शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

साहित्यकारों और सरकारों के सहयोग से ही हो सकता है अच्छे समाज का निर्माण !

      साहित्यकारों की जिम्मेदारी है कि वो समाज को जगाएँ और आपराधिक सोच पर अंकुश लगाएँ न कि पुरस्कार लौटाएँ और बेकार में सरकारों पर गुस्सा दिखाएँ ! समाज में अपराधिक सोच न पनपने देना  साहित्यकारों की अपनी जिम्मेदारी है । अपराध हो जाने पर कानूनी कार्यवाही करना सरकारों की अपनी जिम्मेदारी है इसलिए समाज में घटित होने वाले प्रत्येक प्रकार के अपराध को सरकारों पर डालकर साहित्यकार अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते !
        हमें याद रखना होगा कि सरकारों का शासन जनता के तनों अर्थात शरीरों तक ही सीमित होता है जबकि साहित्यकारों का सीधा प्रवेश जनता के मनों तक होता है साहित्यकार जनता के मन पर विराजने वाला समाज का अघोषित सम्राट होता है !वो साहित्यकार सरकारों पर तैस दिखावें क्यों अरे सरकारों ने आपको पुरस्कार दिए ही इसीलिए थे कि आप समाज के लिए भी कुछ करें किंतु आप भी सरकारों पर ही अंगुली उठाने लगे !आश्चर्य !!
    सरकार किसी अपराधी के शरीर को जेल में डाल सकती है फाँसी पर लटका सकती है किंतु सरकार कितना भी प्रयास कर ले अपराधी का मन नहीं बदल सकती मन तो कोई सक्षम साहित्यकार ही बदल सकता है क्योंकि  मन पर शासन साहित्यकारों का ही होता है !किंतु वहीँ साहित्यकार सरकारों को ही कटघरे में खड़ा करने लगें ये  गलत परंपरा डाल रहे हैं वो लोग !
    आज देश में जितने प्रकार के भी अपराध घटित हो रहे हैं सब  के लिए सरकारें कम और साहित्यकार अधिक जिम्मेदार हैं ! 
      आज जरूरत है आपराधिक सोच पर लगाम लगाने की और सोच का निर्माण मानसिक धरातल पर होता है वहाँ साहित्यकारों का शासन होता है आज सबसे बड़ी समस्या है कि समाज की सोच प्रदूषित हो रही है उसे कैसे रोका  जाए ? ऐसी सोच को रोकने की संपूर्ण जिम्मेदारी ही साहित्यकारों की है वो अपने कर्तव्य का पालन ठीक ढंग से करें तो सभी प्रकार की  आपराधिक सोच पर लगाम लगेगी !
      साहित्यकारों का वर्ताव पक्षपात पूर्ण नहीं होना चाहिए साहित्यकारों को गरीब अमीर स्त्री पुरुष हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई आदि सबकी चिंता समान रूप से होनी चाहिए उनका किसी जाति  धर्म से प्रभावित होना ठीक नहीं है ऐसी परिस्थिति में सर्वजाति एवं सर्वसंप्रदायमय संपूर्ण समाज की पीड़ा को परखना साहित्यकारों का दायित्व है इधर बीते कुछ वर्षों से हत्या बलात्कार जैसे जघन्यतम अपराधों की घटनाएँ दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं किंतु हर आपराधिक घटना को स्त्रीपुरुषों,हरिजन सवर्णों हिंदू मुस्लिमों आदि के चश्में से ही देखने की आदत क्यों पड़ती जा रही है आखिर अपराधों अपराधों में भेदभाव क्यों ?अपराध तो केवल अपराध ही है उसे रोकने के लिए उसी भावना से कानूनी कठोर कदम  उठाए जाने चाहिए !आज किसी महिला से सम्बंधित अपराध होता है तो महिला सुरक्षा की चर्चा होने लगती है कितने कमजोर हैं हम लोग !
इसीप्रकार से ,बंधुओ ! जिस किसी पर भी अपराधी हमला करते हैं तो वो सर्व प्रथम एक भारतीय नागरिक होता है और इसी भावना से अपराधियों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही होनी चाहिए किंतु ऐसी कार्यवाही को भटकाने लिए सामाजिक उपद्रवी लोग पीड़ित परिवार या सदस्य की सर्वप्रथम जाति धर्म स्त्री पुरुष आदि का पता लगाते हैं इसके बाद इन्हीं आधारों  पर अपराधों को आँका जाता है किसी दलित परिवार की महिला के साथ कोई बदतमीजी की गई तो महिलाओं के प्रति सम्मान भावना से उसके साथ क्यों न खड़ा हुआ जाए !आखिर दलित महिला कहने की आवश्यकता क्यों पड़ती है यही स्थिति दलितों ईसाईयों मुस्लिमों और महिलाओं के विषय में है इन लोगों का दुश्मनों ने उतना कुछ नहीं बिगाड़ा है जितना इनके हमदर्दों ने इन्हें बर्बाद किया है पहले उन्हें पहचाना जाए !
    ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्यों के साथ कोई घटना घटती है तो सीधे उनका नाम लिया जाता है जाति  संप्रदाय आदि कुछ नहीं बताया जाता है यही नियम और भी सभी लोगों के लिए क्यों नहीं बनाया जाता है ?भारतीय सामाज में आ रही ये खोट रोकी जानी चाहिए और अपराध का शिकार कोई भी हो उसके साथ सारे समाज को  जाति  संप्रदाय आदि की दृष्टि भूलकर अपितु अपनेपन  की भावना से खड़ा होना चाहिए !
      आज साहित्यकार पुरस्कार केवल इसलिए लौटा रहे हैं कि कुछ लोगों के साथ घटी दुर्घटनाओं से वे आहत हैं किंतु मुझे पीड़ा इस बात की है बाकी सैकड़ों लोग जो मिलती जुलती ऐसी ही घटनाओं के शिकार हुए हैं उनसे साहित्यकारों का उतना लगाव क्यों नहीं है उनकी पीड़ा को उन्होंने अपनी पीड़ा क्यों नहीं समझी !ये दुखद है !!
     

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