बुधवार, 27 अप्रैल 2016

पतंजलि योगी थे या ब्यापारी ! पतंजलि के नाम पर व्यापार क्यों अपने नाम पर क्यों नहीं ?

     पतंजलि लाया है कद्दू ! पतंजलि लाया है भिंडी !पतंजलि  लाया  है टिंडे !पतंजलि लाया है बंडे ,आलू मूली बैगन आदि और भी बहुत कुछ !अरे !ये सब क्या हो रहा है ?क्या यही दिन देखने थे महर्षि पतंजलि को !आज हम उनका नाम भी इतने ओछे ढंग से ले रहे हैं "पतंजलि लाया है" ये ठीक लग रहा है क्या बारे कलियुगी योगियो !     हमें इतनी सभ्यता तो होनी चाहिए कि अपने माता पिता पूर्वजों साधू संतों महापुरुषों योगियों ऋषियों मुनियों का नाम कैसे लेना है और यदि हम खुद इतना नहीं सीख पाए तो किसी को योग क्या सिखाएँगे ख़ाक !जब हम्हीं अपने ऋषियों मुनियों को ऐसे अपमानित करेंगे तो अन्य सम्प्रदाय के लोगों से क्या आशा की जानी चाहिए !
          महर्षि पतंजलि सनातन धर्मियों के लिए श्रद्धापुरुष हैं उनका नाम तो तमीज से लिया जाना चाहिए !ऋषियों मुनियों और धार्मिक प्रतीकों पर किसी की बपौती नहीं हो सकती और न ही उन्हें अपमानित करने का अधिकार ही किसी को दिया जा सकता है !धन हो जाने का मतलब ये नहीं होता कि हम पैसे के बल पर ऋषियों मुनियों को अपमानित करने लगेंगे !
    संन्यास के प्रति सनातन धर्म में बनी अगाध श्रृद्धा और महर्षि पतंजलि जैसे दिव्य देवताओं के प्रति बने असीम जनविश्वास को बेच कर यदि धन इकठ्ठा कर भी लिया जाए तो इसमें कलाकारी क्या है ?धर्म को आगे रखकर  धार्मिक साधू संतों जैसा वेषबनाकर धर्म प्राण महर्षि पतंजलि के प्रति बनी श्रृद्धा का दोहन करके योग के नाम पर व्यायाम सिखाकर यदि धन संग्रह कर भी लिया जाए तो इसे नैतिक कमाई नहीं कहा जा सकता !
     जिस धर्म को ओढ़कर बिना कुछ व्यापार किए हुए "मलमल बाबा""साईँ बाबा' 'तमाशाराम' जैसे लोग यदि  धन का अम्बार लगा सकते हैं तो धर्म के नाम  पर ही व्यापार करने वालों की सम्पत्ति यदि बढ़ जाए तो इसमें आश्चर्य क्या है ?
     धर्म के नाम पर धार्मिक वेषभूषा  के प्रति बने विश्वास एवं महर्षिपतंजलि जैसे ऋषियों मुनियों के नाम पर बने जन विश्वास का उपयोग करके यदि कोई व्यापार चमका ही ले तो इसमें चमत्कार उस साधू संत वेष और महर्षि पतंजलि के प्रति समाज की श्रद्धा का है न कि उस व्यक्ति का !जिस व्यक्ति में व्यापारिक योग्यता होगी वो व्यापार भावना से अपने बलपर अपने नाम पर व्यापार करेगा न कि व्यापार के लिए धर्म एवं धार्मिक प्रतीकों की आड़ में छिप कर  व्यापार करेगा !
     धर्म और संन्यास के अपने अपने शास्त्रीय नियम धर्म होते हैं साधूसंत उन नियमों धर्मों से बँधे होते हैं जिनका पालन करते हुए व्यापार हो ही नहीं सकता है !
कालेमन अर्थात रोगी और मलयुक्त मन को साफ करने के ईश्वर चिंतन में विलीन हो जाने का नाम है संन्यास !यह इतना कठोर व्रत है कि इसमें हर श्वाँस ईश्वर के चरणों में सौंपनी होती है इसलिए संन्यास व्रत का निर्वाह करते करते व्यापार जैसा कुछ और नहीं किया जा सकता !  
   कालेमन को साफ करने के लिए जो संन्यास लेगा या वास्तव में योगी होगा और उसका मन यदि वास्तव में वहाँ लग ही गया तो वो उस मस्ती में खो जाएगा उसका मन व्यापारिक प्रपंचों में कहाँ लगेगा और यदि उसमें खोया नहीं तो योगी किस बात का संन्यासी कैसा !महर्षि पतंजलि ने इसीलिए तो कहा था कि "योगश्चित्त वृत्ति निरोधः"!
  कालेतन अर्थात मल युक्त अस्वस्थ शरीरों को शुद्ध करने की प्रक्रिया है योग !
     योगियों को दवा बनाने और बेचने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी क्योंकि योगी यौगिक क्रियाओं के द्वारा अपने शरीर को मलरहित अर्थात शुद्ध बना लेता है और शुद्ध शरीरों में रोग होता नहीं है  ऐसा महर्षि पतंजलि स्वयं कहते हैं -
           'कायेंद्रिय सिद्धिरशुद्धि क्षयात्तपसः'
 'अर्थात तपस्या से शरीर के मलों का नाश  हो जाता है इससे शरीर स्वस्थ एवं इन्द्रियाँ प्रसन्न हो जाती हैं फिर दवाओं का क्या काम !
    महर्षि पतंजलि के नियमानुसार योग के साथ दवाओं का क्या विधान !योग से ही निरोग मिल जाता है योग तो अमृत है !योग स्वयं में केवल औषधि ही नहीं अपितु अमृत भी है वैसे भी जिन यौगिक क्रियाओं के बलपर ऋषि मुनि लोग मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लिया करते थे तो ऐसे दिव्य योग के लिए शरीर को स्वस्थ करना कौन बड़ी बात है ।
    ऐसे योग सिखाने वाले लोग जब दवा भी बेचने लगते हैं तो प्रश्न उठता है उनके योग और योग के भरोसे पर ! ऐसे लोगों को यदि योग  पर इतना ही भरोसा होता और वो वास्तव में योग जानते ही होते तो बीमारियों को यौगिक क्रियाओं से ही ठीक करते उसके लिए उन्हें अलग से दवाएँ नहीं देनी पड़तीं ! ये उन लोगों की योग दुविधा का सशक्त उदाहरण है ।
   महर्षि पतंजलि के  योगासन -
  महर्षि पतंजलि ने आसनों की चर्चा के नाम पर केवल " स्थिरसुखमासनम् " अर्थात जिस आसन पर सुख पूर्वक स्थिर होकर बैठा जा सकता हो वही आसन है  इस हिसाब से तो हाथ पैर तोड़ने मोड़ने वाले आसनों की चर्चा तो महर्षि पतंजलि करते ही नहीं हैं अपितु ऐसा करने के लिए रोकते भी हैं तभी तो उन्होंने ' स्थिर 'शब्द का प्रयोग किया है ,किंतु जो लोग पतंजलि की योग भावना को नहीं समझते वे योग को क्या समझेंगे इसीलिए अपने अज्ञान के कारण ही कसरत व्यायाम आदि को योग बताया करते हैं ये उनका भ्रम होता है इसीलिए उनके योग से शरीर निरोग नहीं होता इसलिए दवाएँ बेचनी पड़ती हैं अन्यथा योगी को दवाओं की क्या जरूरत !
     महर्षि पतंजलि संसार के समस्त व्यापारों से विरक्त  होने  की बात करते हैं फिर उनके नाम पर व्यापार !
     महर्षि पतंजलि तो व्रत संयम आदि से शरीर शुद्धि की बात करते हैं फिर उन पतंजलि के नाम से आटा नूडल बिस्कुट जैसी चीजें बेचने का अभिप्राय क्या है ?
      कुल मिलाकर ऐसे लोगों के कारण महर्षि पतंजलि के यौगिक सिद्धांतों का न केवल गौरव गिरा  है अपितु उनका उपहास भी हुआ है !
    आपसे एक और निवेदन है कि प्राचीन काल से जिस धर्म के द्वारा धार्मिक महापुरुष लोग समाज में सहनशीलता और संस्कार पैदा किया करते थे ,महिलाओं का सम्मान और समाज में भाईचारे की भावनाओं का सृजन किया करते थे हमारे साधू संत ऐसे संस्कारों के लिए सबको प्रेरित किया करते थे,इसीलिए उन पर और उनकी बातों एवं वेषभूषा पर समाज को आज तक भरोसा है ।जो हजारों लाखों वर्षों में कठोर साधना तपस्या पूर्वक साधू संतों ने बनाया है । अपने पूज्य ऋषियों के उस विश्वास को व्यापार कैसे बन जाने दिया जाए किसी के द्वारा ब्यापार चमकाने के लिए साधू संतों  की वेषभूषा धारण करने को धर्म का दुरूपयोग क्यों न माना जाए !ऐसे तो  ये विकार धीरे धीरे अन्य लोगों में भी आते चले जाएँगे!
    महोदय ! ब्यापार का प्राण होता है 'विश्वास' ! व्यापार करने के लिए समाज का विश्वास जीतना सबसे बड़ी चुनौती होती है इसके लिए व्यापारी लोग अपना सारा जीवन लगा देते हैं कितनी कसौटियों से होकर गुजरते हैं वे  तब कहीं खड़ा हो पाता है विश्वास और विश्वास की नींव पर खड़ी होती ब्यापार की इमारत ।वहीँ दूसरी ओर कोई अन्य ब्यापारी ऐसे कठोरतम संघर्ष से बचते हुए वही जन विश्वास जीतने के लिए साधूसंतों एवं महर्षि पतंजलि के प्रति अनंतकाल से बने चले आ रहे सामाजिक विश्वास को व्यापार के लिए कैस करने हेतु साधू संतों जैसी वेषभूषा धारण करके पतंजलि पतंजलि करने लगे तो उसपर समाज के द्वारा अचानक किए गए विश्वास को साधू संतों  एवं 'महर्षिपतंजलि'पर किया हुआ भरोसा माना जाना चाहिए !साधू संतों एवं 'महर्षिपतंजलि' का प्रसाद मानकर ही समाज ने ऐसे उत्पादों को स्वीकार किया है !यदि ऐसा मान लिया जाए तो जिसके प्रति भरोसा व्यापार उसका !
     दूसरी बात बिगत कुछ वर्षों से सामाजिक प्रपंचों में सम्मिलित कुछ साधू संतों एवं आश्रमों की वर्तमान गतिविधियाँ साधूसन्तों एवं आश्रमों की शास्त्रीय एवं सामाजिक मर्यादाओं के विरुद्ध पकड़ी गईं ऐसे बाबा लोग ऐसी गतिविधयों में आरोपी भी बनाए गए हैं । ऐसी घटनाएँ घटने पर सदाचारी साधू संत समाज के साथ साथ  समस्त  धार्मिक समाज को भी कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है महीनों तक होता है मीडिया ट्रायल !वो लोग भी दवा दारू से लेकर और भी बहुत कुछ बेचते देखते जाते रहे हैं ।
   इसलिए  व्यापारिक गतिविधियों को चलाने हेतु विश्वास ज़माने के लिए किसी को धर्म ,धार्मिक महापुरुषों एवं धार्मिक प्रतीकों तथा धार्मिक वेषभूषा का उपयोग करने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए ! क्योंकि इन पर उस सारे समाज का अधिकार समान रूप से होता है फिर किसी को व्यक्तिगत उपयोग की अनुमति क्यों ?
     वैसे भी बढ़ते प्रदूषण एवं खानपान की बिगड़ती  शैली में स्वास्थ्य की दृष्टि से आशंकित रहने वाले भयभीत समाज को  अगर बताया जाए कि बाजारों में उपलब्ध खाद्यपदार्थ आदि बहुत सारे उत्पाद मिलावटी मिल रहे हैं दूषित हैं इसलिए महर्षिपतंजलि के यहाँ से अमुक अमुक ...... स्वामी जी ने वही उत्पाद शुद्ध बनाने बेचने प्रारंभ किए हैं !महर्षि पतंजलि का नाम अपने साथ जोड़कर उन्हें मेडिकेटेड सिद्ध कर देना ये व्यापारिक चतुराई है जो गलत है !
    जिन व्यापारियों की निंदा कर कर के ऐसे बाबा लोग अपना व्यापार चमकाते हैं वे बेचारे धर्म भय अर्थात धार्मिक वेष  भूषा होने के कारण ऐसे लोगों की झूठी बातें भी आस्थावश चुप चाप सह लेते हैं व्यापारिक कार्यों में कुछ गलतियाँ  तो होती ही रहती हैं इस अपराध बोध से भी वे बेचारे शांत रह जाते हैं ऐसे लोगों के मौन होने के कारण ही समाज बाबाओं के झूठ को भी सच मान लेता है ।
   यदि वास्तव में मार्केट के अन्य व्यापारियों कंपनियों का बनाया हुआ सामान मिलावटी या इतना हानि कारक ही है तो सरकार कर क्या रही है ये उसका दायित्व है कि वो ऐसे लोगों पर नकेल लगाए !या कोर्ट का सहारा लिया जाए किंतु औरों पर अविश्वास पैदा करके अपना विश्वास ज़माने का ढंग तो ठीक नहीं है !
    साधूसंतों जैसी वेषभूषा में  "ऋषिपतंजलि" का स्वयम्भू  उत्तराधिकारी बन कर अपना तो व्यापार चमकाना और दूसरों की निंदा करना ये ब्यापारी समाज पर अत्याचार नहीं तो क्या है ?
     इसी प्रकार से कसरत और व्यायाम जैसे समाज में प्रचलित दैनिक जीवन के सहज और स्वाभाविक आचारों ब्यवहारों को योग बता कर बेचने लगना गलत है !
    यहाँ सबसे बड़ा छल इस बात का हुआ है कि ऐसे बाबा लोग टीवी चैनलों पर बड़े बड़े भयानक रोगों की लंबी लंबी लिस्टें पढ़ पढ़कर सुनाते रहे लोग समझते रहे कि सच ही बोल रहे होंगे किंतु इनके ऐसे दावों संबंधी लाभ का कहीं कोई परीक्षण किया गया या नहीं  इस ओर गौर किसी ने नहीं किया !मुझे भय है कि ऐसे लोगों के बड़बोलेपन से हजारों वर्षों से प्रचलित योग जैसे दिव्य विज्ञान का कहीं उपहास न हो जाए !
    यदि टाँगें टेढ़ी सीधी करना योग है तो लोग सोचेंगे कि ऐसी एक्सरसाइज तो हम भी हमेंशा से  करते आ रहे हैं इसकी अपेक्षा भारत के योग में अलग से ऐसी  गुणवत्ता क्या है यदि वे ऐसे प्रश्न कर ही देंगे तो ऐसी परिस्थिति में योग के प्राचीन गौरव को बचाकर कैसे रखा जा सकेगा !
         योग तो आत्मा परमात्मा के मिलन का नाम है कहाँ वो योग और कहाँ ये कसरत व्यायाम जिसकी जरूरत ग्रामीणों किसानों मजदूरों या अन्य प्रकार के परिश्रमी लोगों को कभी नहीं रही उन्हें ऐसे व्यायामों की अपेक्षा बहुत अधिक परिश्रम प्रतिदिन करना होता है तब वो भर पाते हैं अपने बच्चों का पेट !
   शारीरिक श्रम करने वाले लोग जिसे परिश्रम कहते हैं वो शारीरिक परिश्रम जिन्हें नहीं करना पड़ता है पेट भरने के साधन भगवान की दया से ठीक ठाक हैं ऐसे लोग यदि खिड़की में पोछा मार दें या दो किलो सब्जी उठा लें तो उन्हें ये काम नौकरों वाले लगते हैं इससे ऐसा करने में बेइज्जती मानते हैं वे ! इसी शान में शरीर बर्बाद किए ले रहे हैं !ऐसे मानसिक रईसों के लिए उसी परिश्रमी प्रक्रिया का इंजेक्सन है आधुनिकयोग जैसे शरीर में पानी की कमी हो जाती है तो पानी चढ़ाना पड़ता है खून की कमी हो जाती है तो खून चढ़ाना पड़ता है इसी प्रकार से शरीर में यदि परिश्रम की कमी हो तो परिश्रम कराना पड़ता है इसी परिश्रम कराने की प्रक्रिया को आज कल लोग योग कहने लगे और जो हाथ पैर हिला लेते हैं वो अपने को योगी मान लेते हैं किंतु किसानों मजदूरों या अन्य प्रकार से परिश्रम करने वालों को ऐसी कसरतों की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है !
    जो लोग किसी एक व्यक्ति को श्रेय देते हुए कहते हैं कि अमुक ने योग को घर घर पहुँचा दिया ऐसे लोगों को इतना बड़ा झूठ बोलने से  पहले शर्म और संकोच दोनों लगने चाहिए क्योंकि ऐसे कसरती योग की आवश्यकता केवल उन मुट्टी भर लोगों को ही  है जो केवल खाते हैं उसे पचाने के लिए शारीरिक श्रम नहीं करते जबकि सृष्टि का विधान है कि जो खाएगा उसे काम करना पड़ेगा अन्यथा पचेगा ही नहीं किंतु जिनका जीवन नौकरों के आधीन है ऐसे लोगों के शरीर हिलते ही नहीं हैं तो पेट साफ नहीं होता तो अंदर की दुर्गन्ध स्वास्थ्य ख़राब करती रहती है केवल ऐसे लोगों को पेट हिलाना सिखाया जाना योग हो गया क्या ?ये योग का उपहास नहीं तो क्या है !
        ऐसे बाबा लोग महर्षि'पतंजलि'के योग के प्रति एवं आयुर्वेद के प्रति तथा साधू संतों की वेष भूषा के प्रति समाज की श्रृद्धा विश्वास का दुरूपयोग कर रहे हैं इसका असर अन्य साधूसंतों के विश्वास पर भी पड़ने लगा है लोग धर्म कर्म एवं वैराग्य जैसी बातों  से विमुख होकर व्यापारों की ओर लौटने लगे हैं जो समाज के  भविष्य निर्माण कार्य की दृष्टि से बिषैला सिद्ध होगा !
      ऐसी परिस्थिति में धर्म और अध्यात्म का क्या होगा जो इस देश की जन भावना के प्राण हैं जिनके बलपर हजारों वर्षों से भारतीय लोग आपस में मिलजुलकर साथ साथ रह लिया करते थे।आज वो भी व्यापार बनती   जा रही है ।                           
                         निवेदक  भवदीय -
           राजेश्वरी प्राच्य विद्या शोध संस्थान (रजि.)

---------आचार्य डॉ. शेष नारायण वाजपेयी ---------- एम. ए.(व्याकरणाचार्य) ,एम. ए.(ज्योतिषाचार्य)-संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी
       एम. ए.हिंदी -कानपुर विश्वविद्यालय \ PGD पत्रकारिता -उदय प्रताप कालेज वाराणसी
                 पीएच.डी हिंदी (ज्योतिष)-बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (BHU )वाराणसी
      

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