बुधवार, 14 अक्तूबर 2015

साहित्य

हमारी दृष्टि हमारी इन्द्रियों में सबसे अधिक पूर्ण और आनन्ददायिनी है। चित्त को अधिकांश प्रकार के भावों से यह पूर्ण करती है, दूर से दूर की वस्तुओं से बातचीत करती है और अपने नियत आनन्द के अनुभव से बिना थके और संतुष्ट हुए सबसे अधिक काल तक अपनी क्रिया में तत्पर रहती है। इसमें संदेह चित्त को अधिकांश प्रकार के भावों से



  साहित्य संपन्न ह्रदय की उपज होती है संकीर्ण लोगों के बैश का कहाँ होता है साहित्य 
साहित्य समाज का दर्पण है साहित्य कल्पना प्रसूत होने के बाद भी उसमें ज्ञान सम्बन्धी विचार स्थिर रहते हैं ग्रंथकार अपने हृदयस्थित नमूने को सामने रखकर काम करते थे और ऐसे ऐसे शब्दों को निकालने के लिए यत्न और परिश्रम करते थे जिनसे वह ठीक ठीक उतारा जा सके। चित्रकारी, शिल्पविद्या और संगीत के विषय में पाई जाती है वही साहित्य-रचना में भी चारितार्थ क्यों न हो? भाषा क्यों न उसी प्रकार उपयोग में लाई जाय जैसे बढ़ई की लकड़ी? शब्द क्यों न उसी प्रकार काम में लाये जायँ जैसे रंग?चित्रकार या शिल्पकार की ओर देखिए। जिस वस्तु को उसे प्रगट करना होता है उसकी वह पहले अपने चित्त में कल्पना कर लेता है।कृत्रिमता वा भाव-रंकता नहीं पाई जाती। 

अपनी साधारण कल्पनाओं को भी उपजाऊ बनाता है। उनमें से नए नए अंकुर निकालता है, और अपने पदों की गति को बढ़ाता हुआ तथा अपनी वाग्वीणा के प्रत्येक स्वरों को खींचकर एक करता हुआ अपनी शक्ति और पूर्णता का अनुभव कराता है। एक तीव्र  

कल्पना अथवा विचार एक प्रकार की धारा है जो वाणी के द्वारा वेग के साथ बह निकलती है। 'कल्पना' और 'विचार' उसके अन्त:करण के निवासी हैं
चित्त का भाव किसी कागज पर प्रकट करना ही तो साहित्य होता है  

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