शनिवार, 11 अप्रैल 2020

pratham 1

             महामारी - मौसम और विज्ञान
                          आवश्यकता और आविष्कार    
    वर्तमान विश्व में विज्ञान संबंधी चुनौतियाँ सबसे अधिक मडरा रही हैं मनुष्य की व्यापक सुरक्षा और संरक्षण की जिम्मेदारी विज्ञान पर ही है |मनुष्य की आवश्यकताओं की आपूर्ति को सरल बनाने के लिए विज्ञान की ओर ही देखा जाता है | संकटों से बचाव करने की जिम्मेदारी विज्ञान पर है मनुष्य के जीवन को सुख सुविधापूर्ण बनाने का दायित्व विज्ञान का है | रोगों से मुक्ति दिलाने की जिम्मेदारी विज्ञान की है | महामारियों के आने एवं जाने के समय के बिषय में पूर्वानुमान लगाकर उससे सतर्क करना विज्ञान का काम है | महामारियों के दुष्प्रभाव से होने वाले रोगों के लक्षणों एवं संक्रमण की भयंकरता का पता लगाकर समाज को सतर्क करने की जिम्मेदारी विज्ञान की है| महामारियों के दुष्प्रभाव से होने वाले रोगों से मुक्ति दिलाने के लिए औषधि खोजने का दायित्व भी विज्ञान पर है |
     वर्षा की आवश्यकता कृषिकार्यों के लिए विशेष होती है इसलिए वर्षा के विषय में आगे से आगे पूर्वानुमान किसानों को चाहिए होता है किस वर्ष कैसी और कितनी वर्षा होने की संभावना है यह जानकारी किसान महीनों पहले पता लगा लेना चाहते हैं !उसी के अनुसार कृषि योजना एवं उपज के संरक्षण की योजना बनानी होती है ये सारा काम मौसम संबंधी पूर्वानुमानों के आधीन है |सरकारें किसानों के आनाज की खरीददारी करती हैं कई बार अचानक वर्षा हो जाती है उसके बिषय में पूर्वानुमान पता न होने के कारण हजारों टन आनाज सड़ जाता है | खेतों में तैयार खड़ी या कटी पड़ी फसलें अचानक वर्षा हो जाने से ख़राब हो जाती हैं पहले से उसके बिषय में पूर्वानुमान पता न होने के कारण किसान उन्हें संरक्षित नहीं कर पाते हैं और सारी उपज नष्ट हो जाती है |
     दो चार दिन पहले के बिषय में मौसम संबंधी पूर्वानुमान पता लग भी जाए तो वो कृषिप्रक्रिया को न समझने वाले लोगों के लिए तो यह समय बहुत लगता है किंतु कृषि कार्यों की दृष्टि से ऐसे पूर्वानुमानों से विशेष लाभ हो नहीं पाता है यह समय इतना कम होता है |
        खेतों में गेहूँ  बोया जाता है उसके पौधे अंकुरित होकर बाहर आने में लगभग आठ दस दिन लग जाते हैं | इसके बीच यदि पानी बरस जाता है तो पपड़ी पड़ जाने से अंकुरित होने के बाद भी गेहूँ के पौधे बाहर नहीं निकल पाते हैं अंदर ही नष्ट हो जाते हैं | आलू के पौधे तो उग कर बाहर आने में लगभग दो सप्ताह ले लेते हैं ऐसी परिस्थिति में बीजों को सुरक्षित उग जाने के लिए कम से कम दो सप्ताह पहले का वर्षा संबंधी पूर्वानुमान तो चाहिए होता है इससे कम समय के वर्षा संबंधी पूर्वानुमान का लाभ किसान कैसे ले सकता है |
     सरसों उड़द मूँग आदि की फैसलें पक जाने के बाद यदि पानी बरस जाए तो उसके बाद धूप लगकर सूखने पर  फलियाँ छिटककर खेत में ही दानें फैलने लगते हैं जिन्हें बिन कर इकठ्ठा तो किया ही नहीं जा सकता इतना कठिन होता है | उड़द मूंग तो इतनी सुकोमल होती है कि वो फलियों में लगी लगी ही भीग जाने के बाद अंकुरित होने लगती है जो बेकार हो जाती है | यदि ऐसी परिस्थिति में किसानों के पास इतना विकल्प होता है कि वो एक सप्ताह पहले भी अपनी फसल काट सकते हैं यदि उन्हें इतने पहले के मौसम संबंधी पूर्वानुमान के बिषय में पता हो तो वो पहले ही अपनी फसल काटकर सुरक्षित कर सकते हैं |
    आलू जैसी फसलों में लागत बहुत अधिक लगती है इसलिए इसका ध्यान भी बहुत अधिक रखना होता है | इसमें सिंचाई करते समय पानी बहुत संतुलित मात्रा में और समय पर देना होता है | पानी यदि बहुत अधिक मात्रा में दे दिया जाए तो मिट्टी कठोर हो जाती है और यदि पानी कम मात्रा में दिया जाए तो पौधे सूखने लग जाते हैं दोनों ही परिस्थितियों में आलू की फसल प्रभावित होती है | ऐसी परिस्थिति में सिचाई का समय जानकर किसान अपने आलू की फसल को पानी दे देते हैं उसके अगले दिन उन्हें मौसम पूर्वानुमान पता लगता है कि परसों बहुत अधिक बारिस होगी | यदि ऐसा हो जाता है तब तो किसान का बड़ा नुकसान हो जाएगा क्योंकि उसका खेत तो अभी गीला होता है | यह मैसम पूर्वानुमान यदि उसे दो तीन दिन पहले पता लगा होता तो किसान के पास एक उपाय था वो उस खेत की सिंचाई उन दिन न करके उस वर्षा का लाभ ले सकता था उसकी सिंचाई में लगने वाला खर्च तो बचता ही फसल को नुक्सान भी नहीं होता |
      कई बार वर्षाकाल के अंत में कम वर्षा होने के कारण अक्टूबर नवंबर के महीनों में खेतों में नमी कुछ कम होती है ऐसी स्थिति में यदि गेहूँ जैसी फसलें बो दी जाएँ तो तो उनके अंकुरित होने की संभावना अत्यंत कम रह जाती है जिससे खेत और बीज दोनों ख़राब हो सकते हैं ऐसी संभावना बनी रहती है | इसलिए किसानों को खेत में पहले पानी देकर नमी बढ़ानी होती है बाद में गेहूँ बोने से फसल अच्छी हो जाती है | इस समय तापमान कम होने के कारण खेत में पानी देने के बाद खेत का गीलापन देर से जाता है जिसमें लगभग दो सप्ताह का समय लग जाता है उसके बाद जुताई बुआई संभव हो पाती है | इससे खेत की बुआई लगभग 15 दिन देर से हो पाती है | कई बार सिंचाई करने के आठ या दस दिन बाद अधिक वर्षा भी हो जाती है तो इस खेत की सिचाई में लगा पैसा तो ब्यर्थ होता ही है इसके साथ ही खेत की बुआई में दो सप्ताह का समय और अधिक लग जाता है तब तब बुआई का समय निकल जाता है |इसलिए फसल भी उतनी अच्छी नहीं हो पाती है | ऐसी परिस्थिति में वर्षा संबंधित पूर्वानुमान यदि किसान को 15 दिन पहले से पता होता तो वो खेत की सिंचाई नहीं करता इससे सिंचाई में लगने वाला पैसा तो बचता ही इसके साथ ही फसल भी समय पर बोने  से अधिक अच्छी हो सकती थी |       
     कुछ कई बार खेतों में गेहूँ की पकी फसल खड़ी होती है जिसके काटने से लेकर थ्रेसरिंग करवाने एवं गेहूँ और भूसा आदि सुरक्षित करने में किसानों को दस से बारह दिन तक लग जाते हैं जिनके पास संसाधन समय से उपलब्ध नहीं हुए उन्हें कुछ अधिक दिन भी लग जाते हैं | ऐसी परिस्थिति में किसानों को कम से कम 15 दिन पहले मौसम संबंधी पूर्वानुमान की जानकारी यदि होती है तो किसानों  के पास दो चार दिन आगे पीछे फसल काटने का विकल्प होता है उससे उनका अधिक कुछ बिगड़ता नहीं है किंतु जब फसल काटनी शुरू कर दी गई तो सारे  खेत की कटाई होने में चार छै दिन तो लग ही जाते हैं इसी बीच किसी दिन थोड़ा बहुत पानी भी बरस जाए तो पौधे गीले हो जाने पर कुछ समय अधिक भी लग जाता है क्योंकि पौधे गीले हो जाने पर कटाई का काम काफी कठिन हो जाता है |कई बार कटी हुई फसल  थ्रेसरिंग ,मड़ाई या दउँरी के लिए संसाधनों की प्रतीक्षा में कई कई दिन खेतों में पड़ी रहती है इसी बीच अचानक आँधी तूफ़ान आ जाए तो खेत भर में बिखरी फसल उड़ जाती है या अचानक पानी बरस जाने से भीग जाती है तो किसानों का बड़ा नुक्सान हो जाता है |ऐसी परिस्थिति में मौसम संबंधी दो चार दिन पहले के लिए बताए गए मौसम संबंधी पूर्वानुमानों से किसानों का कोई विशेष भला नहीं हो पाता है क्योंकि एक बार प्रक्रिया प्रारंभ होने के बाद उसे बीच में रोक पाना किसानों  के अपने बश में नहीं होता है | इतनी बड़ी धान्यराशि को इतने कम दिनों में सुरक्षित कर लेना केवल कठिन ही नहीं अपितु असंभव भी होता है |
    इसी प्रकार से कृषि योजना बनाने के लिए कई बार किसानों को महीनों पहले के वर्षा संबंधी पूर्वानुमानों की आवश्यकता होती है | मार्च अप्रैल के महीने में रवि की फसल तैयार होने पर उस गेहूँ आदि अनाज एवं पशुओं के लिए भूसा कितना सुरक्षित रखना है कितना बेचना है ऐसा वर्ष भर के लिए उसे योजना बनाकर चलना होता है किसान को यह निर्णय वर्षा ऋतु में होने वाली खरीफ की फसल के समय में संभावित वर्षा की मात्रा के अनुसार लेना होता है | इसके लिए उसे जुलाई अगस्त के महीने में होने वाली वर्षा का पूर्वानुमान मार्च और अप्रैल में ही जानना  आवश्यक होता है |वर्षा ऋतु में संभावित वर्षा के आधार पर ही उसे उस समय बोई जाने वाली फसलों का निर्णय लेना होता है क्योंकि मक्का जैसे कुछ आनाज कम वर्षा में होते हैं तो धान जैसी कुछ फसलों को अधिक वर्षा की आवश्यकता होती है |किसानों के अपने खेत एक दूसरे से कुछ ऊपर या नीचे भी होते हैं | इसलिए कैसे खेत में कौन सी फसल इस वर्ष बोनी चाहिए इसका निर्णय भी किसान वर्षा ऋतु में संभावित वर्षा की मात्रा के पूर्वानुमान के अनुसार ही लेते हैं | 
     कई बार राष्ट्रपति प्रधानमंत्री जैसे  बड़े लोगों के आवश्यक कार्यक्रमों सभा सम्मेलनों का आयोजन पचीसों करोड़ रूपए लगाकर आयोजित किया जाता है और कार्यक्रम के समय में भारी वर्षा होने लगती है जिससे वह कार्यक्रम स्थगित करना पड़ता है |जिसकी तैयारियों में लगाया गया पचीसों करोड़ रूपया ब्यर्थ हो जाता है |सैनिकों को सैन्य कार्यों के लिए आगे से आगे  मौसम संबंधी पूर्वानुमानों की आवश्यकता होती है | ऐसे और भी बहुत सारे काम हैं जिनके लिए वर्षा संबंधी पूर्वानुमान महीनों पहले पता होना आवश्यक होता है जिसके लिए संपूर्ण समाज विज्ञान पर  निर्भर है |
      कई बार किसी क्षेत्र में बाढ़ की वर्षा प्रारंभ होती है किंतु उस क्षेत्र में रहने वालों को यह पता नहीं होता है | ऐसे क्षेत्र में रहने वाले लोगों की समस्याएँ तब और अधिक बढ़ जाती हैं जब वर्षा प्रारंभ होने के बाद वर्षा वैज्ञानिकों के द्वारा यह बोल दिया जाता है कि दो दिन वर्षा होगी दो दिन बीतने के बाद फिर भी वर्षा न रुकने पर बोल दिया जाता है कि तीन दिन वर्षा और होगी इसके बाद भी वर्षा न रुकने पर फिर दो दिन और वर्षा होने की भविष्यवाणी को आगे बढ़ा दिया जाता है | इतनी वर्षा हो जाने के बाद उस क्षेत्र के भवनों का प्रथमतल लगभग डूबने लग जाता है |रोडों चौराहों पर कई कई फिट पानी जमा हो जाता है और वर्षा अभी भी हो रही होती है | ऐसे समय में घर से निकलना कठिन होता है और यदि किसी तरह निकले भी तो उस क्षेत्र के सारे बाजार दुकानें  आदि सब कुछ बंद होते हैं | ऐसे समय में उस क्षेत्र के निवासी संपूर्ण रूप से असहाय होकर अपनी मदद के लिए सरकारों से अपेक्षा करने लगते हैं |
        ऐसी परिस्थिति में आपदा प्रबंधन के लिए सरकारों के पास कितने भी सक्षम संसाधन हों उनके द्वारा सरकारें कितनी भी जिम्मेदारी का निर्वाह ईमानदारी एवं तत्परता पूर्वक करना चाहें तो भी उस क्षेत्र के बाढ़ पीड़ित लोगों को सरकारी सहायता से आपदा के दिन तो कट ही जाते हैं किंतु जीवन बहुत अधिक कठिन होता जाता है नुक्सान तो होता ही है कुछ लोग मारे भी जाते हैं | यदि संभावित बाढ़ का पूर्वानुमान लगाना संभव होता तो समस्याएँ इतनी अधिक नहीं बढ़तीं | उस क्षेत्र के संभावित बाढ़ वाले निचले स्थानों में रहने वाले लोग उस स्थान को छोड़कर कहीं अन्यत्र शरण लेने का प्रयास कर सकते हैं जिससे उनकी और उनके सामन की सुरक्षा हो सकती है | जिनका अपना घर ही दो तीन मंजिल का बना हो तो वे घर के ऊपरी क्षेत्र में रहने की व्यवस्था करके खान पान एवं औषधि आदि के लिए आवश्यक वस्तुओं का कुछ समय के लिए संग्रह कर सकते हैं किंतु संभावित वर्षा और बाढ़ का पूर्वानुमान पहले से पता न होने के कारण अचानक प्राप्त परिस्थितियों से निपटना सरकारों के लिए सबसे बड़ी चुनौती हो जाती है | ऐसी परिस्थिति में बचाव कार्यों के लिए सतर्क सरकारें आपदा प्रबंधन के यथा संभव समस्त संसाधन झोंक देती हैं किंतु पीड़ित पक्ष की समस्याएँ इतनी बड़ी होती हैं कि उन्हें उनसे कुछ विशेष लाभ हो नहीं पाता है |
     यदि संभावित बाढ़ के बिषय के पूर्वानुमान उस क्षेत्र के निवासियों को पहले से उपलब्ध कराए गए होते तो उस क्षेत्र के निवासी अपनी संभावित समस्याओं का समाधान एक सीमा तक स्वयं ही खोज लेते फिर भी यदि कुछ समस्याएँ रह भी जातीं तो कुछ मदद सरकार से मिल जाती | इससे उनका बहुत सहयोग संभव था |
    इसी प्रकार से भूकंप आँधीतूफ़ान जैसी प्राकृतिक आपदाओं के समय बचाव कार्य विशेष कठिन कार्य होता है | सक्षम सरकारों के पास बचाव कार्यों के लिए अत्यंत उत्तम साधन होते हैं तथा सक्षम सैनिक आदि सहयोगी होते हैं | इसके बाद भी किसी क्षेत्र में होने वाली संभावित बाढ़ से पूर्व उस देश या प्रदेश की सरकारों को वर्षा वैज्ञानिकों से अपेक्षा रहती है कि वे उसके बिषय में पूर्वानुमान लगाकर उन्हें आगे से आगे सूचित करें |  सरकारों को ऐसी आपदाओं से समाज की सुरक्षा के लिए या आपदा प्रबंधन की दृष्टि से सरकारों को आगे से आगे ऐसी प्राकृतिक आपदाओं के बिषय में पूर्वानुमान आवश्यक होते हैं उसी के अनुसार बचाव कार्यों के लिए  योजना बनानी होती है उसी रणनीति  के अनुसार आगे बचाव कार्य संचालित करने होते  है | इसके लिए ऐसी घटनाओं से संबंधित पूर्वानुमान जितने सही एवं सटीक होते हैं सरकारों के द्वारा चलाए जाने वाले बचाव कार्य  भी उतने ही अधिक आसान होते हैं |
    कोई प्राकृतिक आपदा हो या महामारी या अन्य प्रकार की ऐसी बड़ी समस्याएँ जिनका समाधान निकालना आम आदमी के बश में नहीं होता है जबकि उससे पीड़ित प्रताड़ित बहुत बड़ा वर्ग हो रहा होता है |ऐसी परिस्थिति में सभी का ध्यान विज्ञान की ओर बरबस चला ही जाता है | इसके अतिरिक्त उनके पास कोई और दूसरा विकल्प भी नहीं होता है |
       ऐसी परिस्थिति में सरकारों के लिए आवश्यक है कि आपदा प्रबंधन के संसाधन जुटाने में वे जितना धन खर्च करती हैं उतना प्रयास यदि आपदाओं का पूर्वानुमान लगाने के लिए करें तो आपदाकाल में होने वाली समस्याओं का समाधान एक सीमा तक उस क्षेत्र के निवासी स्वयं भी खोज सकते हैं और कुछ सरकारों की मदद से संभव हो सकता है |    
      ऐसी परिस्थिति में सरकारों को प्रयास करना चाहिए कि वर्षा बाढ़ आँधी तूफ़ान भूकंप जैसी प्राकृतिक घटनाओं या आपदाओं के पूर्वानुमानों की आवश्यकता सबसे अधिक है उसके बिषय में आगे से आगे जितने सही एवं सटीक पूर्वानुमान उपलब्ध करवाए जाएँगे देश एवं समाज का उतना ही अधिक भला होगा | इस प्रकार से आविष्कारों की गुणवत्ता का परीक्षण उनसे प्रभावित होने वाले वर्ग की आवश्यकताओं की आपूर्ति के आधार पर किया जाना चाहिए |
      मौसमीभविष्यवाणियाँ करने की क्षमता और आविष्कार !
    भूकंप वर्षा बाढ़ आँधी तूफ़ान आदि प्राकृतिक घटनाओं के बिषय में जो भी भविष्यवाणियाँ की जाती हैं उनमें से जितने प्रतिशत सच निकलती हैं उसी अनुपात में उनके  भविष्यसंबंधी पूर्वानुमानों के सही होने का अंदाजा लगाया जा सकता है |
     इसी प्रकार से ऐसी घटनाओं के घटित होने के बिषय में जो कारण बताए जाते हैं उनमें से वही सही होते हैं जिनके आधार पर लगाए गए  उस बिषय से संबंधित पूर्वानुमान सच होने लगते हैं |सिद्धांततः कारणों और पूर्वानुमानों का तालमेल बैठना चाहिए यदि ऐसा नहीं होता है तो वो कारण नहीं अपितु कारण खोजने की ओर बढ़ने के लिए की गई कल्पनाएँ होती हैं जिनका सच प्रमाणित होना अभी बाक़ी होता है |

        आँधी तूफानों के विषय में पूर्वानुमानों की आवश्यकताएँ एवं आविष्कार !
     गर्मियों में आमतौर पर आँधी तूफ़ान  तापमान के बढ़ने की वजह से हवा का दवाव कम होने के कारण घटित होते हैं। इस हवा के दवाव को संतुलित करने के लिए ठंडी जगह से ज्यादा दवाव वाली हवा तेजी से गर्म जगह की तरफ बढ़ने लगती है, जो अपने साथ धूल भी लेकर आती है जो आगे जाकर आंधी का रूप ले लेती है।ऐसा बताया जाता है किंतु आँधी तूफ़ान केवल गर्मियों में ही तो नहीं आते हैं अन्य ऋतुओं में भी आते देखे जाते हैं उसका कारण क्या हो सकता है | इसके अतिरिक्त एक सबसे बड़ा प्रश्न और है कि आँधी तूफ़ानों के घटित होने न होने से तापमान के बढ़ने घटने का कोई संबंध है भी या नहीं !इसका प्रमाणित किया जाना अभी तक बाक़ी है ,क्योंकि आँधी तूफान के घटित होने का कारण यदि तापमान का बढ़ाना ही होता तब तो तापमान का परीक्षण करके आँधी तूफानों का सही सही पूर्वानुमान लगाया ही जा सकता था किंतु यदि आँधी तूफानों से संबंधित भविष्यवाणियों और उनके घटित होने की आवृत्तियों पर ध्यान दिया जाए तो प्रायः ऐसा होता नहीं है |या तो पूर्वानुमान लगाए नहीं जाते हैं या फिर जो लगाए जाते हैं वे अक्सर गलत हो जाते हैं या फिर ग्रीष्म ऋतु में किसी न किसी बहाने से किसी न किसी स्थान के विषय में आँधी तूफ़ान घटित होने की भविष्यवाणी कर दी जाती है कभी तो सच निकल ही जाएगी !ऐसा कोई भी कर सकता है इतनी उसकी भी सही निकल जाएगी पुराने समय में किसान लोग मौसम संबंधी पूर्वानुमान लगाया भी करते थे किंतु इसमें आधुनिक विज्ञान का प्रवेश हुआ तो उसकी वैज्ञानिकता भी तो सिद्ध होनी चाहिए कि आँधी तूफ़ान घटित होने का कारण क्या है और उन कारणों के आधार पर इनके बिषय में सही सही पूर्वानुमान भी लगाया जाना चाहिए |      समाज की आवश्यकता भी तो मात्र इतनी ही है कि आँधी तूफ़ान के बिषय में उसे सही सही पूर्वानुमान पता लगें जिससे वो यथा संभव अपना बचाव कर सके !जनता की इसी आवश्यकता की आपूर्ति के लिए 1875 में भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की स्थापना हुई थी । 1864 में चक्रवात के कारण कलकत्ता में हुई भारी क्षति हुई थी और 1866 और 1871 में पड़े भीषण अकाल से बड़ा नुक्सान हुआ था | इसीलिए मौसम संबंधी विश्लेषण और संग्रह कार्य एक ढ़ांचे के अंतर्गत आयोजित करने का निर्णय लिया गया।उसी के फल स्वरूप 1875 में भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की स्थापना करके मौसम संबंधी घटनाओं का पूर्वानुमान लगाने के लिए आविष्कार प्रारंभ किए गए आज लगभग 144 वर्ष बीत चुके हैं किंतु इस बिषय में समाज की आवश्यकताओं की कसौटी पर इस बिषय में किए गए आविष्कारों का खरा उतर पाना अभी तक संभव नहीं हो पाया है |  
      2 मई 2018 को पूर्वोत्तर भारत में भीषण तूफान आया जिसमें काफी जन धन की हानि हुई थी | उसके दो तीन दिन बाद फिर तूफ़ान आ गया उसमें भी काफी जन धन की हानि हुई इन तूफानों के विषय में कोई भविष्यवाणी मौसम भविष्यवक्ताओं की ओर से नहीं की गई थी | इसके बाद 7 और 8 मई 2018 को भीषण आँधी तूफ़ान आने की भविष्यवाणी भारत सरकार के मौसम भविष्यवक्ताओं ने भी कर दी जिसके कारण दिल्ली और उसके आसपास के स्कूल कॉलेज बंद कर दिए गए किंतु उस दिन कोई आँधी तूफान नहीं आया | जिससे सरकार के मौसम भविष्यवक्ताओं का बड़ा उपहास हुआ जिसके विषय में एक मीडिया साक्षात्कार में विभाग के डायरेक्टर साहब ने स्वीकार किया कि आँधी तूफानों को हम समझ नहीं पा रहे हैं | जिसकी अखवारों में हेडिंग छपी थी  "चुपके चुपके से आते हैं चक्रवात !" बाद में भारत सरकार ने अपने मौसम भविष्यवक्ताओं से स्पष्टीकरण माँगा था |ऐसा भी मीडिया के माध्यमों से पता लगा | सरकार के इस जिम्मेदारी पूर्ण सराहनीय कदम की प्रशंसा भी हुई थी |
       जलवायु परिवर्तन के बिषय में कहा जाता है कि भविष्य में आँधी तूफानों की घटनाएँ बहुत अधिक घटित होंगी इसका कारण ग्लोबलवार्मिंग के बढ़ने  को बताया जा रहा है और ग्लोबलवार्मिंग बढ़ने के लिए मानवीय गतिविधियों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है |
      ऐसी परिस्थिति में पृथ्वी के अतिरिक्त भी मंगल आदि ग्रहों पर जो आँधी तूफानों आदि के घटित होने की घटनाओं का अनुमान लगाया जाता है तो वहाँ तो मानवीय गतिविधियाँ हैं ही नहीं फिर वहाँ आँधी तूफानों के घटित होने का कारण क्या हो सकता है |
    बिशेष बात यह है कि मौसम संबंधी पूर्वानुमानों के जिन आविष्कारों के बल पर मई 2018 में उत्तर भारत में घटित हुए हिंसक आँधी तूफानों का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सका उन आविष्कारों के आधार पर यह कहना कि आज के पचास सौ वर्ष बाद आँधी तूफान बार बार आएँगे और उनका वेग भी अधिक होगा !ये अवैज्ञानिक अप्रमाणित है सच न होने के कारण यह स्वीकार करने योग्य नहीं है  | 
        वर्षा के विषय में पूर्वानुमानों की आवश्यकताएँ एवं आविष्कार !
         मानसून आने और जाने की तारीखों को निश्चित करने की कल्पना की गई उन्हें सार्वजनिक रूप से घोषित करने से पहले परीक्षण किया जाना चाहिए था किंतु किया गया या नहीं ये बात ऐसा करने वालों को ही पता होगी किंतु समाज ने इनका जब अनुभव करना प्रारंभ किया तो कुछ बार को छोड़कर अधिकाँश वर्षों में मानसून आने और जाने के लिए निर्धारित की गई तारीखें गलत निकलते चली गईं ! इन तारीखों के लगातार गलत होते जाने के बाद इन तारीखों को बदलने का निर्णय लिया गया और बदल दी गईं !
     इसमें बिशेष बात यह है कि मानसून आने और जाने के लिए जो तारीखें पहले निर्धारित की गईं थीं उनके पीछे का आधार क्या था और अब जो तारीखें बदली गईं उनके पीछे का वैज्ञानिक आधार क्या है | यह तर्क उचित नहीं है कि पहले बताई गई तारीखें निरंतर गलत होती जा रही थीं इसलिए उन्हें बदलना आवश्यक हो गया था |ऐसी पारिस्थिति में प्रश्न उठता है कि अब जो बताई जा रही हैं क्या उनके भी गलत होने पर क्या उन्हें भी बदल दिया जाएगा  ? यदि हाँ तो ऐसा कब तक किया जाएगा अर्थात ऐसा करके कितने दशक और कितनी शदियाँ पार कर ली जाएँगी !कभी न कभी तो इसके  वास्तविक कारण की खोज करनी ही होगी !जिसके आधार पर जो मानसून आने जाने के लिए जो तारीखें निर्धारित की जाएँगी वे गलत नहीं निकलेंगी |   
    इसी प्रकार से और भी वर्षा संबंधी छोटी छोटी घटनाएँ तो बहुत घटित होती रहती हैं और मौसम वैज्ञानिकों के द्वारा लगाए हुए पूर्वानुमान गलत होते रहते हैं इसलिए उनके आधार पर चिंतन करना उचित नहीं होगा और न ही उन्हें प्रमाणित कारण ही संभव होगा इसलिए इसका अंदाजा लगाने के लिए बीते 10 वर्षों में घटित हुई कुछ अधिक वर्षा एवं बाढ़ से संबंधित प्राकृतिक घटनाओं के उदाहरण सम्मुख रखकर चिंतन किया जा सकता है | 
    केदारनाथ जी में बाढ़ -  16 जून रविवार 2013  को - केदारनाथ में मौजूद हर शख्स सुबह से ही डरा हुआ था। बरसात पिछले 3 दिन से रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। इस इलाके में कई सालों से रह रहे लोगों ने भी आसमान से इतना पानी एक साथ बरसते कभी नहीं देखा था। उस दिन मूसलाधार बारिश हो रही थी | केदारनाथ में पहली बार ज़बरदस्त बाढ़ 16 तारीख की शाम को 6.50 पर आई।बाढ़ अपने साथ बहुत सारा कीचड़ और बालू लेकर आई । ये इतनी ज़बरदस्त बाढ़ थी कि जहां से पानी गुजरा वहां कुछ बचा ही नहीं।
      3 अगस्त 2018 को सरकारी मौसम भविष्यवक्ताओं के द्वारा एक प्रेसविज्ञप्ति जारी की गई जिसमें दीर्घावधि मौसम संबंधी पूर्वानुमान बताने के नाम पर लिखा गया कि अगस्त सितंबर के महीने में सामान्य बारिश होगी जबकि उसके चार दिन बाद ही  8 से 16 अगस्त  2018 तक भारतीय राज्य केरल में अत्यधिक वर्षा के कारण बाढ़ आ गयी।यह  केरल में  एक शताब्दी में आयी सबसे विकराल बाढ़ थी !जिसमें 373 से अधिक लोग मारे गए  तथा 2,80,679 से अधिक लोगों को विस्थापित होना पड़ा था |जिसमें केरल के मुख्यमंत्री जी ने साहस करके यह  कहा कि इस वर्षा के विषय में मौसमविभाग की ओर से मुझे कोई पूर्वानुमान उपलब्ध नहीं करवाया गया था |
    सितंबर 2019 के अंतिम सप्ताह में बिहार को बहुत अधिक बारिश एवं बाढ़ का सामना करना पड़ रहा था !सरकारी मौसम भविष्य वक्ता लोग जो भविष्यवाणियाँ करते थे सरकार को उसके अनुशार रणनीति बनानी पड़ती थी जबकि भविष्यवाणियाँ गलत निकल जाती थीं और सरकार की रणनीति फेल हो जाती थी | अंत में बिहार के मुख्यमंत्री जी को कहना पड़ा कि मौसम भविष्यवाणियाँ करने वाले लोग सुबह कुछ बोलते हैं दोपहर को कुछ दूसरा बोलते हैं और शाम को कुछ और बोल देते हैं | बर्षा अधिक होने के बिषय में मौसम भविष्य वक्ताओं ने जो जो कारण बताए वे इतने भ्रामक थे कि सरकार ने उनसे दूरी बनाते  हुए कहा कि हथिया नक्षत्र के कारण अधिक बारिश हो रही है | केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री जो स्वयं बिहार से आते हैं उन्होंने भी कहा कि बिहार में अधिक बारिश होने का कारण हथिया नक्षत्र हैं |ऐसी परिस्थिति में जिस ज्योतिष को अंधविश्वास बताया जाता है सरकार ने उसी पर अधिक भरोसा जताया |
     इस प्रकार की और भी काफी प्राकृतिक घटनाएँ घटित होती रही हैं जिनके या तो पूर्वानुमान नहीं दिए जा सके हैं यदि दिए भी गए तो गलत निकल जाते रहे हैं ऐसी कुछ घटनाएँ हम आगे उद्धृत  करेंगे | मेरा उद्देश्य मौसम संबंधी पूर्वानुमानों की गुणवत्ता बढ़ाना तथा झठी निकल जाने वाली भविष्यवाणियों के लिए जिम्मेदारी सुनिश्चित करना है |  सरकारों को किसी भी विषय पर आँखबंद करके भरोसा नहीं कर लेना चाहिए |

              भूकंपों के विषय में पूर्वानुमानों की आवश्यकताएँ एवं आविष्कार !


जिस प्रकार से भूकंपों के घटित होने का कारण भूमिगत प्लेटों का आपस में टकरा जाना बताया जाता है या पृथ्वी के अंदर संचित ऊर्जा का बाहर निकलना बताया जाता है |भूकंप संबंधी सही भविष्यवाणियों के द्वारा इन बताए जा रहे कारणों का सच प्रमाणित  किया जाना अभी बाकी है |
    महाराष्ट्र के कोयना में 1962 के पहले भूकंप नहीं आया करते थे किंतु 1962 में झील बनाई गई 1967 में उसमें पानी भरा गया उसके बाद वहाँ बार बार भूकंप आने लगे !उन भूकंपों के आने का कारण उन झील निर्माण को बताया गया ! परंतु इस बात को कारण मानने से पहले प्रश्न उठता है कि अन्य जगहों पर भी तो झीलें बानी हैं वहाँ तो ऐसा नहीं होता है यहाँ ही ऐसा क्या विशेष है जो अन्य जगहों पर नहीं है जिसलिए यहाँ एक समय के बाद अचानक भूकंप आने लगे हैं इन भूकंपों का झील निर्माण से कोई संबंध है भी या नहीं यदि है तो कैसे उसे सही पूर्वानुमानों के द्वारा प्रमाणित भी तो किया जाना चाहिए |







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 वैज्ञानिक कल्पनाओं पर भी
      अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति ने 2017 और 2019 में ग्लोबलवार्मिंग की अवधारणा पर प्रश्न खड़ा कर दिया था !जनप्रतिनिधि होने के नाते जनता का पक्ष सामने लाना उनका कर्तव्य है वैज्ञानिकों की जवाबदेही सरकार के प्रति होती है किंतु सरकार की जवाबदेही तो जनता के प्रति होती है |जनता आखिर इस बात को कैसे समझे कि एक ओर तो ठंडी हवाओं के चलते तापमान माइनस 60 डिग्री तक पहुँच गया जबकि दूसरी ओर ग्लोबलवार्मिंग का भय भरा जा रहा है |सजीव  समाज की इस शंका का समाधान करना आवश्यक है कि ग्लोबलवार्मिंग और माइनस 60 डिग्री तक तापमान का पहुँच जाना ये दोनों घटनाएँ एक साथ संभव नहीं हैं |









    आविष्कार क्षमता का विकास कैसे हो ?
      विज्ञान की भी अपनी सीमाएँ हैं यही कारण है विज्ञान बहुत सारी चीजों को न साबित कर पाया और न ही ख़ारिज ही कर पाया है |
     समय समय पर घटित होने वाली महामारियाँ जिनमें बहुत सारे लोग अस्वस्थ होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं यह प्राकृतिक है या मनुष्यकृत है यदि मनुष्यों के किसी कार्यों के परिणाम स्वरूप महामारियाँ फैलती हैं तो वो कार्य कौन हैं जो मनुष्य करना छोड़ दे और वे कार्य कौन हैं जिन्हें करना प्रारंभ कर दे तो महामारी जैसी समस्याएँ हमेंशा के लिए समाप्त हो सकती हैं | जिस किसी भी प्रकार से ऐसे अनुसंधान किए जाने की आवश्यकता है |
      यदि महामारियाँ प्राकृतिक होती हैं तो प्राकृतिक घटनाएँ तो समय से संबंधित होती हैं इसलिए  ग्रीष्मवर्षा शिशिर आदि प्राकृतिक ऋतुओं की  तरह ही प्राकृतिक महामारियों के बिषय में भी पूर्वानुमान लगा लिया जाना चाहिए | ऋतुएँ समय से संबंधित होने के कारण समय के साथ साथ आती जाती रहती हैं |इसलिये समय के आधार पर ही इनके विषय में पूर्वानुमान लगाना संभव हो पाता है तभी तो सभी को पता होता है कि सर्दी गर्मी वर्षा आदि ऋतुओं के आने जाने का समय और क्रम क्या है ?
      महामारियाँ प्राकृतिक होती हैं या मनुष्यकृत इसका निर्णय करना ही अभी तक विज्ञान के लिए चुनौती बना हुआ है | इसका पता लगाए बिना न तो महामारियों के आने जाने का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है और न ही समाज को इस बात के लिए प्रेरित ही किया जा सकता है कि वह क्या करे और क्या न करे जिससे महामारियाँ होंगी नहीं और यदि हुईं तो उन पर अंकुश लगाया जा सकता है |
    भूकंप वर्षा बाढ़ और आँधी तूफ़ान जैसी घटनाएँ चूँकि प्राकृतिक होती हैं इसीलिए इनके वेग को घटाना या बढ़ाना या रोकना मनुष्य के बश की बात ही नहीं होती है |
    इसी प्रकार से महामारियाँ यदि प्राकृतिक होती हैं तो इन पर अंकुश लगा पाना मनुष्य के बश की बात ही नहीं है |इसलिए महामारियों पर अंकुश लगाने या इन्हें पराजित करने के लिए सरकारों के द्वारा जिए जाने वाले प्रयास कितने सार्थक होते हैं ये अनुसंधान की बात है किंतु प्रायः चिकित्सकीय या लॉकडाउन जैसे सरकारी प्रयासों का भी विशेष असर होते दिखाई नहीं देता है | 
      कोरोना जैसी महामारी के फैलने का कारण आपसी स्पर्श आदि को बताया गया इसीलिए सामाजिक दूरी बनाए रखने के लिए  लॉकडाउन जैसे प्रयास प्रारंभ किए गए समाज ने इनका पालन भी किया !इसका पालन इस स्तर तक किया गया कि देश की सारी व्यावसायिक सामाजिक आदि गतिविधियाँ रोक दी गईं जिससे सारी व्यवस्था अस्त व्यस्त हो गई !गरीबों मजदूरों के भूखों मरने की नौबत आ गई फिर भी उन द्वारा सामाजिक दूरी बनाए रखने के संकल्प का पालन किया गया |
       इसी बीच दिल्ली मुंबई जैसे महानगरों में काम करने वाले मजदूरों के मन में शंका हुई कि एक एक कमरे ,हॉल या फैक्ट्रियों में हम एक साथ अनेकों लोग रहते आ रहे हैं कहीं कहीं तो एक एक बिल्डिंग में सौ दो सौ लोग एक साथ रह रहे हैं एक साथ खा पी रहे हैं सभी एक साथ सोते जागते देखे जा रहे हैं शौचालय भी बहुत कम हैं उन्हीं में सभी लोगों को जाना होता है यदि छुआछूत से कोरोना होता तो सभी मजदूरों को हो जाता !घनी बस्तियों में रहने वाले अधिकाँश लोगों को हो जाता इसके बाद भी महानगरों में काम करने वाले मजदूरों को तो कोरोना नहीं हुआ | इसका मतलब कोरोना फैलने या न फैलने का कारण केवल स्पर्श ही नहीं है | ऐसा बिचार करते हुए महानगरों से बहुत भारी संख्या में मजदूरों का पलायन प्रारंभ हुआ !जिसमें सोशल डिस्टेंसिंग का पालन बिलकुल नहीं किया जा सका !हजारों किलोमीटर की यात्रा एक दो सप्ताह में पैदल ही करनी पड़ी |रास्ते में उन्हें जहाँ जिसने जो कुछ खिलाया पिलाया वो खाया इसके अतिरिक्त उन लोगों के पास कोई दूसरा बिकल्प भी नहीं था | वे सब अपने अपने घर पहुँच गए और उनमें से लगभग सभी लोग स्वस्थ हैं जबकि दिल्ली मुंबई जैसे महानगरों में रहने वाले लोगों में सबसे अधिक कोरोना फैल रहा है | इसके कारण  की खोज की जानी चाहिए थी जो  नहीं किया जा सका                                                                                              
      


 किया गया ताकि लोगों में आपसी दूरियाँ रखी जा सकें लोगों ने इसका पालन भी किया 




 प्राकृतिकघटनाओं को

और इन क्या है

 के साथ साथ चलती हैं

 ऐसे वैज्ञानिक चाहिए जो हमें असमय बारिश ,भयंकर बाढ़ ,आँधी तूफ़ान, बढ़ते वायुप्रदूषण या भूकंप से  समाज को बचा सकें !जो हमें महामारियों से बचा सकें | 
    विशेषकर भारत वर्ष में लगभग प्रत्येकवर्ष खेतों में खड़ी फसलों पर असमय बारिश की जो मार पड़ती है ओले गिरते हैं उससे कई क्षेत्रों में सारी की सारी फसलें तहस नहस हो जाती हैं उससे किसानों की चिंताएँ बढ़नी स्वाभाविक ही हैं | ऐसी दुखद परिस्थितियों से बचाव के लिए सबका ध्यान विज्ञान की ओर ही जाता है  किंतु विगत कुछ दशकों की वर्षा आदि प्राकृतिक घटनाओं एवं उससे होने वाले नुक्सान पर यदि गंभीरता से ध्यान दिया जाए तो आँधी तूफानों वर्षा बाढ़ आदि सभी प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं की दृष्टि से  प्रकृति के स्वभाव को समझने में हम और हमारे अभी तक के वैज्ञानिक अनुसंधान नाकाम ही रहे हैं | 
       हमारे वैज्ञानिकों का ध्यान उपभोक्ता वादी वस्तुओं और सेवाओं के निर्माण की ओर अधिक हो गया है | मुलभूत आपदाओं की ओर कम है |विशेषकर भारत की बात की जाए तो एक ओर कोरोना जैसी महामारी है तो दूसरी ओर मौसम की चुनौती | एक ओर कोरोना जैसी महामारी में संक्रमण के भय से चलाया जा रहा "लॉक डाउन " जिसके कारण किसान अपनी तैयार फसलों को सुरक्षित रूप से उठाकर घर नहीं ला पा  रहे हैं तो दूसरी ओर आँधी तूफ़ान असमय बारिश और ओले खेतों में कड़ी फसलों को तहस नहस कर रहे हैं दोनों तरफ से किसान पीस रहे हैं हैं जिसका संपूर्ण असर सरे देश के प्रत्येक वर्ग पर पड़ना तय है !ऐसी परिस्थिति में वैज्ञानिकों से क्या और कितनी मदद की अपेक्षा रखी जानी चाहिए ?आखिर ऐसे आपातकाल में उनकी अपनी भूमिका क्या है और उसका निर्वाह वे किस प्रकार से कर पा  रहे हैं जिससे वर्तमान संकट काल में कितनी और किस प्रकार की मदद वे कर पा रहे हैं |
     विज्ञान की प्राथमिकताओं पर पुनर्बिचार करना होगा |एक समय था जब लोगों की आवश्यकताओं के उद्देश्य की पूर्ति के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए वैज्ञानिक अनुसंधानों की प्राथमिकताएँ तय की जाया करती थीं | अब विज्ञान की प्राथमिकताएँ सत्ता एवं राजनीति निश्चित करने लगी है | वर्तमान महाशक्ति अमेरिका हो या महाशक्ति बनने को आतुर चीन दोनों की वैज्ञानिक प्राथमिकताएँ वहाँ की राजनीति तय करती देखी  जा रही है और राजनीति बाजारबाद से प्रेरित होती है | यही कारण है कि वर्तमान वैज्ञानिक अनुसंधान लोगों की आवश्यक आवश्यकताओं की आपूर्ति से संबंधित अनुसंधानों की प्राथमिकता से भटकते जा रहे हैं |
       इसलिए दुनियाँ की जरूरतों को पूरा करने के लिए विज्ञान और राजनीति के  समन्वय की सबसे अधिक आवश्यकता है | अनुसंधानों को साझा करने तथा विज्ञान को और अधिक खुला बनाने पर बिचार किया जाना चाहिए |दुनियाँको अब राजनीति और वैज्ञानिक चिंतन का तरीका बदलना पड़ेगा |
     वैज्ञानिक अनुसंधानों के विषय में दुनियाँ को सबसे अधिक आशा जिस अमेरिका से रहती रही है आज कोरोना की सर्वाधिक मार उसी अमेरिका  पड़ रही है | इससे दुनियाँ की चिंता बढ़नी स्वाभाविक हैं |
         हमें याद रखना चाहिए कि कोरोना जैसी महामारी हो या प्राकृतिक आपदाएँ ये देशों की सीमाओं को नहीं मानती हैं इसीलिए तो भूकंप आँधी तूफ़ान वर्षा बाढ़ जैसी घटनाएँ तथा बड़ी बड़ी प्राकृतिक आपदाएँ या फिर दिनों दिन बढ़ता जा रहा प्राण घातक वायुप्रदूषण से कई बार कई कई देश प्रभावित होते देखे जाते हैं | कोरोना से तो विश्व  का अधिकाँशभाग प्रभावित हुआ है | वैसे भी पर्यावरण को सुधारना किसी एक देश का विषय नहीं हैं इसे ठीक रखने के लिए समूचे विश्व को संयुक्त प्रयास ही करने होंगे |
     इसीलिए अब समय आ गया है जब दुनियाँ में खुले अनुसंधानों की प्रक्रिया पर विशेष बल दिया जाना चाहिए ताकि विश्व को बेहतर बनाने का लक्ष्य लेकर वैज्ञानिक अनुसंधानों को आगे बढ़ाया जा सके | ऐसी महामारियों तथा प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए संयुक्त अनुसंधान संचालित किए जा सकें जहाँ समस्त विश्व के वैज्ञानिक मुक्त रूप से अपने वैज्ञानिक अनुभव साझाकर सकें |जिससे अनुसंधानों की गुणवत्ता में तो वृद्धि होगी ही इसके साथ ही साथ विश्व के समस्त देशों का आपसी विश्वास सुरक्षित बना रहेगा | विश्व का कोई देश किसी दूसरे देश पर सूचनाओं की जमाखोरी का आरोप नहीं लगा सकेगा तथा एक ओर कोरोना जैसी महामारी से जूझता हुआ कोई देश उस महामारी को फैलाने के लिए किसी दूसरे देश को जिम्मेदार नहीं था सकेगा | इसके साथ ही महामारी के ऐसे कठिन काल में विश्व के समस्त देश एक दूसरे देश पर बिना किसी आरोप प्रत्यारोप के बिना विश्वास पूर्वक ऐसी महामारियों से विश्व का बचाव करने में अपना योगदान संपूर्ण मनोयोग से देते दिखेंगे | समस्त देशों की वैज्ञानिक ऊर्जा संगठित रूप से ऐसी महामारियों को पराजित करने में लगेगी |
    इस प्रकार से विश्व में किसी देश के द्वारा किए जाने वाले वैज्ञानिक अनुसंधान अपने अपने देशों की सुख सुविधा का लक्ष्य लेकर इस संकीर्ण भाव से न किए जाएँ अपितु विश्व बंधुत्व की पवित्र भावना को ध्यान में रखते हुए किए जाएँ ताकि सारा संसार एक परिवार की तरह सभी प्रकार के लोगों के सुख  में सहभागी हो सके | 
        सर्वे भवंति सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ॥
 विज्ञान और वैज्ञानिकता 
   विज्ञान केवल विज्ञान होता हैउसमें कोई भेद भाव नहीं होता है जिस किसी भी ज्ञान विधा से किसी विषय के सर्वांग को जाना समझा जा सके उसके विषय में स्वयं अपना अनुभव भी प्रमाण हो वही तो विज्ञान है |प्राचीन भारत में विज्ञान संकीर्ण नहीं था ये उस युग के वैज्ञानिकों की विशेषता थी कि वे अनुसंधान संबंधी अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ज्ञान की सभी विधाओं का उपयोग करने के लिए स्वतंत्र होते थे इसीलिए बड़े से बड़े लक्ष्य साधन करने में वे सफल हुए हैं आकाश से पाताल तक प्रकृति से जीवन तक,पृथ्वी के स्थल भाग से समुद्र तक , भूत भविष्य वर्तमान आदि सभी विषयों में भारत के प्राचीन वैज्ञानिकों के द्वारा किए गए अनुसंधानों की किसी और से बराबरी नहीं की जा सकती | जब आज के जैसे यंत्रों की सुविधा नहीं थी आकाश में जाना आना असंभव था उस युग में सूर्य एवं चंद्रमा पर घटित होने वाले ग्रहणों का पूर्वानुमान लगाने की खोज कर ली थी | ऋतुओं का ज्ञान चिकित्सा विज्ञान आदि और भी बहुत कुछ खोज लिया गया था | उस युग में उन्होंने जो निर्माण किए वे मंदिर भवन आदि हजारों वर्ष तक सुरक्षित रहा करते थे !प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में उस युग का भारत अपने ज्ञान विज्ञान के बल पर ही विश्वगुरु जैसे शीर्ष पद पर प्रतिष्ठत था वे महामनीषी संकीर्ण न होकर अपितु अत्यंत उदार होते थे |उस युग में आधुनिकविज्ञान  और प्राचीनविज्ञान जैसा भेदभाव नहीं था और न ही इसकी गणना होती थी | उस समय तो लक्ष्य प्रमुख होता था !लक्ष्य सिद्धि आवश्यक थी | 
     अनुसंधान का लक्ष्य पूरा करने के लिए  उस समय के वैज्ञानिक लोग अपने द्वारा किए जाने वाले वैज्ञानिक अनुसंधानों में अधिक से अधिक लोगों के ज्ञान और अनुभवों का उपयोग किया करते थे | जब से आधुनिक विज्ञान का  उदय हुआ तब से अनुसंधानों में सफलता किस क्षेत्र में कितनी मिली ये तो उन विषयों से संबंधित लोग ही वेहतर बता सकते हैं प्राचीन काल के लोगों की सोच में वैज्ञानिकता थी जिसके दर्शन आज दुर्लभ हैं |
    सिद्धांततः प्रत्येक सिक्के के दो पहलू होते हैं जिसमें एक समय में एक पहलू ही दिखाई पड़ सकता है दूसरा देखने के लिए पहला हटाना होता है तब दूसरा दिखाई पड़ता है | इसी प्रकार से ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में सभी लोगों का सब कुछ जानना संभव नहीं होता है इसलिए जो जिसने जिस विषय को पढ़ा है वह उसी विषय की बारीकियाँ समझ सकता है वह अपने विषय ज्ञान के आधार पर ज्ञान के दूसरे पक्ष के विषय में कुछ भी नहीं जान सकता है | ऐसी परिस्थिति में दूसरे विषय में वह जो कुछ भी बोलता है उसमें उसकी विशेषज्ञता अनुभव अनुसंधान आदि सम्मिलित नहीं होते हैं इसीलिए दूसरे पक्ष में उन्हें प्रमाण नहीं माना जा सकता है | उसकी सही सटीक जानकारी देने के लिए उस विधा के वैज्ञानिकों की आवश्यकता होती है | यदि एक पक्ष के विशेषज्ञ ही दूसरे पक्ष की भी विवेचना करने लग जाएँ तो उससे सही जानकारी निकलकर आना असंभव होता है | 
     जिस प्रकार से किसी एक स्थान पर पहुँचने के लिए कई मार्ग हो सकते हैं उसी प्रकार से वैज्ञानिक लक्ष्य साधन के लिए भी कई ज्ञान विधाएँ सकती हैं | उसमें से कुछ मार्ग कठिन और कुछ सरल हो सकते हैं एक मार्ग की दूरी दूसरे की अपेक्षा कुछ कम या अधिक हो सकती है |जिस मार्ग से जो आया गया होता है उसे उसी का ज्ञान और उसी का अनुभव होता है |ऐसी परिस्थिति में दूसरे मार्गों के विषय में ज्ञान और अनुभव के बिना अपने मार्ग को ही सही मानलेना अनुसंधान भावना की राह में रोड़ा बनकर खड़ा हो जाना होता है |
    इसलिए सरल सुखद एवं कम दूरी के मार्ग की खोज करने के लिए किसी एक की बात पर विश्वास मानकर उसी को उचित मार्ग मान लेने की अपेक्षा उन सभी मार्गों का परीक्षण किया जाना चाहिए जिस मार्ग से जो व्यक्ति शीघ्रता पूर्वक ज्यादा सुरक्षित पहुँच जाए सिद्धांततः उसे ही विज्ञान माना जाना चाहिए |उदाहरण की दृष्टि से यदि लक्ष्य एवरेस्ट पहाड़ पर चढ़ना हो तो जितने भी मार्ग संभव हों उन सबसे चढ़कर देखा जाना चाहिए जिस मार्ग से चढ़ने वाले लोग अधिक सुरक्षित एवं दूसरे मार्गों की अपेक्षा पहले पहुँच जाएँ उसे ही एवरेस्ट पर चढ़ने का सबसे अच्छा वैज्ञानिक मार्ग मान लिया जाना चाहिए | 
    चूँकि हम दूसरे मार्ग को जानते नहीं हैं इसलिए उन मार्गों को मार्ग न मानकर उस मार्ग के विषय में जानने  वालों के ज्ञान और अनुभव की उपेक्षा करते हुए केवल अपनी बात को स्थापित करना और दूसरे अनुसंधानों अनुभवों में ताला लगा देना ये विज्ञान भावना के विरुद्ध है |
     विज्ञान का क्षेत्र भी किसी रणक्षेत्र की तरह ही होता है जैसे युद्ध में सम्मिलित प्रत्येक योद्धा का लक्ष्य शत्रु पर विजय प्राप्त करना होता है उसके लिए किसी भी अस्त्र शस्त्र आदि का प्रयोग करते हुए जो विजयी हो जाता है उसने किस प्रकार से युद्ध लड़ा यह गौण हो जाता है और लक्ष्य प्राप्त करने में वह सफल हुआ है यह मुख्य हो जाता है | इसलिए उस युद्धविज्ञान का प्रमुखवैज्ञानिक वही मान लिया जाता है | 
   इसलिए विज्ञान के क्षेत्र में भी लक्ष्य पाने के लिए प्रयत्न करने की प्रक्रिया को विज्ञान नहीं माना जा सकता क्योंकि प्रयत्न करते समय विज्ञानसाधक को कई ऐसी कल्पनाओं अनुभवों पद्धतियों आदि का सहारा लेना होता है जो अनुसंधान यात्रा आगे बढ़ने के साथ साथ अप्रासंगिक होने के कारण धीरे धीरे अलग होते जाते हैं|इसलिए अनुसंधान प्रक्रिया में सम्मिलित प्रत्येक बिचार को विज्ञान नहीं माना जा सकता अपितु उस बिषय का विज्ञान वही होता है जो उस अनुसंधान को लक्ष्य तक पहुँचा पाने में सफल हुआ हो | यह विशेषज्ञता ही तो उस व्यक्ति की वैज्ञानिकता है | लक्ष्य प्राप्ति के लिए केवल भटकने को विज्ञान नहीं माना जा सकता !भटकाव केवल भटकाव है वह विज्ञान नहीं हो सकता है |भूकंपविज्ञान ,मौसमविज्ञान,महामारी विज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान के लिए भटकते हुए अनेकों दशक बीत चुके हैं किंतु अभी तक कुछ ऐसा हाथ नहीं लगा है जिसे इन विषयों का विज्ञान माना जा सके !वैज्ञानिक अनुसंधानों के लिए सबसे पहले एक लक्ष्य बनाना होता है उस लक्ष्य  प्राप्त करने के लिए ज्ञान के जंगलों में लंबे समय तक भटकना पड़ता है उसके बाद भी ये तब तक केवल भटकाव ही रहता है जबतक लक्ष्य  प्राप्ति न हो लक्ष्य को प्राप्त करना ही सबसे बड़ी चुनौती होती है |




       कोरोना  और मौसम
                              समय और विज्ञान
ईति खेती को हानि पहुँचानेवाले उपद्रव होते हैं। इन्हें छह प्रकार का बताया गया है :-
अतिवृष्टिरनावृष्टि: शलभा मूषका: शुका:।
प्रत्यासन्नाश्च राजान: षडेता ईतय: स्मृता:।।
अर्थात्‌ अतिवृष्टि, अनावृष्टि, टिड्डी पड़ना, चूहे लगना, पक्षियों की अधिकता तथा दूसरे राजा की चढ़ाई।
भारतीय विश्वास के अनुसार अच्छे राजा के राज्य में ईति भय नहीं सताता।

                                      कोरोना महामारी  है या कोई माया ? 

       वर्तमान विश्व विज्ञान पर अत्यधिक भरोसा करता है इसमें किसी को कोई संशय नहीं है विज्ञान भी सारे क्षेत्रों में जनता की अपेक्षाओं खरा उतरता रहा है !इसलिए समाज अपने जीवन की प्रत्येक आवश्यकता की आपूर्ति के लिए विज्ञान की ओर टकटकी लगाए बैठा  हुआ है | कोरोना महामारी जैसा इतना बड़ा संकट जब समाज के सामने उपस्थित हुआ तब घबड़ाया हुआ भयभीत समाज उसी आस्था से विज्ञान के सामने हाथ जोड़ कर अपनी  रक्षा की पुकार लगाने लगा -"हे विज्ञान मेरी रक्षा करो!","हे विज्ञान मेरी रक्षा करो !"
      30 दिसंबर 2019 से लेकर 31 मई 2020 बीत गया !इन पाँच महीनों में जनता अकेले कोरोना से जूझती रही लोग बीमार होते रहे उसमें बहुत सारे स्वस्थ होते रहे कुछ मरते भी रहे किंतु विज्ञान के जिस स्वरूप से समाज को कुछ सहारा मिल पाता !वैज्ञानिकों के द्वारा विज्ञान का ऐसा कोई स्वरूप प्रस्तुत नहीं किया जा सका |महामारियों से निपटने में विज्ञान की बहुत बड़ी भूमिका हो सकती थी किंतु ऐसा कुछ किया नहीं जा सका | 
      महामारी प्रारंभ होने से पूर्व यदि उसके विषय में पूर्वानुमान लगाना संभव हो पाता तो पहले से सावधान रहकर सतर्कता बरती जा सकती थी कुछ तो पथ्य परहेज कर लिया जाता और कुछ औषधियों से सहयोग मिल जाता तो संभव है कि इस महामारी से उतना नुक्सान न होता जितना हो गया | 
       इस महामारी को प्रारंभ हुए लगभग 5 महीने बीत चुके हैं  इससे बहुत बड़ी संख्या में लोग संक्रमित होकर अस्वस्थ हुए हैं उनमें से जिनकी मृत्यु हुई है उनकी संख्या भी लाखों में है | यहाँ सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि इतने महीने बीत जाने के बाद भी अभी तक इस बिषय में ठीक ठीक पता नहीं लगाया जा सका है कि यह महामारी अभी कितने महीने और चलेगी अर्थात इससे मुक्ति कब मिलेगी !यह प्रश्न हर किसी के मन में डर पैदा कर रहा है | कुछ वैज्ञानिक तो यहाँ तक कहते सुने जा रहे हैं कि इसका पीक आना अभी बाकी है !ये अभी लंबा चलेगा !जिसमें कुछ तो कुछ महीने आगे तक की बात कर रहे हैं जबकि कुछ का अनुमान तो वर्षों में है | 
       ऐसी सभी बातों एवं तरह तरह की अफवाहों को सुन सुन कर समाज का धैर्य तो टूटा ही है सरकारें भी ऐसी बिना सिर पैर की बातें सुन सुन कर थक चुकी हैं उन्हें तो ऐसे वैज्ञानिकों की बातें सुन कर समाज को समझाना पड़ता है ये उनकी जिम्मेदारी है | आज सरकारों को स्वयं यह कहना पड़ रहा है कि अब तो कोरोना के साथ ही जीना पड़ेगा !ये वही सरकारें हैं जिन्होंने जनता को बचाने के लिए एक नहीं कई कई बार लॉकडाउन किया है और जनता पूर्ण मनोयोग से उसका पालन करती रही है|
      भारतीय महानगरों में काम करने वाले परदेशी मजदूरों ने बहुत दुःख तकलीफ उठाई छोटे छोटे बच्चों बीमारों बूढ़ों के सात कई कई दिन तक भूखे रहे फिर भी सरकार के द्वारा किए गए लॉकडाउन में साथ देते रहे !इसके बाद भी जब सरकार इस बात का पूर्वानुमान उन्हें सही सही नहीं बता सकी कि यह महामारी अभी कब तक और चलेगी तब मजदूरों का धैर्य टूट गया और वे अपनी जान पर खेलते हुए भूखे प्यासे छोटे छोटे बच्चों के साथ पैदल ही हजारों किलोमीटर की यात्रा पर अपने अपने गाँवों के लिए निकल पड़े |जिन्हें रोकपाना अब सरकार के लिए संभव नहीं था |
       ये सब इसीलिए हुआ क्योंकि सरकार ऐसा कोई पूर्वानुमान प्रस्तुत नहीं कर सकी जिससे उन श्रमिकों को यह पता लग पाता कि अभी कितने दिन और इस कोरोना महामारी से बचकर रहना होगा | सरकारों की अपनी मज़बूरी थी उनके वैज्ञानिक इस बात का पूर्वानुमान बता ही नहीं पा रहे थे कि कोरोना कितने दिन महीने आदि और रहेगा इससे कब मुक्ति मिलेगी ?
      पूर्वानुमान पता न होने के कारण इस महामारी से इतना बड़ा नुकसान हुआ !बिशेष बात यह है कि कोरोना के विस्तार में  यदि छुआछूत की इतनी ही बड़ी भूमिका होती तो श्रमिकों के पलायन के समय हुई भयंकर लापरवाही से भारत जैसे देश में संक्रमितों की संख्या बहुत अधिक हो सकती थी क्योंकि लाखों लोग एक साथ एकदूसरे के संपर्क में कई कई दिनों तक रहे थे कई जगह तो भारी भीड़ें इकट्ठी हो गई थीं | एक एक कमरे या फैक्ट्रियों के हाल में बहुत सारे लोग एक साथ रहते रहे थे | ऐसी परिस्थिति में श्रमिकों के पलायन का एक कारण कोरोना के बिषय में सही पूर्वानुमान न मिलना भी था |  जलवायुपरिवर्तन के प्रभाव के विषय में पूर्वानुमान लगाते हुए जो वैज्ञानिक लोग समाज को अक्सर ललकारते देखे जाते हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण आज के सौ दो सौ वर्ष बाद ग्लेशियर पिघल जाएँगे समुद्र के जलस्तर में वृद्धि हो जाएगी !बहुत अधिक वर्षा होने से कहीं भीषण बाढ़ तो कहीं भीषण सूखा पड़ने से भूमिगत जलाशय सूखते चले जाएँगे भूमि में बड़ी बड़ी दरारें पड़ जाएँगी बार बार भूकंप एवं आँधी तूफ़ान आएँगे !कैंसर जैसी भयानक बीमारियों के फैलाव से बड़ी संख्या में लोग मारे जाएँगे |
     आज के सौ दो सौ वर्ष बाद क्या होगा उसके विषय में सौ दो सौ वर्ष पहले अर्थात अभी से भविष्यवाणियाँ करने वाले हमारे दिव्य दृष्टा वैज्ञानिकों की दृष्टि इस कोरोना पर क्यों नहीं पड़ी वे इतनी बड़ी इस महामारी के विषय में पूर्वानुमान लगाने में क्यों चूक गए ! जबकि यह वह महत्वपूर्ण अवसर था जब वह इस महामारी का पूर्वानुमान बता कर यह प्रमाणित कर सकते थे कि प्रकृति से संबंधित भूकंप वर्षा बाढ़ अतिवर्षा भीषणसूखा ग्लेशियर पिघलने समुद्र का जलस्तर बढ़ने आदि जलवायु परिवर्तन से संबंधित भविष्य में पड़ने वाले प्रभावों के विषय में हमने जो जो पूर्वानुमान लगाए हैं उनमें सच्चाई भी है किंतु ऐसा कुछ करके जनता का भरोसा नहीं जीता  जा सका | उन कल्पनाओं का वैज्ञानिक रूप में प्रमाणित होना अभी बाकी है | 
      ऐसी परिस्थिति में हमारे जिन वैज्ञानिक अनुसंधानों का कोई विशेष लाभ हमें कोरोना जैसी महामारी का सामना करने में नहीं मिल सका यदि मिलता तो ये अनुसंधान समाज के प्राणों की रक्षा में सहायक हो सकते थे जबकि अनुसंधान हमेंशा चला करते हैं किंतु कोरोना जैसी महामारी से निपटने में उनकी कोई भूमिका सिद्ध नहीं हो सकी ये वैज्ञानिक चेतना के लिए सबसे बड़ी चुनौती एवं समाज तथा सरकारों के लिए गंभीर चिंता की बात है |       किसी को नहीं पता है कि कोरोना कब तक चलेगा !ये महीना दो महीना वर्ष दो वर्ष भी चल सकता है जब इसके विषय में किसी को कुछ पता ही नहीं है तो कुछ भी हो सकता है ऐसी परिस्थिति में सरकार कब तक किसको अनुदान देगी और कब तक लॉक डाउन रख सकती है और कब तक किसे घर बैठकर भोजन उपलब्ध करवा सकती है | 
     इसलिए सरकारों को चाहिए कि वे अपनी चिंता से वैज्ञानिकों को अवगत करवावें और उन्हें इस बात की सावधि जिम्मेदारी दें कि हर हाल में हमें महामारियों के बिषय में पूर्वानुमान उपलब्ध करवाना आपकी जिम्मेदारी है ताकि दोबारा इस प्रकार की परिस्थिति का सामना न करना पड़े जिसमें केवल कोरोना संक्रमितों की संख्या गिनने के अतिरिक्त इतनी बड़ी महामारी में सरकारों के लिए और कोई भूमिका ही न बची हो |
                                                     महामारी और चिकित्सा  विज्ञान  
   चिकित्सा के क्षेत्र में विज्ञान ने बहुत बड़ी तरक्की की है जिसका लाभ सारे विश्व को मिल रहा है तभी तो समाज का विश्वास चिकित्सकों पर इतना अधिक बना हुआ है कि किसी को छोटी बड़ी कैसी भी कोई दिक्कत क्यों न हो वो सीधे चिकित्सकों के पास जाता है चिकित्सक उसे रोगमुक्त करने का प्रयास करते हैं लोग अक्सर रोग मुक्त हो भी जाते हैं कई बार नहीं भी होते है उनमें से कुछ रोगी तो मृत्यु तक को प्राप्त होते देखे जाते हैं | इसके बाद भी समाज का विश्वास चिकित्सकों पर बना हुआ है | 
       कोरोना जैसी महामारी के समय भी विश्व को विश्वास था कि चिकित्सा विज्ञान के पास इसका भी कोई न कोई तोड़ अवश्य होगा जिससे इस महामारी के समय भी हमारी रक्षा हो जाएगी किंतु ऐसा कुछ नहीं हो सका !इस महारोग से मुक्ति दिलाने के लिए चिकित्सकों ने प्राण प्रण से लग कर प्रयास किया है किंतु उनके प्रयासों के परिणाम न तो चिकित्सकों की इच्छा के अनुशार  आए और न ही वैश्विक समाज को उससे कुछ लाभ ही हुआ है |
     समाज अपने चिकित्सा वैज्ञानिकों से जानना चाहता है कि इस महामारी के पैदा होने का कारण क्या है इसके लिए मनुष्य को कितना दोषी ठहराया जा सकता है |मनुष्य को ऐसा क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए जिससे भविष्य में दोबारा ऐसी परिस्थिति पैदा ही न हो | 
     यदि महामारी प्राकृतिक है तब तो इसका पूर्वानुमान लगा लिया जाना चाहिए था क्योंकि प्राकृतिक घटनाओं का पूर्वानुमान तो लगा लिया जाता है उसके आधार पर आगे से आगे सतर्कता बरती जा सकती थी |  
     वैश्विक समाज पर जब स्वास्थ्य संबंधी इतना बड़ा संकट खड़ा हुआ है जिसमें 5 महीने बीत चुके हैं कोरोना संक्रमितों की संख्या अभी भी बढ़ती जा रही है और जैसे जैसे संख्या बढ़ती जा रही है वैसे वैसे समाज की चिंता भी बढ़नी स्वाभाविक है |समाज अपने चिकित्सा वैज्ञानिकों से इतनी अपेक्षा तो रखता ही है कि इतनी बड़ी मुसीबत के समय आगे आकर कम से कम इतना तो बतावें कि ये महामारी लगभग कितने समय तक और चलेगी उसके बाद इससे मुक्ति मिल जाएगी !किंतु ऐसा कुछ भी करना संभव नहीं हो पाया है !
     इस बिषय में समाज के मन में सबसे अधिक चिंता इस बात की है कि चिकित्सा संबंधी चलाए जाने वाले अनुसंधान कार्यों से कुछ मदद तो मिलनी चाहिए थी अन्यथा ऐसे अनुसंधानों का क्या लाभ !कोरोना के इस संकट काल में अभी तक जो भी जितने भी प्रकार की जानकारी दी जाती रही है उसमें विज्ञान सम्मत प्रामाणिकता का अभाव इस सीमा तक था कि कहीं से ऐसा नहीं लगता था कि यह जानकारी वैज्ञानिक अनुसंधानों के आधार पर दी जा रही है और न ही समाज के लिए वह किसी प्रकार से उपयोगी ही थी जो कोरोना जैसी महामारी से निपटने में मददगार सिद्ध हो सके |       
     कुछ चिकित्सा वैज्ञानिकों ने कोरोना को मनुष्यकृत माना तो कुछ ने प्राकृतिक कहा है |संक्रमण फैलने के लिए कुछ लोगों ने संक्रमित व्यक्ति के स्पर्श से तो कुछ ने संक्रमित व्यक्ति के साँस छींक खाँसी आदि से निकलने वाली बूँदों के संपर्क में आने को संक्रमण फैलने का कारण माना है|कुलमिलाकर  किसी ने कहा यह हवा से फैलता है तो किसी ने कहा कि छूने से फैलता है | 
     स्वास्थ्यसंबंधी अनुसंधानों पर जनता अपने खून पसीने की गाढ़ी कमाई का पैसा इसीलिए खर्च करती है कि इस रिसर्च से प्राप्त अनुभव  स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ पैदा होने पर हमारे काम आएँगे! सामान्य सर्दी जुकाम खाँसी आदि और भी जो शारीरिक समस्याएँ पैदा होकर समाप्त हुआ करती हैं उनसे लोगों को बहुत भय नहीं होता है किंतु महामारी जैसी बड़ी समस्याओं में जनता की अपेक्षा रहती है कि हमारे धन से किए जाने वाले अनुसंधान ऐसे अवसरों पर हमारे काम आवें किंतु ऐसे संकट काल में जब उन अनुसंधानों से कोई लाभ नहीं होता है तब दुःख होना स्वाभाविक ही है | स्वास्थ्य संबंधी अनुसंधान प्रक्रिया हमेंशा चला करती है उससे प्राप्ति क्या होती है ये उन्हीं लोगों को बेहतर पता होता है जो इस काम में लगे होते हैं जनता को उसकी जानकारी नहीं होती है |गंभीर बीमारियाँ किसी किसी को होती हैं उन्हें ऐसे अनुसंधानों से प्राप्त अनुभवों का लाभ होता होगा इसका अनुभव उन्हीं कुछ लोगों के पास होता है | आम जनता के पास उसके अनुभव नहीं होते हैं इसलिए चिकित्सकीय अनुसंधानों से कितना लाभ हुआ इस विषय में जनता का कुछ कहना संभव नहीं होता है |ऐसे अनुसंधानों में लगने वाला धन जनता ही वहन करती है ये सर्वविदित है कि जनता टैक्स रूप में सरकारों को जो धन देती है सरकारें अन्य प्रकल्पों की तरह ही उसी धन से ऐसी अनुसंधान प्रक्रिया का संचालन करती है |
      इसलिए वैज्ञानिकों की जवाबदेही सरकार और समाज दोनों के प्रति बनती है क्योंकि जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति तथा जनता के जीवन को स्वस्थ सरल सुखद सहज एवं निर्भीक बनाने के लिए ही संपूर्ण प्रयास किए जाते हैं वे प्रयास उन उद्देश्यों की पूर्ति में जितने प्रतिशत सफल होते हैं उतने प्रतिशत ही उन्हें सार्थक माना जा सकता है | 
     कोरोना काल में जोकुछ घटित हो रहा है वह बहुत दुखद है सबको चिंता है सबको घबड़ाहट हो रही है सबकी वाणी पर एक ही प्रश्न है कि कल क्या होगा अर्थात आगे आनेवाला समय कैसा होगा !कोरोना से मुक्ति कब मिलेगी विश्व के सारे लोगों का जीवन कब चिंता मुक्त होकर अपनी सही दिशा में आगे बढ़ने लगेगा |बात बात में समाधान खोज लाने के लिए जाना जाने वाला विज्ञान कोरोना महामारी पर मौन एवं असहाय सिद्ध हुआ है जो समाज के लिए और अधिक चिंता बढ़ाने वाला है |इसके लिए अवश्य कुछ सोचा जाना चाहिए ताकि अनुसंधान केवल अनुसंधान के लिए न होकर अपितु उद्देश्य परक हों जो केवल कहने सुनने के लिए न हों अपितु संकटों का समाधान खोजने में सक्षम हों |
                                    हमारी  वैज्ञानिक असमर्थता
       कोरोना महामारी के पैदा होने पर डरा सहमा घबड़ाया हुआ समाज देख रहा है कि संक्रमण को घटाने के लिए न कोई वैक्सीन है और न ही अन्य कोई औषधि जिससे संक्रमण पर अंकुश लगाया जा सके |इस रोग से बचने के लिए एक मात्र उपाय शारीरिक दूरी और मुखत्राण(मास्क) लगाना है | इससे ये बात साफ हो जाती है कि स्वास्थ्य के विषय में चिकित्साविज्ञान के द्वारा अभी तक जो अनुसंधान किए गए हैं वे अपर्याप्त अधूरे एवं महामारी जैसे संकटकाल  में साथ देने में सक्षम नहीं हैं |    कई देशों में वेक्सीन बनाने की बात कही गई !प्लाज्मा थेरेपी जैसी और भी बहुत सारी चिकित्सकीय प्रक्रियाओं के द्वारा कोरोना को कंट्रोल करने के दावे किए गए | इसके अतिरिक्त भी कई लोगों ने अलग अलग औषधियों के प्रयोग किए गए उससे कोरोना महामारी समाप्त होने की भी बात कही गई | विश्व के अधिकाँश देशों में ऐसी ही अनेकों प्रकार की प्रक्रियाएँ अपनाई गईं और सभी को शुरू करते समय कहा गया कि कोरोना महामारी से मुक्ति दिलाने की यही सही औषधि है इससे बहुत रोगियों को कोरोना से मुक्ति मिली है किंतु संक्रमित रोगियों पर उनका असरसिद्ध करके ऐसी बातें प्रमाणित नहीं की जा सकीं !केवल दावे किए जाते रहे | 
    विश्व के चिकित्सा वैज्ञानिकों के द्वारा  हमेंशा अच्छे से अच्छे अनुसंधान किए जाते रहे हैं एलोपैथ आयुर्वेद होम्योपैथ आदि और भी अनेकों पद्धतियों के द्वारा किया जाता  रहा है इसी क्रम में कुछ औषधियों को कोरोना से मुक्ति दिलाने के  चिन्हित भी किया गया है किंतु संक्रमितों पर उनका प्रयोग किए जाने से कोई सकारात्मक प्रभाव दिखाई नहीं पड़ा |
      इस महामारी ने उन तमाम लोगों अनुसंधान कर्ताओं को दर्पण दिखाने का काम किया है जो स्वास्थ्य समस्याओं से मुक्ति दिलाने के लिए अक्सर बड़े बड़े दावे करते देखे जाते रहे हैं !बड़े बड़े विज्ञापनों के माध्यम से स्वास्थ्य समस्याओं को लेकर जो निराधार कल्पित कहानियाँ सुनाया करते थे कि वे बड़े बड़े रोगों से मुक्ति दिलाने में सक्षम है उन्हें इस महामारी ने दर्पण दिखाया है कि उन्हें अपनी सीमा समझनी चाहिए | 
     ऐसे लोगों के दावों को अक्सर बल तब मिल जाता है जब समय साथ दे जाता है | ऐसे लोग जब अपने अपने अनुसार प्रयास कर रहे थे इसीबीच समय के संयोग से यह महामारी यदि समाप्त होना प्रारंभ हो जाती तब तो ऐसे चिकित्सावैज्ञानिकों के प्रयासों को रिसर्च अवश्य मान लिया जाता और उनके उत्पादों को कोरोना की कारगर औषधि मान लिया जाता  जबकि उस औषधि का कोरोना जैसी महामारी से कोई संबंध ही नहीं होता !किंतु मानलिया जाता कि उन्हीं औषधियों के बलपर कोरोना को पराजित कर दिया गया है |ऐसे लोगों को महामारियों का विशेषज्ञ मान लिया जाता और सच्चाई सामने आने से रह जाती |ऐसे प्रकरणों में सच खोजना आसान होता भी नहीं है | 
      ऐसे दावों की सच्चाई की परख तब हो सकती है जब वैसी महामारी दोबारा घटित हो और उस पर उन औषधियों का परीक्षण किया जा सके जिन्हें महामारी को पराजित करने में सक्षम माना गया है किंतु ऐसा कभी होता नहीं है | 
                                                डेंगू भी समय जनित रोग है !
     डेंगू जैसे समय जनित रोगों में ऐसा होते देखा जाता है कि  पिछले वर्ष जिन औषधियों के बलपर डेंगू को पराजित कर देने के दावे किए जाने लगते हैंउन्हीं औषधियों का प्रयोग करके अगले वर्ष के डेंगू को रोक पाना संभव नहीं होता है | इसी क्रम में समय जनित डेंगूरोग की चिकित्सा के विषय में ऐसे दावों का परीक्षण भी हो जाता है | यदि डेंगू अक्सर न फैलता होता तो इसके भी कुछ लोग विशेषज्ञ बन जाते कुछ दवाएँ खोजलेने के दावे ठोंकते कुछ वेक्सीन बना लेने की बात करते किंतु आज तो समस्या ये है कि ऐसे दावे टिकेंगे कितने दिन डेंगू तो अक्सर एक दो वर्षों में आता ही है | 
       डेंगू जब पीक पर होता है तब समाज में भय का वातावरण होता है अस्पतालों में भीड़ बढ़ने लगती है | ऐसे समय में जनप्रतिनिधियों  का अस्पतालों में आना जाना शुरू हो जाता है | नेताओं के  द्वारा चिकित्सकों पर  व्यवस्था सुधारने का दबाव डाला जाने लगता है !
      ऐसी परिस्थिति में डेंगू के लिए साफ पानी वाले मच्छरों को कारण बताकर उन नेताओं को अस्पतालों से वापस लौटा दिया जाता है | इस प्रक्रिया से नेताओं और मच्छरों को आमने सामने खड़ा कर दिया जाता है नेता अस्पतालों में जाने के बजाए मच्छर मारने में लग जाते हैं !मीडिया अस्पताओं में रोगियों की देखरेख से मीडिया का भी ध्यान हट जाता है वे भी साफ पानी वाले कूलर गमले टायर टंकियाँ आदि खोजने में लग जाते हैं |धीरे धीरे समय बीतता जाता है और समय के साथ साथ डेंगू स्वतः समाप्त होता चला जाता है | 
    चिकित्सालयों में बाक़ी सारी प्रक्रिया स्वतंत्र रूप से वैसी ही चला करती है | इस प्रकार से डेंगू लगभग हर वर्ष अपने समय से आता है और अपने  समय से जाता है लोग अस्वस्थ होते हैं उनमें से बहुत लोग स्वस्थ हो जाते हैं और कुछ की दुर्भाग्य पूर्ण मौत भी हो जाती है |
    उस समय मच्छर मारने वालों को लगता है कि उनके प्रयासों से डेंगू पर विजय हुई है चिकित्सकों को लगता है कि उनके प्रयासों से लाभ हुआ है | कुछ लोग बकरी का दूध पपीते के पत्ते गिलोय आदि का उपयोग कर रहे होते हैं उन्हें लगता है कि उन्हें उनके प्रयासों से सफलता मिली है |कोरोना के समय में भी यदि ऐसा कुछ हुआ होता तो अब तक बहुत लोग अपनी पीठ थपथपा रहे होते |
      महामारी की तरह ही डेंगू भी समय जनित रोग ही है उसकी भी कोई चिकित्सा नहीं है लक्षणों के आधार पर लोग अपने अपने अनुभवों का उपयोग करते देखे जाते हैं |जिसका कोई विशेष असर नहीं होता है ये समय जनित रोग हैं जो समय से ही समाप्त होते हैं | ऐसा कोई स्वीकार करे न करे किंतु पता सबको है |      
                                          महामारियाँ और अनुसंधान
     समय के प्रभाव से होने वाले बिषाणुजनित महारोगों की चिकित्सा पहले भी ऐसे ही होती रही है जब तक रोग चलते हैं तब तक रिसर्च चलते हैं रोग शांत होने का समय आने पर रोग अपने आप शांत होने लग जाते हैं और रोग शांत होते ही उससे संबंधित रिसर्च भी शांत हो जाते हैं | पहले भी ऐसे अनेकों महारोग होते रहे हैं जिनकी न कोई औषधि खोजी जा सकी है और न ही कोई वैक्सीन बनाई जा सकी है | 
    जो रोग खानपान बिगड़ने से होते हैं वे खानपान सुधरने से ठीक हो जाते हैं किंतु जिन रोगों के पैदा होने का कारण समय होता है वे रोग समाप्त भी समय से ही होते हैं उन पर औषधियों का कोई विशेष असर नहीं होता है | 
    इसलिए जबतक महामारियाँ रहती हैं तब तक कोई ऐसी औषधि वैक्सीन आदि बन नहीं पाती है जिसके द्वारा उन रोगों को नियंत्रित किया जा सके |जो बनाई भी जाती हैं वे असरहीन सिद्ध होते देखी जाती हैं |इसलिए औषधि निर्माण या वैक्सीन आदि बनाने की प्रक्रिया लगातार चला करती है इसी बीच महामारी स्वतः समाप्त होने लग जाती है ऐसे में उस औषधि या वैक्सीन आदि के परीक्षण के लिए रोगी नहीं मिल पाते जिन पर उसका परीक्षण किया जा सके |इसी प्रक्रिया का पालन प्रायः होते देखा जाता है |
       कुल मिलाकर समय जनित महारोग हमेंशा स्वतंत्र एवं निरंकुश होते हैं जो सदैव अपनी मर्जी के मालिक होते हैं | वे मस्त हाथी की तरह बिचरण करते हुए चीन के वुहानप्रांत से निकलकर सारे विश्व में  सारे विश्व में बिचरण किया करते हैं उनसे जो जो देश प्रदेश आदि पीड़ित होते जाते हैं वहाँ की सरकारें उन्हें रोकने के लिए प्रयास करते दिखती तो हैं किंतु इसके लिए उन्हें करना क्या होगा ये सरकारों में सम्मिलित लोगों को खुद नहीं पता होता है |महामारियाँ निरंकुश होकर स्वतंत्र रूप से बिचरण किया करती हैं |
    ये दायित्व चिकित्सा वैज्ञानिकों का होता है कि वे निश्चित कारण और निवारण खोजकर सरकारों के सामने रखें उसके अनुशार सरकार अपनी भूमिका का निर्वाह करेगी | उसीप्रकार का जनजागरण मीडिया करेगा किंतु यदि वैज्ञानिकों के द्वारा बार बार बताए जाने वाले कारणों में ही इतना अधिक विरोधाभास होगा या प्रमाणिकता का अभाव होगा तो उन बातों पर विश्वास कर पाना जनता के लिए कठिन होता जाएगा | उन्हीं बातों को यदि सरकारें दोहराएँगी तो जनता उन पर भी विश्वास नहीं करने लग जाती है | 
     भारत में कोरोना महामारी के समय में श्रमिकों के पलायन का भी यही प्रमुख कारण है क्योंकि उन्हें बताया गया कि सोशल डिस्टेंसिंग बनाओ अन्यथा कोरोना हो जाएगा जबकि उनके लिए सोशल डिस्टेंसिंग संभव ही नहीं था क्योंकि वे बहु संख्य लोग लंबे समय से एक साथ रहते आ रहे थे एक साथ काम कार रहे थे एक साथ उठना बैठना सोना जागना खाना पीना आदि सब कुछ होते देखा जा रहा था किंतु उनको संक्रमण जैसा कुछ हुआ ही नहीं था |इसी हिम्मत पर उन्होंने वैज्ञानिकों की बात और सरकार के अनुशासन पर ध्यान न देते हुए अपने अनुभव को महत्त्व दिया  और हजार हजार दो दो हजार किलोमीटर की पैदल यात्रा पर निकल पड़े | 
     महामारियों को मारने भगाने पराजित करने के लिए शोर शराबा बहुत मचाया जाता है किंतु उनकी गति रोकना तो दूर उन्हें समझना उनके लक्षण समझना उनका उदय अंत समझना किसी के बश की बात नहीं होती है | यह प्रक्रिया ठीक उसी प्रकार से चला करती है जैसे गाँवों में कोई उन्मत्त हाथी आता है स्वतंत्र बिचरण करते हुए अपनी सूँड़ से सबकुछ तहस नहस करने लग जाता है लोग परेशान  होकर शोर मचाते हैं कुत्ते भौंकने लग जाते हैं किंतु हाथी उनकी परवाह किए बिना आगे बढ़ता जाता है उस पर ऐसी बातों का कोई असर नहीं पड़ता है | वह उन्मत्त हाथी कोई दीवार गिराता है तो उसके सिर में मिट्टी लग जाती है कोई पेड़ तोड़लेता है तो उसके सिर पर कुछ पत्तियाँ शाखाएँ आदि गिर जाती हैं जिन्हें देखकर कुछ लोगों को भ्रम होने लगता है कि हाथी ने स्वरूप बदलना शुरू कर दिया है जबकि ऐसा होता नहीं है |इसी प्रकार से कोरोना जैसा महारोग होता है उसपर किसी का कोई अंकुश नहीं होता है जो ऐसे माहरोगों के स्वभाव प्रभाव आचार व्यवहार आदि को नहीं समझते हैं वे अपने मन में कुछ काल्पनिक मानक बना लेते हैं किंतु वे सच तो होते नहीं हैं इसलिए उन्हें लगने लगता है कि कोरोना स्वरूप बदल रहा है जबकि ऐसा होता नहीं है ये बदलाव भी उसके अपने स्वरूप का ही अंग होता है | 
                        महारोगों को समझने का विज्ञान खोजना होगा !
     ऐसी परिस्थिति में प्रश्न यही उठता है कि समय जनित रोगों या महारोगों से निपटने की कोई कारगर वैज्ञानिक अनुसंधान प्रक्रिया खोजे बिना ऐसी आधी अधूरी प्रक्रियाओं से  हम कब तक अपने को धोखा देते रहेंगे ऐसे निरर्थक समय कब तक बिता लेंगे !इनसे बचकर कब तक निकल लेंगे | कोरी कल्पनाओं और निराधार बातों के द्वारा हम कब तक कुछ लोगों को समझने में कामयाब हो जाएँगे | आखिर कभी तो अपने द्वारा किए जाने वाले अनुसंधानों का मूल्यांकन करना ही होगा कि ये जनता की आवश्यकताओं पर आखिर कितने खरे उतर पा रहे हैं | 
      वर्तमान समय में विज्ञान ने सभी दिशाओं में अत्यंत उन्नत विकास किया है अनेकों प्रकार की चर्चाओं में ऐसा कहते सुना जाता है किंतु महामारियों के विषय में प्रत्यक्ष तौर पर ऐसा देखा नहीं जाता है |आज के सैकड़ों वर्ष पहले जब महामारियाँ आती थीं तब इनके सामने मनुष्य जितना विवश होता था आज भी उतना ही विवश है | आखिर इतने वर्षों तक जो अनुसंधान किए गए उनके द्वारा महामारियों से निपटने के विषय में कितनी मदद मिल सकी |इतने लंबे समय तक की गई वैज्ञानिक तैयारियों के बाद भी कोरोना का उदाहरण प्रत्यक्ष तौर पर सबके सामने है वे अनुसंधान कितने कारगर सिद्ध हुए |  
     कुल मिलाकर रोग की भयंकरता से लेकर इसके ठीक होने तक,इसके लक्षणों औषधियों आदि के विषय में अंत तक भ्रम का वातावरण बना हुआ है जितने मुख उतनी बाते हैं किंतु इस विषय में विश्वासपूर्वक कोई कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं है | 
     वैज्ञानिकों के द्वारा अभी तक ऐसी कोई चिकित्सा पद्धति जो कोरोना को सही सही समझ पायी हो इसके लक्षणों को ठीक ढंग से समझ सकी हो | इसीलिए अभी तक इस विषय में कोई कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं है| कोरोना अभी तक रहस्य का रहस्य ही बना हुआ है | यह बात अलग है कि कुछ समय बाद कोरोना से मुक्ति मिल जाए उसके बाद लोग कोरोना की चिकित्सा खोज लेने के तरह तरह के दावे करने लगें | सच्चाई यही है कि विज्ञान के लिए कोरोना अभी तक चुनौती बना हुआ है | इस कोरोना से निपटने में विज्ञान की अभी तक कोई भूमिका दूर दूर तक नहीं दिखाई पड़ रही है | 
      सोशल डिस्टेंसिंग न होने से इस संक्रमण के फैलने और बढ़ने की बात कही जा रही थी जबकि ऐसे रोगियों की संख्या भी बहुत है जो कोरोना संक्रमितों के साथ रहते खाते पीते नहाते धोते रहे जब संक्रमण की जाँच हुई रिपोर्ट आने तक भी उसी परिस्थिति में सबकुछ चलता रहा |रिपोर्ट आने के बाद वे संक्रमित निकले तो अस्पताल ले जाए गए जहाँ उनकी तो चिकित्सा होने लगी किंतु उन संक्रमितों के साथ जो लोग रहते रहे उनके शरीरों में किसी प्रकार से संक्रमण के कोई लक्षण दिखाई नहीं पड़े वे संपूर्ण रूप से स्वस्थ बने रहे तहाँ ऐसे लोगों की संख्या भी बहुत है जिन्होंने सोशल डिस्टेंसिंग का पालन संपूर्ण रूप से किया वे घर से बाहर निकले नहीं किसी से मिले जुले नहीं कुछ ऐसा खाया पिया पहना ओढ़ा नहीं !उन्हें भी संक्रमण होते देखा गया इसका कारण क्या माना जाए | 
     पहले संक्रमित रोगियों में सर्दी, जुकाम, खांसी, बुखार आदि कुछ लक्षण बताए जा रहे थे | ऐसे रोगियों में सूँघने सुनने बोलने एवं जुबान से स्वाद गायब होने और कान में दबाव होने जैसे लक्षण भी बताए गए थे किंतु ये बातें भी कोरोना के लक्षणों के रूप में प्रमाणित नहीं हो सकीं | बहुत रोगी ऐसे भी थे जिनमें ऐसे कोई भी लक्षण नहीं दिखाई पड़ रहे थे जिन्हें कोरोना के नाम से प्रचारित किया जाता रहा था |धीरे धीरे कोरोना संक्रमित रोगियों के साथ अनेकों नाम और लक्षण जुड़ते चले गए | इसके बाद कहा जाने लगा कि संक्रमण के कोई लक्षण नहीं होते हैं इसका मतलब कोरोना अपना स्वरूप बदल रहा है |
      तीन मई को शराब के ठेके खोल दिए गए एवं श्रमिकों के पलायन की  प्रक्रिया में सोशल डिस्टेंसिंग और सैनिटाइजेशन जैसी चीजों का पालन बिल्कुल नहीं हो सका इसके बाद भी  20 मई आते आते संक्रमण में सुधार का स्तर बढ़कर लगभग 40 प्रतिशत तक पहुँच चुका था |ये सुधार कैसे हो रहा था किसी को नहीं पता !कुछ लोग लोग इस सुधार के लिए अपने प्रयासों को श्रेय दे रहे थे किंतु इस बीच उन्होंने ऐसा नया कुछ तो किया नहीं था जिसके द्वारा यह सुधार आया है ऐसा मान लिया जाए जो पहले से करते आ रहे थे वही इस समय भी किया जा रहा था | यदि उसी से सुधार हो रहा था तब तो पहले से ही होने लगना चाहिए था किंतु ऐसा होते तो नहीं देखा गया था |ये प्रश्न होना स्वाभाविक ही है | 
    इसका उत्तर एक चिकित्सक महोदय के द्वारा दिया गया -"सुबह 15–20 की मिनट धूप एवं , विटामिन सी, डी , अदि से भरपूर नाश्ता,भोजन दिया जाता है ताकि इम्युनिटी बढ़ जाये और जब इम्युनिटी बढ़ जाती है तो कोरोना को समाप्त कर देती है |" 
     यदि बात केवल इतनी सी थी तो लॉक डाउन जैसे कड़े कदम उठाने की आवश्यकता क्या थी प्रत्येक व्यक्ति को इम्युनिटी बढ़ाने के लिए ही प्रेरित कर दिया जाता !  
      कोरोना को शेर की तरह प्रस्तुत करते हुए पहले तो इतना अधिक डरवा दिया गया कि जिस क्षेत्र में एक रोगी कोरोना संक्रमित मिल जाता था उस पूरे क्षेत्र को सील करके उसकी आसपास तक की गलियों को सैनिटाइज किया जाता था |बड़ा तामझाम तैयार कर दिया जाता था |
      इसके बाद कोरोना को कुत्ते की तरह प्रस्तुत किया गया कि इससे डरना नहीं है इसका सामना करके इसे पराजित करना है |इस समय यदि कोई संक्रमित रोगी पाया जाता था तो केवल उसी रोगी के घर का गेट सैनिटाइज कर दिया जाता  था |इसके बाद कोरोना को चूहे की तरह प्रस्तुत किया गया कि कोरोना से किसी को बिल्कुल नहीं डरना चाहिए इसके साथ साथ ही रहने की आदत डालनी चाहिए | इसके बाद किसी को कोरोना होता था तो कई कई दिन फोन करते रहो तब जाकर कोई  सुध लेता था | ऐसे समय लोग खुद ही अपने को सैनिटाइज कर लिया करते थे |इतने बड़े विरोधाभास का कारण कोरोना को समझने में हुआ भ्रम नहीं तो और क्या हो सकता है |

     चिकित्सकीय वक्तव्यों में इतना अधिक विरोधाभास देखकर जनता ने अपने अनुभवों पर अमल करना शुरू कर दिया | कोरोना महामारी के समय धार्मिक महिलाएँ 'कोरोनामाई' या 'कोरोनेश्वरमहादेव' के रूप में पूजा करने लगे जिसे देखकर कुछ लोग इसे अंधविश्वास कहने लगे तो उन महिलाओं ने कहा कि चिकित्सा विज्ञान के नाम पर आज तक आपलोग जो जो कुछ कहते बताते रहे हैं उसमें भी तो कोई सच्चाई नहीं सामने लाइ जा सकी है वो अंधविश्वास नहीं है क्या ? इतने ही बड़े वैज्ञानिक थे तो इस कोरोना को वूहान में ही कैद करके रखने की प्रक्रिया खोज  लेते और अपने देश में घुसने ही नहीं देते तब तो तुम्हारी वैज्ञानिकता थी अब तो हम भी समय बिताने के लिए कुछ कर ले रहे हैं और तुम भी समय पास करते जा रहे हो | अब कोरोना तो समय से ही जाएगा और अपने आपसे जाएगा जब भगवान् की कृपा होगी तब जाएगा |
      ऐसी महामारियों के समय चिकित्सकीय अनुसंधानों की जनता को जब सबसे अधिक आवश्यकता होती है उस समय उनसे सभी प्रकार के प्राकृतिक रोगों के बिषय में सभी देशों में यही किया जाता है |
 
                                  वैज्ञानिक अनुसंधान और सरकारें 
      लोकतांत्रिक पद्धति में सभी कार्यों का संचालन करने के लिए सरकार और उनके अधिकारी कर्मचारी होते हैं !इन पर खर्च होने वाला धन उस जनता से टैक्स रूप में लिया जाता है जिस जनता को इस प्रक्रिया को जानने से दूर रखा जाता है कि उसकी खून पसीने की कमाई का धन खर्च कहाँ होता है और उसके बदले में उसे मिलता क्या है और यदि कुछ नहीं मिलता है तो ऐसे मदों में खर्च करने के लिए जनता टैक्स क्यों दे ?
     ऐसी परिस्थिति में जनता से प्राप्त धन जनता के जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सरकार अपने सरकारी तंत्र पर खर्च होता है उस सरकारी तंत्र का काम काज एवं उसके द्वारा किए जाने वाले वैज्ञानिक अनुसंधानों से जनता को संतुष्ट करना सरकारों का कर्तव्य होता है |सरकारी कार्य प्रणाली से जुड़े लोग अक्सर अपनी असफलता छिपाने के लिए आँकड़ों का ऐसा जाल बुन कर सरकारों को खुश कर देते हैं जबकि जनता को वे न तो समझ में आते हैं और न ही जनता का उनसे कोई भला ही होता है | जिन अनुसंधानों पर जनता का धन खर्च होता है उन अनुसंधानों का जनता की आवश्यकताओं पर खरा उतरना बहुत आवश्यक होता है | 
    अधिकाँश अनुसंधान सरकारों की सहमति से सरकारी वैज्ञानिक लोग ही करते हैं |उसके अतिरिक्त कुछ और लोग करते भी हैं तो उन्हें भी सरकारी नियमों के तहत सरकारी लोगों से ही अपने अनुसंधानों की प्रमाणिकता प्राप्त करनी होती है |
     राजनीति में उच्च शिक्षा अनिवार्य नहीं होती है इसलिए कई बार ज्ञान और अनुभव के अभाव में मंत्री लोग अपने अपने मंत्रालयों से संबंधित कार्य योजना बनाने में अक्षम होते हैं | कई बार  सरकारों में सम्मिलित नेता लोगों के पद अस्थिर होने के कारण वे  बार बार बदलते रहते हैं इसलिए वे कोई कठोर निर्णय लेने में डरा करते हैं |उनके पाँच वर्ष यूँ ही निकल जाते हैं ऐसा कुछ  नया करने के लिए वे सोच भी नहीं पाते हैं |
   कुलमिलाकर राजनेता अपने पदों की अनिश्चितता को समझते हैं उनके लिए कोई मजबूत निर्णय ले पाना संभव नहीं होता है |दूसरी ओर जो अधिकारी कर्मचारी होते हैं वे अपने पदों पर इतनी  मजबूती से प्रतिष्ठित होते हैं कि उन्हें उनके पदों से हिलाना संभव नहीं होता | इसलिए वे कुछ करने न करने की आवश्यकता नहीं समझते हैं | वे कुछ करें भी तो उसका यशलाभ संबंधित मंत्रालयों के मंत्रियों को मिलता है | इसलिए वे अयोग्यता अक्षमता आलस आदि के कारण पहले से पड़ी हुई लीक से अलग हटकर सत्य की  खोज में कुछ अलग करने में रूचि नहीं लेते हैं | 
     इस प्रकार से सरकारें पाँच वर्ष के लिए चुनी जाती हैं उन पॉंच वर्षों तक उन्हें प्रायः वही काम करते देखा जाता है जिससे वे अगले पाँच वर्षों के लिए चुनाव जीतने में उन्हें मदद मिल सके|ये चक्र हमेंशा चला करता है सरकारें आती जाती रहती हैं !सरकारी की सारी कार्यप्रणाली अपने ढर्रे पर चला करती है इसीलिए वैज्ञानिक अनुसंधानों के नाम पर जो कुछ पहले से होता आ रहा होता है वही चला करता है उसमें कुछ नया करने का साहस बहुत कम लोग ही कर पाते हैं|इसीलिए प्राकृतिक आपदाओं महामारियों आदि में पहले की तरह ही जनधन की हानि होते देखी जाती है |इस क्षेत्र में वैज्ञानिक अनुसंधानों की भूमिका का लाभ बहुत कम हो पा रहा है |
   सरकारों की अनिश्चितता और प्रशासन तंत्र की निश्चितता ने कई अत्यावश्यक वैज्ञानिक अनुसंधानों पर ताला लगा रखा है |कुछ  सजीव समझदार एवं समाज के प्रति समर्पित प्रशासक ऐसे भी हैं जिन्होनें ऐसे अनुसंधान कर्ताओं की ढुलमुल बातों से असहमति जताने में संकोच नहीं किया है | उचित भी है जनता का धन अनुसंधान कार्यों पर लगाया जाए और अनुसंधान कार्यों से निकले कुछ न या गलत जानकारी मिले तो सरकार का दायित्व बन जाता है कि वो सच का साथ दे | 
     सरकारी कुछ विभागों के द्वारा कहा जा रहा है कि अब हम एक एक गाँव के विषय में मौसम संबंधी पूर्वानुमान देने लगे हैं | मौसमवैज्ञानिकों के द्वारा ऐसे और भी बहुत सारे दावे तो  किए जाते हैं किंतु उन दावों के सच होने का प्रतिशत बहुत कम होता है |इस झूठ को किसान पकड़ते हैं क्योंकि इससे उनका लाभ हानि जुड़ा होता है किंतु किसानों की सुनता कौन है | और सरकारों में सम्मिलित लोगों को इतना समय कहाँ होता है कि वे उन  मौसमी भविष्यवाणियों का घटनाओं के साथ मिलान करें जबकि जनता से प्राप्त धन को सरकारें ऐसे लोगों पर खर्च करती हैं इसलिए सरकारों की जवाबदेही बनती है कि मौसम भविष्यवक्ताओं की भविष्यवाणी गलत होने पर सरकार को जनता के समक्ष सच्चाई रखनी चाहिए | जो अनुसंधान समाज के जिस वर्ग को लाभ या सुविधा पहुँचाने के लिए किए जाते हैं वे जनता का हितसाधन करने में यदि सक्षम न भी हों तो भी उन प्रयासों के द्वारा समाज का विश्वास जीतने का प्रयत्न अवश्य दिखाई पड़ना चाहिए | 

    जलवायुपरिवर्तन जैसी कल्पना का  वैज्ञानिक आधार क्या है?

     प्रकृति में सब कुछ समय के चक्र के साथ साथ चलता है इसलिए अधिकाँश प्राकृतिक घटनाएँ बार बार घटित होती रहती हैं ग्रहों नक्षत्रों समेत सभी चराचर जगत समय के चक्र के साथ साथ घूमता चला जा रहा है उसके साथ साथ सभी में परिवर्तन होते जा रहे हैं उन परिवर्तनों के सिद्धांत को समझने वाले इस बात का पूर्वानुमान लगा लेते हैं कि सुदूर आकाश में ग्रहों नक्षत्रों से संबंधित जिस प्रकार की जो घटना आज घटित होते देखी जा रही है यह भविष्य में कितने सौ या हजार वर्ष बाद इस प्रकार की घटना दोबारा फिर से घटित होगी | जो सूर्य या चंद्र ग्रहण आज पड़ा रहा है इतने वर्ष बाद यह परिस्थिति दो बारा बनेगी और तब यह ग्रहणघटना दोबारा घटित होगी |
     इसी प्रकार से जो बादल जिस क्षेत्र में आज आकर बरस रहे हैं दोबारा कब अर्थात कितने वर्ष या महीने बाद यही बादल पुनः आकर इस क्षेत्र में बरसेंगे | जो आँधी या तूफ़ान जिस क्षेत्र में आज आया है उस क्षेत्र में वह दोबारा कितने वर्ष या महीने बाद आएगा !इसी प्रकार से अतिवृष्टि और अनावृष्टि आदि किस किस वर्ष में घटित होगी यह भी उसी समयक्रम के अनुसार घटित होता रहता है | 
     ऐसे ही इस वर्ष इस फसल से शाक सब्जी अनाज आदि की फसल अच्छी मिली है अर्थात उपज अच्छी हुई है तो इसके बाद फिर कितने वर्ष बाद इस क्षेत्र में इस फसल से आनाज आदि की उपज अच्छी मिलेगी इसी प्रकार से फसलों से होने वाले नुक्सान का आकलन कर लिया जाता है |
ऐसे ही प्रकृति में घटित होने वाली प्रत्येक घटना अपने अपने समय चक्र के हिसाब से चक्कर लगाते हुए आती जाती रहती है सबकुछ बार बार घटित होता रहता है |

 ने वाली घटनाऍं गृह नकतरों सभी ऋतुएँ बार बार आती जाती रहती है इसी प्रकार प्रातः दोपहर सायं रात्रि फिर प्रातः फिर दोपहर फिर सायं यह क्रम हमेंशा से चला आ रहा है|जंगलों में कुछ बीज बिना बोए उगते हैं पौधे बड़े होते हैं फूलते हैं फलते हैं फिर पक कर झड़ जाते हैं अगले वर्ष फिर अपने समय से उग आते हैं फिर वही क्रम चला करता है | आम आदि के वृक्ष हमेंशा खड़े रहते हुए भी समय आने पर पुराने पत्ते छोड़कर नै कोपलें धारण करते हैं समय आने पर फूलते फलते हैं फल बड़े होकर पकते और गिर जाते हैं इस सृष्टि में सबकुछ बार बार घटित होता रहता है यह सभी कुछ 
     इसी प्रकार से ऐसी महामारियाँ जिससे बहुत लोग पीड़ित होते एवं मरते  देखे जाते हैं |ऐसे समय में होने वाले रोगों के लक्षणों में बदलाव होते इनकी
     
    समय चक्र के आधार पर इस प्रकार की सभी घटनाओं के विषय में जान लिया जाता है कि किस प्रकार की घटना आज के कितने वर्ष महीने आदि पहले घटित हुई थी और वही घटना भविष्य में फिर से कब घटित होगी | 

 
जलवायुपरिवर्तन होने की बात कहकर क्या समझाने का प्रयास किया जा रहा है इसके प्रकृतिलक्षण क्या हैं ऐसा कहने के पीछे आधार क्या है ऐसा पहले किस किस शताब्दी या सहस्राब्दी में हुआ है उस समय भी पृथ्वी का तापमान बढ़ने लगा था क्या ? ग्लेशियर पिघलने की घटनाएँ क्या उस समय भी घटी थीं जिससे समुद्री जलस्तर में वृद्धि हुई थी |क्या तब भी वायु प्रदूषण इसी प्रकार बढ़ने लगा था और पृथ्वी के अंदर का जलस्तर घटने लगा था |

क्या इसके कारण प्रकृति और जीवन में किस किस प्रकार के परिवर्तन आए थे क्या उस समय भी बहुत आँधी तूफ़ान कहीं सूखा कहीं बाढ़ आदि की घटनाएँ घटित होने लगी थीं क्या ?आने लगे थे क्या उस पीछे का 

   सरकारों में सम्मिलित लोग जनप्रतिनिधि होते हैं उन्हें जनता को जवाब देना पड़ता है इसलिए उनके द्वारा वैज्ञानिक अनुसंधानों पर भी समाज की शंकाओं का समाधान किया जाना चाहिए | ये जवाबदेही सरकारों की बनती है |वैज्ञानिक अनुसंधानों के नाम पर कल्पनाएँ तो करनी ही पड़ती हैं किंतु कल्पनाएँ हमेंशा सच ही हों यह आवश्यक नहीं है|ग्लोबलवार्मिंग जलवायुपरिवर्तन जैसी बातों पर अनुसंधानात्मक परीक्षण के बिना विश्वास करना ठीक नहीं है | ये जलवायुपरिवर्तन जैसी बातें अभी तक तो कोरी कल्पनाएँ ही हैं जिन्हें वैज्ञानिक तर्कों के आधार पर प्रमाणित कर पाना केवल कठिन ही नहीं अपितु असंभव है | इस विषय में अभी तक दिए गए प्रमाण ऐसी कल्पनाओं के सच को प्रमाणित करने में असमर्थ हैं | बताया जाता है कि जलवायु परिवर्तन समय के दीर्घावधि कालखंड के अनुभवों के आधार पर जलवायु परिवर्तन जैसी कल्पनाएँ की गई है | यदि ऐसा है तो ऐसे अनुसंधानों की वैज्ञानिकता  केवल इतना कह देने मात्र से सिद्ध नहीं हो जाती है कि पहले ऐसा था और अब ऐसा है अपितु यह देखा जाना चाहिए कितने पहले कैसा था और कब कब कितने सौ या हजार वर्षों में ऐसे परिवर्तन हुए हैं | प्रकृति एवं जीवन पर उन परिवर्तनों का अच्छा या बुरा कैसा प्रभाव क्या हुआ है उसके उदाहरण प्रस्तुत किए जाने चाहिए | इतनी तैयारी के बिना किसी घटना के आधार पर इतनी बड़ी बात कैसे बोली जा सकती है | 
     पहले तापमान कम था अब बढ़ा है | पहली बात तो इस विषय में बहुत पुराना डेटा उपलब्ध नहीं है उस विषय में केवल काल्पनिक आंकड़े हैं |यदि ऐसा हो भी तो संभव है कि यह सुबह दोपहर और शाम का तापमान जैसे घटता बढ़ता है हो सकता है कि ये प्रकृति का उस प्रकार का कोई क्रम  हो !ग्लेसियर कभी और कहीं पिघलते हैं तो कभी कहीं जमते भी तो हैं कई बार रिचार्ज होते देखे जाते हैं | ओजोन लेयर में यदि छेद  हुआ था तो उसे बंद भी उसी प्रकृति ने किया है |गर्मी में नदी तालाब सूख जाते हैं तो वर्षा में भर भी तो जाते हैं | गर्मी में तापमान जितना बढ़ जाता है सर्दी में उतना कम भी तो हो जाता है यही तो प्रकृति क्रम है | इसमें जलवायु परिवर्तन को घसीटना कितना उचित है | 
     वर्षा बाढ़ आँधी तूफ़ान भूकंप वायु प्रदूषण बज्रपात आदि हर युग में रहा है प्रकृति क्रम से ये घटनाएँ कभी कुछ कम होती हैं तो कभी कुछ अधिक घटित होते दिखाई देती हैं ये वायु जनित घटनाएँ हैं इसमें जलवायु परिवर्तन की भूमिका सिद्ध कैसे होती है ये समझ से परे है | 
     परिवर्तन तो हमेंशा हुए हैं और हमेंशा होते रहेंगे ये प्रकृति के कण और जीवन के प्रत्येक अंश में हर क्षण होते हैं तभी तो सभी के आकार प्रकार रंग रूप  आदि बदलते रहते हैं  फिर जलवायु परिवर्तन को लेकर तमाम आशंकाएँ क्यों तैयार की जा रही हैं | जलवायु में यदि बदलाव होगा भी तो कितना क्या इनका स्वभाव गुण आदि भी बदल जाएँगे  और इनके बदलने पर जीवन संभव रह पाएगा क्या ?ऐसी कल्पना यदि आज के सौ दो सौ वर्षों के बाद की करनी है तो तुलना आज के सौ दो सौ वर्ष पहले से कर लेनी चाहिए कि आखिर तब ऐसा क्या था जो आज नहीं है ऐसा होने का कारण जलवायु परिवर्तन को मानलिया जाए | ऐसा तो कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता है | 
     प्राकृतिक घटनाओं के विषय में सौ दो सौ वर्ष का क्रमिक और प्रमाणित डेटा उपलब्ध नहीं है और हम सैकड़ों हजारों वर्ष आगे की बात करने बैठ जाएँ आखिर उसका कोई आधार भी तो होना चाहिए |
     जलवायु परिवर्तन के कारण भविष्य में जिस जिस प्रकार की घटनाएँ घटित होने की बातें की जा रही हैं वे यदि सच हैं तो इसका इतना असर जब प्रकृति पर पड़ सकता है तो जीवन पर कितना पड़ेगा !जीवन तो प्रकृति से अधिक सुकोमल एवं संवेदनशील होता है | क्या उन परिस्थितियों में जीवन का सुरक्षित रह पाना संभव होगा | 
     कहा जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन के कारण  आज के सौ दो सौ वर्ष बाद आँधी तूफ़ान अधिक आएँगे कहीं भीषण सूखा पड़ेगा कहीं अधिक वर्षा और बाढ़ होगी !किंतु आज ऐसा नहीं होता है क्या या पहले कब ऐसा नहीं होता रहा है वर्षा कब सभी जगह एक समान मात्रा में होती रही है सूखा कब नहीं पड़ा है अधिक वर्षा और बाढ़ की घटनाएँ किस कालखंड में नहीं घटित हुई हैं |      ऐसी अफवाहें फैलाने वाले वही मौसम भविष्यवक्ता लोग होते हैं जो आँधी तूफ़ान वर्षा बाढ़ आदि के सही सही पूर्वानुमान दोचार दिन पहले नहीं बता पाते हैं वही लोग जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का वर्णन करते समय आज के सैकड़ों वर्ष बाद के विषय में कल्पित कथा कहानियाँ बना बनाकर समाज को डराया धमकाया करते हैं | सौ दो सौ वर्ष बाद घटित होने वाली घटनाओं की अभी से भविष्यवाणियाँ करने वाले मौसम भविष्यवक्ताओं के लिए ये सबसे बड़ी चुनौती है कि पहले वे मानसून आने जाने की सही सही तारीखें पता लगाने की क्षमता विकसित करें !अपने द्वारा बताए जाने वाले मध्यावधि और दीर्घावधि मौसम पूर्वानुमान सही सही बताकर समाज का विश्वास जीतने का प्रयास करें | इनके सही होने के बाद यदि उनके द्वारा जलवायु परिवर्तन से संबंधित पूर्वानुमानों के विषय में कुछ ऐसी बातें भी बोली जाती हैं जिनके सही होने की संभावना भले बिल्कुल न हो तो भी उसमें जिम्मेदारी झलकती है इसलिए जनता उनकी बातों पर भरोसा कर भी सकती है | कुछ करने के बाद कुछ कहने का अधिकार भी बनता है बिना कुछ किए ही समाज में भविष्य को लेकर भय भरना किसी वैज्ञानिक चिंतन की उपज कैसे कही जा सकती है |  

  भविष्यवाणी करने की क्षमता पर प्रश्न ? 
      मौसमसंबंधी जो भविष्यवाणियाँ की जाती हैं उनमें से कितने प्रतिशत सच होती हैं उसी अनुपात में उनके  भविष्यसंबंधी पूर्वानुमानों के सही होने का अंदाजा लगाया जा सकता है |छोटी घटनाएँ तो बहुत घटित होती रहती हैं इसलिए उनके आधार पर चिंतन करना उचित नहीं होगा अपितु इसका अंदाजा लगाने के लिए बीते 10 वर्षों में घटित हुई कुछ बड़ी प्राकृतिक घटनाओं के उदाहरण सम्मुख रखकर चिंतन किया जा सकता है | 
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    2 मई 2018 को पूर्वोत्तर भारत में भीषण तूफान आया जिसमें काफी जन धन की हानि हुई थी | उसके दो तीन दिन बाद फिर तूफ़ान आ गया उसमें भी काफी जन धन की हानि हुई इन तूफानों के विषय में कोई भविष्यवाणी मौसम भविष्यवक्ताओं की ओर से नहीं की गई थी | इसके बाद 7 और 8 मई को भीषण आँधी तूफ़ान आने की भविष्यवाणी सरकार के मौसम भविष्यवक्ताओंने भी कर दी जिसके कारण दिल्ली और उसके आसपास के स्कूल बंद कर दिए गए किंतु उस दिन कोई आँधी तूफान नहीं आया | जिससे सरकार के मौसम भविष्यवक्ताओं का बड़ा उपहास हुआ जिसके विषय में उन्होंने यह स्वीकार किया कि आँधी तूफानों को हम समझ नहीं पा रहे हैं | जिसकी अखवारों में हेडिंग छपी थी  "चुपके चुपके से आते हैं चक्रवात !" बाद में भारत सरकार ने अपने मौसम भविष्यवक्ताओं से स्पष्टीकरण माँगा था | सरकार का यह जिम्मेदारी पूर्ण सराहनीय कदम था | 
    3 अगस्त 2018 को सरकारी मौसम भविष्यवक्ताओं के द्वारा एक प्रेसविज्ञप्ति जारी की गई जिसमें दीर्घावधि मौसम संबंधी पूर्वानुमान बताने के नाम पर लिखा गया कि अगस्त सितंबर के महीने में सामान्य बारिश होगी जबकि उसके चार दिन बाद ही  8 से 16 अगस्त  2018 तक भारतीय राज्य केरल में अत्यधिक वर्षा के कारण बाढ़ आ गयी।यह  केरल में  एक शताब्दी में आयी सबसे विकराल बाढ़ थी !जिसमें 373 से अधिक लोग मारे गए  तथा 2,80,679 से अधिक लोगों को विस्थापित होना पड़ा था |जिसमें केरल के मुख्यमंत्री जी ने साहस करके यह  कहा कि इस वर्षा के विषय में मौसमविभाग की ओर से मुझे कोई पूर्वानुमान उपलब्ध नहीं करवाया गया था |  

       सितंबर 2019 के अंतिम सप्ताह में बिहार को बहुत अधिक बारिश एवं बाढ़ का सामना करना पड़ रहा था !सरकारी मौसम भविष्य वक्ता लोग जो भविष्यवाणियाँ करते थे सरकार को उसके अनुशार रणनीति बनानी पड़ती थी जबकि भविष्यवाणियाँ गलत निकल जाती थीं और सरकार की रणनीति फेल हो जाती थी | अंत में बिहार के मुख्यमंत्री जी को कहना पड़ा कि मौसम भविष्यवाणियाँ करने वाले लोग सुबह कुछ बोलते हैं दोपहर को कुछ दूसरा बोलते हैं और शाम को कुछ और बोल देते हैं | बर्षा अधिक होने के बिषय में मौसम भविष्य वक्ताओं ने जो जो कारण बताए वे इतने भ्रामक थे कि सरकार ने उनसे दूरी बनाते  हुए कहा कि हथिया नक्षत्र के कारण अधिक बारिश हो रही है | केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री जो स्वयं बिहार से आते हैं उन्होंने भी कहा कि बिहार में अधिक बारिश होने का कारण हथिया नक्षत्र हैं |ऐसी परिस्थिति में जिस ज्योतिष को अंधविश्वास बताया जाता है सरकार ने उसी पर अधिक भरोसा जताया |
     इस प्रकार की और भी काफी प्राकृतिक घटनाएँ घटित होती रही हैं जिनके या तो पूर्वानुमान नहीं दिए जा सके हैं यदि दिए भी गए तो गलत निकल जाते रहे हैं ऐसी कुछ घटनाएँ हम आगे उद्धृत  करेंगे | मेरा उद्देश्य मौसम संबंधी पूर्वानुमानों की गुणवत्ता बढ़ाना तथा झठी निकल जाने वाली भविष्यवाणियों के लिए जिम्मेदारी सुनिश्चित करना है |  सरकारों को किसी भी विषय पर आँखबंद करके भरोसा नहीं कर लेना चाहिए |
 वैज्ञानिक कल्पनाओं पर भी
      अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति ने 2017 और 2019 में ग्लोबलवार्मिंग की अवधारणा पर प्रश्न खड़ा कर दिया था !जनप्रतिनिधि होने के नाते जनता का पक्ष सामने लाना उनका कर्तव्य है वैज्ञानिकों की जवाबदेही सरकार के प्रति होती है किंतु सरकार की जवाबदेही तो जनता के प्रति होती है |जनता आखिर इस बात को कैसे समझे कि एक ओर तो ठंडी हवाओं के चलते तापमान माइनस 60 डिग्री तक पहुँच गया जबकि दूसरी ओर ग्लोबलवार्मिंग का भय भरा जा रहा है |सजीव  समाज की इस शंका का समाधान करना आवश्यक है कि ग्लोबलवार्मिंग और माइनस 60 डिग्री तक तापमान का पहुँच जाना ये दोनों घटनाएँ एक साथ संभव नहीं हैं |


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