आदरणीय प्रधानमंत्री जी !
सादर नमस्कार ।
विषय : मानसिक तनाव के कारण बढ़ती आत्महत्या को रोकने हेतु वैदिकविधा से किए जा रहे प्रभावी शोधकार्य के लिए सहयोग हेतु आपसे निवेदन !
महोदय ,
सादर नमस्कार ।
विषय : मानसिक तनाव के कारण बढ़ती आत्महत्या को रोकने हेतु वैदिकविधा से किए जा रहे प्रभावी शोधकार्य के लिए सहयोग हेतु आपसे निवेदन !
महोदय ,
पिछले लगभग बीस वर्षों से मैं मानसिक तनाव को घटाने एवं आत्महत्याओं को रोकने के क्षेत्र में निजी प्रयासों के द्वारा वैदिकविधा से कार्य करता आ रहा हूँ जिसमें मुझे काफी सफलता भी मिली है किंतु इस शोध कार्य को विस्तार देने के लिए मुझे सरकार के प्रबल सहयोग की आवश्यकता है !
महोदय ! वैदिकविधा से रिसर्च की प्रक्रिया में मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद की हो या एलोपैथ की उनके पास मनोरोग को घटाने के लिए कुछ ख़ास है ही नहीं क्योंकि मनोरोग शरीर संबंधी बीमारी नहीं है और वो चिकित्सक शरीर के होते हैं ।
श्रीमान जी !चिकित्सकों के पास मनोरोगों पर नियंत्रण कर सकने की यदि कोई प्रभावी विधा होती तो औषधीय चिकित्सा के द्वारा कम से कम उन लोगों को तो बचाया जा ही सकता था जो इलाज करा सकने में समर्थ थे जबकि कई चिकित्सकों अफसरों शिक्षकों व्यापारियों आदि के द्वारा भी आत्महत्या करने जैसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएँ देखने सुनने को मिलती हैं !ऐसे लोग साधन सक्षम होने के कारण अपनी चिकित्सा तो करा ही सकते थे !
वैसे भी मन की जाँच रोगी और रोगी के परिजनों से पूछताछ के ही की जा सकती है किंतु जहाँ तनाव की वजह स्पष्ट होती है वहाँ तो वो बता पाते हैं बाकी नहीं !
महोदय ! प्राचीनकाल में जिस योग का प्रचलन था उससे निरंतर साधना एवं अभ्यास पूर्वक व्यक्ति अपने को अपने मन की स्थिति से ऊपर स्थापित कर लेता था जहाँ ईर्ष्या द्वेष सुख -दुःख आदि की पहुँच ही नहीं होती थी तो तनाव कैसे होता किंतु वो प्रक्रिया न तो आसान है और न ही हर किसी के बश की है !योग आसनों या कसरत व्यायामों सामान्य प्राणायामों आदि की मनोरोग के क्षेत्र में कोई विशेष भूमिका नहीं है ये शरीर को स्वस्थ और मजबूत बनाने के प्रयास मात्र हैं ऐसे व्यायाम या योगासन शारीरिक चिकित्सा पद्धति के सहयोगी हो सकते हैं किंतु इनका मन से कोई विशेष संबंध नहीं है !
चिंताग्रस्त या मानसिक तनाव से ग्रस्त लोग ण को आसन व्यायाम करने में भी आलस करते हैं उन्हें रात को नींद नहीं आती और दिन को भूख नहीं लगती है इससे होने वाले कब्ज और तवाव से होने वाली सैकड़ों प्रकार की बीमारियाँ तनावग्रस्त लोगों को घेर लेती हैं !
मान्यवर !मेरा मानना है कि तनाव तीन प्रकार से पैदा होता है पहला तो अतीत में हुई गलतियों से सशंकित भविष्य संबंधी भय के कारण दूसरा जरूरी जरूरतें पूरी न हो पाने के कारण और तीसरा अकारण अपनी ऊटपटाँग सोच के कारण तनाव होता है ।
महोदय ! हम जो जब जिससे जितना और जैसा चाहें वैसा न हो तो तनाव होता है किंतु वैसा ही हो यह सुनिश्चित कैसे किया जा सकता है ऐसा कर पाना किसी चिकित्सा प्रक्रिया के बश की बात भी नहीं है इसके लिए कुछ प्रतिशत तक अभाव की परिस्थितियाँ जिम्मेदार हो सकती हैं किंतु जिनके पास अभाव नहीं भी है तनाव तो उन्हें भी होता है ।
दूसरा पक्ष एवं हमारे रिसर्चकार्य का विचारणीय महत्त्वपूर्ण विषय तनाव के कारण बढ़ती आत्महत्याओं को कैसे रोक जाए इस दृष्टिकोण से अध्ययन करने पर एक नई बात सामने आई कि तनाव की सारी परिस्थितियाँ एक जैसी बनी रहने पर भी कभी हम तनाव सह पा रहे होते हैं और कभी नहीं ऐसा क्यों ?अर्थात हमारी सहनशीलता यदि बढ़ा ली जाए तो तनाव घट जाता है और सहनशीलता घटते ही तनाव बढ़ जाता है इसप्रकार से हमारी अपनी सहनशीलता का स्तर घटने बढ़ने से हम परेशान होते हैं ये सहनशीलता का लेवल जितना बढ़ेगा हमारा तनाव उतना घट जाएगा और इसके घटते ही बढ़ भी जाएगा ऐसी ही परिस्थितियों में ही कई बार हम छोटी छोटी बातों का बड़ा बड़ा तनाव लेकर बैठ जाते हैं हम और लोगों से सम्बन्ध तक बना बिगाड़ लेते हैं ; इसलिए मेरा मानना है कि सहनशीलता यदि बढ़ा ली जाए तो घट सकती हैं आत्महत्या जैसी दुखद दुर्घटनाएँ !
हमारी सहनशीलता हमारे जीवन में कब और कैसे और कितने समय के लिए घटती है और उसे कैसे नियंत्रित रखा जा सकता है इसके लिए क्या करना चाहिए आदि बातों पर हमने न केवल रिसर्च किया है अपितु उसके सकारात्मक और प्रभावी परिणाम भी सामने आए हैं !
महोदय !अतएव आपसे निवेदन है कि सरकार के द्वारा हमारे इस कार्य में हमारी मदद की जाए !
मानसिकतनाव चिंता आदि । हम जो चाह रहे होते हैं जैसा चाह रहे होते जिससे चाह रहे होते हैं या जिसे और जितना चाह रहे होते हैं वो वैसा न हो पाने पर हमें तनाव होता है हमारे पास जितना है और जितना हम पाना चाहते हैं इस आपसी अंतरजनित खिंचाव को ही हम तनाव कहते हैं।
महोदय ! वैदिकविधा से रिसर्च की प्रक्रिया में मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद की हो या एलोपैथ की उनके पास मनोरोग को घटाने के लिए कुछ ख़ास है ही नहीं क्योंकि मनोरोग शरीर संबंधी बीमारी नहीं है और वो चिकित्सक शरीर के होते हैं ।
श्रीमान जी !चिकित्सकों के पास मनोरोगों पर नियंत्रण कर सकने की यदि कोई प्रभावी विधा होती तो औषधीय चिकित्सा के द्वारा कम से कम उन लोगों को तो बचाया जा ही सकता था जो इलाज करा सकने में समर्थ थे जबकि कई चिकित्सकों अफसरों शिक्षकों व्यापारियों आदि के द्वारा भी आत्महत्या करने जैसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएँ देखने सुनने को मिलती हैं !ऐसे लोग साधन सक्षम होने के कारण अपनी चिकित्सा तो करा ही सकते थे !
वैसे भी मन की जाँच रोगी और रोगी के परिजनों से पूछताछ के ही की जा सकती है किंतु जहाँ तनाव की वजह स्पष्ट होती है वहाँ तो वो बता पाते हैं बाकी नहीं !
महोदय ! प्राचीनकाल में जिस योग का प्रचलन था उससे निरंतर साधना एवं अभ्यास पूर्वक व्यक्ति अपने को अपने मन की स्थिति से ऊपर स्थापित कर लेता था जहाँ ईर्ष्या द्वेष सुख -दुःख आदि की पहुँच ही नहीं होती थी तो तनाव कैसे होता किंतु वो प्रक्रिया न तो आसान है और न ही हर किसी के बश की है !योग आसनों या कसरत व्यायामों सामान्य प्राणायामों आदि की मनोरोग के क्षेत्र में कोई विशेष भूमिका नहीं है ये शरीर को स्वस्थ और मजबूत बनाने के प्रयास मात्र हैं ऐसे व्यायाम या योगासन शारीरिक चिकित्सा पद्धति के सहयोगी हो सकते हैं किंतु इनका मन से कोई विशेष संबंध नहीं है !
चिंताग्रस्त या मानसिक तनाव से ग्रस्त लोग ण को आसन व्यायाम करने में भी आलस करते हैं उन्हें रात को नींद नहीं आती और दिन को भूख नहीं लगती है इससे होने वाले कब्ज और तवाव से होने वाली सैकड़ों प्रकार की बीमारियाँ तनावग्रस्त लोगों को घेर लेती हैं !
मान्यवर !मेरा मानना है कि तनाव तीन प्रकार से पैदा होता है पहला तो अतीत में हुई गलतियों से सशंकित भविष्य संबंधी भय के कारण दूसरा जरूरी जरूरतें पूरी न हो पाने के कारण और तीसरा अकारण अपनी ऊटपटाँग सोच के कारण तनाव होता है ।
महोदय ! हम जो जब जिससे जितना और जैसा चाहें वैसा न हो तो तनाव होता है किंतु वैसा ही हो यह सुनिश्चित कैसे किया जा सकता है ऐसा कर पाना किसी चिकित्सा प्रक्रिया के बश की बात भी नहीं है इसके लिए कुछ प्रतिशत तक अभाव की परिस्थितियाँ जिम्मेदार हो सकती हैं किंतु जिनके पास अभाव नहीं भी है तनाव तो उन्हें भी होता है ।
दूसरा पक्ष एवं हमारे रिसर्चकार्य का विचारणीय महत्त्वपूर्ण विषय तनाव के कारण बढ़ती आत्महत्याओं को कैसे रोक जाए इस दृष्टिकोण से अध्ययन करने पर एक नई बात सामने आई कि तनाव की सारी परिस्थितियाँ एक जैसी बनी रहने पर भी कभी हम तनाव सह पा रहे होते हैं और कभी नहीं ऐसा क्यों ?अर्थात हमारी सहनशीलता यदि बढ़ा ली जाए तो तनाव घट जाता है और सहनशीलता घटते ही तनाव बढ़ जाता है इसप्रकार से हमारी अपनी सहनशीलता का स्तर घटने बढ़ने से हम परेशान होते हैं ये सहनशीलता का लेवल जितना बढ़ेगा हमारा तनाव उतना घट जाएगा और इसके घटते ही बढ़ भी जाएगा ऐसी ही परिस्थितियों में ही कई बार हम छोटी छोटी बातों का बड़ा बड़ा तनाव लेकर बैठ जाते हैं हम और लोगों से सम्बन्ध तक बना बिगाड़ लेते हैं ; इसलिए मेरा मानना है कि सहनशीलता यदि बढ़ा ली जाए तो घट सकती हैं आत्महत्या जैसी दुखद दुर्घटनाएँ !
हमारी सहनशीलता हमारे जीवन में कब और कैसे और कितने समय के लिए घटती है और उसे कैसे नियंत्रित रखा जा सकता है इसके लिए क्या करना चाहिए आदि बातों पर हमने न केवल रिसर्च किया है अपितु उसके सकारात्मक और प्रभावी परिणाम भी सामने आए हैं !
महोदय !अतएव आपसे निवेदन है कि सरकार के द्वारा हमारे इस कार्य में हमारी मदद की जाए !
डॉ .शेष नारायण वाजपेयी
संस्थापक :राजेश्वरी प्राच्य विद्या शोध संस्थान
यह लेवल किसके जीवन में कब और कितने समय के लिए बढ़ेगा और कब घटेगा ये उसकी सह पाने और न सह पाने की क्षमता पर आश्रित होता है ये सहन शक्ति किसी के जीवन में कब कितने समय के लिए बढ़ेगी और कब कितने समय के लिए घटेगी साथ ही जब वो घटती है सारी दुर्घटनाएँ घटती ही तब हैं इसलिए उस सहन शक्ति को बढ़ाया कैसे जाए और घटने की संभावना होने पर किस किस प्रकार की सावधानियाँ बरतकर उसे नियंत्रण में रखने का प्रयास किया जाए के समय सकती ती और कब घटती है है होता दूसरे व्यक्ति या वस्तु या परिस्थितियों के कारण नहीं होता मानसिकतनाव चिंता आदि । हम जो चाह रहे होते हैं जैसा चाह रहे होते जिससे चाह रहे होते हैं या जिसे और जितना चाह रहे होते हैं वो वैसा न हो पाने पर हमें तनाव होता है हमारे पास जितना है और जितना हम पाना चाहते हैं इस आपसी अंतरजनित खिंचाव को ही हम तनाव कहते हैं।
ऐसे तनाव को समाप्त करने के दो रास्ते हैं पहला जो हम जैसा चाह रहे होते हैं वो वैसा हो जाए अथवा उसके प्रति हमारी चाहत कम हो जाए ये दोनों ही बातें चिकित्साशास्त्र के बश की नहीं हैं क्योंकि मस्तिष्क संबंधी परेशानियों में तो चिकित्साशास्त्र की भूमिका होती है किंतु मन पर उनका कोई नियंत्रण नहीं होता क्योंकि मेरे शोधकार्य के अनुभवों के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि मन की जाँच करने की कोई विधा नहीं है और न ही मन के लिए कोई औषधि ही है । मन तो अच्छे बुरे विचारों से सुखी दुखी होता है वो अपने हों या किसी और के किंतु विचारों पर चिकित्सा शास्त्र का क्या नियंत्रण विचार तो मन रूपी समुद्र की तरंगें हैं जो रोक कर नहीं रखी जा सकती हैं जैसे तरंगें या तो अपने आपसे उठती हैं या फिर कोई दूसरा कोई कंकड़ आदि कुछ डाल देता है तो तरंगें उठती हैं ये अच्छी बुरी तरंगें पानी और कंकड की शुद्धि अशुद्धि के अनुशार उठती हैं ये स्वच्छ होंगे तो अच्छी तरंगें होंगी और गंदे होंगे तो तरंगें भी गन्दी होंगी !
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