शुक्रवार, 26 जनवरी 2024

हाँ महामारी को आते मैंने देखा है ! 2.

  कई बार मन में प्रश्न उठता है कि वर्तमान, समय  में तो विज्ञान इतना उन्नत है !चिकित्सा के क्षेत्र के क्षेत्र में नए नए आविष्कार होते देखे जा रहे हैं|  इतनी उन्नत प्रयोगशालाएँ हैं इतने प्रभावी उपकरण हैं वैश्विक स्तर पर बिचार बिनिमय के लिए संचार माध्यम हैं ! वस्तुओं उपकरणों आवश्यक औषधीय द्रव्यों के आदान प्रदान के लिए यातायात के  पर्याप्त साधन हैं | नित नूतन अनुसंधान होते देखे जा रहे हैं | इतनी तरक्की कर लिए जाने के बाद भी कोरोना महामारी से यह दुर्दशा हुई है |

    कोरोनामहामारी की 30 जनवरी 2020 को भारत में फैलने की पुष्टि हुई थी।19 जनवरी 2024 तक इस वायरस से भारत में 3,37,66,707 मामलों की पुष्टि की गई है जिसमें 4,48,339 लोगों की मृत्यु हुई है। ऐसा सबकुछ तब होते देखा जा रहा है जब वर्तमानवैज्ञानिकों  ने अपने अनुसंधानों के द्वारा अनेकों क्षेत्रों में महत्वपूर्ण सफलता हासिल कर ली है |

    ऐसी परिस्थिति में यह सहज ही कल्पना की जा सकती है कि उस प्राचीन युग में जब आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था का बिल्कुल नाम निशान ही नहीं था !  महामारियाँ तो उस युग में भी आती रही होंगी !  महामारियों से क्या उस युग में भी लोग ऐसे ही संक्रमित होते थे और ऐसे ही मृत्यु को प्राप्त हुआ करते थे अथवा  संक्रमित होने और मृत्यु को प्राप्त होने वाले लोगों की वर्तमान अनुपात से काफी अधिक हुआ करती रही होगी,क्योंकि उस युग में आधुनिक विज्ञान के अभाव में महामारी को नियंत्रित कैसे किया जा सका होगा | संभव है कि उस युग में वर्तमान समय की अपेक्षा ऐसी दुर्घटनाएँ काफी अधिक घटित हुई हों और अभी की अपेक्षा अधिक लोग संक्रमित हुए हों और बहुत अधिक संख्या में लोग मृत्यु को भी प्राप्त हुए हों | 

     प्रश्न उठता है कि यदि ऐसा हुआ होगा तो उससमय जनसंख्या वैसे ही काफी कम रही होगी ! इस अनुपात में या इससे अधिक लोग यदि संक्रमित होकर मृत्यु को प्राप्त हुए होंगे तो जन संख्या बची कितनी होगी | ऐसा अनेकों बार होता रहा होगा तब तो महामारियों में अब की अपेक्षा जनधन का बहुत बड़ा नुक्सान होता रहा होगा |आखिर उस समय लोग महामारियों से अपना अपना बचाव कैसे कर पाते होंगे  |

                           प्राचीनकाल में कैसे किया जाता होगा महामारियों से बचाव !

      इसके लिए मैंने भारत के प्राचीनसाहित्य का अध्ययन अनुसंधानादि किया जिसमें आधुनिक यंत्रों उपकरणों या चिकित्सा पद्धति की जगह उस समय की अपनी अनुसंधान पद्धति थी ! जिसके आधार पर प्रकृति के गर्भ में महामारी का पैदा होना ! प्राकृतिक वातावरण में महामारी की गर्भस्थिति का उभरना उसके चिन्हों के दर्शन ! महामारी का पूर्वानुमान लगाने की विधि,महामारी की पहचान,महामारी की  परीक्षण विधि तथा संक्रमित होने लायक स्त्री पुरुषों की पहचान ! महामारी के समय मृत्यु होने लायक स्त्री पुरुषों की पहचान !बचाव के उपायों के विषय में अनुसंधान आदि करने की अपनी पद्धति मिली !

      आकाशीय वातावरण से लेकर मौसम संबंधी घटनाओं , वृक्षों बनस्पतियों जीवों जंतुओं पशुओं  पक्षियों मनुष्यों  आदि के स्वभावों एवं व्यवहारों में आए ऐसे दीर्घकालीन बदलावों के अनुसंधान से महामारी को पहचानने में मदद मिली है !

    वर्तमान विज्ञान में उपग्रहों रडारों के द्वारा समुद्री क्षेत्र  के आकाश में उठे बादलों को देखकर उनकी गति और दिशा के हिसाब से यह अंदाजा लगा लेना कि ये बादल किस दिन कहाँ पहुँच सकते हैं | इसमें सब कुछ प्रत्यक्ष दिखाई पड़ रहा है |सारी घटनाएँ चैन की तरह एक दूसरे से जुड़ते प्रत्यक्ष रूप में  दिखाई दे रही हैं ,किंतु प्रशांत महासागर के जल में घटित होने वाली अलनीनो लानिना जैसी घटनाओं का संबंध आकाशस्थ बादलों से प्रत्यक्ष रूप में दिखाई न देने पर भी ऐसी घटनाओं का प्रभाव मौसमसंबंधी प्राकृतिक घटनाओं पर पड़ता है ऐसा माना जाता  है |

  विशेष बात यह है कि प्रशांत महासागर के भूमध्यीय क्षेत्र में दक्षिण अमेरिकी पश्चिमतटीय समुद्र के सतही जल का  असामान्य रूप से बढ़ा या घटा हुआ तापमान समुद्र में घटित होने वाली एक प्राकृतिक घटना है | भविष्य में वर्षा होना न होना दूसरी आकाशीय प्राकृतिक घटना है |एक घटना को घटित होते देखकर दूसरी घटना के घटित होने के विषय में पूर्वानुमान लगा लेने संबंधी भारत की प्राचीन वैज्ञानिक पद्धति के आधार पर प्रकृति में ,जीवन  में तथा समाज में घटित होने वाली बहुत सारी घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगालिया जाता है |उतर भारत के प्रसिद्ध महाकवि घाघ ने इसी पद्धति के आधार पर प्रकृति एवं जीवन से संबंधित अनेकों घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाने के सूत्र बना दिए हैं जिनके आधार पर लगाए गए पूर्वानुमान आज भी सही घटित होते देखे जा रहे हैं | 

     जिस प्रकार से एक प्राचीन घटना को देखकर दूसरी प्राकृतिकघटना के विषय में पूर्वानुमान लगा लिया जाता है | उसी प्रकार से भूकंप आँधी तूफान वर्षा बाढ़ चक्रवात बज्रपात जैसी बहुत सारी प्राकृतिक घटनाओं को घटित होते देखकर भविष्य में घटित होने वाली ऐसी ही बहुत सारी घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगा लिया जाता है|ये घटनाएँ जिस समय घटित होनी शुरू होती हैं भविष्य निर्णय में उस समय की भी बहुत बड़ी भूमिका होती है | कई बार एक ही समय में कुछ कुछ अंतर में विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक घटनाएँ घटित होने लगती हैं | ऐसी सभी घटनाएँ भविष्य में घटित होने वाली कुछ विशेष घटनाओं के विषय में सूचनाएँ दे रही होती हैं या फिर ऐसी किसी विशेष घटना के विषय में सूचना दे रही होती हैं जिससे बहुत बड़ा वर्ग प्रभावित या पीड़ित होने की संभावना होती  है |

                                       प्राकृतिक असंतुलन से पैदा होती है महामारी

     सामान्यरूप से प्रकृति का अपना एक नियम क्रम ,प्रभाव और समय आदि सबकुछ निर्धारित होता है|उसी के अनुशार सर्दी गर्मी वर्षा जैसी घटनाएँ जब तक घटित होती रहती हैं तब तक न कोई प्राकृतिक आपदा आती है और न ही कोई  महामारी !किसी एक तत्व में जब असंतुलन होता है तो दूसरे तत्वों का भी संतुलन बिगड़ता है | तापमान बढ़ेगा तो ठंड स्वयं ही घटने लगेगी | उसे घटाने के लिए प्रयास नहीं करना होगा | ऐसे ही किसी एक तत्व का संतुलन बिगड़ते ही कुछ दूसरे तत्व असंतुलित होने लगते हैं उससे कुछ दूसरे प्रकार की  घटनाएँ घटित होने लगती हैं |  कुछ बड़े भूकंपों या महामारी जैसी बड़ी घटनाओं के घटित होने के कुछ महीने या वर्ष पहले से प्राकृतिक संतुलन विगड़ने लगता है | जिस प्रकार की प्राकृतिक घटनाएँ घटित होनी होती हैं प्रकृति के वही अंश या अंग अधिक आंदोलित या असंतुलित होते देखे जाते हैं |

    सर्दी गर्मी वर्षा आदि ऋतुओं के दिन कम या अधिक होने लगते हैं| इनका प्रभाव कम या अधिक होने होने लगता है जिसप्रकार की ऋतुओं का प्रभाव कम होने लगता है या जिसप्रकार की ऋतुओं का प्रभाव बढ़ने लगता है वे ऋतुएँ जिन तत्वों से संबंधित होती हैं उन्हीं तत्वों से संबंधित कुछ दूसरी प्राकृतिक घटनाएँ घटित होने लगती हैं|

     उन्हीं तत्वों के असंतुलन से संबंधित अनुपात में ही रोग महारोग(महामारी) आदि पैदा होने लगते हैं|यदि एक से अधिक तत्व एक साथ ही असंतुलित होते हैं तब तो उन तत्वों से सम्मिश्रित रोग पैदा होते हैं | 

     जिसप्रकार से सब्जी हलुआ खीर आदि कोई भी व्यंजन बनाया जाए तो उसमें डाली जाने वाले प्रत्येक वस्तु की अपनी अपनी निर्द्धारित मात्रा होती है कि उसमें कौन चीज कितनी मात्रा में डाली जाएगी तब उसका स्वाद अच्छा होगा | किसी द्रव्य के उससे कम या अधिक डाले जाने पर उसका स्वाद तो विगड़ ही जाता है,इसके साथ ही उसका गुण धर्म भी बिगड़ जाता है ! कुशल रसोइया इसका अनुमान तुरंत लगा लेते हैं |  

    इसीप्रकार से किसी रोगी को रोग से मुक्ति दिलाने के लिए कोई औषधि तैयार करनी होती है, तो उसमें कुछ द्रव्यों को उचित मात्रा में मिलाकर औषधि का निर्माण किया जाता है | वो औषधि उस रोग से मुक्ति दिलाने में सक्षम होती है | ,किंतु  इन्हीं द्रव्यों का सम्मिश्रण करते समय कोई द्रव्य  यदि निर्द्धारित मात्रा से कम या अधिक डाल दिया जाए तो उसका स्वाद तो बिगड़ेगा ही इसके साथ ही साथ उसके गुणधर्म भी बड़े बदलाव आ जाते हैं | ऐसी स्थिति में वो औषधि जिस रोग से मुक्ति दिलाने के लिए बनाई जा रही होती है ! उसके गुणधर्म में अंतर हो जाने के कारण संभव है कि वह औषधि रोगमुक्ति दिलाने के बजाए रोग को और अधिक बढ़ा देने वाली तैयार हो जाए |

      ऐसी  परिस्थिति में किसी औषधीय द्रव्य के कम या अधिक होते ही इस बात का अंदाजा लगा लिया करते हैं कि इसके गुण धर्म में किसप्रकार का कितना अंतर आ जाएगा !इस औषधि के उपयोग करते समय किस किस प्रकार की सावधानियाँ बरतनी आवश्यक होंगी | 

                    महामारीकाल में रोगी होते हैं जीव जंतु अन्न औषधियाँ वायु और जल !    

     महामारी के समय वायु जल अन्न औषधियाँ जीव जंतु आदि सभी एक साथ रोगी हो जाते हैं |किसे कौन  स्वस्थ करे | ऐसे में  रोगों को पहचानना एवं उनकी चिकित्सा करना इसलिए अधिक कठिन हो जाता है , क्योंकि वृक्षों बनस्पतियों अन्न औषधियों जीव जंतुओं से लेकर सभी मनुष्यों पर उचित अनुपात में सर्दी गर्मी वर्षा आदि ऋतुओं का प्रभाव पड़ता है|जिससे सभी वृक्ष बनस्पतियाँ अन्न औषधियाँ जीव जंतु मनुष्य आदि स्वस्थ सुरक्षित एवं निर्विकार बने रहते हैं ,किंतु सर्दी गर्मी वर्षा आदि का प्रभाव यदि कम या अधिक पड़ता है कम या अधिक समय तक पड़ता है,तो संपूर्ण वायुमंडल असंतुलित हो जाने के कारण बिषैला हो जाता है |जल बिषैला हो जाता है | हवा और जल के बिषैले होते ही वृक्षों बनस्पतियों अन्न औषधियों जीवोंजंतुओं से लेकर सभी मनुष्यों में रोग फैलने लग जाते हैं| 

   इससे जिस अनुपात में सभी जीवों जंतुओं मनुष्यों के शरीर रोगी हो रहे होते हैं,उसी अनुपात में खाने पीने के लिए आवश्यक गेहूँ मका आदि सभी अन्न दालें फल फूल एवं समस्त शाक सब्जियाँ भी पोषक तत्वों से विहीन होने लगती हैं |उसी अनुपात में औषधीय द्रव्य बनस्पतियाँ आदि रोगी होने लग जाती हैं | 

      इससे महामारी के समय में फैलने वाले रोगों को पकड़ पाना आसान नहीं होता है | ऐसे रोग बहुत बड़े वर्ग को बहुत जल्दी अपने चपेट में इसलिए ले लेते हैं,क्योंकि सभी एकप्रकार के वातावरण में रह रहे होते हैं| सभी एक प्रकार की बिषैली हवा में ही साँस लेने एवं विकारित जल पीने के कारण स्वयं ही रोगी हो  रहे होते हैं| इसलिए ऐसे रोग बहुत बड़े समूह को अतिशीघ्र रोगी बना लेते हैं | 

      दूसरी बात ऐसे रोगियों को स्वस्थ किया जाना इसलिए कठिन होता है,क्योंकि ये रुग्णावस्था में भी जो कुछ खा पी रहे होते हैं वो सब भी उसीप्रकार से उतना ही संक्रमित होता है जितना कि रोगी संक्रमित होते हैं |ऐसी स्थिति में कोई संक्रमित व्यक्ति संक्रमित खानपान से स्वस्थ कैसे हो सकता है | 

     ऐसे रोगियों को रोगमुक्त करने के लिए जो औषधियाँ बनाई जाती हैं उनमें जो घटक द्रव्य पड़ते हैं या जो बनस्पतियाँ डाली जाती हैं | वे भी उसी बिषैले हवापानी से पोषित होने के कारण बिषैली हो जाती हैं |इसलिए उनके जिस विशेष गुण के कारण उन्हें औषधीय अंग माना जाता है वे उस विशेषगुण से हीन होकर कई बार अपने से विरोधी गुणों से प्रभावित हो जाती हैं | ऐसी निर्वीर्य एवं बिषैली औषधियाँ कई बार प्रभाव नहीं करती हैं तो कभी कभी स्वयं ही रोगपैदा करने या बढ़ाने वाली हो जाती हैं |   

      ऐसी स्थिति में जो औषधियाँ जिसप्रकार के रोगों पर जैसा प्रभाव करने वाली हमेंशा से मानी जाती रही हैं| वे वैसा प्रभाव नहीं करने लगती हैं| इससे संशय होता है कि ये कोई नया रोग है! क्योंकि यदि रोग वही होता तो औषधियाँ रोगमुक्ति प्रदानकरने में अवश्य सहायक होतीं |

     इसमें विशेष बात ये होती है कि जो बनस्पतियाँ आनाज  दालें मेवा आदि महामारी शुरू होने से पहले संग्रह करके रखी जा चुकी होती हैं केवल वही प्रयोग करने लायक रह पाती हैं यद्यपि आंशिक गुणवत्ता उनकी भी कम होकर वे भी महामारीजनित बाकी बिषैलेपन से प्रभावित होती हैं |  

    ऐसी परिस्थिति में सभी वृक्षों बनस्पतियों वस्तुओं जीवों की तरह ही मनुष्यों का भी संक्रमित होना स्वाभाविक था |इसके बाद जो वृक्ष बनस्पतियाँ शाकसब्जियाँ फलफूल आदि होते हैं वे तो केवल अपने संक्रमण से ही संक्रमित होते हैं ,जबकि जीव जंतु उन संक्रमित वस्तुओं के उपयोग करने के कारण काफी अधिक संक्रमित हो जाते हैं | 

     प्राकृतिक बदलावों को प्रतिपल पहचानना होता है !

      सभी प्रकार की प्राकृतिक घटनाएँ किसी न किसी प्रकार से प्रकृति कार्यों में सहयोगी होती हैं | प्राकृतिक घटनाएँ जब तक अपनी उचित मात्रा में घटित होती जाती हैं तब तक सभी वृक्ष बनस्पतियाँ फल फूल अन्न  आदि खाद्यपदार्थ मनुष्यादि जीव जंतुओं के लिए हितकर होते हैं | ऋतुओं के प्रभाव के कम या अधिक होते ही खाद्यपदार्थों में तो विकार आते ही हैं मनुष्यादि जीव जंतुओं में भी कुछ रोग फैलने लग जाते हैं | यह सामंजस्य बिगड़ते ही वर्षा भूकंप आँधी तूफ़ान आदि कुछ प्राकृतिक घटनाएँ अपनी निर्धारित मात्रा से कुछ कम या अधिक घटित होने लगती हैं | इसके आधार पर कुशल समय वैज्ञानिक इस बात का अनुमान लगा लिया करते हैं कि निकट भविष्य में किस प्रकार की प्राकृतिक घटना घटित होने वाली है या किस प्रकार की महामारी तैयार होने वाली है |

     कुलमिलाकर  प्रकृति में लीक से हटकर जब जो घटना  अचानक घटित होने लगती है वो केवल घटना ही नहीं होती है अपितु वो भविष्य में होने वाले परिवर्तनों के विषय में कुछ कह रही होती है या कुछ सूचनाएँ दे रही होती है | भूकंप आँधी तूफान वर्षा बाढ़ चक्रवात बज्रपात जैसी घटनाएँ भविष्य के विषय में प्रकृति के द्वारा किए जा रहे कुछ ऐसे इशारे होते हैं | जिनको समझकर भविष्य में घटित होने वाली कुछ प्राकृतिक घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाया जाता है |

    महामारी जैसी किसी भी प्राकृतिक या मनुष्यकृत आपदा का पूर्वानुमान लगाने के लिए भी प्राकृतिक परिवर्तनों पर प्रतिपल नजर रखनी होती है |चिर काल से चला आ रहा प्राकृतिक संचार जब अपनी चाल बदलने लगता है तो कुछ बड़ा होने वाला होता है | ये बदलाव प्रकृति के जिस तत्व से संबंधित होते हैं उसी से संबंधित कोई घटना घटित होने वाली होती है | 

   भूकंप पृथ्वी में होता है लेकिन ये घटना वायु से संबंधित है | पृथ्वी और वायु तत्व के समिश्रण से घटित हो रही भूकंप जैसी घटना जिस समय पर जिस स्थान पर घटित हो रही होती है उस समय का भी गणित विज्ञान की दृष्टि से विशेष महत्व होता है | उस स्थान को भी ऐसे अध्ययनों में सम्मिलित किया जाता है | ऐसे सभी तत्वों के सम्मिश्रण से जो घटना घटित होती है ,उसी के अनुशार भविष्य में कोई घटना घटित होने वाली होती है |ऐसी घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाने के लिए समस्त प्राकृतिक परिवर्तनों पर निरंतर दृष्टि रखनी होती है |    

         प्राचीनकाल से ही  प्राकृतिक घटनाओं से कुछ भविष्यसंबंधी सूचनाएँ मिलती रही हैं | उस समय ऐसे संकेतों को समझने वाले बड़े बड़े विद्वान थे |इसी विज्ञान को प्राचीन काल में आकाशवाणियों या शकुनों  अपशकुनों के नाम से जाना जाता था | प्रकृति के स्वभाव को समझने वाले प्रकृतिमित्र महाकवि घाघ तो मानो प्रकृति से बातें करते थे ! उन्हें प्राकृतिक घटनाओं एवं संकेतों के विश्लेषण का अद्भुत अभ्यास था !ऐसे संकेतों के आधार पर वे प्रकृति एवं जीवन से संबंधित न केवल सटीक ही भविष्यवाणियाँ कर दिया करते थे अपितु उन सिद्धांतों को नियमों में बाँधकर कविताबद्ध कर दिया करते थे |  

     वर्तमान समय में वैज्ञानिकों के द्वारा कल्पित अलनीनो -लानिना जैसी घटनाओं को ही लें तो ये भी प्राचीन विज्ञान की भाषा में शकुन अपशकुन ही हैं | प्रकृति एवं जीवन से संबंधित ऐसे असंख्य संकेत हमेंशा मिला करते हैं जिनके अभिप्राय को समझकर प्रकृति ,जीवन एवं समाज में घटित होने वाली असंख्य दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है | स्वास्थ्य समस्याओं से सावधान हुआ जा सकता है | कुछ आत्मीय संबंधों के बिगड़ने से बचा जा सकता है |ऐसे ही प्राकृतिक संकेतों को समझकर वर्षा संबंधी पूर्वानुमान लगाए जा सकते हैं | वार्षिक प्रकृति संकेतों को समझकर भूकंप जैसी प्राकृतिक घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है | बारह वर्षों के संग्रहीत प्राकृतिक संकेतों से भविष्य में घटित होने वाली महामारी जैसी बड़ी घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है |   

     कुलमिलाकर प्रकृति में घटित होने वाली घटनाएँ स्वयं तो घटित हो ही रही होती हैं उसी स्वभाव की कुछ और घटनाएँ उन मुख्य घटनाओं के आगे पीछे घटित हो रही होती हैं | इनमें से कुछ प्राकृतिक जबकि कुछ जीवन से संबंधित घटनाएँ होती हैं |कुछ स्वास्थ्य से और कुछ समाज से संबंधित होती हैं | ऐसी विभिन्न प्रकार की घटनाओं का स्वभाव एक जैसा ही होता है |इसलिए ये संकेत भी एक ही प्रकार का दे रही होती हैं |जिनका उद्देश्य  भविष्य में घटित होने वाली किसी दूसरी घटना के विषय में कुछ सूचना देना होता है| भूकंप आँधी तूफ़ान वर्षा बाढ़ बज्रपात जैसी प्राकृतिक घटनाएँ उन्हीं परिवर्तनों की अंग  एवं भविष्य की सूचनाएँ  होती हैं |                               

             भूकंप :घटनाएँ और संकेत !

   कुछ भूकंप प्राकृतिक या मनुष्यकृत बड़ी घटनाओं के घटित होने से पहले या बाद में घटित होते देखे जाते हैं |कुछ भूकंपों के आने के बाद वर्षा होनी शुरू होती है जबकि कुछ भूकंपों के आने के बाद लंबे समय से होती आ रही वर्षा बंद हो जाती है | कुछ भूकंपों के आने से पहले आँधी तूफ़ान आते हैं जबकि कुछ  के बाद आँधी तूफ़ान आते हैं | कुछ भूकंपों के आने के बाद फसलें या पेड़ पौधे हरे भरे हो उठते हैं जबकि कुछ भूकंपों के आने के बाद वातावरण में रूक्षता बढ़ने लगती है| कुछ भूकंपों के आने के पहले कुछ रोग फैलने लगते हैं !आतंकी घटनाएँ घटित होने लगती हैं!बम विस्फोट होते हैं |समाज में दंगे भड़कने लगते हैं ! हिंसक गतिविधियाँ शुरू होती हैं | चुनाव होते या सरकारें बनते बिगड़ते देखी  जाती हैं| कुछ भूकंपों के आने से पहले भी यह सब घटित होते देखा जाता है| कुछ भूकंपों के आगे पीछे जनधन हानि होती है कुछ में नहीं होती है | कुछ भूकंपों के आने के बाद भी उससे कुछ हल्के झटके लगते रहते हैं कुछ में नहीं लगते हैं |

   ऐसी घटनाओं से उन भूकंपों का क्या कोई संबंध होता है|इस जिज्ञासा के कारण मैंने यह अनुसंधान आज के लगभग 30 वर्ष पहले प्रारंभ किया था | जिसमें अनेकों शंकाएँ उठती रहीं उनमें से कुछ के समाधान भी होते रहे |इसमें मैंने अनुभव किया कि ऐसे समस्त प्रकृति चक्र को संचालित करने वाली कोई सर्वसक्षम सत्ता अवश्य है जो प्रकृति को इतने नियमित रूप से संचालित करती है |   

   भूकंपों के आने का कारण यदि भूगर्भगत प्लेटों का आपस में टकराना या संचित ऊर्जा का बाहर निकलना माने भी जाएँ तो ये दोनों प्राकृतिक कारण अनियंत्रित भी तो हो सकते हैं |भूकंपों के आने का कारण यदि प्लेटों का टकराना ही है तो ये टक्कर कभी बहुत बड़ी भी हो सकती है | भूकंपों के घटित होने का कारण यदि भूगर्भगत संचित ऊर्जा का बाहर निकलना माना जाए, तो भूकंप और भूकंपों के बाद लगने वाले छोटे छोटे झटकों के माध्यम से किस्तों में निकलने वाली बहुत सारी ऊर्जा एक बार में तो भी निकल सकती है ,किंतु ऐसा नहीं होता है | आखिर भूकंपों की तीव्रता दस डिग्री से अधिक न होने का कारण क्या हो सकता है ?  इस रहस्य को समझने के लिए हमने जो भी अनुसंधान किए उनमें किसी न किसी सर्व सक्षम लोकहितकारी चेतनतत्व को नियंता मानना ही पड़ता है | प्राकृतिक घटनाओं से मिलने वाले संकेतों को उसी चेतनतत्व की प्रेरणा माना जा सकता है |

    अनुभव किया गया है कि किसी भी महामारी या बड़ी विध्वंसक घटना के घटित होने से लगभग बारह वर्ष पहले से प्रकृतिक्रम  में लीक से हटकर कुछ घटनाएँ घटित होनी शुरू हो जाती हैं | इसका प्रभाव चार वर्षों में दिखाई भी पड़ने लगता है | प्रकृति का यही  असंतुलन धीरे धीरे बढ़ता चला जाता है |जो किसी घटना के रूप में परिवर्तित होता है | कोरोना महामारी में भी वैश्विक स्तर पर कुछ ऐसे संकेत मिलने लगे थे |

     सन 2014 के बाद भारत एवं पडोसी देशों में भूकंपों की घटनाएँ पहले की अपेक्षा कुछ अधिक घटित होते देखी जा रही हैं | कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ अधिक मात्रा में भूकंप घटित होते देखे जाते हैं |ऐसे समय एवं  भौगोलिक स्थलों में अन्य समय एवं स्थानों की अपेक्षा कुछ तो विशेषता होती होगी | पहले दिल्ली में इतने भूकंप तो नहीं आते थे जितने आजकल आते देखे जा रहे हैं |महामारियों को समझने के लिए ऐसे भूकंपों के आधार बहुत वास्तविक कारण खोजे जाने चाहिए |

     नेपाल में 25 अप्रैल 2015 को 7.8 तीव्रता का भूकंप भावी कोरोना महामारी के विषय में अग्रिम सूचना देने आया था | इसी स्थान पर 22 अप्रैल 2015 को एक भीषण तूफ़ान आया था जिसमें भारत और नेपाल के सैकड़ों लोगों की मृत्यु हुई थी | वह तूफ़ान 25 अप्रैल 2015 को आने वाले भूकंप की अग्रिम सूचना दे रहा था | विशेष बात यह है कि तूफ़ान और भूकंप दोनों का केंद्र एक ही था | इसी स्थान पर एक सप्ताह से सूखी खाँसी उलटी दस्त एवं चक्कर आने के रोग काफी तीव्रता से बढ़ते जा रहे थे | इस बीच वायु प्रदूषण बढ़ा हुआ था |  ऐसे सभीप्रकार के प्राकृतिक विकार भावी माहमारी  सूचना उसी समय से  देने लगे थे | ऐसी सभी घटनाओं का संयुक्त अनुसंधान करके यह पता लगाया जा सकता था कि निकट भविष्य में कोई महामारी जैसी घटना कब घटित होने वाली है |

                             कोरोना महामारी

                                      महामारी आने की पहचान कैसे पता लगे !

    कोई महामारी आ गई है इसका पता लगाने के लिए हमारे पास क्या कुछ व्यवस्था है ? जब अचानक बहुत बड़ी संख्या में बहुत लोग किसी रोग विशेष से पीड़ित होने और मृत्यु को प्राप्त होने लगें तब तो महामारी के आने का सभी को पता लग ही जाता है ,किंतु इससे तो तभी पता लग पाएगा जब लोग संक्रमित होंगे |यदि लोग संक्रमित न हों और महामारी आकर चली भी जाए तो भी पता नहीं लग पाएगा कि महामारी आई थी |

    महामारी प्राकृतिक घटना है|वर्षा बाढ़ भूकंप आँधीतूफान  प्राकृतिक घटनाओं से अपना बचाव किया जा सकता है | इसका मतलब ये तो नहीं होता है कि ऐसी घटनाएँ घटी ही नहीं होती हैं | घटनाएँ तो तब भी घटित होती हैं | केवल उनसे अपना बचाव कर लिया जाता है |

     ऐसे ही महामारियों से भी यदि औषधि टॉनिक वैक्सीन या योगाभ्यास आदि प्रयोगों के द्वारा मनुष्य यदि अपने को संक्रमित होने से बचा भी लें तो क्या यह मान लिया जाएगा कि महामारी आई ही नहीं है|ऐसा मान लिया जाना जनधनहित की दृष्टि से कितना हितकारी होगा ! 

     मनुष्य संक्रमित न हों तो भी प्राकृतिक वातावरण पर तो महामारी के विषैलेपन का प्रभाव तब भी पड़ेगा |औषधि टॉनिक वैक्सीन या योगाभ्यास आदि प्रयोगों से अपनी सुरक्षा न कर पाने वाले पशु पक्षी आदि तो तब भी संक्रमित होंगे |उससे भी मनुष्यों का निकट भविष्य में कोई बड़ा अहित हो सकता है |

   इसलिए महामारी आने की जानकारी पाने के लिए हमें लोगों के संक्रमित होने न होने के भरोसे नहीं रहना चाहिए |हमारे पास ऐसी कोई वैज्ञानिक अनुसंधान पद्धति भी होनी चाहिए जिसके द्वारा संक्रमितों को देखे बिना यह पता लगा लिया जाना चाहिए  कि कब किस प्रकार की महामारी के आने की संभावना है | 
     ऐसा किया जाना इसलिए भी आवश्यक है,क्योंकि महामारी आने के विषय में तभी पता लग पाता है, जब  बड़ी संख्या में लोग महामारी से संक्रमित होने और मृत्यु को प्राप्त होने लगते हैं |उस समय उनकी सुरक्षा के लिए कोई व्यवस्था की जानी संभव ही नहीं होती है | इतनी बड़ी संख्या में रोगियों को चिकित्सालयों में रखने की व्यवस्था तो होती ही नहीं है श्मशानों में शव रखने की भी जगह नहीं होती है | 
     इतने भयावह समय में पहले से निर्मित औषधि को जन जन तक पहुँचाना भी संभव नहीं हो पाता है| ऐसे  समय में महारोग की प्रकृति को समझना, उसके लक्षणों को पहचानना, उसके लिए औषधि का निर्णय करना,औषधि तैयार करना,उसका सविधि परीक्षण करना ,अधिक मात्रा में औषधि निर्माण के लिए औषधीय द्रव्यों का संग्रह करना,इसके बाद इतनी अधिक मात्रा में औषधि का निर्माण करके उसे जनजन तक समय से पहुँचाया जाना  इतने कम समय में कैसे संभव हो सकता है |ये सब काम करने में जितना अधिक  समय लग सकता है उतने में तो महामारी बहुत बड़े भूभाग में फैलकर बहुत बड़ा जनसंहार कर चुकी होगी |
      इसलिए महामारीजनित संक्रमण प्रारंभ होने से बहुत पहले महामारी आने के विषय में न केवल पूर्वानुमान लगाकर रखना होगा ,अपितु आवश्यक औषधियाँ भी तैयार करके रखनी होंगी | यदि बड़ी संख्या में लोग संक्रमित होकर मरने ही लगे तो उसके बाद किए गए उपायों पर यह भरोसा कैसे किया जाए कि ये प्रभावी हैं या प्रदर्शन मात्र है !उपायों का लाभ तो तब है जब लोगों को संक्रमित होने और मरने से बचा लिया जाए !इसके लिए पहले से पूर्वानुमान लगाकर रखना ही एक मात्र विकल्प है |जो प्रकृति परिवर्तन संबंधी अध्ययनों अनुसंधानों के बिना संभव नहीं है |
                            महामारी आने के 12 वर्ष पहले से आने लगते हैं प्रकृति में परिवर्तन !

     अपने अनुसंधान से प्राप्त  अनुभवों के आधार पर मैं यह कह सकता हूँ कि कोरोना महामारी के समय में प्राकृतिक अनुसंधान पद्धति के आधार पर प्रकृति को पढ़ना यदि 12 वर्ष पहले से  शुरू कर दिया गया होता तो प्राकृतिक बदलावों के आधार पर महामारी को समझने में इतनी कठिनाई नहीं होती ! जल और वायु में प्रदूषण बढ़ना उसी समय से शुरू हो गया था | वायु प्रदूषण दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था ! जलजनित प्रदूषण भी अक्सर बढ़ने लगा था | वायु और जल के प्रदूषित होने से वृक्षों बनस्पतियों शाक सब्जियों आदि में उसीसमय से विकार आने शुरू हो गए थे |

     ऐसे ही महामारी आने के लगभग 12 वर्ष पहले से विश्व के विभिन्न भागों में प्रकृति परिवर्तित होने लगी थी | कुछ जगहों पर वृक्षों में समय से पहले फलों -फूलों का लगना शुरू हो गया था ।नीम, आम और सहजन सहित कई पेड़ों में बेमौसम के फूल और फल आने लगे थे । कुछ जगहों पर तो नीम के पत्तों  के झड़े बिना ही उसमें फूल और अब फल लगने लगे थे । कुछ स्थानों पर आम के पेड़ों में अक्टूबर में ही मंजरी लगने लगी थी | कहीं कहीं सहजन के पेड़ भी बहुत पहले फूलने फलने लगे थे |कई फलों के रंग अकार एवं स्वाद में बड़ा बदलाव होते देखा जा रहा था | पेड़ों की नई सुकोमल कोपलों में दरारें दिखने लगी थीं |बनस्पतियाँ अपने अपने गुणों से हीन होकर अन्य गुणों से प्रभावित होने लगी थीं |    

      पशुओं पक्षियों को भी संक्रमित होते या मृत्यु को प्राप्त होते देखा जा रहा था |कुछ देशों में ऊदबिलाव बकड़ियों कुत्तों  बिल्लियों आदि को संक्रमित होते देखा गया है | संक्रमित पशु पागलों की तरह भटक रहे थे !  जिससे कृषि कार्यों की भारी क्षति हो रही थी | संक्रमित पक्षी अनेक स्थलों पर आकस्मिक रूप से मृत्यु को प्राप्त होते देखे जा रहे थे | संक्रमित चूहे उन्माद के कारण कई देशों में  बड़े उपद्रव मचा रखे थे | भारत के भी कुछ प्रदेशों में चूहों के द्वारा किए गए उपद्रवों को देखा जा रहा था | कुल मिलाकर सभी जीवजंतुओं में हो रहे परिवर्तनों से जीवजंतु स्वयं परेशान थे| उनके व्यवहारों में हो रहे अस्वाभाविक बदलाव उन्हें बेचैन कर रहे थे  जिन्हें वे स्वयं सह नहीं  पा रहे थे | उन्मत्त कीट पतंग  बेचैन थे | टिड्डियों के झुंड फसलों को खराब करते जा रहे थे | 

    संक्रमित हुए वायु और जलों के प्रभाव से पल्लवित पोषित फल फूल शाक सब्जियों  का आतंरिक भाग भी संक्रमित हो रहा था |तंजानियाँ जैसे कुछ देशों में  फलों का आतंरिक परीक्षण करने पर फलों के अंदर भी संक्रमण पाया गया | कुछ देशों ,नदियों नालों के जल में संक्रमण के बिषाणु पाए गए थे |

     मनुष्य भी संक्रमित खाद्यसामग्री खा पी रहे थे | उसी संक्रमित हवा में साँस ले रहे थे | जिससे मनुष्य भी बिना किसी का स्पर्श किए स्वयं ही संक्रमित होते जा रहे थे |बनस्पतियों या निर्मितऔषधियों का प्रयोग करने पर भी रोग बढ़ता जा रहा था | उसका कारण बनस्पतियों  या औषधियों आदि का भी संक्रमित होना था | ऐसी स्थिति में उनसे निर्मित औषधियों से रोगियों को रोगमुक्ति मिलते नहीं दिखाई पड़ रही थी |उसी बिषैले वातावरण में पल्लवित होने के कारण बनस्पतियाँ भी स्वतः गुणहीन होती जा रही थीं

     ऐसा दुष्प्रभाव समस्त वृक्षों बनस्पतियों फलों आदि सब पर पड़ते देखा जा रहा था ! 27 जनवरी 2024 को एक समाचारपत्र  में प्रकाशित हुआ -"समय के साथ पौधों ने मिट्टी से पोषक तत्व लेने की अपनी क्षमता खो दी है | इसके बारे में 2023 में कराया गया आईसीएआर के ताजे अध्ययन में साफ कहा गया कि अनाज पर निर्भर आबादी में जिंक और आयरन की कमी के कारणों पर गौर किया गया. जब अधिक उपज देने वाले चावल और गेहूँ  की किस्मों का परीक्षण किया गया, तो अनाज में जस्ता और लोहे की मात्रा कम पाई गई. गेहूँ -चावल आदि की गुणवत्ता में भारी गिरावट आ चुकी है |"

      कुलमिलाकर प्रकृति परिवर्तन का प्रभाव सभी पर पड़ा था | जिसप्रकार से अधिक उपज देने वाले चावल और गेहूँ की गुणवत्ता में भारी गिरावट हो जाती है | उसीप्रकार सभी जीवों जंतुओं मनुष्यों में अधिक प्रजनन के कारण उनकी गुणवत्ता में कमी अर्थात प्रतिरोधक क्षमता क्षीण होने लगी थी | इससे शारीरिक के साथ साथ मानसिक दुर्बलता भी दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी |

                              


         घटनाओं की शिकायत न करके अपितु उन्हें समझना होता है !

        जिस प्रकार से पैर के अनुशार जूता बनाया जाता है न कि जूते के अनुसार पैर बनाया जाता है | किसी के पैर के लिए बनाया गया जूता यदि उसके पैर में ठीक न बैठे तो गलती न पैर की होती है और न ही जूते की प्रत्युत गलती उस कारीगर की होती है जिसने वह जूता बनाया होता है | जूता बनाने में हुई गलती को छिपाने के लिए कोई कारीगर यदि पैर को ही गलत सिद्ध करने लगे तो ये न तो तर्कसंगत होगा और न ही उपयोगी होगा |यह कारीगर के लिए भी लाभप्रद नहीं होगा | कारीगर की सार्थकता तभी है जब वो पैर के अनुरूप जूता बना ले |

       इसीप्रकार अनुसंधान  प्राकृतिक घटनाओं को समझने के लिए किए जाते हैं न कि प्राकृतिक घटनाओं में गलती निकालने के लिए किए जाते हैं |महामारी के स्वरूपपरिवर्तन को ही लिया जाए तो हमारा लक्ष्य ऐसा होने के रहस्य को सुलझाना होना चाहिए | जिसप्रकार से छोटी कच्ची अंबी देखने में हरी होती है उसकी गुठली मुलायम एवं स्वाद खट्टा होता है !वही अंबी जब पकती है तो उसका रंग पीला गुठली कठोर एवं स्वाद मीठा हो जाता है | जो आम की इस स्वाभाविक प्रक्रिया से परिचित है वो तो इसे आम का सहज स्वभाव मानेगा और जो परिचित नहीं है वो इसे आम का स्वरूप परिवर्तन मानकर इसे शंका की दृष्टि से देखेगा | महामारी के स्वरूपपरिवर्तन को भी इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए | संभव है कि जिसे हम स्वरूपपरिवर्तन समझ रहे हैं वह महामारी का सहज स्वभाव ही हो |

     इसलिए हमें अनुसंधान पूर्वक यह पता लगाना चाहिए कि महामारी का स्वरूप परिवर्तन हो भी रहा है या नहीं और यदि हो रहा है तो इसके लिए जिम्मेदार वास्तविक कारण कारण क्या है और उसका प्रभाव क्या होगा | उसका निवारण कैसे होगा आदि प्रश्नों के उत्तर कैसे खोजे जाएँ | इसके बिना महामारी के स्वरूपपरिवर्तनों से पीड़ित समाज की सुरक्षा कैसे की जा सकेगी | 

     ऐसे ही मौसमसंबंधी अनुसंधानों के क्षेत्र में होता है|  एक वर्ष में पहले उतने दिन वर्षा होती थी अब इतने दिन होती है !मानसून आने और जाने की तारीखें पहले वो थीं अब ये हैं| पहले इस सप्ताह में उतने सेंटीमीटर बारिश होती थी अब इतने सेंटीमीटर होती है | इस साल वर्षा ने इतने वर्षों का रिकार्ड तोड़ा सर्दी ने उतने वर्षों का रिकार्ड तोड़ा और गर्मी ने उतने वर्षों का रिकार्ड तोड़ा है |इसप्रकार का समाचारबाचन समाज के लिए कैसे उपयोगी हो सकता है ! प्राकृतिक घटनाएँ तो स्वतंत्र होती हैं उनमें परिवर्तन करना मनुष्य के बश की बात नहीं है | उन्हें समझना और उनका उपयोग मानवता के हित में कर लेना यही अनुसंधानों का उद्देश्य है | 

       हमारा उद्देश्य यदि अपनी प्यास बुझाने के लिए जलसंग्रह करना है ,तो वर्षा होने पर हमें जल संग्रह करने में लग जाना चाहिए हमारी भलाई उसी में है |यदि हम ऐसा न करके वर्षा होने पर वर्षा के वेग या बादलों के रंग आकार प्रकार वायुसंचार आदि के विषय में बातें करते रहें कि पहले वैसा होता था और अब ऐसा होता है ,तो इससे न तो हमारे लिए जल संग्रह होगा और न ही हमारी प्यास बुझेगी |

     इसलिए  हम यदि प्राकृतिक घटनाओं का ही वर्णन करते रहें तो इससे समाज का क्या भला होगा | ऐसी बातों से किस प्रकार के समाधान निकलने की आशा की जा सकती है | उचित तो यह है कि पहले वैसा होता था अब ऐसा होता है इसके कारण खोजे जाएँ कि पहले वैसा क्यों होता था और अब ऐसा क्यों होता है ! इसका कारण क्या है | जब वैसा होता था तब उसका प्रभाव कैसा होता था और अब ऐसा होता है तो उसका प्रभाव  कैसा होगा |ये पता लगाया जाना चाहिए | इससे प्राप्त अनुभवों का जनहित में उपयोग किया जाना चाहिए |  

   इसी प्रकार से प्रकृति के किसी भी क्षेत्र में घटनाओं को पकड़कर बैठने या उनके विषय में आश्चर्य करने से अच्छा यह पता लगाना है कि पहले वैसा क्यों होता था और अब ऐसा क्यों होता है ?उसके अनुशार उस प्रकार की घटनाओं के समाधान खोजे जाने चाहिए |

       इसी प्रकार से जलवायुपरिवर्तन के कारण आज के सौ दो सौ वर्ष बाद क्या क्या होगा ये प्रचारित करने की अपेक्षा ये पता लगाए जाने की आवश्यकता है कि प्रकृति के प्रत्येक कण में प्रतिपल परवर्तन होते रहते हैं | जलवायुपरिवर्तन भी उसीप्रकार का परिवर्तन है या कुछ और !दूसरी बात जलवायुपरिवर्तन होता भी है या नहीं और यदि होता है तो उसके लक्षण क्या है प्रभाव क्या है और उसका कारण क्या है | उसके प्रभाव से घटित होने वाली जनधन हानि कारक घटनाओं का निवारण क्या है ! ऐसे प्रश्नों के उत्तर खोजे जाने की आवश्यकता है |ये जनहित में उपयोगी हो सकते हैं | 

      इसके अतिरिक्त जलवायुपरिवर्तन के कारण आज के सौ दो सौ वर्ष बाद क्या होगा मौसम में कैसी कैसी घटनाएँ घटित होंगी उनका प्रकृति और जीवन पर कैसा कैसा प्रभाव पड़ेगा ! इसके विषय में काल्पनिक रूप से कुछ भी कह सुन लिया जाए किंतु वास्तव में जलवायुपरिवर्तन के कारण आज के सौ दो सौ वर्ष बाद प्रकृति और जीवन में कैसी कैसी घटनाएँ होंगी यह तब तक कैसे पता लगाया जा सकता है जब तक ऐसा कोई विज्ञान नहीं है जिसके द्वारा भविष्य में झाँकना संभव हो | वैसे भी जिस वैज्ञानिक पद्धति से एक सप्ताह पहले का सही सही पूर्वानुमान लगाया जाना आज तक संभव नहीं हो पाया है| इसीलिए विगत दसवर्षों में मौसमसंबंधी जितनी भी बड़ी घटनाएँ घटित हुई हैं| उनमें से किसी के  विषय में भी पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सका है सभी अचानक ही घटित हुई हैं | कोरोना महामारी भी अचानक ही आई है | उसके विषय में भी किसी भी प्रकार का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सका है|महामारी की जितनी भी लहरें आई हैं उनके विषय में कोई सही पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं हो पाया है | ऐसी स्थिति में जलवायुपरिवर्तन के प्रभाव से आज के सौ दो सौ वर्ष बाद क्या होगा उसका पूर्वानुमान कैसे लगाया गया वह कितना विश्वसनीय है आदि बातों का कोई भरोसा करने लायक उत्तर दिया जाना कैसे संभव है | 

    कुल मिलाकर  जलवायुपरिवर्तन होने का कारण क्या है और इसके होने से होता क्या है ये दोनों बातें अभीतक स्पष्ट नहीं हैं | इसलिए इसे आधार बनाकर महामारी जैसी घटनाओं के विषय में कोई पूर्वानुमान लगाया जाना कैसे संभव है | 

    इसलिए प्राकृतिक घटनाओं के रूप में  जितने भी प्रकार के ऐसे संकेत मिलते हैं | जो अचानक या बहुत अंतराल के बाद  दिखाई पड़ रहे होते हैं| उन पर विशेष ध्यान दिया जाना आवश्यक होता है | ऐसी घटनाएँ कहाँ घटित हो रही हैं ! किस समय घटित हो रही हैं | किस तत्व से संबंधित घटनाएँ हैं | उनके साथ साथ या उनसे आगे पीछे दूसरी और कौन कौन सी प्राकृतिक घटनाएँ घटित हो रही हैं | वे किन किन तत्वों से संबंधित घटनाएँ हैं | किस घटना से कितने आगे पीछे घटित हो रही हैं | ऐसी सभी बातों पर विशेष ध्यान देते हुए भविष्य की घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाना होता है | 

     प्राचीनविज्ञान की दृष्टि में प्रकृति में घटित हो रही प्रत्येक घटना केवल घटना ही नहीं होती है अपितु वे भविष्य के लिए कुछ संकेत होते हैं |यदि प्रकृति में लीक से हटकर घटित होने वाली घटनाओं का कारण जलवायु परिवर्तन है तो जलवायुपरिवर्तन होने का कारण क्या है ये खोजना होगा ! इसके बिना न तो उन घटनाओं के भविष्य के स्वरूप को समझना संभव होगा और न ही उनके प्रभाव से पैदा होने वाली कुछ दूसरी घटनाओं को समझना ही संभव होगा | इनके विषय में पूर्वानुमान लगाना भी संभव नहीं होगा |


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