रविवार, 30 जनवरी 2022

प्राचीन विज्ञान और महामारी

                                                  समयविज्ञान और महामारी !

     'समयविज्ञान' भारत  की वह प्राचीनवैज्ञानिक विधा है जिसके द्वारा 'समय' 'प्रकृति' और 'प्राणियों' में एक समान रूप से प्रतिपल परिवर्तित हो रही परिस्थितियों का संयुक्त अध्ययन करना होता है उसके अनुशार भविष्य में घटित होने वाली 'प्रकृति' और 'प्राणियों' से संबंधित घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाना होता है एवं उन घटनाओं के घटित होने का  अनुमानित कारण खोजना  होता है |इन्हीं तीन विंदुओं में संतुलन बैठाकर कुछ ऐसे अनुभव जुटाने होते हैं जो सभी प्रकार की भविष्य संबंधी परिस्थितियों को समझने में मदद कर सकें |
     प्राचीन काल में शकुन अपशकुन के नाम में 'समय' 'प्रकृति' और 'प्राणियों' में समान रूप से होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन किया जाता  रहा है| प्रकृति या जीवन में कब क्या किस प्रकार का घटित होने जा रहा है | यह जानने के लिए समय प्रेरित जड़ प्रकृति में उस समय प्रकट होने वाले चिन्हों का अध्ययन तो किया ही जाता है,इसके साथ ही साथ पशु पक्षियों के स्वभाव,बोली एवं व्यवहार में होने वाले परिवर्तनों का भी अनुसंधान किया जाता है | 
    जिस समय के प्रभाव से प्रकृति या जीवन में जो अच्छी या बुरी घटनाएँ या प्राकृतिक आपदाएँ घटित होने जा रही होती हैं उस समय उसी अनुपात में समय का प्रभाव प्रकृति पर भी पड़ता है जिससे प्रकृति में कुछ उस प्रकार के परिवर्तन होने लगते हैं  | इसी अनुपात में उस समय का प्रभाव पशु पक्षियों पर भी पड़ता है उससे उसी प्रकार के बदलाव उनमें भी होते देखे जाते हैं | भूकंप आने से पहले कई देशों समूहों के द्वारा पशु पक्षी आदि प्राणियों में इस प्रकार के बदलाव अनुभव भी किए जाते रहे हैं | समय का यही अच्छा या बुरा प्रभाव उन मनुष्यों पर या उनके सगे संबंधियों पर पड़ता है जिन्हें ऐसी प्राकृतिक घटनाओं से प्रभावित होना होता है उन्हें व्यक्तिगत रूप से अपने आसपास शकुन अपशकुन आदि दिखाई देने लगते हैं | जो घटनाएँ घटित होने के बाद अनुभव किए जाते हैं | ऐसी परिस्थिति में बिल्ली के रास्ता काट जाने से किसी का नुक्सान नहीं होता है अपितु जिस समय के प्रभाव से जो नुक्सान हो रहा होता है उसी समय का प्रभाव उन जीवों पर भी पड़ रहा होता है जिससे वे उस प्रकार के आचरण करने के लिए स्वाभाविक रूप से प्रेरित हो जाते हैं जिसका उन्हें स्वयं पता नहीं होता है कि उनके स्वभाव बोली व्यवहार आदि में ऐसा परिवर्तन क्यों आ रहा है | वस्तुतः ये समयकृत सूचनाएँ हैं जिनका आदान प्रदान प्रकृति और प्राणियों के माध्यम से हो रहा होता है | 
     कुल मिलाकर प्रकृति और जीवन में समय की बहुत बड़ी भूमिका है |प्रकृति हमेशा समय के अनुशार नियमबद्ध अनुशासित आचरण करते देखी जाती है |जीवों को भी प्रकृति के अनुशार आहार व्यवहार आदि अपनाना पड़ता है जो जब ऐसा नहीं करते हैं वे तभी रोगी होने लगते हैं | ऐसी परिस्थिति में समय का जब हानि कर प्रभाव प्रकृति और जीवन पर पड़ने लगता है तो उस अशुभ समय के प्रभाव से प्रकृति और जीवन अपना अपना स्वभाव छोड़कर उस प्रकार का व्यवहार करने लग जाते हैं जैसा अच्छा या बुरा समय चल रहा होता है |बुरे समय की व्याकुलता मनुष्यों के साथ पशु पक्षियों में भी होती है उस लिए उनमें भी अस्वाभाविक बदलाव होते देखे जाते हैं | जिन्हें शकुन अपशकुन के रूप में जाना जाता है | 
     इसीलिए तो महामारियों के समय अशुभ समय के प्रभाव से जहाँ एक ओर महामारी फैल रही होती है | उसी अशुभ समय का प्रभाव उसी अनुपात में प्रकृति पर भी पड़ रहा होता है इसलिए प्रकृति भी प्रदूषित होने लगती है उससे जल वायु फसलें आनाज शाक सब्जियाँ फल फूल वृक्ष बनस्पतियाँ आदि के स्वाद स्वभाव गुणों आदि में अस्वाभाविक बदलाव होने के कारण उनके उन गुणों में विकार आ जाते हैं जिनके  प्रसिद्ध होते हैं | औषधियों आदि के गुणों में अस्वाभाविक बदलाव आ जाने  के कारण औषधियों में भी विकार आ जाते हैं | जिससे वे  उस प्रकार का लाभ करने लायक नहीं रह जाती हैं जिन रोगों पर वे प्रभावी मानी जाया करती थीं |उनमें समयकृत विकार आ जाने के कारण कई बार उन्हें अपने गुणों के विपरीत व्यवहार करते भी देखा जाता है | 
    विपरीत समय के प्रभाव से एक ओर महामारी फैलती है उसी समय के प्रभाव से खाद्य पदार्थ एवं औषधियाँ आदि प्रदूषित हो जाती हैं | ऐसी परिस्थिति में चिकित्सकों के लिए यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि व्यक्ति को किन खाद्यपदार्थों एवं औषधियों के सेवन की सलाह दी जाए उनमें विकार आ जाने के कारण उनका प्रभाव मनुष्य शरीरों पर न जाने कैसा पड़े | इसी प्रकार की परिस्थितियों के कारण सघन चिकित्सा कक्ष में विद्वान चिकित्सकों की अत्युत्तम देख रेख में चिकित्सा का लाभ ले रहे रोगी चिकित्सकों के देखते देखते मृत्यु को प्राप्त होते देखे जाते हैं चिकित्सकों का कोई बश नहीं चल पाता है | 
     इसीलिए महामारी के समय प्रत्यक्ष दिखाई देने  वाले अधिकाँश मानक अनुभव अध्ययन अनुसंधान आदि प्रभाव विहीन होते  देखे जाते हैं | ऐसे समय में परोक्ष(समय) विज्ञान के आधार पर महामारियों को समझने एवं उनमें प्रभावी कदम उठाने में काफी मदद मिलते देखी जाती है | समय समय पर होते रहने वाले समय ,प्रकृति और जीवन से संबंधित परिवर्तनों के अध्ययन से प्रकृति एवं जीवन में होने वाले  परिवर्तनों प्राकृतिक घटनाओं रोगों महारोगों आदि का अनुसंधान पूर्वक पूर्वानुमान लगा लिया जाता है |

                                मेरे द्वारा परोक्षविज्ञान के आधार पर किए गए अनुसंधान 
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                                                            समयविज्ञान !
     समयखंड समय का एक छोटा सा अंश बसंतऋतु है | इस कालखंड में समय के प्रभाव से तापमान क्रमशः बढ़ने लगता है |उष्णता लिए हुए पश्चिमी हवाओं का प्रवाह प्रारंभ हो जाता है,बर्फबारी ,कोहरा आदि से मुक्ति मिलती है|वृक्षों में  पतझड़ होना एवं नवीन कोपलें आना आम के वृक्षों में फूल (बौर)और फल लगना ,आनंदित कर देने वाले प्राकृतिक वातावरण का बनना आदि ये सब उसी समय से संबंधित प्रकृति में होने वाले परिवर्तन हैं| समय प्रभाव से इसी ऋतु में कोयलों का बोलना एवं ऋतुजनित प्राकृतिक वातावरण से मनुष्यों के मन का प्रसन्न होना तथा ऋतुप्रभाव से कफ प्रकुपित होने के कारण कफ जनित स्वास्थ्य विकार होना आदि ये बसंतऋतु नामक समयखंड  से संबंधित बदलाव हैं | 
     जिस प्रकार से यह समय प्रकृति और प्राणियों में साथ साथ होने वाले परिवर्तनों का श्रेष्ठ उदाहरण है | इन तीनों में से किसी एक के विषय में जानकारी होते ही शेष दो में होने वाले परिवर्तनों के विषय में भी अनुमान लगा लिया जाता है | जैसे कोयल बोलते सुनकर बसंतऋतु आने का आभाष हो जाता है और उस समय बनने वाले समस्त प्राकृतिक और जीव जनित वातावरण का अनुमान स्वतः लग जाता है | ये समय प्रकृति और जीवन से संबंधित सर्व विदित प्रत्यक्ष  उदाहरण है | 
    इसी प्रकार से परोक्ष उदाहरण भी होते हैं जो कभी कभी घटित होते हैं उनमें भी समय का प्रकृति और जीवन के साथ परोक्ष संबंध होता है | उस प्रकार की प्राकृतिक एवं जीवन संबंधी घटनाएँ भी समय से संबंधित होती हैं | भूकंप आँधी तूफ़ान आदि मौसम संबंधी जितनी भी प्राकृतिक घटनाएँ घटित  हो  रही होती हैं | उनका संबंध  समय संचार के साथ होता है उससे मानव मन  और शरीर भी उसी प्रकार से प्रभावित होते हैं | 
      ग्रीष्मऋतु नामक समयखंड के प्रभाव से पश्चिमी उष्ण हवाओं (लू) के मधुर स्वाद से खट्टे लगने वाले आम इमली आदि के स्वाद में मधुरता आ जाती है | खरबूजा तरबूज आदि की मधुरता में वृद्धि होते देखी जाती है | समय जनित हवाओं की मधुरता का यह प्रभाव इसी अनुपात में मनुष्य आदि प्राणियों के शरीरों पर भी  पड़ता है जिससे मधुमेही आदि शर्करा रोगियों में शर्करा (शुगर )की मात्रा बढ़ते देखी जाती है | 
      किसी किसी वर्ष इसी ग्रीष्मऋतु नामक समयखंड में  अशुभ समय के प्रभाव से यदि अक्सर  वर्षा होती रहे और उत्तर पूरब की ओर से स्वभाव विपरीत शीतल हवाएँ चलने लगती हैं तो उन हवाओं में मधुरता न होने के कारण आम इमली खरबूजा तरबूज आदि के पकने पर भी वह मधुरता नहीं रह जाती है जिससे शर्करा रोगियों की शुगर उतनी अधिक भले न बढ़े किंतु इससे स्वस्थ वातावरण के लिए आवश्यक  मधुरता की मात्रा कम हो जाने के कारण 
कुछ दूसरे प्रकार के रोगों के पैदा होने की संभावना  बनते देखी जाती है | इसका दुष्प्रभाव भावी प्राकृतिक घटनाओं पर भी पड़ता है |
     जिसप्रकार से बिजली के तारों में प्रवहित बिजली प्रत्यक्ष तो नहीं दिखाई पड़ रही होती है किंतु किसी कारखाने में लगे बिजली के उपकरण जब बिजली के आने जाने से अचानक चलते और बंद होते दिखाई पड़ते हैं उससे बिजली के न दिखाई पड़ने के बाद भी बिजली आने जाने का परोक्ष अनुमान लगा लिया जाता है |इसी प्रकार से समय का प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से दिखाई भले न पड़े किंतु उसे नकारा नहीं जा सकता है | अच्छे बुरे समय की पहचान परोक्ष विज्ञान से तो संभव है इसके अतिरिक्त समय प्रभाव से प्रकृति और प्राणियों में होने वाले परिवर्तनों कोदेखकर समय संबंधी ऊर्जा का अनुभव किया जा सकता है |                                        
   समयविज्ञान या परोक्षविज्ञान     
   प्रायः सभी प्राकृतिक घटनाओं में  'समय' 'प्रकृति' और 'प्राणी' तीन कारण होते हैं | 'समय' बीतने के साथ साथ उसमें अच्छे बुरे सभी प्रकार के परिवर्तन होते चलते हैं |जो परिवर्तन समय में होते हैं उसीप्रकार के परिवर्तन प्रकृति और प्राणियों में होते देखे जाते हैं |  समय में होने वाले बदलाव प्रत्यक्ष रूप से भले न दिखाई पड़ते हों किंतु परोक्ष रूप में अवश्य  अनुभव किए जाते हैं |इसकेअतिरिक्त समय में होने वाले परिवर्तनों का अनुभव प्रकृति और प्राणियों में समय समय पर होने वाले परिवर्तनों को देखकर किया जाता है |समय पहले बदलता है उसका प्रभाव प्रकृति और प्राणियों पर समान रूप से पड़ता है इसलिए इन दोनों में साथ साथ बदलाव आते दिखाई देते हैं | 
     परिवर्तनों में समय की प्रमुख भूमिका होते हुए भी प्रत्यक्ष दिखाई न पड़ने के कारण लोग समय को भूलकर प्रकृति और प्राणियों को साथ जोड़कर अनुभव करने लगते हैं | जैसे प्रातःकाल के समय का प्रभाव सूर्य और कमल पुष्प पर पड़ते ही सूर्य उग आता है और कमल खिल जाते हैं | समय का प्रभाव दोनों पर एक साथ एक समान रूप से पड़ रहा होता है | समय प्रभाव से उन दोनों में परिवर्तन भी एक साथ होते हैं | प्रातः काल संबंधित समय के प्रभाव से ही सूर्य उग जाता है और उसी समय के प्रभाव से ही कमलपुष्प खिल जाते हैं  |
    ऐसी घटनाओं में समय तो प्रत्यक्ष रूप में दिखाई नहीं पड़ रहा होता है सूर्य और कमलपुष्प ही दिख रहे होते हैं इसलिए इन दोनों घटनाओं का संबंध एक दूसरी घटना के साथ जोड़ दिया जाता है | हमें लगता है कि कमलपुष्प तो बहुत छोटा होता है इसलिए इसके प्रभाव से तो सूर्य का उगना संभव नहीं है जबकि सूर्य बहुत बड़ा है उसी का प्रभाव   कमल पुष्प पर  पड़कर कमल खिल गया होगा | ऐसा सोचकर हमने भ्रमवश निश्चय कर लिया कि सूर्य के उगने के प्रभाव से कमलपुष्प खिल जाता है किंतु सूर्य भी तो किसी के प्रभाव से उगता होगा जो प्रत्यक्ष भले न दिखाई देता हो किंतु परोक्ष कुछ न कुछ कारण तो होंगे जिनके प्रभाव से सूर्य उगता है उन्हें भी अनुसंधान पूर्वक खोजा जाना आवश्यक था |जिसकी हमने आवश्यकता ही नहीं समझी | ऐसी घटनाओं में सूर्य और कमलपुष्प दोनों में एक साथ होते परिवर्तनों को देखकर भ्रम वश हम इन दोनों को एक साथ जोड़ कर देखने लगते हैं | 
    ऐसे ही समय प्रभाव से घटित होने वाली दो पृथक पृथक प्राकृतिक घटनाएँ केवल इसलिए एक साथ जोड़कर देखी जाने लगती हैं क्योंकि वे दोनों एक ही समय में घटित हो रही होती हैं |इसी दृष्टि से पूर्णिमा के पूर्णचंद्र और समुद्र की उठती हुई लहरों को भ्रमवश आपस में जोड़ लिया गया है और यह निश्चय कर लिया गया है कि पूर्ण चंद्र के आकर्षण प्रभाव से समुद्र में ऊँची लहरें उठती हैं | यह प्रभाव यदि चंद्र आकर्षण जनित होता तब तो चंद्र का आकर्षण केवल समुद्री जल के प्रति न होकर अपितु समस्त छोटे बड़े जल संस्थानों पर पड़ता जिससे केवल समुद्रों में ही क्यों अपितु नदियों नालों तालाबों घरों में भी संचित जल उछलने लगता ,यहाँ तक कि मनुष्यों के द्वारा पिया गया पानी भी पूर्णचंद्र के आकर्षण से पेट में उछल रहा होता | पूर्णिमा के पूर्णचंद्र के समय यदि वर्षा होने का संयोग कभी बनता तो वर्षा की बूँदें पृथ्वी पर गिरती ही नहीं ,समुद्रजल की अपेक्षा ये तो हल्की होती हैं इसलिए इन्हें तो आकर्षित करके पूर्णचंद्र ऊपर ऊपर ही बड़ी आसानी से खींच ले जाता तब तो पूर्णिमा के दिन धरती पर होने वाली बारिश चंद्रमा पर ही हुआ करती | लाखों टन पानी लिए घूमने वाले बादलों को चंद्र आकर्षित कर लेता | 
     परोक्ष विज्ञान की समझ के अभाव में हमने इस घटना में समय की भूमिका का बिचार किए बिना ही अपने कल्पित भ्रम को सच मान लिया है |किसी निश्चित समय में समुद्र में घटित होने वाली घटना को पूर्णचंद्र के साथ जोड़ना तर्कसंगत नहीं है | 
     जीवन संबंधित घटनाओं में समय की भूमिका 
      समय की परोक्ष भूमिका को समझे बिना स्वास्थ्य ,सम्मान,संपत्ति ,सुख दुःख एवं पद प्रतिष्ठा का घटना बढ़ना ,मित्रों शत्रुओं की संख्या घटना बढ़ना ,मित्रों शत्रुओं में मित्रता एवं शत्रुता की भावना का घटना बढ़ना आदि समय के प्रभाव से घटित होने वाली घटनाओं के लिए हम कुछ वस्तुओं, परिस्थितियों ,व्यक्तियों एवं उनके अच्छे बुरे व्यहार को जिम्मेदार मानकर उनसे ईर्ष्या द्वेष आदि करने लगते हैं जबकि उनका वास्तविक कारण समय होता है |
     स्वास्थ्य पर चिकित्सा का प्रभाव न पड़ना ,पतिपत्नी के स्वस्थ होने के बाद भी संतान न होना आदि | प्रयत्न करने के बाद भी कार्य क्षेत्र में सफल न होना आदि | 
     किसी रोगी की चिकित्सा के लिए अत्यंत उन्नत तकनीक, उत्तम औषधियों एवं योग्य चिकित्सकों की मदद के बाद भी कई बार रोगी के स्वस्थ न होने का कारण समय का प्रतिकूल प्रभाव होता है | इसी प्रकार से जंगलों के सुदूर गाँवों में जहाँ न उन्नत तकनीक ,न उत्तम औषधियाँ न योग्य चिकित्सक होते हैं  इसके बाद भी समय के सहयोग से वहाँ के रोगी  भी होते देखे जा रहे होते हैं | कोरोनामहामारी के समय अच्छी प्रकार से कोरोना नियमों का पालन करते हुए उत्तम चिकित्सा व्यवस्था से संपन्न होने पर भी समय के असहयोग के कारण कई लोग संक्रमित होते देखे जा रहे होते हैं| इनके अतिरिक्त कुछ दूसरे जिन्होंने कोरोना नियमों का पालन बिल्कुल नहीं किया कोई सावधानी नहीं बरती चिकित्सा की भी अच्छी व्यवस्था नहीं रही ,बचपन से खानपान भी पौष्टिक नहीं रहा ,इसके  बाद भी समय के सहयोग से स्वस्थ बने रहे | 
     सम्मान,संपत्ति ,पद प्रतिष्ठा एवं व्यवसाय आदि के लिए कार्यक्षेत्र में कुछ लोग समर्पित भावना से बहुत प्रयास करके भी समय का सहयोग न मिलने के कारण सफल नहीं हो पाते हैं जबकि कुछ दूसरे लोग बहुत कम प्रयास करके भी समय का सहयोग पाकर सफल होते देखे जाते हैं | 
     समय के सहयोग से मित्रों की संख्या बढ़ती है मित्रों में मित्रता की भावना बढ़ती है इसलिए ऐसे समय में जिनसे शत्रुता चली आ रही होती है वे भी मित्र भावना से भावित होने लगते हैं |समय के प्रभाव से कुछ ऐसे लोग जिनसे बहुत पहले संबंध छूट चुके होते हैं वे पुनः आकर मिलने लगते हैं !संबंध विच्छेद करके वर्षों से अलग अलग रह रहे पतिपत्नी आदि भी ऐसे समय पुरानी बातें भूलकर एक साथ प्रेम पूर्वक रहने लग जाते हैं | 
     इसी प्रकार से समय का सहयोग न मिलने पर अकारण शत्रुओं की संख्या बढ़ने लगती है |इसी के साथ ही ऐसे समय शत्रुओं में शत्रुभावना अधिक तेजी से बढ़ते  देखी जाती है | 
      इसीप्रकार से जीवन में और भी बहुत सारी  ऐसी घटनाएँ घटित होते देखी जाती हैं जिनके घटित होने का कारण समय होता है जो प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं पड़ रहा होता है|इसलिए वास्तविक कारण केअभाव में उसके आस पास की चीजों को ही हम वास्तविक कारण मान लिया करते हैं|उन्हीं कल्पित कारणों को आधार बनाकर अनुसंधान किया करते हैं | ऐसी भूलें अक्सर हुआ करती हैं जिससे हम वास्तविक कारण तक नहीं पहुँच पाते हैं | 
     समय शक्ति से अनजान लोग कई बार ऐसा कहते सुने जाते हैं कि लक्ष्य कितना भी बड़ा क्यों न हो यदि सच्चे मन से उसके लिए प्रयत्न किया जाए तो सफलता अवश्य मिलती है ऐसी बातों पर विश्वास करके बहुत लोग अपने लक्ष्य को पाने के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर देते हैं फिर भी समय का सहयोग न मिलने के कारण वे सफल नहीं हो पाते हैं |असफलता के कारण तनाव के शिकार होकर कई बार नशा या अन्य प्रकार के अपराध आदि में संलिप्त होते देखे जाते हैं | कर्म पर विश्वास करके किसी प्रेमिका को पाने के लिए सभी प्रकार के प्रयत्न करके थक हार चुका कोई असफल व्यक्ति उस लड़की को चोट पहुँचाने के प्रयत्न में लग जाता है | इसमें उस लड़की का कोई दोष नहीं किंतु उस अपराध का शिकार वो होती है | वस्तुतः इस प्रयास में सफलता न मिलने का कारण  समय का साथ न देना ही था | उस कार्य में उसके प्रवृत्त होने का कारण ये कहावत थी -"सच्चे मन से प्रयत्न किया जाए तो सफलता अवश्य मिलती है|"
      एक कहावत ऐसी भी सुनी जाती है कि किसी पत्थर को तोड़ने की क्रिया में सौवीं चोट में पत्थर टूटे इसका मतलब यह नहीं कि निन्यानबे चोटें ब्यर्थ चली गई हैं उनका भी इस कार्य में योगदान रहा होता है | 
    समय वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो इस प्रक्रिया में उन चोटों का यही योगदान माना जा सकता है कि किस प्रहार या प्रयास को समय का समर्थन प्राप्त होगा यह पता न होने के कारण लगातार चोट करना ही होगा ताकि इस पत्थर के टूटने का समय आने पर पत्थर टूट जाएगा उस समय यह बहाना नहीं बनेगा कि पत्थर टूटने का समय आने पर चोट नहीं मारी जा सकी | 
        कुलमिलाकर प्रत्येक घटना में प्रयत्न का महत्त्व अवश्य होता है किंतु प्रयत्न सफल वही होते देखे जाते हैं जिनमें समय का सहयोग मिलता है |

 घटनाओं  के घटित होने के कारण का महत्त्व ! 

     महामारी,भूकंप, सुनामी, आँधी तूफ़ान चक्रवात बज्रपात एवं बादलों के फटने,ओलेगिरने,तापमान अचानक अधिक बढ़ने-घटने तथा अतिवृष्टि और अनावृष्टि जैसी प्राकृतिक घटनाओं के लिए जिम्मेदार कुछ प्रत्यक्ष कारण दिखाई पड़ते हैं कुछ परोक्ष कारण ऐसे होते हैं जिनके सहयोग से इसप्रकार की घटनाएँ घटित हो रही होती हैं किंतु वे दिखाई नहीं पड़ रहे होते हैं | 

    जिसप्रकार से किसी कारखाने में बड़ी बड़ी विशालकाय मशीनें चल रही होती हैं | उन मशीनों  में लगे छोटे छोटे पुर्जे भिन्न भिन्न प्रकार की भूमिका अदा कर होते हैं |ऐसी मशीनों के चलने के कारण जो शोर हो रहा होता है | उस शोर को बंद करने के लिए मशीनों का बंद होना आवश्यक लगता है | 

     कारखाने में प्रत्यक्ष तो मशीनें ही चलते दिखाई पड़ रही होती हैं किंतु मशीनें कब तक चलेंगी इसका पूर्वानुमान नहीं पता होता है और मशीनों को पकड़ कर तो बंद नहीं किया जा सकता है |ऐसी परिस्थिति में मशीनों को बंद किया जाना उसीप्रकार से असंभव सा लगता है जिसप्रकार से महामारी,भूकंप, सुनामी, आँधी तूफ़ान चक्रवात बज्रपात एवं बादलों के फटने,ओलेगिरने,तापमान अचानक अधिक बढ़ने-घटने तथा अतिवृष्टि और अनावृष्टि जैसी प्राकृतिक घटनाओं को रोकना असंभव माना जाता है |

      मशीनों को चलने की ताकत देने वाली ऊर्जा जिस पावर हाउस से आ रही होती है |वह कितना भी दूर क्यों न हो वहीं बैठे बैठे  कारखाने में आने वाली बिजली की सप्लाई बंद करके यहाँ चल रही मशीनों को रोका जा सकता है |इस प्रकार से मशीनों को बार बार चलाया और बंद किया जा सकता है | 

    जिसप्रकार से ऊर्जा को पावरहाउस से मशीनों तक आते जाते कोई नहीं देख पाता है उसी प्रकार से महामारी,भूकंप, सुनामी, आँधीतूफ़ान चक्रवात बज्रपात जैसी बड़ी प्राकृतिक घटनाओं को मिलने वाली ऊर्जा को को भी देख पाना असंभव होता है |महामारी,भूकंप, सुनामी, आँधीतूफ़ान चक्रवात बज्रपात जैसी इतनी बड़ी बड़ी प्राकृतिक घटनाओं को घटित होने के लिए बहुत अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है | वह ऊर्जा कहीं न कहीं से तो मिल ही रही होती है और जहाँ कहीं भी इस ऊर्जा का पावरहाउस है यदि उसे यदि खोज लिया जाए तो उसके आधार पर ऐसी घटनाओं एवं उनके वेग के विषय में पूर्वानुमान लगाना आसान हो सकता है |   

   कुल मिलाकर किसी मशीन को चलाने के लिए ऊर्जा कहाँ से मिलती है उस ऊर्जास्रोत को खोजना होगा उसकेबाद  ऊर्जा स्रोत को रोकने की प्रक्रिया खोजनी होगी यदि ऊर्जा  स्रोत रोकना संभव न भी हो तो भी उस ऊर्जा के  आवागमन के आधार पर इस बात का पूर्वानुमान लगाना आसान हो जाएगा कि मशीनों से निकलने वाला शोर बंद कब होगा |  
    इसीप्रकार से महामारी, भूकंप, सुनामी, आँधी तूफ़ान चक्रवात बज्रपात एवं बादलों के फटने,ओलेगिरने,तापमान अचानक बढ़ने-घटने तथा अतिवृष्टि और अनावृष्टि जैसी प्राकृतिक घटनाओं को घटित होने के लिए आवश्यक  ऊर्जा की आपूर्ति कहाँ से होती है उस ऊर्जा स्रोत को खोजकर ऐसी घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है |प्राकृतिक घटनाओं को घटित होने की ताकत देने वाली वास्तविक ऊर्जा समय है | जिस प्रकार से जब तक ऊर्जा मिलती रहती है तब तक मशीनें चलती रहती हैं उसी प्रकार से जब तक समय का साथ मिलता रहता है तब तक प्राकृतिक घटनाएँ घटित होती रहती हैं और समय का साथ मिलना बंद होते ही सभीप्रकार की प्राकृतिक घटनाओं की गति रुक जाया करती है | 
                               समय ही है प्राकृतिक घटनाओं के लिए ऊर्जा स्रोत !  
    जिस प्रकार से मशीनों के चलने न चलने के विषय में अनुमान या पूर्वानुमान  लगाने के लिए ऊर्जास्रोत के विषय में जानकारी होनी आवश्यक होती है उसीप्रकार से महामारी, भूकंप, सुनामी, आँधीतूफ़ान चक्रवात आदि प्राकृतिक घटनाओं के विषय में अनुमान या पूर्वानुमान लगाने के लिए समय संबंधी जानकारी होना आवश्यक होती है | समय के संचार को समझने  के लिए सूर्य के  संचार को समझना अत्यंत आवश्यक है और सूर्य के संचार को समझने के लिए पूर्वजों ने गणितीय अनुसंधान प्रक्रिया खोज रखी है जिसके आधार पर सूर्य चंद्र आदि ग्रहों एवं ग्रहणों से संबंधित विषयों में पूर्वानुमान लगा लिए जाते हैं | उसी गणितीय अनुसंधान प्रक्रिया के आधार पर महामारी, भूकंप, सुनामी, आँधी तूफ़ान चक्रवात बज्रपात एवं बादलों के फटने,ओलेगिरने,तापमान अचानक बढ़ने-घटने तथा अतिवृष्टि और अनावृष्टि जैसी प्राकृतिक घटनाओं  के विषय में पूर्वानुमान लगा लिया जाता है | 
      महामारी, भूकंप, सुनामी आदि समस्त प्राकृतिक घटनाओं का निर्माण समय की गति से निबद्ध है वह लाखों वर्ष पहले निर्धारित प्राकृतिक प्रक्रिया का अंग है |ऐसी घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाने के लिए परोक्षविज्ञान की समझ होनी आवश्यक होती है |इसके अभाव में जिसप्रकार से किसी कारखाने की चलती हुई मशीनों को देखकर हम उनके विषय में न तो यह अनुमान लगा सकते हैं कि इनके चलने का कारण क्या है अथवा इन्हें चलने  ऊर्जा कहाँ से मिल रही है और न ही यह जान सकते हैं कि ये मशीनें कब तक चलेंगी | इस प्रकार का कोई भी अनुमान नहीं लगा सकते हैं | 
      ऐसी परिस्थिति में केवल बादलों को एवं आँधीतूफानों को उपग्रहों रडारों की मदद से देखकर उनके विषय में कोई अनुमान या पूर्वानुमान कैसे लगाया जा सकता है |  सच्चाई ये है कि प्रकृति और जीवन से संबंधित घटनाओं  का वास्तविक कारण खोजने या पूर्वानुमान पता लगाने के लिए अभी तक कोई वैज्ञानिक विधा विकसित नहीं है | जिस परोक्ष विज्ञान के द्वारा ऐसी घटनाओं को समझना एवं इनके विषय में अनुसंधान पूर्वक पूर्वानुमान लगाना संभव है उस परोक्षविज्ञान के वैज्ञानिकों का अभाव है जिसके कारण महामारी समेत समस्त प्राकृतिक घटनाओं के वास्तविक कारण को खोजना एवं उसके विषय में पूर्वानुमान लगाना अभी तक असंभव ही बना हुआ है |   

                  घटनाओं के घटित होने के लिए जिम्मेदार कारणों की पहचान

        डेंगू जैसे रोग का प्रसार जिन मच्छरों से होता बताया जाता है वे मच्छर साफ पानी में होते हैं ऐसा भी कहा जाता है | इससे बचाव के लिए कूलर गमलों आदि में संचित पानी हटाने की सलाह दी जाती है | ऐसी परिस्थिति में नियमतः तो  इस प्रकार का पानी समाप्त होने से पहले डेंगू जैसे रोगों से मिलने की आशा की जानी चाहिए किंतु होता ऐसा नहीं है पानी भी बना रहता है और मच्छरों की उपस्थिति में ही डेंगू समाप्त होने लगता है  | इस प्रकार से जिस वर्ष जब जब डेंगू जोर पकड़ता है तब तक इस प्रकार की साफपानी वाले मच्छरों की बातें की जाती हैं किंतु डेंगू  समाप्त होते ही मान लिया जाता होगा कि अब न तो उसप्रकार के मच्छर बचे होंगे और न ही उस प्रकार का साफ पानी ही बचा  होगा तभी तो डेंगू समाप्त हुआ होगा | 

     ऐसी परिस्थिति में यदि डेंगू के लिए साफ पानी वाले मच्छरों को जिम्मेदार माना गया तो तर्कों के आधार पर यह प्रमाणित भी होना चाहिए !

      इसीप्रकार से महामारी, भूकंप, सुनामी, आँधी तूफ़ान चक्रवात बज्रपात बादलों का फटना ओले गिरने , अचानक तापमान बढ़ने या घटने ,अतिवृष्टि एवं अनावृष्टि के जैसी अधिकाँश प्राकृतिक आपदाओं के लिए जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार बताया जाता है | जलवायु परिवर्तन होने के लिए जीवाश्म ईंधन (जैसे, कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस) को जलाने के कारण पृथ्वी के वातावरण में तेजी से बढ़ती ग्रीनहाउस गैसों को जिम्मेदार बताया जाता है ।ग्रीनहाउस प्रभाव और वैश्विक तापन को मनुष्य की क्रियाओं का परिणाम माना जा रहा है जो औद्योगिक क्रांति के बाद मनुष्य द्वारा उद्योगों से निःसृत कार्बन डाई आक्साइड आदि गैसों के वायुमण्डल में अधिक मात्रा में बढ़ जाने का परिणाम बताया जा रहा है ।

       ऐसी परिस्थिति में जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार जो मनुष्यकृत कारण बताए जाते हैं नियमतः तो जब उस प्रकार का औद्योगिक विकास नहीं हुआ था | उस समय ऐसी घटनाएँ नहीं घटित होनी चाहिए थीं किंतु ऐसी घटनाएँ तो हमेंशा से घटित होती रही हैं | दूसरी बात ऐसी प्राकृतिक आपदाएँ यदि जलवायु परिवर्तन के कारण घटित होती हैं | तो जलवायु परिवर्तन तो औसत मौसमी दशाओं के पैटर्न में ऐतिहासिक रूप से बदलाव आने को कहते हैं। सामान्यतः इन बदलावों का अध्ययन पृथ्वी के इतिहास को दीर्घ अवधियों में बाँट कर किया जाता है।
     इस दीर्घावधि का मतलब ये दीर्घकालीन बदलाव है ये ऐसा नहीं कि किसी वर्ष होगा और किसी वर्ष नहीं होगा किंतु व्यवहार में ऐसा देखा जाता है कि कई बार कुछ वर्षों तक ऐसी घटनाएँ घटित होती दिखाई देती हैं कई बार दशकों तक नहीं घटित होती हैं महामारी की आवृत्तियाँ तो सौ वर्ष में होती बताई जाती हैं | 
     विशेष बात है कि ऐसी दुर्घटनाओं का कारण यदि मनुष्यकृत कर्मों से उत्पन्न जलवायु परिवर्तन को माना जाए तब मनुष्यकृत  औद्योगिक क्रांति कभी रुकती तो है नहीं वह तो दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है इसका मतलब तो यह हुआ कि ऐसी प्राकृतिक दुर्घटनाओं को हमेंशा बढ़ते ही जाना चाहिए किंतु ऐसा होते हमेंशा तो देखा नहीं जाता है | दूसरी बात ऐसी दुर्घटनाएँ तो हजारों वर्ष पहले भी घटित हुआ करती थीं तब मनुष्यकृत ऐसे औद्योगिककारण तो बिल्कुल नहीं थे | उस समय ऐसी दुर्घटनाओं के घटित होने का कारण क्या रहा होगा |
      इसी प्रकार से महामारी से संक्रमितों की संख्या बढ़ने का कारण शोशल डिस्टेंसिंग,सैनिटाइजिंग,छुआछूत ,भोजन में साफ सफाई ,मॉस्क धारण लॉक डाउन जैसे कोविड नियमों का पालन न होना बता दिया जाता था और कोरोना  संक्रमितों की संख्या घटने का कारण कोविड नियमों का पालन मान लिया जाता था | परिस्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि ऐसे कल्पित कोविड नियमों का पालन इस प्रकार से किया कराया जाने लगा जैसे ये सामान्य अनुमानित कोविड नियम न होकर अपितु कोरोना संक्रमण से मुक्ति दिलाने में सक्षम ये स्वयं कोई अमोघ औषधि ही हैं | ऐसे कोरोना नियमों के पालन के परिणामों का परीक्षण हुए बिना ही इनके बल पर महामारी को जीत लेने या उस पर विजय प्राप्त करलेने या उसे पराजित कर देने जैसी गर्वोक्तियाँ बोली जाने लगीं जिनके प्रभाव का प्रमाणित होना अभी तक अवशेष था | 
     ऐसी परिस्थिति में कोरोना नियमों के पालन पर इतने बड़े विश्वास का वैज्ञानिक आधार क्या था जिसे महामारी से जूझती जनता के लिए अनिवार्य बताया जाता रहा है |दूसरी बात यदि किसी के महामारीमुक्त  रहने का कारण कोरोना नियमों का पालन ही माना जाता था तो जिन साधन विहीन लोगों ने परिस्थिति बशात कोरोना नियमों का पालन बिल्कुल नहीं किया धनहीनता के कारण उनका खानपान रहन सहन आदि भी प्रतिरोधक क्षमता तैयार करने लायक नहीं था इसके बाद भी यदि वे स्वस्थ बने रहे तो उनके महामारीमुक्त रहने का वैज्ञानिक कारण क्या रहा होगा ? 
    कुल मिलाकर हम जिस प्रकार से प्रत्येक प्राकृतिकआपदा के लिए जिम्मेदार आधार भूत कारण मनुष्यकृत कर्मों को मान लिया करते हैं ऐसा मानने के पीछे वैज्ञानिक अनुसंधान आधारित वे तर्क क्या हैं जिनसे प्रभावित होकर हमें लगता है कि सभी प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं के लिए मनुष्य स्वयं ही जिम्मेदार है | उन प्राकृतिक घटनाओं का वास्तविक कारण एवं उनके विषय में पूर्वानुमान लगाने के लिए कोई सुदृढ़ वैज्ञानिक अनुसंधान प्रक्रिया खोजने की जगह हम मनुष्यों के आवश्यक कार्यों में रोड़ा लगाने लग जाते हैं | मनुष्य ऐसा करना बंद कर दे तो ये प्राकृतिक घटना घटित होनी बंद हो जाएगी वैसा करना बंद कर दे तो वो प्राकृतिक घटना घटित होनी बंद हो जाएगी | ऐसा कहने के पीछे यदि यह विश्वास नहीं है कि मनुष्य ऐसा करना छोड़ ही नहीं सकता तो इतने बड़े विश्वास का तर्कपूर्ण वैज्ञानिक आधार और दूसरा क्या हो सकता है ?

    वस्तुतः  वैज्ञानिक अनुसंधानों के आधार पर महामारी के दुष्प्रभाव को रोकने में सक्षम यदि कोई कोविड नियम जैसी प्रभावी प्रक्रिया थी तो महामारी जिस किसी भी कारण से जहाँ कहीं पैदा हुई उस समय जिस किसी एक देश में दिखाई पड़ी तो इसका पता लगते ही बाकी देशों प्रदेशों को संयम का परिचय देते हुए कोविड नियमों का कठोरता पूर्वक पालन करते हुए अपने अपने देश वासियों को महामारी संक्रमण से बचाना उनका पहला कर्तव्य बनता था |ऐसा क्यों नहीं किया जा सका यह चिंतन का विषय अवश्य है | 

     महामारी सबसे पहले जिस देश में पैदा हुई या पता लगी इसकी जानकारी समस्त विश्व को हुई उन उन देशों के शासकों प्रशासकों ने सभी प्रकार से महामारी पर अंकुश लगाने के प्रभावी प्रयास किए इसके बाद भी महामारी की गति रोकी नहीं जा सकी और धीरे धीरे संपूर्ण विश्व में फैलती चली गई | सभी देश बेचारे विवश होकर महामारी का यह तांडव सहते रहे | महामारी रोकने के लिए किए गए सभी वैज्ञानिक प्रयास निरर्थक होते चले गए |

घटनाओं के कारणों की खोज में भ्रम एवं निवारण  के उपायों में संशय !

    कुल मिलाकर प्रत्येक प्राकृतिक घटना देखने में भले अचानक घटित हुई लगे या उसके घटित होने के लिए भ्रमवश कोई न कोई जिम्मेदार कारण दिखाई दे किंतु प्राकृतिक घटनाएँ कभी किसी कारण से नहीं घटित हुआ करती हैं ऐसी घटनाओं को पूर्व निर्धारित निश्चित समय पर घटित होना होता है जिनका टाला जाना संभव नहीं होता है |प्रकृति की  प्रत्येक घटना घटित होने का परोक्ष कारण समय होता है जिसे केवल समय वेत्ता ही समझ पाते हैं | प्राकृतिक घटनाओं के परोक्ष कारण को समझने में असमर्थ लोग वैज्ञानिक अनुसंधानों के नाम पर प्रत्यक्ष कारणों की कल्पना कर लिया करते हैं और उसी कल्पित प्रत्यक्ष कारण को प्राकृतिक घटनाओं के घटित होने के लिए जिम्मेदार मान लिया करते हैं | उन्हें लगता है कि यदि ऐसा न हुआ होता तो वो प्राकृतिक घटना नहीं घटित हुई होती जबकि उस घटना के लिए जिसको  कारण  समझकर जिस घटना के लिए जिम्मेदार माना जा रहा है उस प्रकार के कारण तो अक्सर देखे जाते हैं किंतु हर बार उस प्रकार की घटनाएँ तो नहीं घटित हुआ करती हैं |  इससे  यह स्पष्ट हो जाता है कि वह घटना घटित होनी निश्चित थी उसके लिए परोक्ष को न समझपाने की असमर्थता से हम प्रत्यक्ष को कारण मान लिया करते हैं |

     प्रत्येक व्यक्ति की मृत्यु उसकी आयु पूरी होने के कारण होती है जबकि उसके लिए भी कोई न कोई कारण मान लिया जाता है |जो व्यक्ति जहाँ कहीं जिस किसी भी परिस्थिति में होता है जो कुछ भी खाया पिया होता है जो कुछ भी कर रहा होता है आयु का क्षण पूरा  होते ही उसकी मृत्यु हो जाती है | आयु का क्षण पूरा होते समय यदि वह प्रत्यक्ष रूप से किसी दुर्घटना का शिकार  होता है तब तो उसकी मृत्यु का कारण उसी दुर्घटना को मान लिया जाता है अन्यथा उसके आस पास जो जो कुछ हुआ या होता दिखता है जो कुछ खाया पिया पता लगता है उसी को उस व्यक्ति मृत्यु का कारण मान लिया जाता है जबकि ये सही नहीं होता है | तेल की समाप्ति हो जाने से यदि कोई दीपक बुझ जाता है | पेट्रोल  समाप्त होने से यदि कोई गाड़ी रास्ते में रुक जाती है तो इसके लिए किसी दूसरे प्रत्यक्ष कारण की कल्पना करने की आवश्यकता नहीं होती | जीवन में आयु भी तो ईंधन ही है आयु  समाप्त होते जीवन को समाप्त होना ही है | 

      किसी भूकंप महामारी या मार्ग दुर्घटना की चपेट में आकर हुई किसी की मृत्यु के लिए उस दुर्घटना को इसलिए जिम्मेदार नहीं जा सकता है क्योंकि उसी परिस्थिति में फँसे कुछ अन्यलोग जीवित भी तो बचे होते हैं दुर्घटना तो उनके साथ भी घटित हुई किंतु उनकी आयु अवशेष थी इसलिए दुर्घटना से प्रभावित होकर भी वे जीवित बच गए जिनकी मृत्यु हुई उनकी आयु ही पूरी हो चुकी थी | इसका मतलब मृत्यु तो आयु पूरी होने के कारण हुई है दुर्घटना तो मात्र एक बहाना बनती है जो प्रत्यक्ष दिखने के कारण भ्रम हो रहा होता है |परोक्ष कारण को पहचानने की क्षमता होती तो प्रत्यक्ष कारण का भ्रम नहीं होता | 

     बहुत ऐसे मनीषी महर्षि तपोनिष्ठ लोग हुए हैं जो अपनी आयु समाप्त होने पर आसन लगाकर सहज भाव से ईश्वर का चिंतन करते हुए निर्धारित मृत्यु का समय उपस्थित होने पर अपने शरीर का बिसर्जन कर दिया करते हैं उस समय मृत्यु का परोक्ष कारण प्रत्यक्ष रूप से दिखाई  पड़ रहा होता है | परोक्ष कारण कारण  न   होता तो वहाँ भी कोई न कोई प्रत्यक्ष कारण खोज लिया गया होता | 

   काशी में कोई व्यक्ति प्रतिदिन बिना नागा 40 वर्ष से गंगा नहाने जा रहे थे | जिस समय उसकी आयु पूरी हुई उस समय भी  गंगा नहा रहे थे | सर्दी का समय था | उसी समय उनकी पूर्व निर्धारित मृत्यु तो होनी ही थी इसलिए हो गई | उसके मृत्यु को प्राप्त हो जाने के बाद लोग प्रत्यक्ष कारण खोजने लगे गंगा नहाने थे ठंड लग गई होगी | डुबकी लगाने से साँस फँस गई होगी | ऐसा जानते कि तो गंगा नहाने न जाते घर में गर्म पानी करके नहला दिया जाता आदि आदि जाने प्रत्यक्ष कारणों की  कहानियाँ गढ़ ली गईं और वास्तविक कारण की  जानकारी के अभाव में सर्दी में गंगा नहाने से लगी ठंड को मृत्यु का कारण मान लिया गया | 

     प्रकृति से लेकर जीवन तक ऐसी असंख्य घटनाएँ घटित हुआ करती हैं जिनके घटित होने के लिए जिम्मेदार जो वास्तविक कारण होते हैं वे केवल परोक्ष विज्ञान से ही समझे जा सकते हैं परोक्ष विज्ञान से अनभिज्ञ लोग प्रत्येक घटना का कोई न कोई प्रत्यक्ष कारण खोजकर अज्ञानवश उस घटना को टालने के  सपने  देखने लगते हैं |उदाहरण के तौर पर प्रयास पूर्वक जलवायु परिवर्तन पर अंकुश लगाया जा सकता है और ऐसा होते ही सभी प्रकार की प्राकृतिक दुर्घटनाएँ घटित होनी कम हो सकती हैं | मच्छरों को समाप्त करके डेंगू से मुक्ति पा लेने के सपने देखे जाते हैं | भ्रमवश  कोविड नियमों का पालन करके महामारी से बच लेना चाहते हैं क्योंकि अज्ञान वश हमने ऐसा  भ्रम पाल लिया है कि महामारी पैदा होने का कारण एक दूसरे के संपर्क में आने से होने वाली छुआ छूत  है किंतु सभी के संपर्क में बड़ी  बड़ी भीड़ में हम हमेंशा से रहते रहे महामारी  तो अभी आई है | इसलिए महामारी का कारण छुआ छूत न होकर अपितु इसका वास्तविक कारण कुछ और है जिसे केवल परोक्ष विज्ञान से समझा जा सकता है उसके अभाव में ही ऐसे भ्रम पाल लिए जाते हैं |

  समय के प्रभाव को समझे बिना होता है जलवायुपरिवर्तन का भ्रम !
      वर्षाऋतु एक स्वतंत्र समय खंड है जो प्रत्येक वर्ष एक निश्चित समय के लिए अपने समय पर आते जाते दिखाई देता है यह एक स्वतंत्र घटना है | अलनीनो ला-निना जैसी स्वतंत्र समुद्री घटना है | इन दोनों को एक साथ जोड़कर देखने का औचित्य ही क्या है और इनका आपस में संबंध कैसे सिद्ध होता है | इसीलिए इसके आधार पर वर्षा संबंधी दीर्घावधि पूर्वानुमान तथा मानसून आने जाने संबंधी भविष्यवाणियाँ एवं तापमान बढ़ने घटने के विषय में बताए गए पूर्वानुमान प्रायः गलत निकलते रहे हैं | 
      घटनाओं के घटित होने में समय की भूमिका को समझे बिना कई बड़े संशय पैदा हो जाते हैं |मई जून के अधिक गर्मी वाले दिनों की अपेक्षा क्रमशः तापमान कम होता चला जाता है और दिसंबर आदि महीनों में तापमान बहुत कम हो जाता है | इसका यह मतलब तो नहीं है कि इसी अनुपात में तापमान घटता ही चला जाएगा इसी क्रम में आगे के कुछ महीनों वर्षों में तो और अधिक घटता ही चला जाएगा | इस प्रकरण में समय के संचार को समझने के कारण ही तो हमें पता है समय क्रम में कितने महीनों तक तापमान कम होता चला जाएगा और उसके बाद बढ़ना प्रारंभ होगा शिखर पर पहुँच कर फिर कम होना प्रारंभ हो जाएगा | तापमान के घटने बढ़ने की यह प्रक्रिया प्रत्येक वर्ष में दोबार प्रत्येक महीने में महीने में चार बार और प्रत्येक दिन में दो बार घटित होती है |ये उसका अपना क्रम है |
     मौसम संबंधी दीर्घावधि गतिविधियों को देखा जाए तो कुछ दशकों में वर्षा बहुत हुई होती है कुछ दशकोंमें सामान्य तो कुछ दशकों में कम होती है | किसी एक दशक को लिया जाए तो कुछ वर्षों में अधिक वर्षा हुई होती है कुछ में सामान्य और कुछ में कम होती है | प्रत्येक वर्ष के बारिश संबंधी महीनों के कुछ सप्ताहों और उनके कुछ दिनों में इसी प्रकार का क्रम घटित होते देखा जाता है | यही क्रम सभी प्रकार की मौसम संबंधी प्राकृतिक घटनाओं के विषय में घटित होते देखा जाता है | प्राकृतिक घटनाओं का वेग कम और अधिक होना तो उनके संचार क्रम में सम्मिलित ही है | इसलिए ऐसा होते रहना स्वाभाविक ही है |इसी प्रकार प्रत्येक महीने में कुछ दिनों तक चंद्रमंडल का  घटते जाना उसके बाद बढ़ने लगना एक निश्चित समय के बाद फिर कम होना प्रारंभ होता है | ग्लोबलवार्मिंग जैसी दीर्घावधि प्राकृतिक अवस्था भी इसी प्राकृतिक क्रम का ही तो अंश है | इसीलिए एक निश्चित अवधि तक बढ़ना एवं उसके बाद कम होना प्रारंभ होता जाएगा | यही तो समय प्रेरित प्रकृति क्रम है |
       समय के परोक्ष प्रभाव की समझ के अभाव में जलवायुपरिवर्तन जैसा भ्रम कल्पित बेचैनी बढ़ा रहा है ऐसी मिथ्या धारणा पालकर लोग स्वयं भी डर रहे हैं दूसरों को भी डरवाते देखे जा रहे हैं | आज के सौ वर्ष बाद ऐसा होगा दो सौ वर्ष बाद वैसा होगा |उससे तापमान बढ़ जाएगा सूखा पड़ेगा अकाल पड़ेगा आँधी तूफ़ान आएँगे ऐसा वो लोग करते हैं जो चार दिन पहले के मौसम संबंधी पूर्वानुमान सही नहीं बता पाते हैं | जिनकी बताई गई मानसून संबंधी तारीखें प्रतिवर्ष गलत होती हैं वे आज के सौ दो सौ वर्ष बाद जलवायुपरिवर्तन के कारण घटित होने वाली घटनाओं के विषय में किस आधार पर ऐसी बातें बोल रहे होते हैं | ये उस प्रकार की अज्ञानजनित परिकल्पना है कि सूर्योदय होते समय जितना तापमान था उसके छै घंटे बाद यदि इतना बढ़ गया तो उसके बारह घंटे बाद न जाने कितना बढ़ जाएगा  आदि आदि | हमें याद रखना चाहिए कि समय के प्रभाव के बिना प्रकृति में इतना बड़ा बदलावहो ही नहीं सकता है | वैसे भी जिस समय के प्रभाव से जलवायुपरिवर्तन जैसा इतना बड़ा बदलाव प्रकृति में हो जाएगा उस समय का प्रभाव उसी अनुपात में जीवन पर भी तो पड़ेगा | अतएव समय प्रभाव से होने वाले जलवायुपरिवर्तन जनित घटनाओं को सहने की क्षमता समय उसी अनुपात में प्राणियों को भी देगा | इसी क्रम से सृष्टि का संचालन हमेंशा से होता चला आ रहा है | उसे समझने की आवश्यकता है |
     समय के स्वभाव के अनुशार यह उतार चढ़ाव प्रकृति से लेकर जीवन तक सभी प्रकरणों में दिखाई पड़ता है |प्रत्येक महीने में चंद्रमा पंद्रह दिन बढ़ता और पंद्रह दिन घटता है | समय के प्रभाव से यही क्रम प्रकृति से लेकर जीवन तक हमेंशा से चला आ रहा है | जीवन में स्वास्थ्य ,सम्मान,संपत्ति ,सुख दुःख एवं पद प्रतिष्ठा का घटना बढ़ना इसी के उदाहरण हैं | मित्रों शत्रुओं की संख्या घटना बढ़ना ,मित्रों शत्रुओं में मित्रता एवं शत्रुता की भावना का घटना बढ़ना आदि इसी के उदाहरण हैं | पति पत्नीआदि संबंधों में प्रेम भावना का घटना बढ़ना भी इसी समय प्रभाव की देन  है | समय के स्वभाव में बदलाव लाकर हम इस घटने बढ़ने की प्रक्रिया को अपनी सुविधा  के अनुसार किसी एक विंदु पर रोककर अपनी इच्छा से उसका संचालन करना  चाहते हैं |       
     इसीलिए हमारे चिंतन में बैठे जलवायु परिवर्तन जैसे भय से हम केवल प्राकृतिक घटनाओं के विषय में ही नहीं यह सोच सोच कर भयभीत हैं कि आज के सौ दो सौ वर्ष बाद प्रकृति में कैसी कैसी भयावह घटनाएँ जलवायु परिवर्तन के कारण घटित हो सकती हैं अपितु समय की समझ के अभाव में यह विपरीत चिंतन हमारे जीवन को स्वस्थ शांत एवं सहनशील नहीं बनने दे रहा है |हम निरंतर भय के वातावरण में जीवन जीने के लिए विवश हैं |  
    इसी जीवन संबंधी जलवायु परिवर्तन के कारण स्वास्थ्य ,सम्मान,संपत्ति ,सुख दुःख एवं पद प्रतिष्ठा का घटना बढ़ना हम सह नहीं पा रहे हैं | मित्रों शत्रुओं की संख्या घटना बढ़ना ,मित्रों शत्रुओं में मित्रता एवं शत्रुता की भावना का घटना बढ़ना आदि हम से सहा नहीं जा रहा है |हम जीवन संबंधी सारी परिस्थितियाँ प्राकृतिक वातावरण अपने अनुकूल रखना चाहते हैं | हमें दिन पसंद है तो हम रात नहीं होने देना चाहते हैं दिन ही रखना चाहते हैं | इसी विपरीत चिंतन के कारण आशंकाओं में हम अनगिनत एक से एक बड़े अपराध करते देखे जा रहे हैं समाज अपराधी होता जा रहा है किंतु हम जीवन संबंधी जलवायु परिवर्तनका भय भूलने को तैयार ही नहीं हैं | इसी आशंका से हम जीवन संबंधी किसी  एक अपने से विपरीत परिस्थिति से इतना अधिक उत्तेजित हो जाते हैं कि समय क्रम से आने वाले उसी परिस्थिति के दूसरे सुखद पहलू की प्रतीक्षा किए बिना उतावलेपन में कोई न कोई अपराध कर बैठते हैं कि यदि अभी इतना बुरा है तो भविष्य में और अधिक बुरा हो सकता है | जिस मित्र सगे संबंधी मित्र पत्नी आदि से कभी बहुत अधिक स्नेह मिला करता था | जिस समय प्रवाह के साथ आज वह कम हुआ है उसी के साथ कल फिर परिवर्तन होगा उसके साथ भावनाएँ फिर बदलेंगी फिर आपस में अधिक स्नेह स्थापित होगा | ऐसा सोचने और प्रतीक्षा करने के बजाय हम भविष्य भय से आशंकित होने के कारण तुरंत वाद विवाद लड़ाई झगड़ा करते हुए संबंध विच्छेद करने लगते हैं | जिससे कभी स्नेह रह चुका होता है उसे ही चोट पहुँचाने के विषय में सोचने लगते हैं | ऐसा जीवन संबंधी स्वास्थ्य ,सम्मान,संपत्ति ,सुख दुःख एवं पद प्रतिष्ठा आदि प्रत्येक परिस्थिति के विषय में सोचना चाहिए | 
    इसलिए हमें प्रकृति और जीवन से संबंधित विपरीत परिस्थितियों के प्रति भी सकारात्मिका सोच रखनी चाहिए | वे परोक्ष रूप से हमारे प्रकृति एवं जीवन के लिए सहायक समझकर ही समय के द्वारा कुछ कठोर निर्णय लिए जा रहे होते हैं जिनके परिणाम स्वरूप हमें प्रकृति और जीवन में कुछ सुखशांति प्रद परिस्थितियाँ मिल जाती हैं |ग्लोबल वार्मिंग और जलवायुपरिवर्तन जैसी घटनाओंको भी इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए |
                                                     'समय'शास्त्र का महत्त्व 
     समय की परोक्ष भूमिका को समझे बिना प्रत्यक्ष के आधार पर मौसम संबंधी जो भी वैज्ञानिक अनुसंधान किए जाते हैं या पूर्वानुमान लगाए जाते हैं उनका सही निकलना संभव इसलिए नहीं होता है क्योंकि प्राकृतिक घटनाएँ समय के अनुशार घटित होती हैं |समय की गति कब कैसी रहेगी यदि हमें यही नहीं पता होगा तो उसके आधार पर घटित होने वाली प्राकृतिक घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान कैसे लगाया जा सकेगा | 
    वैज्ञानिक अनुसंधानों के इसी अधूरेपन का दंड कोरोना महामारी के  समय जनता ने खूब भोगा है | महामारी संबंधित अध्ययनों अनुसंधानों में हमने प्रत्यक्ष कारण तो ग्रहण किए किंतु परोक्ष कारण भूलते रहे जबकि महामारी में सबसे अधिक भूमिका ही उनकी थी | 
    इसी अज्ञान के कारण इतनी उन्नत वैज्ञानिक उपलब्धियों का सहयोग पाकर भी तीन वर्ष तक समस्त विश्व को रौंदती रही महामारी के विषय में कुछ भी पता न तो लगाया जा सका है और न ही लगाया जा सकेगा | महामारी समाप्त होने पर महामारी पैदा होने एवं संक्रमितों की संख्या बढ़ने घटने के कुछ कल्पित कारण मान लिए जाते हैं एवं उस समय जो औषधियाँ  चलाई जा रही होती हैं उनका महामारी समाप्त होने से कोई संबंध न होने पर भी उन्हें  महामारी की औषधि होने का भ्रम पालकर उसे लेने के  बाध्य होना पड़ता है | 
   अभी तक महामारी को समझने के लिए जो वैज्ञानिक प्रक्रिया अपनायी जा रही है वह उस ताले की चाभी ही नहीं है जिसे खोलने का प्रयास किया जा रहा है | उस  प्रक्रिया से महामारी सहित सभी प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं को समझना संभव ही नहीं है | यही कारण है कि भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की स्थापना हुए लगभग डेढ़ सौ वर्ष होने जा रहे हैं उसके द्वारा अभीतक महामारी से लेकर भूकंप मौसम आँधी तूफ़ान जैसी सभी प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं के घटित होने का न तो सही कारण खोजा  जा सका है और न ही पूर्वानुमान बताया जा सका है | 
     इन्हीं अधूरे अनुसंधानों का प्रतिफल है कि भूकंपों के घटित होने का कारण खोजने के लिए हम धरती के अंदर गहरे गड्ढे खोदा बंद किया करते हैं | हमें लगता है कि भूकंप में धरती काँपती है चूँकि ये रोग धरती का है तो इसके कारण भी धरती में ही होंगे | इसके परोक्ष कारणों पर अगर ध्यान दिया जाता तो यह भी सोचा जा सकता था कि किसी भय से या सर्दी में ठंडी हवाएँ लगने जैसे बाह्य कारणों से भी लोगों के शरीरों में कंपन होते देखा जाता है | ऐसे कंपन को समझने के लिए उसके पेट में छेद न करके अपितु परोक्ष विज्ञान का प्रयोग करते हुए इस बात का अनुमान लगा लिया जाता है कि उस व्यक्ति के काँपने का कारण क्या हो सकता है|भूकंपन में भी परोक्षवैज्ञानिक अनुसंधानों से मदद मिल सकती है | 
     संसार में प्रकृति और जीवन में घटित होने वाली बहुत सारी घटनाओं के सूत्रधार समय का अनुगमन करने वाले बहुत सारे वे प्राकृतिक अंग हैं जिन्हें देखकर उनके आधार पर भावी घटनानाओं  विषय में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है |कुलमिलाकर सभी प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं को देखकर ऐसा लगता है कि सभीप्रकार की घटनाओं के घटित होने का कोई न कोई निर्धारित समय अवश्य होता होगा जो एक निश्चित अवधि के बाद आता है उस समय उस प्रकार की घटनाएँ घटित होने लगती हैं | आम जैसे सभी वृक्ष प्रत्येक वर्ष तो नहीं बोने पड़ते हैं ये तो पुराने पुराने वृक्ष जंगलों, बागों एवं खेतों में खड़े होते हैं | समय आने पर पतझड़ होकर नई नई कोपलें फूटने लगती हैं समय के आने पर ये वृक्ष स्वतः फूलने फलने लगते हैं |पेड़ बारहों महीने खड़े खड़े अपनी अपनी ऋतुओं का इंतजार कर रहे होते हैं |
    इस  प्रक्रिया में मनुष्य का हस्तक्षेप दूर दूर तक नहीं दिखाई पड़ रहा होता है | इनकी निर्धारित ऋतुओं के अतिरिक्त किसी दूसरे समय में खाद पानी आदि देकर भी मनुष्य यदि प्रयास भी करे तो भी इनमें फूल फल लगते नहीं देखे जाते हैं |
   प्राकृतिक घटनाओं की विशेष पहचान यह होती है कि एक ही समय में उस प्रकार की अनेकों घटनाएँ अनेकों स्थानों पर  घटित होने लगती हैं | कई बार एक ही समय में स्वदेश से लेकर  विदेश तक कई जगहों पर आग लगने की घटनाएँ घटित होती हैं | कई जगह हिंसक दुर्घटनाएँ घटित होती हैं ,कई जगह विमान दुर्घनाएँ देखी जाती हैं | भूकंप आने लगते हैं कई देशों स्थानों समुदायों वर्गों व्यक्तियों में आपसी तनाव बढ़ने लग जाता है | 
 
 
  महामारी और समयविज्ञान
       महामारी से व्याकुल समाज को देखकर सभी देशों प्रदेशों वर्गों व्यक्तियों ने अपने अपने अनुशार समाज की सेवा करने का प्रयास किया है | उससे कौन कितना लाभान्वित हुआ है कौन नहीं यह और बात है |इसीक्रम में स्वदेश से लेकर विदेशों तक चिकित्सा की प्रचलित सभी पद्धतियों ने अपने अपने स्तर से समर्पित प्रयास किए हैं इसमें कोई संशय नहीं है | इसीक्रम में समयविज्ञान से संबंधित अनुसंधानों के द्वारा मैं  भी लगभग तीस वर्षों से प्रयासरत हूँ अनुसंधान जनित मेरे भी कुछ अनुभव रहे हैं जिनका मैंने महामारी से संबंधित  उपयोग किया है | 
 
     इसी प्रकार से प्राकृतिक रोग महारोग आदि होते हैं जिनमें मनुष्यकृतचिकित्सकीय उपायों का बहुत अधिक प्रभाव नहीं पड़ पाता है | एक ही समय में कई  देशों प्रदेशों में महामारियाँ पैदा होने लग जाती हैं | विश्व के अनेकों देशों प्रदेशों में महामारी जनित संक्रमितों की संख्या लगभग एक ही साथ बढ़ते या कम होते देखी  जाती है | 
      उपायों की दृष्टि से देखा जाए तो कुछ देशों  प्रदेशों में कोविड नियमों का पालन किया गया होता है कुछ में नहीं भी किया गया होता है | वैक्सीन आदि टीकों का सेवन सभी देशों ने अपने अपने यहाँ अपनी अपनी सुविधा के अनुशार किया होता है कुछ देशों ने नहीं भी किया होता है किंतु समय जनित महामारियों की लहरें अधिकाँश देशों प्रदेशों में एक साथ बढ़ते और एक साथ ही कम होते देखी जाती हैं | 
    कुलमिलाकर महामारी बढ़ने के समय मनुष्यकृत लापरवाहियों का कोई योगदान होता हो ऐसा प्रमाणित नहीं होता है इसी प्रकार से महामारी से संक्रमितों की संख्या घटने में मनुष्यकृत उपायों का कुछ बहुत अधिक असर नहीं दिखाई देता है  |  
      प्राकृतिक घटनाओं को अपने समय पर घटित होना ही होता है | महामारी जैसी प्राकृतिक घटनाओं के पैदा और समाप्त होने में मनुष्यकृत कार्य अधिक प्रभावी होते नहीं देखे जाते हैं इसीलिए प्राकृतिक घटनाओं के घटित होने के लिए मनुष्यों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है | 
     प्रकृति के स्वभाव को न समझ पाना ये वैज्ञानिक अनुसंधानों की असफलता है और उन वैज्ञानिक असफलताओं को ढकने के लिए ऐसी घटनाओं के घटित होने के लिए जनता को जिम्मेदार ठहराया जाना ठीक नहीं है और न ही इसे रोकने के लिए जनता का  उत्पीड़न ही किया जाना चाहिए | 
      वायु प्रदूषण बढ़े तो उसके बढ़ने और घटने का कारण क्या है यह निश्चित रूप से पता लग जाने के बाद उसे रोके जाने के लिए वैज्ञानिकअनुसंधानों से प्राप्त ऐसे उपाय किए  या करवाए जाने चाहिए जिन  उपायों का परिणाम जनता को भी ऐसा दिखाई पड़ना चाहिए कि इस वर्ष हमने उपाय किए तो इस वर्ष वायु प्रदूषण नहीं बढ़ा | इसकी प्रसन्नता जनता को भी होगी | 
 
                           महामामारी मुक्त समाज का लक्ष्य और समय विज्ञान
    महामारी को वैश्विक दृष्टि से देखें तो कुलजनसंख्या के दस प्रतिशत से भी कम लोग महामारी से संक्रमित हुए हैं कल्पना करके देखा जाए तो यदि वे दस प्रतिशत लोग भी संक्रमित न हुए होते अर्थात उन्हें भी संक्रमित होने से बचाया जा सका होता तो महामारी मुक्त समाज की परिकल्पना सार्थक हो जाती | ऐसा होने से एक बार महामारी फैल जाने पर भी मनुष्य समाज को संक्रमित होने से सुरक्षित बचाकर रखा जा सकता था |संभव है कि कोरोना जैसी महामारी का समय आकर चला भी जाता और  किसी को पता भी न लग पाता |
    कोरोना महामारी को ही लिया जाए इसके पैदा होने के विषय में वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा यदि कोई पूर्वानुमान बताया जा सका होता तो वैज्ञानिकों की बातों पर जनता को स्वाभाविक भरोसा होता और उन्होंने  परेशानी उठाकर भी कोविड नियमों का पालन अवश्य किया होता | कोविडनियमों का पालन न करने के कारण जनता पर जुर्माना नहीं लगाना पड़ता | 
      कुल महामारी भूकंप आँधी तूफ़ान जैसी सभी  प्रकार की प्राकृतिकआपदाओं  के घटित होने के लिए जिम्मेदार तर्क संगत कारण अभी तक नहीं खोजे  जा सके हैं और उन  कारणों को जाने बिना ऐसी घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं हो पाया है और इसके बिना  ऐसी घटनाओं से  बचाव के  लिए प्रभावी उपाय नहीं खोजे जा सके हैं ऐसी आधी अधूरी तैयारियों  बल पर महामारियों का  सामना किया जाना संभव नहीं हो  पा रहा है | ऐसे विषयों पर  जहाँ एक ओर  वैज्ञानिक अनुसंधान चला ही करते हैं वहीं दूसरी ओर महामारी भूकंप आँधी तूफ़ान जैसी सभी  प्रकार की प्राकृतिकआपदाएँ घटित होने  लगती हैं जिनके विषय में जनता को कुछ पता  ही  नहीं लग पाता है कि ऐसे वैज्ञानिक अनुसंधानों  के नाम पर हुआ क्या करता है | 
     महामारी एक प्राकृतिक घटना है और प्राकृतिक घटनाएँ हमेंशा  अपने निर्धारित समय पर ही घटित  होती हैं |इसीलिए जिस प्रकार से बसंत आदि ऋतुएँ अपने समय  से आती हैं तो जाती भी अपने निर्धारित समय से ही हैं |इसी प्रकार सूर्योदय अपने निश्चित समय पर होता है तो सूर्यास्त भी अपने निर्धारित समय  पर ही होता है |ऋतुओं और दिनों की तरह ही महामारी भी समय से ही संबंधित घटना है इसीलिए यह भी समय के साथ पैदा होकर समय के साथ ही समाप्त होती है |    समय से संबंधित घटनाओं को रोका नहीं जा सकता है जिस प्रकार से आँधी तूफ़ान जैसी घटनाओं को रोका नहीं जा सकता है उसी प्रकार से महामारियों को  भी रोकना संभव नहीं है | महामारी जनित संक्रमण घटने बढ़ने का क्रम भी समय जनित ही होता है | कुलमिलाकर प्रकृति और जीवन से संबंधित अधिकाँश ऐसी घटनाएँ समय से संबंधित होती हैं जिनके परिवर्तन में  मनुष्य का कोई बश नहीं  चलता है | इन पर केवल  समय का ही प्रभाव रहता है |
                                 महामारी के लिए सार्थक अनुसंधानों की आवश्यकता !
 
    यह अत्यंत चिंता की बात है कि वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा महामारी का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा  सका है| यह रोगों महारोगों पर नजर रखने वाले चिकित्सकीय खुपिया विभाग की सबसे बड़ी असफलता है उसे इस बात की भनक तक नहीं लग सकी कि मानव समाज पर इतना  बड़ा संकट आने वाला है |  |जब शिक्षण संस्थानों से लेकर व्यापार आदि  साराकाम काज आदि सब कुछ अचानक बंद कर देना  पड़ेगा !बाजार बंद हो जाएँगे | यातायात के  समस्त साधन रोक देने पड़ेंगे | ऐसी परिस्थिति में उस समय दैनिक उपयोगी खानपान आदि आवश्यक वस्तुओं की आवश्यकता भारी मात्रा में तुरंत पड़ेगी उसकी आपूर्ति कैसे हो पाएगी | दैनिक कमाने खाने वाले श्रमिकवर्ग का भरण पोषण कैसे हो सकेगा | 
    महामारी प्रभाव से लोग तेजी से संक्रमित होने लगेंगे !संक्रमितों के लिए अस्पतालों में विस्तरों समेत जिन आवश्यक चिकित्सकीय औषधियों आक्सीजन सिलेंडरों आदि की आवश्यकता अधिक मात्रा में पड़नी थी उसकी व्यवस्था कैसे होगी | अस्पतालों से श्मशानों तक जाम लग सकता है | महामारी का मतलब  ही यही होता है कि सब कुछ अनियंत्रित हो जाता है | यही तैयारियाँ आगे  से आगे करके रखने  के लिए समय तो चाहिए इसकी आवश्यकता सरकार एवं प्रशासन से लेकर समाज तक सबको पहले से करके रखनी होती है | इसके लिए ऐसी घटनाओं  के विषय में पूर्वानुमान लगाकर सरकार एवं समाज को अवगत कराना अनुसंधान कर्ताओं का अपना कर्तव्य होता है |वैसे भी महामारी हों  प्राकृतिक आपदाएँ इनके घटित होने के  पहले ही इनकी सेवाओं की आवश्यकता होती है |   इन्हीं आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए वैज्ञानिकों को आगे से आगे अनुसंधान करने के लिए समस्त संसाधन उपलब्ध करवाए जाते हैं उन्हें सुख सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं | अनुसंधानों की भी जनता के प्रति कुछ तो जवाबदेही होनी ही चाहिए कि महामारी जैसा  इतना बड़ा संकट जनता पर आने वाला है इसकी भनक तक उन्हें पहले से क्यों नहीं लगी | 
   रोगों महारोगों पर नजर रखने वाले चिकित्सकीय खुपिया विभाग की विफलता का ही यह नतीजा है कि सरकारों से  लेकर जनता तक को अचानक प्राप्त परिस्थितियों  से अकेले अपने बल पर जूझना पड़ा | महामारी जैसे संकटों से निपटने  के लिए हमेंशा चलाने जाने वाले वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा जनता को आखिर ऐसी कितनी मदद पहुँचाई जा सकी जो वैज्ञानिक अनुसंधानों के बिना संभव न थी | अनुसंधानों से ऐसा तो कुछ भी सहयोग नहीं मिला | महानगरों से श्रमिकों को घबड़ाकर पलायित होते देखा गया है |अस्पतालों में विस्तरों समेत जिन आवश्यक चिकित्सकीय औषधियों आक्सीजन सिलेंडरों आदि की आवश्यकता अधिक मात्रा में पड़नी थी उसकी व्यवस्था अचानक पर्याप्त मात्रा में न हो  पाने के कारण ही लोग दर दर भटकते देखे गए | अस्पतालों से श्मशानों तक जाम लग  गया |शोशलडिस्टेंसिंग, सैनिटाइजिंग, छुआछूत, मॉस्कधारण लॉकडाउन जैसे कठोर कोविड नियमों का पालन करना पड़ा है|नदियों में  जहाँ तहाँ बिखरे पड़े  शवों के वे दारुण दृश्य देखने पड़े हैं ! इसके अतिरिक्त और भी बहुत कुछ ऐसा संकटप्रद हुआ है जिसमें वैज्ञानिक अनुसंधानों द्वारा जनता को ऐसी कोई मदद नहीं पहुँचाई जा सकी  जो उनसे अपेक्षा थी |
 
महामारी  को समझने में कमी कहाँ रह गई ?
      विदेशों के पास तो आधुनिक विज्ञान था जबकि भारत के पास आधुनिक  विज्ञान तो था ही इसके साथ ही साथ अपना प्राचीन वैदिकविज्ञान भी था | जिसके बल पर भारत में प्रकृति से लेकर जीवन तक से संबंधित सभी विषयों में हमेंशा से सही एवं सटीक अनुसंधान किए जाते रहे हैं | इसलिए भारत में दोनों पद्धतियों का उपयोग करते  महामारी के विषय में सही सही अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाकर महामारी का भयावह समय प्रारंभ होने से पहले महामारी मुक्त समाज की नींव रखी  जा सकती थी या फिर महामारी की इतनी भयावहता से बचाकर सुरक्षित रखा जा सकता था | कमी कहाँ रह गई इसके समझने की आवश्यकता है |
     आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से देखें तो महामारी या प्राकृतिक आपदा जैसा  कोई संकट उपस्थित होता है | ऐसे समय  संकटों से जूझ रही जनता को वैज्ञानिक अनुसंधानों से प्राप्त अनुभवों की अपने बचाव के लिए सबसे अधिक आवश्यकता होती है | उस कठिन समय में अभी तक किए गए अनुसंधानों का  धोखा दे जाना या उनसे जनता को कोई मदद न मिल पाना चिंता की बात है | ऊपर से ऐसे तर्क दिए जाना कि महामारी अपना स्वरूप बदल रही है इसलिए ऐसे नए वेरियंट को समझा नहीं जा सका | इसीप्रकार से प्राकृतिक आपदाओं के आने का कारण जलवायुपरिवर्तन है इसलिए  ऐसी  घटनाओं के विषय  में पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं है आदि ऐसी बातें वैज्ञानिक जगत के मुख से शोभा नहीं देती हैं क्योंकि ऐसे संकटकाल  में जनता बड़ी आशा से अपने वैज्ञानिकों  की ओर देख रही होती है | 
       सरकारें जनता का प्रतिनिधित्व करते हुए  ऐसी संकट कालीन परिस्थितियों में जनता की मदद करने हेतु जो जिम्मेदारी वैज्ञानिक अनुसंधान कर्ताओं को देती हैं उसका निर्वाह उसी आत्मीय भावना से होना चाहिए | चाहें जलवायुपरिवर्तन हो या  वैरियंट वदले उससे जनता का क्या लेना देना |
     महामारियों एवं प्राकृतिक आपदाओं  के विषय में अनुसंधान करने की जिम्मेदारी जिन्हें विशेषज्ञ समझ समझकर दी गई है और उन्होंने न केवल सहमति पूर्वक स्वीकार की है अपितु इसके लिए ही सरकारें उनका आर्थिकअर्चन करती हैं इसके साथ ही उन्हें उचित पद प्रतिष्ठा प्रदान करती हैं|  इसके बाद जलवायुपरिवर्तन या  महामारी के वैरियंटवदलने को भी अनुसंधान पूर्वक अच्छी प्रकार से समझकर ऐसी घटनाओं का कारण खोजना एवं उनसे बचाव के लिए पूर्वानुमान लगाकर उनसे सरकारों को अवगत करवाना ये उनका कर्तव्य होता है | 
    कुलमिलाकर जलवायुपरिवर्तन हो या  वैरियंट वदले फिर भी प्राकृतिक संकटों के समय अनुसंधानों से जनता को हर हाल में मदद मिलना सुनिश्चित किया जाना चाहिए | उस महा मुसीबत के समय जनता को ऐसी निरर्थक बातें बोलने का क्या औचित्य ही क्या है| ऐसा कहना ही है तो ऐसे प्राकृतिक संकट आने से पहले ही जनता को बता दिया जाए कि हम महामारी अथवा प्राकृतिक आपदाओं के समय में आपकी कोई मदद करने की स्थिति में नहीं हैं तो जनता कोई आशा ही नहीं रखेगी |
     जिन्हें ऐसे विषयों के विशेषज्ञ समझकर यह जिम्मेदारी सौंपी गई है संभावित ऐसी सभी परिस्थितियों से निपटना जिम्मेदारी सँभाल रहे उन  विशेषज्ञों का अपना कर्तव्य  बन  जाता है | जिस प्रकार से देश की सीमाओं पर सुरक्षा  के उद्देश्य से डटे सैनिक जिम्मेदारी सँभालकर संभावित सभी परिस्थितियों से  स्वयं निपटते हैं |उस समय शत्रु कितनी भी चालें चले,वेष  बदलकर हमला करे, कितना भी छल प्रपंच रचे | ऐसी सभी चालों को समझने की उन्हें ट्रेनिंग पहले ही दी जा चुकी होती है उसी  विशेष योग्यता से संपन्न सैनिकों को ही ऐसी जिम्मेदारी दी गई होती है | उसी विशेष योग्यता एवं साहस के बल पर कर्तव्यनिष्ठ सैनिकों  का लक्ष्य हर हाल में शत्रु को जीतना ही होता है और वह युद्ध को जीतकर ही चैन लेते भी हैं | प्रकृति वैज्ञानिकों से भी ऐसी ही अपेक्षा जनता किया करती है | 
     महामारियों का अपना कोई निश्चित स्वभाव आचरण या लक्षण आदि नहीं होते हैं |इसी अनिश्चितता के कारण महामारी में स्वरूप परिवर्तन का भ्रम होते देखा जाता है |  इसीलिए प्रत्यक्ष लक्षणों के आधार पर महामारी को समझ पाना संभव नहीं होता है | विशेषज्ञ लोग ही अनुसंधान पूर्वक ऐसी महामारियों को समझ पाते हैं |
     प्राकृतिक महामारियाँ प्रायः अपने समय से आतीं और अपने समय से ही जाती हैं | ये जब तक पीड़ित करती रहती हैं  तब तक सरकारें और चिकित्सक चुप तो बैठते नहीं हैं ये अपनी जनता को महामारी से मुक्ति दिलाने  के लिए कोई न कोई औषधि टीका आदि उपाय तो किया ही करते हैं | उनमें से जिस किसी का प्रयोग महामारी के स्वाभाविक रूप से समाप्त होते समय किया जा रहा होता है भ्रमवश उसे ही महामारी की औषधि  रूप में चिन्हित करके उसी घटक को महामारी की औषधि मान लिया लिया जाता है |इसके बाद दूसरी बार कोई महामारी आती है उस समय उस पुराने औषधीय घटक का प्रयोग करने पर उससे कोई लाभ नहीं होता है चूँकि वह महामारी की औषधि ही नहीं होती है उसे तो पिछली बार भ्रमवश महामारी की औषधि के रूप में स्वीकार कर लिया गया होता है | इसलिए नई महामारी पर नए सिरे से बिचार किया जाने लगता है जब तक महामारी रहती है तब तक एक के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा आदि प्रयोग किए जाते रहते हैं जिस प्रयोग काल में महामारी समाप्त होती है उसी प्रयोग को अगली महामारी आने तक के लिए महामारी की औषधि के रूप में संरक्षित करके रख लिया जाता है | 
     प्राचीन वैदिकविज्ञान  को समझने में कहाँ चूक गया वैदिक विज्ञान ! 
      महामारी तथा  प्राकृतिक आपदाओं की उत्पत्ति का कारण खोजना या इनके विषय में पूर्वानुमान लगाना प्रत्यक्ष विज्ञान के द्वारा संभव होता तब तो आधुनिक विज्ञान के द्वारा इसे आसानी से किया जा सकता था | ऐसी घटनाओं के स्वभाव को समझने के लिए प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों प्रकार के ही वैज्ञानिक अनुसंधानों की आवश्यकता होती है |
      इसीलिए भारत के प्राचीन वैदिकविज्ञान से संबंधित विभिन्न ग्रंथों में न केवल महामारी एवं प्राकृतिक आपदाओं के आगमन से पहले उनके विषय में पूर्वानुमान लगाने की गणितीय विधा का वर्णन मिलता है अपितु ऐसी दुर्घटनाओं पर अंकुश लगाने वाले यज्ञविज्ञान के आधार पर उपायों को भी बताया गया है |प्राचीन काल में ऐसे विषयों में  सुयोग्य विद्वान लोग अनुसंधान पूर्वक महामारी जैसी प्राकृतिक घटनाओं के  विषय में न केवल पूर्वानुमान लगा लिया करते थे अपितु यज्ञविज्ञान में वर्णित  प्रभावी उपाय करके मानव समाज को ऐसी प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षित बचा लिया करते थे |इस प्रकार से उस  युग में भी महामारी मुक्त समाज का सपना साकार होते देखा जाता था जबकि उस समय आधुनिक विज्ञान जैसे संसाधन कहाँ थे | 
      वर्तमान समय में वेद विज्ञान के  अध्ययन अध्यापन अनुसंधान आदि प्रक्रिया में सम्मिलित लोगों का भी इतना तो कर्तव्य बनता ही था कि वे भी उस परंपरा के अनुशार कुछ तो करते | महामारी जैसे कठिन संकट के अवसर पर अपनी शास्त्रीयक्षमता का परिचय देते हुए कोरोना महामारी आने के विषय में पहले से पूर्वानुमान लगाकर उनसे सरकारों को अवगत करवाते एवं यज्ञ विज्ञान पद्धति के  आधार पर उपाय करवाकर समाज को महामारी मुक्त बनाए रखने की दृष्टि से कुछ तो सार्थक प्रयास करते | उनके प्रयास से तैंतीस कोटि देवी देवताओं की पहचान वाला यह देश अन्य धर्मावलंबियों की अपेक्षा कुछ तो अलग रहता | प्राचीन वैज्ञानिकों के प्रयास से भारत वर्ष को महामारी मुक्त बनाए रखने में यदि थोड़ी भी सफलता मिली होती तो तो सारी दुनियाँ भारतवर्ष की इस प्राचीनवैज्ञानिक क्षमता पर विश्वास करने के लिए विवश होती | विश्वमंच पर अपने भारत की प्राचीनवैज्ञानिक क्षमता के प्रभाव को प्रस्तुत करने का यह अत्यंत उत्तम अवसर दुर्भाग्यवश अपने हाथ से निकल गया |
      ऐसे विषयों से संबंधित अध्ययन  अध्यापन की परंपरा तो न्यूनाधिक रूप में हमेंशा से चलती ही रही है !विगत कुछ दशकों  से तो सरकारी संस्कृतविश्व विद्यालयों में ऐसे सभी विषयों पर अध्ययन  अध्यापन अनुसंधान आदि किए करवाए जाते रहे हैं | उसमें भी वर्तमान समय की स्थापित सरकार ने अपने भारत की प्राचीनवैज्ञानिक क्षमता को प्रोत्साहित करने में कोई कमी नहीं रखी है फिर भी यदि ऐसे अनुसंधान करने करवाने की जिम्मेदारी सँभाल रहे प्राच्यविद्या से जुड़े लोग महामारी  मुक्त समाज की संरचना में अपना कितना योगदान किस प्रकार से दे पाए हैं उसके तर्क संगत प्रमाण संस्कृत विश्व विद्यालयों के द्वारा प्रस्तुत किए जाने चाहिए जिससे  कोरोना महामारी से भयभीत जनता का भरोसा भविष्य के लिए कुछ तो बढ़ाया जा सके | संस्कृतविश्व विद्यालयों की जिम्मेदारी सँभाल रहे लोगों का यह कर्तव्य बनता है कि वे भी बताएँ कि उनके अध्ययनों अनुसंधानों के द्वारा महामारी पीड़ितों को कितनी मदद पहुँचाई जा सकी है | उनकी योग्यता कर्मठता एवं सार्थकता का मूल्याँकन सरकारें उसी के आधार पर करके ऐसे विषयों में भविष्य संबंधी अनुसंधानों के लिए प्रभावी योजनाएँ बना सकती हैं |
     वेद वैज्ञानिक अनुसंधान क्षेत्र से जुड़े विद्वानों को भी अपने अध्ययनों अनुसंधानों की सामर्थ्य सिद्ध करने के लिए कुछ तो करना ही चाहिए | केवल प्राचीन ग्रंथों में वर्णित वैज्ञानिक विषयों की प्रशंसा करते रहने की अपेक्षा उस विज्ञान के आधार पर उन्हें भी प्रत्यक्ष प्रायोगिक रूप से कुछ ऐसा प्रस्तुत करना चाहिए जो वर्तमान समय में महामारी से निराश हताश जनता का उत्साह बर्द्धन कर सके | प्राचीन वैज्ञानिक ग्रंथों में वर्षा विज्ञान से लेकर सभी प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाने का वर्णन किया गया है | प्राकृतिक आपदाओं से अपने समाज को सुरक्षित बचाकर रखने की विधियाँ बताई गई हैं उनसे संबंधित अनुसंधानों की समाज को आवश्यकता है |
 
                                                
पूर्वानुमान -


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हमारा  वैज्ञानिक कर्तव्य -

     जिन प्राकृतिक आपदाओं को रोक पाना हमारे बश की बात ही नहीं है उन्हें रोक देने के लिए हम बड़े बड़े सभा सम्मेलन करते हैं निरर्थक सुझाव ले दे रहे होते हैं झूठे संकल्प कररहे होते हैं जिनसे कुछ होना जाना होता तो वर्तमान समय इतना उन्नत विज्ञान होने पर भी उसके द्वारा भूकंप आँधी तूफ़ान वर्षा बाढ़ बज्रपात तथा महामारी जैसी प्राकृतिक घटनाओं से जूझती जनता को कुछ काल्पनिक कथा कहानियों के अतिरिक्त और क्या लाभ मिल सका है | ये तो प्राकृतिक आपदाओं और महामारी से जूझती जनता को ही पता है या फिर प्रकृति पीड़ित किसानों को पता है कि पिछले कुछ दशकों में जितने भी प्रकार की प्राकृतिक आपदाएँ घटित हुई हैं उनसे बचाव की दृष्टि से वैज्ञानिक अनुसंधानों की प्रायः कोई विशेष भूमिका नहीं रही है |  

   ऐसी परिस्थिति में प्राकृतिक घटनाओं के आधारभूत वास्तविक कारणों की खोज न हो सकने के कारण कुछ काल्पनिक कारणों को मानने मनवाने का अपना पूर्वाग्रह छोड़कर प्राकृतिक अनुसंधानों को करने करवाने के वास्तविक उद्देश्य को समझा जाना चाहिए और जिसकिसी भी प्रकार से संभव हो सके जनता के बचाव पक्ष पर विशेष बिचार किया जाना चाहिए |  

   इसलिए प्राकृतिक आपदाओं को घटित होनेसे रोकने की अपेक्षा उनसे मनुष्यों का बचाव कैसे हो उस उद्देश्य को केंद्र में रखकर नए सिरे से वैज्ञानिक अनुसंधान प्रारंभ किए जाने चाहिए | जो प्राकृतिक संकटों के समय में जनता के कुछ तो सहायक सिद्ध हो सकें |




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