उनका बचपन !किंतु जो संस्कार देना शिक्षकों का काम था वहाँ लापरवाही हो गई वे नहीं कर सके अपना  कर्तव्यपालन ! फिरभी  'शिक्षकदिवस' पर हमारी ओर से उन्हें भी बधाई !
  जिन शिक्षकों ने अपने विषय को खुद भी पढ़ा हो और उन्हें पढ़ाना भी आता हो और वो पढ़ाते भी हों और उन्होंने बच्चों का भविष्य सँवारने सुधारने का वास्तव में प्रयास किया हो एवं जिन्हें अपने विद्यार्थियों को दिए गए अपने संस्कारों पर गर्व हो ऐसे शिक्षाव्रतियों को 'शिक्षकदिवस' पर बहुत बहुत बधाई !
    जैसी शिक्षा वैसे संस्कार ! आज हत्या लूट बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों की ओर बच्चों के भटकाव के लिए जिम्मेदार  आखिर है कौन ?
    शिक्षक महान तो होते ही हैं किंतु उन्होंने यदि अपने दायित्व का निर्वाह ठीक से किया होता तो देश में  आज संस्कारों का टोटा क्यों पड़ता ! 
     शिक्षा से संस्कार मिलते हैं किंतु जब शिक्षा ही संकट में हो  तो  संस्कारों की आशा किससे की जाए ? 
    विद्यादान करने वाले महापुरुषों  को 'गुरु' कहा जाता है और गुरुओं के पूजन के दिन को 'गुरुपूर्णिमा' कहा जाता है इस प्रक्रिया में शिक्षा के साथ साथ तपस्या जुड़ी थी उससे आते थे संस्कार !जिन संस्कारों से बुना जाता था जीवन ,किंतु अब विद्या का स्थान तो शिक्षा ने ले लिया और गुरुओं के स्थान पर शिक्षक फिट किए गए और गुरु पूर्णिमा की जगह मनाया जाने लगा 'शिक्षक दिवस' । इसलिए वर्तमान शिक्षानीति संपत्तिवान  तो बना सकती है किंतु संस्कारवान  नहीं और संस्कारों के अभाव में होते हैं सारे अपराध !यदि ऐसा न होता तो कई बार आधुनिक शिक्षा से अच्छे खासे शिक्षित लोग भी अपराधों में सम्मिलित पाए जाते हैं क्योंकि हमारी शिक्षा और शिक्षकों का ध्यान ही संस्कारों की ओर नहीं है मजे की बात तो ये है कि कुछ लोग शिक्षकों को ही 'गुरू' भी कहने लगे तो शिक्षक लोग भी अपने को  'गुरू' मानने लगे !गई रिसर्च गाईड भी अपने को 'गुरू' कहने लगते हैं किंतु 'गुरुओं' का दायित्व कितना बड़ा है क्या वो निर्वाह कर पा रहे हैं कभी अपनी आत्मा में झाँक कर देखें तब पता चलेगा कि कितना धोखा दे रहे हैं अपने बच्चों को और क्यों कर रहे हैं उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ !और जो लोग ऐसा नहीं करते हैं वो हैं वास्तविक 'गुरु'
    लापरवाह शिक्षकों को आखिर क्यों नहीं सोचना चाहिए कि यदि इन बच्चों का भविष्य बिगड़ेगा तो इसके लिए दोषी तो मात्र कुछ शिक्षक होंगे किंतु भुगतेगा सारा समाज !शिक्षकों की लापरवाही से यदि बच्चों के संस्कार बिगड़े और ये  लुटेरे बने तो किसे लूटेंगे ?यदि ये हत्यारे बने तो किसकी हत्या करेंगे और यदि ये बलात्कारी बने तो किसे तंग करेंगे !इन बातों के जवाब खोजने होंगे और किसी को जिम्मेदार तो मानना होगा ! 
    जैसे किसी की सफलता में किसी चरित्रवान योग्य गुरू की तपस्या लगी होती है किसी गुरू ने उसका भविष्य बनाने के लिए अपने को मिटाया होता है तब वो गर्व से कह सकता है कि हमारा बच्चा कुसंस्कारी नहीं हो सकता लुटेरा नहीं हो सकता वो बलात्कार नहीं कर सकता है !किन्तु इतनी बड़ी बात तो शिक्षक तभी कह सकता है जब उसने अपने विद्यार्थी के जीवन को बुना हो किंतु जो ऐसा नहीं करते वो खेल रहे हैं बच्चों के भविष्य के साथ !
     वर्तमान समय में ऐसा कोई दिन नहीं बीतता जिस दिन देश में हत्या लूट बलात्कार आदि की घटनाएँ न होती हों !ऐसी वारदातों को अंजाम देने वाले अपराधी भी अक्सर शिक्षित होते हैं किंतु उनके संस्कारों में प्रदूषण होने के कारण ही तो वे अपराधों की ओर मुड़े !इसलिए ऐसे बच्चों के संस्कार बिगड़ने के लिए दोषी यदि शिक्षकों को न माना जाए तो किसे माना जाए ! क्योंकि समाज में संस्कारों के सृजन का श्रेय यदि उन्हें मिलता है तो संस्कारों के संहार में भी उन्हीं के आचार व्यवहार को जिम्मेदार माना जाना चाहिए !
       शिक्षा शिक्षकों से मिलती है और  शिक्षा से मिलते हैं संस्कार !फिर भी यदि आज बच्चों के  संस्कार बिगड़ रहे हैं  तो दोषी किसी माना जाए ?बच्चों को या उनके शिक्षकों को ?आखिर उनके पढ़ाए हुए छात्रों में अपराध के संस्कार कहाँ से आए इतना आत्म मंथन तो उन्हें भी करना चाहिए !आखिर उनके दिए हुए संस्कार इतने कमजोर क्यों थे कि वो बच्चे के जीवन को सँभाल का नहीं रख सके !शिक्षकों से मेरी ये अपेक्षा इसलिए गलत नहीं हैं क्योंकि शिक्षकों के बचनों को विद्यार्थी पत्थर की लकीर की तरह सारे जीवन मानते हैं फिर बच्चों के भटकाव के लिए जिम्मेदार कौन ? 
    सरकारी  विद्यालयों के कुछ अध्यापक तो हमेंशा अभाव का  ही रोना रोते रहते हैं कभी अपनी कमियाँ स्वीकार ही नहीं करते है कि वो इतने लापरवाह क्यों हैं कि बच्चों के भविष्य के साथ क्यों खेलते हैं इतनी निर्ममता पूर्वक !पहले भारतीय गुरुकुलों में पहले बिना कम संसाधनों के ही उत्तम पढ़ाई होती थी चूँकि तब पढ़ाने वाले गुरुजन चरित्रवान,  ईमानदार  एवं कर्तव्यनिष्ठ   हुआ करते थे उनमें नैतिकता जिन्दा थी वो लोग बिना परिश्रम से प्राप्त हुए धन से अपने परिवार का पोषण करना भी पसंद नहीं करते थे उनमें अपने स्कूल के बच्चे को कुछ बनता हुआ देखने की ललक थी वो लोग अपने जीवन में कुछ मानक या आदर्श चरित्र स्थापित किया करते थे जिसका  आज दिनों दिन अभाव होता जा रहा है।वो लोग झूठ बोलने से डरते थे उस युग के स्कूलों में बोरों फट्टों पर बैठाकर शिक्षा देने वाले लोगों ने भी इतिहास रचा है और आज ...! आज तो अधिकांश सरकारी या निगम स्कूलों के शिक्षक इतने फर्राटे से झूठ बोलते हैं कि कोई शराबी शराब पीकर इतने फर्राटे से गालियाँ नहीं दे सकता ! जो शिक्षक शिक्षिकाएं मार्केट  जाते हैं वे मीटिंग में गए  बताए  जाते हैं जिन्हें जुकाम होता है उन्हें बुखार बताया जाता है जो स्कूल में केवल साइन करके चले जाते हैं उन्हें अभी अभी  गए हैं बताया जाता है जिसके जिले में कोई दूर दराज में डेथ हो जाती है वहाँ रिलेटिव की  मौत बताकर छुट्टी ले ली जाती है भले उसके यहाँ जाएं न !जब कोई थोडा पढ़ा लिखा समझदार सा व्यक्ति पहुँच जाता है तो सब मिलकर अभावों का रोना रोने लगते हैं चुनावों में ड्यूटी लग जाती है सर्वे में जाना पड़ता है आदि आदि ! इन झूठों के पास हजारों बहाने होते हैं यहाँ ये नहीं है वो नहीं है कोई ध्यान ही नहीं देता है किससे  कहें आदि आदि !इनसे कौन पूछे कि खाली समय में कितना पढ़ा देते हो!रही बात अपने स्कूलों की उपेक्षा की तो मैं जानना चाहता हूँ कि हो सकता है किसी विद्यालय में शिक्षा के साधन सौ प्रतिशत ठीक न हों किन्तु यदि साठ  प्रतिशत भी ठीक हों तो उनका उपयोग शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति  में क्यों नहीं किया जाना चाहिए! आखिर उस साठ प्रतिशत धन को बर्बाद करने की अपेक्षा उसका सदुपयोग क्यों न किया जाए?सरकारी शिक्षा के क्षेत्र में बहुमत चूँकि भ्रष्ट मानसिकता वाले लोगों  का है इसलिए जो लोग ईमानदारी से पढ़ाना भी चाहते हैं वे भी न केवल पढ़ा नहीं पाते हैं अपितु बदनाम भी होते रहते हैं !
     एक विद्यालय में तो मैंने यहाँ तक देखा कि एक युवती शिक्षिका अपना क्लास छोड़कर बाहर एकांत बरामदे में पैंतीस मिनट तक मोबाइल पर बात कर रही थीं मैं खड़ा देखता रहा जब वो क्लास में गई तब मैं अपरिचित की तरह उनसे जाकर मिला और अपने बच्चे के एडमीशन की बात की तो उन्होंने हमें धोती कुरता पहने देखकर बहुत धिक्कारा कि आप क्या करते हो पंडित जी हो क्या? मैंने कहा हाँ!तो वो कहने लगीं कि कुछ कमाते धमाते नहीं हो क्या हमने कहा क्यों? कहने लगीं कि वोह लड़कियाँ हैं इसलिए पढ़ाना चाह रहे हो हमारे यहाँ अन्यथा लड़के को सरकारी स्कूल में नहीं पढाते! हमने कहा क्यों ?तो कहने लगीं कि सबको पता है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती है फिर भी आप यहाँ लिए घूम रहे हो कोई बात नहीं एडमीशन हो जाएगा और मैं पास भी कर दूँगी किन्तु पढ़ने पढ़ाने  की शिकायत लेकर यहाँ कभी मत आना क्योंकि साफ सी बात है मैं पढ़ा नहीं पाऊँगी!मैंने कहा क्यों तो कहने लगीं यहाँ कोई नहीं पढ़ाता है इसीलिए ! हम लोग भी तो अपने बच्चे प्राइवेट स्कूलों में ही पढ़ाते हैं ये कहकर वे कक्षा में चली गईं ! मैं वहाँ से चला तो गार्ड मिला उससे पता लगा कि ये लोग रोज ही फुल टाइम फोन पर ही लगी रहती हैं या मार्किट करने चली जाती हैं ये तो किसी प्रेमी के चक्कर में पड़ी हैं आदि आदि कई के विषय में और भी बहुत कुछ !गेट पर खड़े चपरासी ने बताया कि भैया यहाँ क्यों बर्बाद करना चाहते हो अपने बच्चों का जीवन यहाँ कोई शिक्षक  शिक्षिका अपनी कक्षा में जाना ही नहीं चाहता रोज का खेल यही है कभी कोई अधिकारी भी नहीं आता कि उसी का कोई भय हो! 
    बंधुओ! इस प्रकार से शिक्षा के क्षेत्र में सुधारों के उद्देश्य से  दिल्ली के सैकड़ों स्कूलों में न केवल गया अपितु उसका बारीकी से अध्ययन किया किन्तु लगभग शिक्षकों को शिक्षा के लिए रोते धोते ही देखा किन्तु किसी ने कारण बताने की जरूरत नहीं समझी । इस विषय में मैंने शिक्षा विभाग से सम्बंधित हर विभाग को एवं मंत्रालयों को पत्र लिखकर भेजे  न्यूज़ चैनलों  को  न्यूज़ पेपरों  को लिख लिख कर  कई बार भेजा ,बड़े बड़े गैर सरकारी संगठनों से भी इस विषय में मदद मांगी किन्तु कोई आगे नहीं आया। दिल्ली नगर निगम में भाजपा है ही वहाँ संघ के संस्कार कुछ तो दिखाई ही देंगे ऐसा सोचकर निगम स्कूलों में चक्कर लगाने प्रारम्भ किए किन्तु वहाँ भी वही स्थिति दिखी!     
      आज कल सैलरी उड़ाते है सरकारी शिक्षक और  मेहनत करते हैं प्राइवेट शिक्षक!पचासों हजार रुपए महीने की सैलरी पाने वाले सरकारी अनेकों शिक्षकों की अपेक्षा पाँच हजार रुपए महीना पाने वाला प्राइवेट स्कूल का एक शिक्षक इतना अधिक काम कर लेता है क्यों? 
     वह इतना अधिक विश्वसनीय भी होता है कि सरकारी कर्मचारी भी अपने बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाते हैं यहाँ तक कि सरकारी स्कूलों के शिक्षक भी अपने बच्चे प्राइवेट स्कूलों में ही पढ़ाते हैं। 
     इसका सीधा सा मतलब यह हुआ कम से कम सरकारी पाँच शिक्षकों के काम से अच्छा काम प्राइवेट स्कूल का एक शिक्षक कर लेता है। 
    अर्थात ढाई लाख रुपया रूपया महीना खर्च करके भी सरकार जो काम नहीं करवा पाती है वो काम गैर सरकारी शिक्षक पाँच हजार रुपए में उससे अधिक अच्छा कर दिखाता है। 
    फिर भी सरकारी शिक्षक हड़ताल किया करते हैं और उनकी माँगें मान मान कर सरकारें उन्हें बार मनाती क्यों रहती है? उनकी छुट्टी करके प्राइवेट स्कूलों के शिक्षक रखकर उससे सस्ते में उससे अच्छा एवं उससे अधिक विश्वसनीय कार्य क्यों नहीं करवा लेती हैं?

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