शनिवार, 26 अगस्त 2023

boook dekhanaa hai


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 किसी काम का करना और काम का होना !

  कुछ काम किए जाते हैं तब होते हैं | 

  कुछ काम करने पर भी नहीं होते हैं | 

  कुछ काम बिना किए भी होते हैं |

     जितने भी कार्य किए जाते हैं उनमें से सभी सफल होते हों ऐसा निश्चित नहीं है |इसीलिए किए हुए  उन कार्यों में से कुछ कार्य सफल और कुछ असफल होते हैं,जबकि वे सभी कार्य एक साथ एक ही प्रकार से  किए जाते हैं|

   जो कार्य किए जाते हैं उनमें तीन क्रियाएँ घटित होती हैं पहली क्रिया कार्यों का किया जाना दूसरी क्रिया कार्यों का होना और तीसरी क्रिया कुछ कार्यों का न होना | 

  जो कार्य सफल हुए उनका तो कर्ता भी प्रत्यक्ष दिखाई पड़ रहा होता है और उसने कार्य होने के उद्देश्य से ही कार्य किया होता है |कार्य करने में एक व्यक्ति का उद्देश्य एवं प्रयास सम्मिलित हुआ इसलिए उसका कर्ता उसे तब माना जा सकता है जब प्रयास करने पर भी जिस कार्य को जिसने नहीं होने दिया है उस करता को प्रत्यक्ष लाया जाए !

     कार्य होने देने की अपक्षे कार्य न होने देना छोटा काम नहीं है किंतु जिसने कार्य किए जाने पर भी सफल नहीं होने दिया है वो कोई साधारण शक्ति तो नहीं ही होगी |   

उन कार्यों के एक बार कर दिए जाने में एक क्रिया सिद्ध होती है कि कार्य किया गया है | इसमें एक बार कार्य कर दिए जाने के बाद कार्य होने संबंधी और कार्य न होने संबंधी दो क्रियाएँ और घटित हुई हैं | 

 

इसमें कार्य करने वाला तो प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है किंतु कार्य न होने देने वाला प्रत्यक्ष नहीं दिखाई दे रहा है ले के

 सफल हुए कार्यों को यदि कर्ता के प्रयास का परिणाम मान लिया जाए तो असफल हुए कार्यों का प्रत्यक्ष कारण और प्रत्यक्ष कर्ता किसे माना जाएगा !

    दूसरी बात प्रत्येक कार्य होने के लिए उसे करना ही पड़ेगा !ऐसा भी आवश्यक नहीं है | किया जाना ही आवश्यक हो नहीं किए जाएँगे वे नहीं ही होंगे |ऐसा भी  निश्चित नहीं है | कुछ कार्य करने पर भी सफल नहीं होते हैं और कुछ कार्य न करने पर भी हो जाते हैं | ऐसी स्थिति में जो कार्य किसी के द्वारा किए जाने के बाद होता है या बिना किए भी हो जाता है | 

     ऐसे प्रकरण में कार्य को करने की तो संपूर्ण प्रक्रिया प्रत्यक्ष रूप से दिखाई पड़  रही होती है किंतु कार्य के होने या न होने की प्रक्रिया को प्रत्यक्ष रूप से देखना संभव नहीं होता है |कार्य को होते हुए अपनी आँखों से देखे बिना इस बात पर विश्वास किस आधार पर कर लिया जाए कि यह कार्य करने से ही हुआ है | ऐसा कहा जाना तब तर्कसंगत होगा ,जब जितने भी कार्य किए जाएँ वे सारे संपन्न हो जाएँ !दूसरी बात जो कार्य किसी के द्वारा न किए जाएँ वे कार्य हों ही न ! 

    जिस प्रकार से कुछ कार्यों को करते एवं होते हुए  प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है उसी प्रकार से कार्यों को न होते हुए भी यदि प्रत्यक्ष रूप से देखना संभव हो जाए ! या बिना किए हुए भी कार्यों को होते हुए प्रत्यक्ष रूप से देखना यदि संभव हो जाए तो किसी भी घटना के घटित होने से बहुत पहले उसके घटित होने के विषय में जाना जा सकता है |

   जो कार्य किसी के द्वारा किया नहीं गया

किसी कार्य को करने और होने के बीच दो प्रक्रियाएँ घटित होती हैं | एक बात है किसी कार्य का किया जाना तो दूसरी बात है किए गए कार्य का सफल हो जाना !

   किसी कार्य को करने की एक प्रक्रिया है और किसी कार्य के होने की दूसरी प्रक्रिया है | कार्य को करने की प्रक्रिया प्रत्यक्ष  होने के कारण यह सभी को दिखाई पड़ती है|कार्य के होने की प्रक्रिया अप्रत्यक्ष है इसलिए वो किसी को दिखाई नहीं पड़ती है | इसीलिए इसको समझने के लिए कोई विज्ञान ही नहीं है | 

     कार्य को करने की प्रक्रिया तो प्रत्यक्ष दिखाई पड़ती है करने वाला भी दिखाई पड़ रहा होता है | वो जैसे करता है वह प्रक्रिया भी दिखाई पड़ रही होती है | उस कार्य को करने में जिन जिन वस्तुओं का उपयोग होता है वे दिखाई पड़  रही होती हैं | ये प्रत्यक्ष प्रक्रिया है जिसका उपयोग वैज्ञानिक अनुसंधानों को करने के लिए किया जाता है |इसके लिए तो विज्ञान है किंतु किया हुआ कार्य सफल होगा या नहीं होगा और यदि होगा तो कितने प्रतिशत होगा  और होगा तो कब होगा !यह पता लगाने के लिए कोई विज्ञान नहीं है

    इससे अलग कोई अप्रत्यक्ष शक्ति भी है जो किसी के द्वारा किए हुए कार्य के भी होने या न होने  के विषय में निर्णय किए जा रही होती है अर्थात किस कार्य को होना है या किस कार्य को नहीं होने देना है


      कुछ कार्य मनुष्यों के द्वारा किए जाते हैं |

   जो कार्य मनुष्यों के द्वारा करने पर हो जाते हैं वो मनुष्यकृत कार्य होते हैं | उन्हें मनुष्य जब जैसा करना चाहे वैसा कर सकता है | जितने बार भी चाहे उतने बार ले और जैसा सोच के करे वैसा करने में बार बार सफल होता रहे | इसका मतलब ऐसे कार्य मनुष्य के करने के लिए बने हैं | इन्हें करना मनुष्य के बश में है |

     ऐसे कार्यों को मनुष्य जब करना चाहे जैसा करना चाहे जितना करना चाहे वैसा कर सकता है | यदि वो वैसा करने में सफल हो जाए जैसा चाहे इसका मतलब ये कार्य उसके द्वारा किया गया है |उसमें किसी अप्रत्यक्ष शक्ति का हस्तक्षेप नहीं होता है |ऐसा प्रयोग वो दूसरी तीसरी चौथी बार अर्थात जब भी करे तब  सफल ही होता जाए और जब असफल हो तो उसमें कार्य के करने हुई लापरवाही या कमी साफ साफ दिख रही हो |

     ऐसे मनुष्यकृत  कार्य  कैसे और कितने किए जाएँगे  कब किए जाएँगे | इसके विषय में कोई जानकारी जुटानी है या इनके होने के विषय में पूर्वानुमान लगाना है तो कार्य करने वाले उसी मनुष्य से पूछ कर पता किए जा सकते हैं | जो कार्य करने की जिम्मेदारी सँभाल रहा होता है | 

    कुल मिलाकर ऐसी घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाना तब संभव हो पाया है |जब कार्य कार्ययोजना बनाने  वाले को खोज लिया गया है |जिसके आधार पर कार्य को देखे बिना भी कार्य योजना बनाने वाले से मंतव्य करके यह पूर्वानुमान लगा लिया गया है कि कौन कार्य कब होगा |

 कुछ कार्य करने पर भी होते या नहीं होते हैं | 

     ऐसे कार्य जिनके लिए मनुष्य प्रयत्न तो करता है,किंतु उस प्रयत्न के सफल या असफल होने में उस कर्ता की कोई भूमिका नहीं होती है |ऐसे कार्य सफल ही हों इस पर मनुष्य का कोई बश नहीं होता है |ऐसे कार्यों की सफलता असफलता में किसी अप्रत्यक्ष शक्ति का भी हस्तक्षेप होता है उसे समझे बिना उसकी शक्ति स्वभाव एवं कार्य योजना को समझे बिना उस कार्य के होने या न होने के विषय में कोई अनुमान या पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं होता है |

   चिकित्सक बहुत लोगों की चिकित्सा करता है उनमें कुछ लोग स्वस्थ होते हैं और कुछ नहीं भी होते हैं | कुछ अस्वस्थ बने रहते हैं और कुछ की मृत्यु भी हो जाती है | किसी को रोग मुक्ति दिलाना यदि चिकित्सक के बश की बात होती तब तो चिकित्सक उन सभी को स्वस्थ कर देता ! प्रत्येक चिकित्सक की यही अभिलाषा होती है कि उसके पास जितने भी रोगी आवें या लाए जाएँ उन सभी को स्वस्थ होना चाहिए | वैज्ञानिक चाहते हैं कि उनके द्वारा किए गए सभी अनुसंधान सफल हों यही लक्ष्य बनाकर वो प्रयोग प्रारंभ करते हैं, किंतु कुछ अनुसंधान सफल और कुछ असफल हो जाते हैं | यही वकीलों की स्थिति है प्रत्येक वकील चाहता है कि वो हर मुकदमा जीते ,किंतु कुछ जीतता है तो कुछ हार भी जाता है | ऐसे समस्त जीव अपना अपना लक्ष्य बनाकर उसे पूरा करने के लिए जीवन भर  प्रयत्न किया करते हैं | उनमें से कुछ प्रयत्न सफल और कुछ असफल हुआ करते हैं | 

    सफल होने पर उन्हें लगता है कि यह कार्य उनके करने से हुआ है |कई बार उन्हें ऐसा भी लगता है कि यह  कार्य यदि वे न करते तो कोई दूसरा नहीं कर सकता था | ऐसे लोगों को सच्चाई तब पता लगती है जब वही कार्य वही लोग दूसरी बार करना चाहते हैं लेकिन कर नहीं पाते हैं ,जबकि पहली वाली विशेषता तो उनके  पास तब भी होती  है |

   कई लोग कोई व्यापार शुरू करते हैं तब धन ,संसाधन,संपर्क,अनुभव आदि कम होने पर भी सफल होकर बहुत धनधान्य कमा लेते हैं | उन्हीं लोगों को उसी काम में कुछ समय बाद असफलता मिलने लगती है , जबकि उस समय  धन ,संसाधन,संपर्क,अनुभव आदि तो पहले की अपेक्षा अधिक होता है | इसलिए बाद में और अधिक सफल होना चाहिए था |ऐसा न होने का प्रत्यक्ष कारण कोई दिखाई नहीं पड़ रहा होता है |इससे यह निश्चित होना स्वाभाविक ही है कि व्यापार में पहले मिली सफलता भी उन लोगों  के अपने प्रयासों का परिणाम नहीं थी |

     किसी कार्य के करने और होने के अंतर को न समझ पाने के कारण समाज में बहुत प्रकार की समस्याएँ पैदा  हैं |किसी कार्य के होने और न होने में लोग अपने को सफल या  असफल मानने लगे हैं |इस कारण वे ऐसे कपटपूर्ण सुख दुःख में जीवन जीने के लिए मजबूर होते देखे जा रहे हैं |जिस पर अपना कोई वश नहीं होता है |  कार्य की संपन्नता में अपने को कर्ता मानकर सुखी हो लेना और कार्य की असफलता में अपने या किसी और को को कार्य की असफलता का कारण  मानकर दुखी होन या किसी को शत्रु समझने लगना जैसी परिस्थिति का समाज शिकार होता जा रहा है | ऐसे असफल विद्यार्थी ,व्यापारी, प्रेमी- प्रेमिका आदि तनावग्रस्त होकर रोगी हो जाते हैं या नशा करने लग जाते हैं अथवा अपराधी बनकर दूसरों को परेशान  करने लगते हैं | कुछ लोग तो हत्या आत्महत्या जैसे  क्रूरकर्म तक करते देखे जाते जाते हैं |कार्य करने और होने के अंतर को समझकर ऐसी बहुत सारी समस्याओं से मुक्ति पाई जा सकती है | 

      ऐसे कार्यों के विषय में कार्ययोजना बनाने वाली शक्ति अप्रत्यक्ष होती है |केवल कार्य करने वाला ही दिखाई पड़ता है | दार्शनिकों के मत में संसार का प्रत्येक कार्य जो किया जा रहा है या भविष्य में अभी से लेकर हजारों वर्ष बाद भी किया जाएगा |वो सभी कार्य प्रकृति योजना के अनुशार ही होते हैं | जिसप्रकार से किसी बिल्डिंग को बनवाने की जिम्मेदारी देते समय ही उस कार्यप्रबंधक को कार्ययोजना (मैप) सौंप दी जाती है |वह कार्य करवाना उसकी जिम्मेदारी होती है| उसीप्रकार से सृष्टि के प्रारंभ से लेकर सृष्टि की पूर्णता के बीच जितने भी कार्य होने होते हैं वह संपूर्ण कार्यसूची प्रकृतिप्रबंधन  को सौंप दी जाती है |ये सारे कार्य निराकार स्वरूप में उसी समय किए जा चुके होते हैं |जिन्हें खोजने(करने) की जिम्मेदारी मनुष्यों की होती है |यहाँ तक कि कुछ दार्शनिकों ने तो कविता बनाने वाले कवि को भी कविता का अन्वेषक मात्र माना है | उनका मानना है कि कविता तो पहले से ही प्राकृतिक रूप से बनी हुई ही है | वस्तुतः संपूर्ण संसार उस प्रकृति योजना से बँधा हुआ है | इस संसार में केवल वही कार्य किए जा सकते हैं जो कार्य प्रकृतियोजना (कार्यसूची) में सम्मिलित होते हैं|

    कुछ लोग अपनी अपनी महत्वाकांक्षा के कारण कोई भी कार्य ठान लेते हैं | उन्हें पूरा करने के लिए अपनी ऊर्जा संसाधन एवं संपत्ति लगा देते हैं इसके बाद भी वे कार्य सफल इसलिए नहीं होते हैं क्योंकि उनका किया जाना या तो प्रकृति सूची में सम्मिलित नहीं होता है और यदि सम्मिलित भी होता है तो वह कार्य उनके द्वारा नहीं किया जाना होता है उसी किसी दूसरे से कराया जाना प्रकृतिसूची में सम्मिलित होता है |उसका विवाह उसके साथ नहीं होता होता है वह व्यापार उसे नहीं करना होता है वह पढ़ाई उसे नहीं पढ़नी होती है|  आदि !!      

                             वैज्ञानिक अनुसंधानों में प्रत्यक्षवाद का खतरा !

     किसी घटना के घटित होने का कारण खोजते समय वास्तविकता की परवाह न करते हुए कोई भी  कारण मान लिया जाता है | किसी स्कूल के प्रबंधक ने अपने स्कूल में बुधवार और शनिवार को सफेद रंग की ड्रैस पहन कर जाने का नियम बना रखा था,कुछ  अन्य दिनों में दूसरे रंग की ड्रैस पहनकर जाना होता था |ऐसे ही कक्षा अध्यापिका ने बुधवार और शनिवार को ड्राइंग करवाने का नियम बना रखा था | इसलिए बुध और शनिवार को ड्राइंग  की कॉपी लेकर जानी होती थी | 

    इस प्रकरण में  बुधवार और शनिवार को सफेद ड्रैस पहनकर जाना और ड्राइंग की कॉपी लेकर जाना ये दोनों नियम दो अलग अलग लोगों के द्वारा बनाए गए हैं | दोनों ने एक दूसरे से परामर्श करके नहीं बनाए हैं |सफेद ड्रैस पहनकर आने एवं ड्राइंग की कॉपी लेकर जाने का आपस में कोई संबंध भी नहीं बनता है | ये दोनों कार्य एक दूसरे के पूरक भी नहीं हैं | सफेद ड्रैस पहने बिना भी ड्राइंग की जा सकती है और उस दिन ड्रॉइंग न भी करनी हो तो भी सफेद ड्रेस पहनी जा सकती है | इसलिए सफेद ड्रैस पहनकर  एवं ड्राइंग की कॉपी लेकर स्कूल आने का आपस में कोई संबंध सिद्ध नहीं होता है | 

      कुछ बच्चों ने इसे ऐसा समझा कि सफेद ड्रेस इसलिए पहनी जाती है क्योंकि उस दिन ड्राइंग कॉपी को  लेकर जाना होता है | कुछ बच्चों ने इसे ऐसे समझा कि ड्राइंग कॉपी को  लेकर इसलिए जाना होता है ,क्योंकि उस दिन सफेद ड्रेस पहनकर जानी होती है |बच्चों ने अज्ञानवश इस प्रकार से उन दोनों घटनाओं को आपस में जोड़ लिया है | बच्चों का यह भ्रम तब टूटा जब एक दिन सफेद ड्रेस पहने बिना भी ड्राइंग कराई जाने लगी और एक दिन ड्राइंग कॉपी के बिना भी सफेद ड्रेस पहनाकर स्कूल बुलाया गया | 

     बच्चों से पूछा गया कि तुम तो कह रहे थे कि सफेद ड्रेस पहन कर आने के कारण ड्राइंग कॉपी लानी होती है या ड्राइंग कॉपी लाने के कारण सफेद ड्रेस पहनकर आना होता है ,लेकिन अबकी बार तो ऐसा नहीं हुआ है ,तो बच्चों ने कहा कि होता वैसे वही है किंतु अबकी बार जलवायु परिवर्तन होने के कारण वो नियम टूट गया है | 

     विशेष बात यह है कि इस रहस्य को समझने के लिए ऐसे नियम बनाने वालों से संपर्क करने पर पता लगा कि ये दोनों नियम स्वतंत्र रूप से दो अलग अलग लोगों के द्वारा अलग अलग उद्देश्यों से बनाए गए हैं और दोनों घटनाओं का आपस में एक दूसरे से कोई संबंध ही नहीं है,अपितु ये दोनों नियम तो  बुधवार और शनिवार से संबंधित हैं |

 

   

 

  प्रकार की घटनाएँ हैं  से दोनों घटनाएँ जुडी हुई हैं ,लेकिन अज्ञान के कारण बच्चे कहते हैं कि जिस दिन हम सफेद ड्रैस पहनकर आते हैं उस दिन मैडम ड्राइंग करवाती हैं | यद्यपि सफेद ड्रैस पहनकर आने और मैडम के ड्राइंग करवाने का आपस में कोई संबंध नहीं है | चूँकि सफेद ड्रैस और ड्राइंग की कॉपी प्रत्यक्ष दिखाई पड़ रही होती है |इसलिए बच्चे ने उन दोनों घटनाओं को आपस में जोड़ दिया किंतु  बुधवार और शनिवार प्रत्यक्ष दिखाई नहीं पड़ते इसलिए उन्हें भुला दिया गया

   ऐसा वैज्ञानिक अनुसंधानों में भी अक्सर होते देखा जाता है |


कोई भी कारण मान लिए जाते तक पहुँचे बिना बुधवार ,ही                                                                                                                          

 

भूलें बार बार होते

 

ऐसी भूलें बार बार होते देखी जाती हैं

 

 

 

 

 

जो कार्य अपने आप से होते हैं उनके लिए जिम्मेदार कौन ! 

     ऐसे कार्यों को करने वाली शक्ति प्रत्यक्ष दिखाई नहीं पड़ती है|प्राकृतिक जितनी भी घटनाऍं घटित होती हैं |उनमें मनुष्य का कोई योगदान नहीं होता है| उनके विषय में यदि प्रत्यक्ष दृष्टि से देखा जाए तो ऐसे कार्य कर्ताविहीन होते हैं |ऐसे कार्यों का कर्ता दिखाई नहीं पड़ता है | ऋतुओं का अपने समय पर आना जाना वर्षा होना न होना कम या अधिक होना,भूकंपों या सुनामियों का आना ,आँधी तूफ़ान आना,बज्रपात होना,तापमान बढ़ना या कम होना,महामारी आना,उसकी लहरों का आना जाना !ऐसे कार्यों को कोई करता है या ये अपने आप से होते हैं इनके विषय में निश्चित रूप से कुछ कहा जाना संभव नहीं है| 

     कुछ लोग ऐसी घटनाओं के लिए 'प्रकृति' 'नेचर'  या 'कुदरत' को जिम्मेदार ठहरा देते हैं |इसका मतलब ये है कि ये तो घटित होती ही रहेंगी इनका कोई कुछ नहीं कर सकता है| ऐसा स्वीकार कर लेने में एक प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ऐसी घटनाओं के लिए यदि केवल 'प्रकृति' 'नेचर'  या 'कुदरत' ही जिम्मेदार है तो प्रकृति तो जड़ है इसका वेग तो कितना भी बढ़ घट सकता है | भूकंप अधिकतम 9 डिग्री तक ही क्यों आएगा इससे कितना भी अधिक हो सकता है | तूफ़ान कितना भी तेज आ सकता है | वर्षा कितनी भी तेज हो सकती है कितने भी लंबे समय तक चलते रह सकती है |तापमान कितना भी बढ़ सकता है | इसी प्रकार से कोई भी प्राकृतिक घटना कभी भी कितना भी विकराल स्वरूप धारण कर सकती है | कितने भी लंबे समय तक ऐसा करते रख सकती है |उसे रोकना या व्यवस्थित क्रम में करना मनुष्य के बश में तो है नहीं ,महामारी आई जितना नुक्सान जब तक होना था हुआ किसी ने क्या कर लिया ?ऐसी कोई भी घटना कितनी भी अनियंत्रित हो सकती है किंतु इनका वेग कभी भी इतना अनियंत्रित नहीं होता है कि ऐसी घटनाएँ कितने भी लंबे समय तक और कितने भी वेग से घटित होती रहें |इससे तो मनुष्य का आस्तित्व ही समाप्त हो सकता है,किंतु ऐसा होता नहीं है |

      इससे यह विश्वास करना पड़ता है कि ऐसी घटनाएँ घटित होने के पीछे कोई न कोई ऐसी सक्षम शक्ति अवश्य है जिसने यह सारा प्रबंधन सँभाल रखा है उसका मनुष्य समेत समस्त जीव जंतुओं से लगाव है | प्रकृति उन्हें भी जीवित और सुरक्षित रखना चाहती है|प्रकृति उन्हें इतना निरंकुश कभी नहीं होने दी जाती है कि  वह प्राणियों के विरुद्ध कोई कठोर कदम उठा सके| इनके पीछे कोई न कोई सक्षम शक्ति अवश्य है जिसकी कार्य योजना (स्क्रिप्ट) के अनुशार ही समस्त घटनाएँ घटित होते देखी जाती हैं |  

     ऐसी घटनाओं की आधारभूत कारण स्वरूपा उस परोक्ष शक्ति को भी जानने के लिए अनुसंधान होना चाहिए |उसे अच्छी प्रकार से पहचाने बिना ऐसी प्राकृतिक घटनाओं या योजनाओं को समझा जाना संभव ही नहीं है | उस  अप्रत्यक्ष शक्ति का अनुभव व्यवहारिक जीवन में भी होते देखा जाता है |किसी रेलगाड़ी या विमान के परिचालन के लिए जो समय सारिणी बनाई जाती है | उसी के अनुशार अपने अपने समय का अनुपालन करते हुए रेलगाड़ी या विमान आदि का परिचालन होता है |उस समयसारिणी के निर्माता प्रत्येक ट्रेन या फ्लाइट में विद्यमान नहीं होते हैं इसके बाद भी उनकी बनाई हुई समयसारिणी  का ही अनुपालन किया जाता है |इसी समयसारिणी को खोज लेने वाले लोग इसे पढ़कर महीनों पहले पूर्वानुमान लगा लेते हैं कि कौन ट्रेन या फ्लाइट कितने बजे कहाँ से चलेगी उसके स्टापेज कितने और कहाँ कहाँ होंगे |

     जिसप्रकार से किसी ट्रेन या विमान को देखे बिना भी उसके आवागमन के विषय में पूर्वानुमान लगा लिया जाता है| उसीप्रकार से भूकंप आँधी तूफ़ान वर्षा बाढ़ बज्रपात चक्रवात आदि प्राकृतिक घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाने के लिए उसकी समय सारिणी खोजी जानी बहुत आवश्यक है | 

जिस प्रकार से महीनों पहले

 

प्रत्यक्ष जीवन में भी दिखती

    

        

                                         वैज्ञानिक अनुसंधानों में प्रत्यक्षवाद

   आधुनिक वैज्ञानिकों का चिंतन कर्मवाद से ग्रस्त है|उनने द्वारा सभी घटनाओं के लिए मनुष्यों को ही जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है |अक्सर देखा जाता है कि जो कुछ होता है या होगा या होना संभव है उसके पीछे मनुष्यकृत कार्यों को ही  जिम्मेदार बता दिया जाता है |वायुप्रदूषण बढ़ने के लिए मनुष्यों को दोषी ठहराया जाता है | जलवायु परिवर्तन के लिए मनुष्यों को दोषी ठहराया जाता है | महामारी पैदा होने के लिए  मनुष्यों को दोषी बताया जाता है | प्राकृतिक आपदाओं के घटित होने के लिए मनुष्य दोषी हैं | जब सभी प्रकार के संकटों के लिए मनुष्यों को ही दोषी ठहराया जाना है तो वैज्ञानिक अनुसंधानों की आवश्यकता ही क्या है |

       ऐसा भ्रम होने का कारण प्रत्यक्ष को प्रमाण माना जाना है | यह है कि   

 

द्वारा वैज्ञानिकों ने सब कुछ मनुष्य के द्वारा ही किया जा सकता है | 

     

    

जो कार्य करने पर सफलता न मिले या एक जैसा प्रयत्न करने के बाद भी कभी सफलता तथा कभी असफलता मिले और असफल होने का मनुष्यकृत कारण भी न पता लगे तो वह कार्य करने से नहीं होता है वह तो जब होना होता है तभी होता है 

कुछ कार्य होते हैं |

  काम होते हैं वे किसी को अच्छे या बुरे कैसे भी लगें किंतु वे तो हो ही जाते हैं |उनमें मनुष्य की इच्छा और प्रयास सम्मिलित नहीं होते | उन्हें तो होना ही होता है |

 

कुछ काम होते हैं |

    कई बार वर्षा नहीं हो रही होती है | ऐसे समय में वर्षा  होने के लिए कोई व्रत उपवास अनुष्ठान यज्ञ आदि धर्म कर्म या कुछ परंपराओं का पालन कर रहा होता है | उसी बीच वर्षा होने लगे तो वो उसे अपने प्रयासों का परिणाम भले ही मान ले किंतु प्रकृति योजना के अनुशार जो जो कुछ होना होता है वही हो रहा होता है | संपन्न हुए कार्यों का श्रेय(क्रेडिट) यदि काम करने वाले को दे भी दिया जाए और मान लिया जाए कि कार्य करने का विशेष गुण इस व्यक्ति में है तो फिर प्रश्न उठता है कि यदि उसमें इस प्रकार की विशेषता है तो जो काम उसने किए तो किंतु वे पूरे नहीं हुए उनके पुरे न होने  का कारण क्या है ? यदि उसमें कार्य करने की क्षमता है ही तो उसे वे कार्य भी पूरे कर देने चाहिए जिनको पूरा करने में वो असफल हुआ है | इस दृष्टि से उसके द्वारा किए गए सभी कार्य पूरे हो जाने चाहिए थे | यदि ऐसा हो जाता तब तो जो कार्य हुए हैं वे उसी ने किए हैं ऐसा माना जा सकता है उसी ने किए हैं |यदि उसके द्वारा प्रयास पूर्वक काम किए जाने पर भी कुछ हुए और कुछ नहीं हुए हैं |,तो जो नहीं हुए हैं उनके न होने का तर्क कोई पूर्ण कारण स्पष्ट हुए बिना कर्तापन की भूमिका प्रमाणित नहीं होती है |  

       कार्य होने और कार्य करने का अंतर कैसे पता लगे !

    किसी कार्य का होना यदि प्रकृतियोजना में सम्मिलित होता है, तो उसे होना ही होता है| ऐसे कार्यों को करने के लिए आवश्यक सहयोगी लोग प्रकृति प्रेरणा से स्वयं ही आ आकर अपना योगदान देते हैं | आवश्यकसंसाधन प्रकृति स्वयं उपलब्ध करवाती है | 

    कौन कार्य कब और किसकी मदद से होना है | इसकी योजना प्रकृति की होती है |ऐसे कार्यों में उपयोग करने के लिए प्रकृति कुछ लोगों को पैदा करती है | वे अलग अलग देशों प्रदेशों में पैदा होकर प्रकृति की उस योजना को साकार करने में लग जाते हैं |ये बचपन से ही प्रकृति की उसी योजना के अनुशार पढ़ाई तो करते ही हैं यहाँ तक कि खेल भी वैसे ही खेलते हैं | प्रकृति प्रेरणा से उन्हें जन्म भी ऐसे ही माता पिता के यहाँ मिलता है जो उनकी प्राकृतिक रुचि में मदद करते हैं | ऐसे लोग अपनी रुचि के अनुकूल जहाँ शिक्षा लेने जाते हैं वहाँ दूसरे लोग भी उनकी मदद करते हैं |पढ़लिख कर जब वे उस प्रकार के कार्यों में योगदान देने के लिए पहुँचते हैं तब वे आवश्यक सभी परीक्षाओं में सफल होते चले जाते हैं और उन कार्यों के लिए आसानी से चयनित होकर कार्यसाधन करने में लग जाते हैं | कार्यसंपन्न होते ही उनके अवतार का प्रयोजन पूरा मानकर स्वयं प्रकृति ही उन प्राकृतिक सैनिकों को कोई दूसरी जिम्मेदारी सौंप देती है | प्रकृति प्रदत्त उस दायित्व का निर्वहन करने के लिए कई बार इसी शरीर से उस भूमिका को भी निभाना होता है तो कई बार शरीर बदलकर कर उस कार्य को करना होता है | वो कार्य उनसे  कितना करवाना है ,उनके बाद किसी दूसरे से कितना करवाना है और उसे पूरा किससे करवाना है|ये सारा प्रकृति योजना में स्वीकृत पटकथा के अनुशार सबको अपने अपने हिस्से का अभिनय करके चला जाना होता है|जो लोग कर्म फल पाने या कार्यपूरा होने की आशा लेकर बैठे होते हैं |उस कार्य का परिणाम या तो उन्हें मिलना ही नहीं होता है या फिर प्रकृति योजना के अनुशार वह कार्य पूरा करने की जिम्मेदारी किसी और दूसरे को सौंपी गई होती है | इसलिए इस कार्य को वही पूरा करने के लिए प्रकृति उसी व्यक्ति को अवसर देती है | उसे ही यश मिलता है | वस्तुतः ये सबकुछ प्रकृति योजना के अनुशार ही घटित हो रहा होता है | 

    ऐसे कार्यों को करते जो दिखाई पड़ रहे होते हैं वस्तुतः उनसे वो कार्य प्रकृति के द्वारा करवाया जा रहा होता है | इसलिए वास्तविक कर्ता तो प्रकृति हो होती है | जो प्रत्येक कार्य के होने की योजना बनाती है और उसे संपूर्णता प्रदान करती है |

   कोलंबिया अंतरिक्षयान में भेजे गए वैज्ञानिक भिन्न भिन्न  स्थानों से आकर एक कार्य विशेष  एकत्रित  हुए थे !उसमें भारत की  कल्पना चावला जी भी सम्मिलित की गई थीं | उस प्रकृतियोजना में उनसभी को जितनी भूमिका निभानी थी वे निभाकर वापस चले गए |  यदि उनमें कर्ता होने की सामर्थ्य होती तो उन्हें ये पता होता कि वे वापस आ पाएँगे या नहीं !यदि नहीं ही आना था तब तो बता कर जाते कि अब हम नहीं आ पाएँगे ,या फिर सुरक्षित पृथ्वी पर लौटकर आते!किंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ |ऐसे प्रकृतिसैनिकों को अपने विषय में पहले से इतना पता नहीं होता !प्रकृति से इन्हें जब जहाँ जैसा आदेश मिलता है उसी का पालन तुरंत करना पड़ता है |इसलिए इसमें उनकी परतंत्रता परिलक्षित होती है और परतंत्र व्यक्ति किसी कार्य का कर्ता कैसे हो सकता है |स्वतंत्रःकर्ता  अर्थात कर्ता  स्वतंत्र  होता है |

                                         प्रकृतियोजना का विस्तार कहाँ तक है ?

    ऐसी घटनाएँ तो बहुत होती हैं जिन्हें यहाँ उद्धृत किया जा सकता है ,किंतु बात करते हैं | 1फ़रवरी 2003 को हुए कोलंबिया अंतरिक्षयान दुर्घटना की जिसमें सातों अंतरिक्ष यात्री मारे गये थे |ऐसी घटनाएँ भी प्रकृतियोजना के अनुरूप  घटित हो रही होती हैं ,किंतु इनके विषय में हमें पहले से पता नहीं होता है इसलिए वे अचानक घटित हुई सी लगती हैं |

   भारत के प्राचीन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो प्रत्येक व्यक्ति जन्म और मृत्यु का दिन समय स्थान निश्चित होता है |जन्म और मृत्यु सूर्योदय तथा सूर्यास्त की तरह होती है | सूर्यादय जितने बजकर कितने मिनट पर हुआ है  उसके अनुशार सूर्यास्त कितने बजकर कितने मिनट पर होगा यह निश्चित होता है | ऐसे ही सूर्यास्त के समय के अनुशार सूर्योदय का समय निश्चित होता है |इन दोनों में से एक का समय पता हो जाए तो उसी के अनुशार दूसरे का समय  पता कर लिया जाता है यही पूर्वानुमान है | इस दृष्टि से देखा जाए तो किसी की मृत्यु का समय और स्थान उसके जन्म के समय के अनुशार ही निश्चित होता है |

    ऐसी परिस्थिति में कोलंबिया अंतरिक्षयान के उस स्थान पर उस दिन उस समय पर दुर्घटना ग्रस्त होने का निश्चय तो उसी समय हो गया था जब उसे बनाना शुरू किया गया था |इसमें जो  सात अंतरिक्ष यात्री मारे गये थे |प्रकृति योजना के अनुशार उनकी मृत्यु उस दिन,उस समय और उस स्थान पर होनी है इसका निश्चय भी उनके जन्म के समय ही हो गया होगा |

    उन अंतरिक्षयात्रियों की मृत्यु पृथ्वी की कक्षा में प्रवेश करते समय इतनी उँचाई पर होनी थी | इसलिए 1 फ़रवरी 2003 को इन सातों लोगों को उतने समय पृथ्वी से इतनी उँचाई पर पहुँचना ही था | इसके लिए उन्हें कोलंबिया अंतरिक्षयान जैसा कोई साधन चाहिए था जो उस दिन उस समय पर उन सातों लोगों को पृथ्वी से उतनी उँचाई पर पहुँचावे जहाँ ये सातों यात्री अपना जीवनव्रत पूर्ण करें |उन सातों यात्रियों में से  किसी आम आदमी के लिए व्यक्तिगत प्रयत्न के द्वारा उतनी उँचाई पर पहुँच पाना संभव न था |ये घटना प्रकृति योजना के अनुशार ही घटित होनी थी | ये सब कुछ पूर्व निर्धारित था | इसलिए उस दिन उतनी उँचाई पर उन्हें पहुँचाया कैसे जाना है यह सबकुछ भी  प्रकृति योजना में ही सम्मिलित था | उसी के अनुरूप ही सब कुछ घटित होना था | ऐसा होने के लिए जो जो किया जाना आवश्यक था वो सबकुछ उसी प्रकृति योजना में सम्मिलित होने के कारण उसी के अनुशार सब कुछ स्वयं ही होता चला गया |

    उन यात्रियों को 1 फ़रवरी 2003 को पृथ्वी से उतनी उँचाई पर पहुँचना था | इसलिए बचपन से ही उसी प्रकार की मानसिकता बनने लगी और उसी के अनुशार व्यवस्था होने लगी |वैसे प्रयास किए जाने लगे |उसी प्रकार के प्रयासों में उन्हें सफलता मिलती चली गई |कोलंबिया अंतरिक्षयान में जाने के लिए उन्हीं लोगों का चुना जाना ये उसी  योजना का अंग था | प्रकृति के द्वारा उन्हें उस निर्धारित स्थान पर निश्चित समय पर पहुँचाया गया और वह घटना घटित हुई | 

     ऐसा केवल उन्हीं के साथ  नहीं हुआ है अपितु प्रकृति योजना के अनुशार प्रत्येक जीव का जीवन पूरा होते समय जो जो कुछ होना होता है|उसकी तैयारी उसके जन्म लेते ही  शुरू हो जाती है | इसीलिए ऐसे लोगों का जन्म उसी प्रकार के परिवारों में होता है | उसी प्रकार की कार्य तो उसप्रकार के चुनते ही हैं |यहाँ तक कि बचपन में खेल भी उसी के अनुशार खेलते देखे जाते हैं |प्रकृति की उसी योजना के अनुशार उनका स्वभाव बनता जाता है |उसी प्रकार की शिक्षा ग्रहण करना ,उसी प्रकार के प्रयत्नों में सम्मिलित होना आदि | जीवन में ऐसे अनेकों मोड़ आते हैं जहाँ अन्य लोगों का चयन होना मुश्किल होता है किंतु प्रकृति प्रेरणा से जिन्हें सफलता मिलनी होती है उन्हीं का चयन होता है !जिसके परिणाम स्वरूप बहुत बाधाएँ पार करते हुए उन्हें उस दिन उस समय उस स्थान पर पहुँचना संभव हो पाता है जहाँ उनका जीवनव्रत पूर्ण होना होता है |

     प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में  बहुत सारे कार्य करता है और बहुत कुछ करना चाहता है !किंतु उनमें से सफल कुछ ही होते हैं बाकी असफल हो जाते हैं | वही कार्य सफल होते हैं जिनका प्राकृतिक पटकथा (स्क्रिप्ट) क्रम में सफल होना लिखा होता है | प्रश्न उठता है कि उसके  किए या सोचे हुए यदि संपूर्ण कार्य सफल हो जाएँ तो क्या समस्या हो सकती है | इससे दो समस्याएँ पैदा होती हैं पहली तो जो कार्य प्रकृति योजना में सम्मिलित नहीं हैं वे होंगे कैसे और दूसरी बात जो कार्य होने नहीं हैं उनका होना वो व्यक्ति सहेगा कैसे !

     किसी आम के पेड़ में जितने बौर (फूल) लगते हैं | यदि उतने फल बन जाएँ  तो उनका भर वे टहनियाँ सह ही नहीं पाएँगी और टूट कर गिर जाएँगी |इनके विषय में ऐसा सोचना ठीक नहीं है कि तेज हवाएँ चलीं तो बौर झड़ गए इसलिए आम उतना अधिक फल नहीं पाया ! सच्चाई तो ये है कि प्रकृतियोजना के अनुशार उसे उतना अधिक फलना ही नहीं था जितने अधिक फूल लगे थे |यदि उसे इतना अधिक फलना प्रकृतियोजना में सम्मिलित होता तब तो उस आम वृक्ष की शाखाएँ भी तो उसी के अनुरूप बनाई गई होतीं | 

    इसीप्रकार से जो व्यक्ति बहुत सारे कार्य करता है या करना चाहता है !किंतु कुछ में सफल और कुछ में असफल रहता है| इसका आशय यही है कि मनुष्य उन्हीं कार्यों में सफल होता है जितने सह सकता है | प्राकृतिक पटकथा में उन्हीं कार्यों का सफल होना सम्मिलित होता है | 

  प्रकृति के द्वारा जिससे जितने कार्य उससे करवाए जा रहे होते हैं | उसे उतने कार्यों में ही सफलता मिलनी होती है | इसलिए उन कामों को करने का भी कर्ता वो स्वयं नहीं होता है ,प्रत्युत प्रकृति ही होती है | कर्ता यदि मनुष्य होता तब तो उसके द्वारा किए या सोचे गए सभी कार्यों को पूरा होना चाहिए था | ऐसा नहीं हुआ इसलिए संपन्न हुए कार्यों का भी कर्ता वह नहीं है |

     कुल मिलाकर प्रत्येक मनुष्य जितने भी कार्य अनुसंधान,व्यापार आदि करता है उन्हें वो केवल कर ही तो सकता है, किंतु  यह आवश्यक नहीं है कि उसका परिणाम उसकी इच्छा आवश्यकता या लक्ष्य के अनुशार ही आवे !आ भी सकता है और  नहीं भी आ सकता है |किसी भी कार्य का परिणाम कर्ता की इच्छा आवश्यकता या लक्ष्य के अनुशार आते तभी दिखता है जब उसकी इच्छा आवश्यकता या लक्ष्य का चयन प्रकृतियोजना के अनुशार किया गया होता है  !क्योंकि करता जब प्रकृति होती है तब प्रकृति किसी की इच्छा की परवाह नहीं करती है उसे जो करना होता है वही करती है | कर्ता यदि मनुष्य होता तो मनुष्य को भी ऐसा ही  करना पड़ता ! इसलिए सफलता चाहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति का ही अनुगमन करना श्रेष्ठ होता है |

                                        कर्म और उसका परिणाम  

     'कर्मण्येवाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन !' इसका मतलब तो यही होता है कि आपका अधिकार केवल कर्म पर है फल पर नहीं है !

    इसमें विशेष बिचार करने योग्य बात यही है कि जो व्यक्ति कर्म  करता है फल पर यदि अधिकार उसका नहीं है तो किसका है |   

    इसे कुछ ऐसे समझा जा सकता है कि जिसप्रकार से कोई फैक्ट्रीमालिक कुछ कर्मचारियों से कार्य करवाता है तो वो कर्मचारियों को यह नहीं बताना चाहता है कि इस कार्य का परिणाम (फल) क्या होगा !अर्थात इससे लाभ क्या कैसे होगा कितना होगा !उसका प्रयास हमेंशा यही रहता है कि काम करो और जाओ !

    प्रत्येक व्यक्ति के रहने खाने पीने सोने जागने स्वस्थ रहने साँस लेने आदि से संबंधित प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति जो प्रकृति करती है|वही प्रकृति अपनी योजना के अनुशार प्रत्येक व्यक्ति को जिम्मेदारी देती है | जो अपना कर्तव्य समझकर उस व्यक्ति को तब तक करना होता है जब तक प्रकृति चाहती है |  

   किसी भी कर्म का परिणाम क्या होगा ! कब होगा! होगा या नहीं होगा! इस पर कर्म करने वाले का कोई अधिकार नहीं होता !उसे तो केवल कर्म ही करना होता है | यह योजना तो मालिक की होती है वही निर्णय लेता है उसे ही फल मिलता है | इसलिए जो लोग मन में कुछ कामना रखकर कर्म करना शुरू करते हैं जब वैसा नहीं होता है तब उन्हें कष्ट होता है |

       इसप्रकार से इस सृष्टि का प्रत्येक कार्य प्रकृति का है वो प्रकृति योजना के अनुशार ही करना होता है | वो कार्य संपन्न कब होगा ये भी प्रकृति को ही पता होता है | जो लोग अपने को किसी कार्य का कर्ता मानकर कार्य शुरू करते हैं |उसके बाद कर्म करते ही परिणाम की आशा करने लगते हैं |

    हमें याद रखना चाहिए कि  स्विच दबाने से बल्व तो जल जाता है किंतु कर्म के क्षेत्र में ये सिद्धांत लागू नहीं होता है |कर्म करने वाले को कर्म का परिणाम मिलेगा ही ऐसा निश्चित नहीं होता है |जो लक्ष्य बनाकर कार्य किया जाता है वही परिणाम हो ऐसा भी निश्चित नहीं होता है | 

    मनुष्यों के द्वारा किए जाने वाले सभीप्रकार के कार्य, अनुसंधान,व्यापार आदि ऐसे प्रार्थनापत्र की तरह होते हैं जो किसी याचिका के रूप में न्यायालय में दिए जाते हैं|न्यायालय उसे स्वीकार करे या अस्वीकार इस पर याचिकाकर्ता का कोई बश नहीं होता है| न्यायालय भी इतना स्वतंत्र नहीं होता है कि वह मनमाने ढंग से किसी याचिका को स्वीकार या अस्वीकार कर दे |उसे भी यह निर्णय संविधान के अनुशार ही लेना पड़ता है |किसी याचिका के स्वीकार हो जाने का मतलब यह नहीं होता है कि याचिका कर्ता की इच्छा का सम्मान  किया गया है या उसे प्रसन्न किया गया है,अपितु उसकी याचिका संविधान सम्मत होने के कारण स्वीकार की गई होती है |

      इसीप्रकार से प्रकृति योजना होती है जो प्राकृतिक संविधान के आधार पर बनती है |कोई व्यक्ति जिस किसी कार्य,व्यापार, अनुसंधान, आदि को करने का निश्चय करता है | उसका निश्चय यदि प्राकृतिक योजना के अनुरूप होता है तो वो कार्य हो जाता है अन्यथा वो कार्य नहीं होता है| यदि वो कार्य संपन्न होता है तो उसे लगता है कि ऐसा उसने किया है लेकिन ऐसा यदि उसने ही किया होता तो किसी कार्य में सफल और किसी कार्य में असफल होने का प्रश्न ही नहीं होता !क्योंकि फिर तो सफलता अपने ही आधीन होती |इसलिए कोई व्यक्ति असफल नहीं होना चाहता |कार्य का कर्ता यदि वह स्वयं होता तब तो सफल ही होता | 

      प्रत्येक कर्म करने के लिए कोई कर्ता होगा ही ऐसा आवश्यक नहीं होता है |कोई अचानक दुर्घटना घटित हो जाना, किसी का बिना किसी कारण के रोगी हो जाना या बिना किसी कारण के किसी की मृत्यु हो जाना आदि ! प्रकृति और जीवन में ऐसी भी बहुत सारी  घटनाएँ घटित होती हैं | जिन घटनाओं का कर्ता खोजने पर भी नहीं मिलता है |आँधी तूफ़ान बाढ़ बज्रपात जैसी |बहुत सारी घटनाएँ तो ऐसी होती हैं जिन्हें किया जाना मनुष्य के द्वारा संभव ही नहीं होता है ,किंतु प्रकृति योजना में वे भी सम्मिलित होती हैं उसी के अनुशार वे घटित हो रही होती हैं | 

       पूर्वानुमान लगाने का विज्ञान कहाँ है !

   कई विषयों में पूर्वानुमान लगाने की चर्चा सुनी जाती है | पूर्वानुमान का मतलब ही है भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं का पहले पता लगा लेना !जिस प्रकार से जल या धरती के अंदर की चीजें देखने के लिए उस प्रकार के यंत्रों का सहारा लेना पड़ता है जिनसे जल या जमीन के अंदर पड़ी हुई वस्तुएँ देखी जा सकें | इसी प्रकार से भविष्य में घटित होने वाली संभावित घटनाओं को देखने के लिए किसी ऐसे विज्ञान की आवश्यकता है जिससे भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं को देखा जा सकता हो | भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं को देखने के लिए अभी तक कोई विज्ञान ही नहीं है |जिससे भविष्य देखा जा सकता हो |इसके बिना किसी भी घटना के विषय में पूर्वानुमान लगाना संभव ही नहीं है |महामारी हो या मौसम पूर्वानुमान लगाने का विज्ञान न होने के कारण इनके विषय में अभी तक सही सटीक पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सका है |जो लगाए भी जाते हैं वे प्रायः गलत निकल जाते हैं |महामारी विषयक पूर्वानुमान गलत निकल जाने पर यह स्वीकार करने के बजाए कि विज्ञान के अभाव  में महामारी विषयक पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता !महामारी के स्वरूप परिवर्तन के कारण पूर्वानुमान गलत हो गया है !यह कह दिया जाता है | इसी प्रकार से मौसम के विषय में लगाए गए पूर्वानुमान गलत निकल जाने पर पूर्वानुमान लगाने का विज्ञान ही नहीं है ऐसा कहने के बजाए कहा जाता है कि जलवायु परिवर्तन होने के कारण मौसम संबंधी पूर्वानुमान गलत निकल गया | यदि यह स्वीकार ही कर लिया जाए कि पूर्वानुमान लगाने के लिए कोई विज्ञान नहीं है तो बहुत लोगों के अवैज्ञानिक सिद्ध होने का खतरा है |

 कानून के जानकार कुछ संविधानवेत्ता लोग अनेकों विषयों में  न्यायालयों  का निर्णय आने से काफी पहले ही परिणाम के विषय में पूर्वानुमान लगा लिया करते हैं कि किस मुकदमें में कैसा निर्णय आने की संभावना है | उनका अनुमान  प्रायः सही निकलते देखा जाता है |इसमें विशेष ध्यान देने लायक बात यह होती है कि निर्णय सुनाने वाले जजों का पूर्वानुमान लगाने वाले संविधानवेत्ताओं  से न कोई परिचय होता है न कोई बात हुई होती है न कहीं मिलना हुआ होता है | ऐसी स्थिति में यह जानना आवश्यक है कि किस मुकदमें में जज क्या फैसला सुना सकते हैं | इसका सही पूर्वानुमान उन संविधानवेत्ताओं  के द्वारा लगा लेना इसीलिए संभव हो पाता है क्योंकि जिस कानून या संविधान के आधार पर जज फैसला सुनाते हैं उसी कानून या संविधान के आधार पर संविधानवेत्ताओं  के द्वारा  पूर्वानुमान लगाया जाता है |इसीलिए सही निकल जाता है |

    इसीप्रकार से रेलगाड़ियाँ चलाई जाती हैं|कौन ट्रेन किस स्टेशन पर कब आएगी कितने बजे जाएगी | किस किस स्टेशन पर कितनी कितनी देर रुकेगी आदि सभी जानकारी लेने के लिए ट्रेनों के चालकों से मिलकर पूछना आवश्यक नहीं होता है | इसके लिए तो उस रेलवे समय सारिणी को पढ़ना आवश्यक होता है|

     जिस रेलवे समय सारिणी के आधार पर ट्रेनों का संचालन किया जाता है,उसी रेलवे समय सारिणी को पढ़कर ट्रेनों को देखे बिना भी इस बात का अनुमान या पूर्वानुमान लगाया जा सकता है कि कौन ट्रेन किस स्टेशन पर कितने बजे आएगी कितने बजे जाएगी | किस किस स्टेशन पर कितनी कितनी देर रुकेगी |

    जिस प्रकार से जजों से बात किए बिना भी जजों के द्वारा सुनाए जाने वाले संभावित फैसले के विषय में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है ,तथा किसी ट्रेन को देखे बिना भी रेलवे समय सारिणी को पढ़कर उसके विषय में महीनों पहले पूर्वानुमान लगाया जा सकता है | उसीप्रकार से प्राकृतिक घटनाओं के घटित होने का भी कोई न कोई संविधान अवश्य होता होगा जिसके अनुशार महामारी भूकंप चक्रवात बज्रपात बाढ़ जैसी हिंसक घटनाएँ घटित होती हैं |उसी प्राकृतिक संविधान को पढ़कर ऐसी घटनाओं के घटित होने के विषय पूर्वानुमान लगाया जा सकता है | कब वर्षा होगी कब नहीं होगी इसके विषय में भी उसी प्राकृतिकसंविधान को पढ़कर घटनाओं को घटित होते देखे बिना भी पूर्वानुमान लगाया जा सकता है | 

     जिस प्रकार से उपग्रहों रडारों के माध्यम से बादलों आँधी तूफानों को देखकर उनकी दिशा एवं गति के आधार पर अंदाजा लगाया जाता है कि ये बादल या आँधी तूफ़ान कब कहाँ पहुँच सकते हैं | इस जुगाड़ से कई बार कुछ मदद भी मिलते देखी जाती है ,किंतु ये पूर्वानुमान इसलिए नहीं कहे जा सकते हैं क्योंकि जिस घटना को किसी भी रूप में या किसी भी यंत्र की मदद से किसी एक स्थान पर घटित होते देख ही लिया गया हो उसके विषय में लगाया गया कोई अंदाजा पूर्वानुमान नहीं होता | जिस घटना ने किसी भी रूप में कहीं भी जन्म ही न लिया हो उसके विषय में लगाया गया कोई भी अंदाजा पूर्वानुमान हो सकता है |

    जिस प्रकार से जज को देखकर या उससे मिलकर किसी जजमेंट के विषय में पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है | किसी ट्रेन को देखकर उसके विषय में कोई पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है | उसी प्रकार से किसी प्राकृतिक घटना को देखकर उसके विषय में पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं हो सकता है | बादलों एवं आँधी तूफानों को देखकर वर्षा एवं आँधी तूफानों का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है | धरती के अंदर घुसकर भूकंप के विषय में पूर्वानुमान  नहीं लगाया जा सकता | महामारी के समय संक्रमितों के आधार पर महामारी के विषय में पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है |

 

उसी प्रकार से बादलों एवं आँधी तूफानों को देखे बिना भी वर्षा एवं आँधी तूफानों के विषय में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है | महामारी आने से पहले महामारी आने के विषय में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है |

    ऐसा इसीलिए होता है क्योंकि जिस सैद्धांतिक संविधान के अनुशार न्यायालयों में निर्णय लिया जाता है | उसी संविधान के आधार पर वे पूर्वानुमान लगा रहे होते हैं |

इसके लिए वे न्यायाधीशों से कोई बिचार विमर्श नहीं करते हैं कि इस विषय में आप क्या निर्णय लेने वाले हैं | ऐसा किए बिना ही
   ऐसे विषय में पूर्वानुमान लगाया जाना इसलिए भी आसान हो जाता है ,क्योंकि इसका सिद्धांत संविधान आदि उन्हें पहले से पता होता है उन्होंने पढ़ रखा होता है |

     कई घटनाओं का न्यायालय स्वतः संज्ञान ले लेता है | महामारी भूकंप चक्रवात बज्रपात वर्षा बाढ़ आदि घटनाएँ  एवं ऋतुएँ तथा ऋतुध्वंस जैसी घटनाएँ घटित तो होती हैं किंतु इनके घटित होने का कारण क्या है ?ये किसी को नहीं पता है  के घटित होने जैसे कुछ काम होते हैं ऐसी घटनाओं के घटित होने का कारण क्या है | 

घटनाएँ कुछ काम किए जाते हैं जो काम किए जाते हैं उनमें भी कुछ काम होते हैं और कुछ नहीं भी होते हैं |

 

     महामारी भूकंप चक्रवात बज्रपात वर्षा बाढ़ आदि घटनाएँ  एवं ऋतुएँ तथा ऋतुध्वंस जैसी घटनाएँ घटित तो होती हैं किंतु इनके घटित होने का कारण क्या है ?ये किसी को नहीं पता है  के घटित होने जैसे कुछ काम होते हैं ऐसी घटनाओं के घटित होने का कारण क्या है | 

घटनाएँ कुछ काम किए जाते हैं जो काम किए जाते हैं उनमें भी कुछ काम होते हैं और कुछ नहीं भी होते हैं |

 

कुछ काम हो जाते हैं|कुछ काम जब किए जाते हैं और कुछ काम होते हैं|जो काम हम करते हैं या कोई दूसरा करता है ऐसा पता होता है उसके विषय में तो करना शब्द का प्रयोग करते हैं और जब हम करता के विषय में नहीं जानते हैं तब हम होना शब्द का प्रयोग करते हैं | 'इस मंदिर में इतने बजे आरती होती है !' 'कथा हो रही है' 'उत्सव हो रहा है' 'विवाह हो रहा है' | इनमें कर्ता का प्रयोग न होने से ऐसा लगता है कि ये घटनाएँ अपने आप से घटित हो रही हैं ,जबकि इनका कोई न कोई कर्ता तो होता है |जिसने इस कार्य की योजना बनाई है |उससे यदि मिलना संभव हो तो उससे  पूछ कर यह पता किया जा सकता है कि ये कार्यक्रम क्यों आयोजित किया गया है, ये कब से चल रहा है !  'कब तक चलेगा 'आदि आदि ! यदि कर्तासे मिलना संभव न भी हो तो ट्रैन की समय सारिणी की तरह कार्यक्रम के विषय में कर्ता के द्वारा घोषित प्रपत्र पढ़कर भी कार्यक्रम के विषय में सारी जानकारी जुटाई जा सकती है और  उससे संबंधित पूर्वानुमान भी लगाए जा सकते हैं |  

     महामारी भूकंप चक्रवात बज्रपात वर्षा बाढ़ आदि घटनाएँ  एवं ऋतुएँ तथा ऋतुध्वंसों के घटित होने के विषय में करता पता ही नहीं है बिना करता के क्रिया होती ही नहीं है | इसलिए कर्ता मिले या उसके द्वाराघोषित प्रपत्र

     इसी प्रकार से 'वर्षा होती है', 'आँधी तूफान आते हैं','भूकंप आते हैं' 'बाढ़ आती है' 'सुनामी आती है'  

 पृथ्वी अग्नि आकाश जल में गति नहीं है

 

जब कर्ता होता नहीं है या हम करता शब्द का प्रयोग नहीं करते हैं तब उस कार्य को किए जाने की जगह 'होना' कहने लगते हैं | 


 उनके

प्रकृति परमेश्वर की योजनाशक्ति ही है

 

तभी होते हैं ,इनमें करना और होना दोनों महत्वपूर्ण होता है |

 

जैसे किसी स्त्री पुरुष के संयोग से ही किसी बच्चे का जन्म हो सकता है | उसका शरीर निर्माण करने के लिए दो शरीरांशों की आवश्यकता होती ही है ,किंतु उन दोनों शरीरांशों की संयुक्त प्रक्रिया पूर्ण होने पर भी गर्भ धारण होगा या नहीं, गर्भ सुरक्षित रहेगा या नहीं ! ये कार्य उस प्रकृति योजना के अनुशार संपन्न होता है | उसशरीर में प्राण संचार करके उसे सजीव बनाए एवं बचाए रखने का काम उस योजनाशक्ति  का ही है |

या यूँ कह लें कि जब वे होने लगते हैं उसी समय हम उन्हें करना शुरू करते हैं | ऐसा कार्य जब हो जाता  है तब हम उसे भ्रमवश अपना किया हुआ मान लेते हैं | कुछ कार्य करने से ही होते हैं |

कोई कार्य तभी संपन्न हो पाता है जब किसी  काम को करने वाली और  किसी काम के होने देने वाली दोनों शक्तियाँ उस कार्य की संपन्नता में एक दूसरे की सहायक हों | दोनों के सहयोग से ही कोई काम बनता है | इसमें विशेष ध्यान देने वाली बात यह भी है कि होने वाली शक्ति के सहयोग की उपेक्षा करके जो कार्य किए जाते हैं वे असफल होते हैं और होने वाली शक्ति को साथ लेकर जो कार्य  किए जाते हैं वे सफल ही होते हैं | 

     किसी काम के करने और होने देने में दो शक्तियाँ लगी होती हैं | इन दोनों में अधिक शक्तिशाली कौन है | ऐसा सोचे जाने पर लगता है कि काम करने की जिम्मेदारी सँभाल रही शक्ति काम कर तो सकती है किंतु  वो कार्य होगा ही ऐसा निश्चित नहीं होता है ,जबकि होने देने की जिम्मेदारी सँभाल रही शक्ति काम करने वाले के बिना भी कार्य संपन्न करते देखी जाती है | कार्य करने वाले की इच्छा के विरुद्ध भी कार्य कर देती है |काम करने वाले के प्रयासों के विरुद्ध भी कार्य को अपने अनुशार सफल करती है | कार्य करने वाली शक्ति भी इस सच्चाई को बेहिचक स्वीकार करती है कि किसी कार्य को हमारे कर देने के बाद भी संपन्न हुआ तब तक नहीं माना जा सकता है जब तक  कार्य को संपन्न करने वाली शक्ति की स्वीकृति न मिल जाए |

      कई रोगी हैं जिनकी चिकित्सा या आपरेशन आदि एक बार कर देने के बाद चिकित्सक अपना कार्य पूरा मान लेता है | उसके बाद भी कई लोग स्वस्थ नहीं हो पाते ! उनकी या तो मृत्यु हो जाती है या फिर  अस्वस्थ बने रहते हैं | कुछ लोग कोमा में चले जाते हैं |इसका मतलब कार्य करने वाली शक्ति ने तो अपना काम  कर दिया किंतु किसी काम को होने देने वाली शक्ति की योजना में इस कार्य का होना सम्मिलित ही नहीं था | इसलिए कार्य नहीं हुआ | 

    ऐसे  ही कई पति पत्नी पूरी तरह स्वस्थ होते हैं इसके बाद भी उन्हें संतान नहीं होती !कुछ लोग बाढ़ में बह जाते हैं | भूकंप आने के बाद मलबे में दबे रह जाते हैं ऐसी स्थिति में भूखे प्यासे कई कई सप्ताह बीत जाते हैं |कई  बार कुछ लोग किसी बड़ी दुर्घटना का शिकार हो जाते  हैं | इसके बाद भी जीवित एवं सुरक्षित निकलते हैं | इसका कारण उस होने देने वाली शक्ति कार्य योजना में ऐसे लोगों की मृत्यु होना सम्मिलित नहीं था | इसलिए उनकी मृत्यु नहीं होती है | जंगलों में बड़ी बड़ी दुर्घटनाओं का शिकार हुए मनुष्य पशु पक्षी आदि बिना चिकित्सा के भी  स्वस्थ होते देखे जाते हैं |उनका  स्वस्थ होना उस शक्ति की कार्य योजना में सम्मिलित है | इसलिए उन्हें  स्वस्थ होना ही होता है |    

     वस्तुतः हम जिस कार्य को जैसा करना चाहते हैं उसके लिए वैसा ही प्रयत्न करते हैं यदि वो सफल होता है तो हम उसका श्रेय अपने आपको देते हैं किंतु हमारे प्रयत्न करने के बाद  भी यदि वो कार्य नहीं होता है तो हम उसके लिए समय भाग्य कुदरत या किसी दूसरे व्यक्ति को उस  कार्य के बिगड़ने का कारण बताकर उससे द्वेष करने लग जाते हैं | सच्चाई यही है कि उसशक्ति की  कार्ययोजना में उस कार्य  का बनना या बिगड़ना, होना या न होना जैसा निर्धारित था वैसा ही हुआ है |ऐसा माना जाना चाहिए | मनुष्यों के जीवन से जुड़ी सफलता असफलता सुख दुःख की ऐसी अनेकों  घटनाएँ होती हैं | जिनमें मनुष्य अपने को सम्मिलित मानकर सफल असफलमानकर सुखी या दुखी होता है | वैज्ञानिक लोग कोई प्रयोग जिस प्रकार से एक बार करते हैं उसी प्रकार से दूसरी बार करते हैं | जिसमें  एक बार सफल और दूसरी बार असफल हो जाते हैं | इसका कारण मनुष्य का प्रयत्न तो दोनों बार एक जैसा ही था किंतु उस शक्ति कार्य योजना में कार्य का होना एक बार ही सम्मिलित था |किसी एक ही  कार्य व्यापार में बहुत अनुभवी लोग एक बार सफल और दूसरी बार असफल होते देखे जाते हैं,जबकि कार्य करने का अनुभव संसाधन एवं कार्य के लिए आवश्यक सहयोगी संपर्क आदि तो पहले से ज्यादा  दूसरी  बार हो जाते हैं | इसलिए दूसरी बार तो अधिक एवं आसानी से सफलता मिलनी चाहिए थी,किंतु ऐसा न होने का कारण उस कार्य योजना में  तो सफल होना सम्मिलित था किंतु दूसरी बार सफल होना उस कार्य योजना में सम्मिलित नहीं था | कोरोना काल  देखें जिन परिस्थितियों में रहते कुछ लोग संक्रमित हो रहे थे उन्हीं परिस्थितियों में रहते बहुत लोग संक्रमित नहीं भी हो रहे थे | कुछ लोग कई कई बार वैक्सीन लेने के बाद भी संक्रमित हो रहे थे ,जबकि कुछ लोग एक बार भी वैक्सीन न लेने के बाद भी  स्वस्थ बने रहे |    

     महामारी भूकंप चक्रवात बज्रपात वर्षा बाढ़ आदि घटनाएँ  एवं ऋतुएँ तथा ऋतुध्वंस आदि उसी कार्य करने वाली शक्ति  की योजना के अनुरूप ही घटित होता है | ऐसी घटनाओं का  तो कर्ता कोई नहीं होता है |कर्ता के अभाव में भी तो ये उसी शक्ति  की योजना के अनुरूप घटित होती हैं |
     कुलमिलाकर उस शक्ति  की कार्य योजना में जिस कार्य का जब जैसा होना निर्धारित होता है वो उस समय वैसा ही होता है |उसके अतिरिक्त जो  कुछ भी किया जाएगा वो कार्य असफल हो जाएगा | भगवद

 

 

ही नहीं  इसी  समय में जो कोई उसी प्रकार का कार्य करने के लिए प्रयत्न करता आ  रहा होता है उसे लगता है कि ये कार्य उसने किया है जबकि वो कार्य अपने आपसे हुआ होता है | उसके अतिरिक्त जो जो कुछ किया जाएगा वो सफल ही नहीं होगा |   

साथ एक  विषय में अनुसंधान करने के लिए ये  दोनों बातें समझना आवश्यक हैं !

जिसके द्वारा काम किया

 

 कुछ काम हम करते हैं या जैसे करना चाहते हैं वे वैसे नहीं होते हैं तो  कुछ काम जैसे हो रहे होते हैं वैसे न हम करना चाहते हैं और न होने देना चाहते हैं और उन्हें होने से रोकने के लिए बहुत प्रयत्न करते हैं इसके बाद भी वे रुकते नहीं हैं अपितु  होते ही हैं | इनका कारण खोजना होगा |

    इसलिए  ईश्वर की आज्ञा समझ कर काम करते जाना है | जो भी व्यक्ति अपने जीवन का एक भी क्षण व्यर्थ करता है वो ईश्वर के दिए हुए समय की चोरी करता है | ऐसा मानना चाहिए | इसलिए हमारे द्वारा किया गया प्रत्येक कार्य अपने ज्ञान गुण कला शरीर संपत्ति एवं संसाधनों का सदुपयोग करना मात्र है |जो ऐसा नहीं करते उन्हें इनका श्रेय नहीं मिलता है |

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