शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

साहित्यकारों का पुरस्कार पाना हो या लौटाना दोनों राजनीति से प्रेरित होते हैं !

 अच्छा रहा   कबीर  सूर तुलसी मीरा जैसे साहित्यकारों को नेताओं ने कोई पुरस्कार नहीं दिया इसीलिए साहित्यकार के रूप में ही आजतक ज़िंदा रह सके हैं वे लोग !बंधुओ !जिन्हें पुरस्कार नहीं मिलता ऐसे साहित्यकार क्या सम्मानित नहीं होते !
   साहित्यकार चाहे तो समाज को बदल सकता है किंतु आज सरकारें पुरस्कार देकर बदल दे रहीं हैं साहित्यकार !अपराध हो जाने पर सरकार किसी अपराधी के शरीर को उठा कर जेल में डाल सकती है फाँसी पर लटका सकती है किंतु सरकार किसी का मन नहीं बदल सकती है जबकि साहित्यकार मन भी बदल सकते हैं !ऐसे सक्षम साहित्यकार  यदि ठान लें तो बदल सकते हैं समाज और रोक सकते हैं सभी प्रकार के अपराध और बलात्कार !  
 वैज्ञानिक लोग अपने  उत्पादों के प्रति समाज को आकर्षित कर रहे हैं किंतु साहित्यकार ऐसा नहीं कर पा रहे हैं न जाने क्यों ? 
   मोबाइल और कंप्यूटर जैसे वैज्ञानिकी उत्पाद समाज की आवश्यक आवश्यकता बनते जा रहे हैं किंतु साहित्य ऐसी छाप क्यों नहीं छोड़ पा रहा है इसके लिए भी साहित्यकार क्या सरकारों को ही जिम्मेदार ठहराएँगे !
     आज जीवन मूल्यों का क्षरण क्या सरकारों की कमी से हो रहा है या परिवार बिखर रहे हैं विवाह टूट रहे हैं असहिष्णुता बढ़ रही है भाई भाई भिड़ रहे हैं पति पत्नी के आपसी संबंधों में घुटन बढ़ती जा रही है पिता पुत्र में पटरी नहीं खा रही है बुढ़ापा बोझ बनता जा रहा है इसके लिए भी सरकारें दोषी हैं क्या ? साहचर्य भाईचारा मेलमिलाप सहयोगिता आदि साहित्यभावना के प्राण हैं किंतु आज धीरे धीरे समाज से ये सारे गुण गायब होते जा रहे हैं ये साहित्यकारों की गैर जिम्मेदारी के कारण पनपे हुए सामाजिक दोष हैं।इस सच्चाई को साहित्यकार स्वीकार करें या न करें ! किंतु समाज में पनपती असहनशीलता असंतोष एवं आपराधिक वृत्तियों के लिए यदि कोई जिम्मेदार है तो वो हैं साहित्यकार !आखिर सरकारों का काम प्रवचन देना नहीं उनका काम पुरस्कार देना है सो दे दिया इसके बाद समाज में संस्कार सृजन की सारी जिम्मेदारी केवल साहित्यकारों की है !समाज को बनाए और बचाए रखने में साहित्यकारों की भूमिका सरकारों से अधिक होती है सरकारें समाज के शरीरों पर शासन करती हैं तो साहित्यकारों की सत्ता मनुष्यों के मनों पर होती है !एक सक्षम साहित्यकार अघोषित सम्राट होता है उसकी सत्ता सरकारों के प्रदत्त पुरस्कारों की मोहताज नहीं होती ! अकबर जैसे बड़े बड़े बादशाहों तक ने आपराधिक सोच पर नियंत्रण करने के लिए साहित्यकारों की अघोषित सेवाएँ लीं किंतु आज वैसे साहित्यकार क्यों नहीं दिखते जिनके अंदर इतनी क्षमता एवं गुण गौरव हो कि वे स्वयं सरकारों को सम्मानित करें इसमें साहित्यकारों का बड़प्पन निखरेगा न कि सरकारें उन्हें सम्मानित करें !आखिर ये उलटी गंगा क्यों बहाई जा रही हैं ! जो सरकारें शिक्षा के लिए अच्छा काम करें उन्हें शिक्षक सम्मानित करें या पुरस्कार दें इसी प्रकार से चिकित्सक चिकित्सा के क्षेत्र में अच्छा काम करने वाली सरकारों  को पुरस्कृत करें ऐसा ही अन्य क्षेत्रों में भी हो !
     आज साहित्यकारों की निष्प्रभावी भूमिका के कारण ही कभी भी कहीं से भी कोई अप्रिय समाचार आने की आशंका हमेंशा बनी रहती है प्रेमी प्रेमिकाओं के सम्बन्ध तो धोखा धड़ी के पर्याय बनते जा रहे हैं आज बात बात  में लोगों को गुस्सा आने लगा है सौ सौ पचास पचास रूपए पर हत्याएँ होने लगी हैं परिवारों में बिखराव बढ़ता जा रहा है समाज का आपसी विश्वास टूटता जा रहा है ।

    अपराध रोकने के लिए अपराधियों पर कठोर कार्यवाही करनी  सरकारों की जिम्मेदारी है किंतु अपराधियों के मन से अपराध भावना निकालना तो साहित्यकारों का ही काम है न कि सरकारों का !साहित्यकार अपनी जिम्मेदारी सरकारों पर डालकर  बच जाएँगे क्या कर्तव्य पालन से !
  कोई जाति समूह संप्रदाय आदि किसी के घर घुस कर उसे मार डाले अपराधियों पर कार्यवाही न हो तो सरकार दोषी किंतु कार्यवाही हो तो सरकार निर्दोष किंतु साहित्यकार दोषी !  क्योंकि अपराधियों के मनों पर अंकुश लगाना सरकारों का काम नहीं है ये तो साहित्यकारों का काम है क्योंकि  समाज के मनों पर साहित्यकारों का ही  शासन चलता है  जबकि तनों अर्थात शरीरों पर शासन सरकारों का होता है । अपराध सोचे मन और किए तन से जाते हैं किन्तु आपराधिक सोच पर नियंत्रण सरकारें कैसे करें !
    बलात्कार जैसे अत्याचारों को रोकने के लिए सरकारों ने फाँसी जैसे कठोर कानूनों का प्रावधान किया है किंतु बलात्कारों की घटनाएँ रुक पाईं क्या ! सरकारों पर अँगुली उठाने वाले साहित्यकारों से ये पूछा जाए कि अब बलात्कार रोके के लिए सरकारें और क्या करें !हर महिला या लड़की को पर्शनल सिक्योरिटी नहीं दी जा सकती किसी महिला या पुरुषों को भड़कीले उत्तेजक एवं अश्लील आचार व्यवहार के लिए सरकारें नहीं रोक सकती हैं रोकें तो उनकी छीछालेदर करेंगे फैशनेबल लोग !ऐसी परिस्थिति में बलात्कार रोकने के लिए सरकारें और क्या करें !  
 इसलिए आज की परिस्थिति में साहित्यकारों की अपनी जिम्मेदारी है कि अपने साहित्य के माध्यम से समाज में घटते नैतिक मूल्यों बिगड़ती भाईचारे की भावना को पुनर्स्थापित करें !साहचर्य भाईचारा मेलमिलाप सहयोगिता आदि साहित्यभावना के प्राण हैं किंतु आज धीरे धीरे समाज से ये सारे गुण गायब होते जा रहे हैं  राजनीति दिनोंदिन प्रदूषित होती जा रही है सरकारी नौकरी गैरजिम्मेदारी की पर्याय बनती जा रही हैं प्राइवेट स्कूल के शिक्षक दस हजार के वेतन पर भी पढ़ा ले रहे हैं किंतु सरकारी शिक्षकों ने समाज का विश्वास तोड़ा है कोरियर कम सैलरी में अच्छी सेवाएँ दे रहा है किंतु डाक सेवाएँ विश्वसनीय नहीं लगती हैं यही हाल सरकारी और प्राइवेट मोबाइल सुविधाओं का है चिकित्सा के क्षेत्र में भी यही सरकारी और प्राइवेट का अंतर है !सरकारें चुनाव लड़ने और बहुमत जुटाने में ही घिसते घिसते समाप्त हो जाती हैं ,आखिर समाज के साहित्य अर्थात साहचर्य भाईचारा मेलमिलाप सहयोगिता आदि साहित्यभावना की चिंता कौन करे !
   पुरस्कार पाने के बाद अक्सर कम ही साहित्यकारों के आचार व्यवहार में झलकती हैं  साहित्यकारों की आत्माएँ !अन्यथा सामाजिक पीड़ाओं से हटने लगता है उनका ध्यान !नेताओं की तरह आने लगते हैं पुरस्कृत साहित्यकारों के बयान !      साहित्यकार तभी तक  जब तक पुरस्कार न मिले पुरस्कार पाते ही नेता हो जाते हैं बड़े बड़े  साहित्यकार लोग !
   साहित्यकारों को अक्सर सरकारों से बनावटी सम्मान पाने के लिए खो देना पड़ता है अपना वास्तविक सम्मान !वो आत्म गौरव वो साहित्य के प्रति समर्पण वो समाज के प्रति दायित्व बोध वो संस्कार सृजन की भावना आदि आदि और भी बहुत कुछ अक्सर गायब हो जाता है पुरस्कृत साहित्यकार शरीरों से !
    काशी में कई पुरस्कार संपन्न लोगों के सान्निध्य में रहने का सौभाग्य मिला किंतु पुरस्कृत होने से पहले उनमें जो साहित्यिक की सुगंध या सामाजिक  पीड़ा थी अक्सर वो बाद में नहीं मिली ! जिनके हर आचार व्यवहार से पहले  कुछ सीखने को मिला करता था किंतु पुरस्कार मिलते ही वो सब कुछ विलुप्त सा हो गया । उनके पुरस्कृत होते ही हम जैसे शिक्षा भिक्षुकों को नहीं मिलने लगी साहित्यिक मधुकरी वहाँ से लौटना पड़ता रहा खाली हाथ ! क्योंकि वो कुछ चित्रों मैडलों कागजों में अचानक कैद हो गए ,तबसे  किसी पुरस्कृत साहित्यकार के अंदर साहित्यिक आत्मा खोजने की इच्छा ही नहीं हुई ।
         बंधुओ !जिस नेता की कृपा से  पुरस्कारों का खून एकबार भी जिस साहित्यकार के दाँतों में लग गया वो उस नेता की ड्योढ़ी भूलता नहीं है और कोल्हू के बैल की तरह घूम घूम कर बार बार वहाँ हाजिरी लगाने जरूर जाता है और उस नेता को खुश करने के  संभव प्रयास   करता है !
    पुरस्कार लौटाना बड़े साहस का निर्णय है कितनी मुश्किल से लोग पा  पाते हैं पुरस्कार !
    साहित्यकारों  के द्वारा पुरस्कार हासिल कर पाना बड़ी हिम्मत का काम है ।वस्तुतः पुरस्कार पाने के लिए आजकल बड़े पापड़ बेलने पड़ते हैं किस किस को कैसे कैसे नहीं खुश करना होता है कितने नेताओं सरकारों की हाँ हुजूरी नहीं करनी पड़ती है ये सबकुछ कर पाना हर किसी के बश का नहीं होता है नेताओं को खुश रख पाना सबसे टेढ़ी खीर होती है जिस सरकार ने आपको पुरस्कार दिया हो उसके गुण गाओ जब वो सत्ता में न रहें तो उन्हें खुश करने के लिए पुरस्कार वापस लौटाओ आदि आदि ! 
  साहित्यकार तो समाज से सीधा संवाद करेगा वो किसी सरकार को पुरस्कार क्यों लौटाएगा ! 
   साहित्यकार जैसा चाहे वैसे समाज का निर्माण कर सकता है परतंत्रता  के दिनों में भी साहित्यकारों ने भारतीय संस्कृति को ज़िंदा रखा था कवीर सूर तुलसी मीरा रैदास भक्त जैसे साहित्यकारों की ही देन है !
    कुल मिलाकर साहित्यकार लोगों के हृदयों पर राज्य करने वाला किसी सम्राट से कम नहीं होता है ।



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